ब्रिटिश काल में हस्तशिल्प (Handicrafts in British Era)
भारत में ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का रूपांतरण औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में कर दिया तथा विऔद्योगीकरण भी इसी औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का एक पहल था।
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भारत में विऔद्योगीकरण का अर्थ था – परंपरागत भारतीय उद्योगों का विनाश अर्थात् ग्रामीण एवं हस्तशिल्प उद्योगों का पतन।
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ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में कुटीर एवं हथकरघा उद्योग विकसित अवस्था में था। कपड़ा उद्योग उन्नत अवस्था में था तथा इसकी पूरे विश्व में मांग थी। इसी प्रकार यहाँ धातुकर्म, प्रस्तर शिल्प, कसीदाकारी तथा चीनी मिट्टी से बर्तन बनाने के उद्योग भी काफी अच्छी स्थिति में थे।
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संरचनात्मक रूप से भारत में विऔद्योगीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत 1813 ई. से होती है, जब भारत के व्यापार से ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार की समाप्ति हुई।
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भारत में मुक्त व्यापार नीति ने विदेशी सामान का भारत में प्रवेश आसान कर दिया,
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वहीं 1820 के पश्चात् यूरोपीय बाजार भारतीय उत्पादों के लिये लगभग बंद हो गए।
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इंग्लैंड में इस समय तक औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी जिससे वहाँ अतिशय उत्पादन की स्थिति थी। मशीनों से निर्मित ये वस्त्र भारत के विभिन्न क्षेत्रों में रेलों के द्वारा पहुँचाए जाने लगे। चूँकि ये उत्पाद भारत में निर्मित उत्पादों की अपेक्षा सस्ते थे, अतः भारतीय वस्तुएँ विदेशी प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर पाईं। दूसरी तरफ देशी राज्यों पर अंग्रेजों द्वारा नियंत्रण स्थापित कर लेने के पश्चात भारतीय दस्तकारों के संरक्षक भी उनका साथ नहीं दे पाए। साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई जा रही सामाजिक एवं शैक्षणिक नीतियों ने भारतीय जनता की रुचि में भी परिवर्तन किया, जो कि अंग्रेज़ी फैशन का अनुसरण करने लगे।
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राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी के प्रवेश से स्वदेशी वस्तुओं के, प्रयोग को बढ़ावा मिला। बंगाल विभाजन ने भी स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को अत्यधिक प्रोत्साहित किया। इन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग से स्वतंत्रता आंदोलन को जोड़ा तथा विशेषकर खादी के उपयोग को बढ़ावा दिया।