शाहजहाँ
प्रारंभिक जीवन व राज्याभिषेक
- शाहजहाँ का जन्म लाहौर में 1592 ई. को मारवाड़ के राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाईं (जोधाबाई) के गर्भ से हुआ था।
- शाहजहाँ के बचपन का नाम ‘खुर्रम‘ था।
- दक्षिण भारत में अहमदनगर के वज़ीर मलिक अंबर के विरुद्ध सफलता से खुश होकर जहाँगीर ने खुर्रम को शाहजहाँ की उपाधि प्रदान की।
- शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. में नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ की पुत्री ‘अर्जुमंदबानो बेगम’ से हुआ था, जो इतिहास में ‘मुमताज महल’ के नाम से विख्यात हुई। शाहजहाँ ने इन्हें ‘मल्लिका-ए-जमानी’ की उपाधि दी थी।
- 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के बाद मुगल इतिहास में पहली बार उत्तराधिकारी के मुद्दे पर खुर्रम (शाहजहाँ) और राजकुमार शहरयार के मध्य युद्ध हुआ। अंततः युद्ध में विजयी होने के बाद उसने सत्ता ग्रहण की।
- 1628 ई. को शाहजहाँ ‘अबुल मुज़फ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’ की उपाधि धारण करके गद्दी पर बैठा। आगरा में शाहजहाँ का राज्याभिषेक किया गया।
शाहजहाँकालीन प्रमुख विद्रोह
बुंदेला राजपूतों का विद्रोह
- शाहजहाँ के शासनकाल में 1628 ई. में बुंदेला सरदार जुझर सिंह के नेतृत्व में बुंदेलों ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
- शाहजहाँ ने स्वयं इस अभियान का नेतृत्व किया। अंतत: 1629 ई. में जुझर सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। जुझर सिंह ने पाँच वर्ष तक वफ़ादारी से मुगल बादशाह की सेवा की और दक्षिण के युद्धों में भाग लिया। 1634 ई. में वह अपनी राजधानी ओरछा वापस चला गया।
- 1635 ई. में जुझर सिंह ने गोंडवाना पर आक्रमण कर उसकी राजधानी चौरागढ़ को जीत लिया तथा शासक प्रेमनारायण को मार दिया। एक अधीनस्थ शासक दूसरे अधीनस्थ शासक पर बिना बादशाह की आज्ञा के आक्रमण करे यह मुगल नीति के अनुसार अपराध था। अतः शाहजहाँ ने उसे गोंडवाना के बराबर जागीर देने को कहा जिसे मानने से जुझर सिंह ने इनकार कर दिया। अंततः मुगल सेना ने औरंगजेब के नेतृत्व में आक्रमण किया। 1635 ई. में यह विद्रोह समाप्त हो गया।
- औरंगजेब की यह पहली राजनैतिक विजय थी और पहली बार उसने यहाँ मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण करवाया।
नोटः बुंदेलों का सबसे प्रभावी विद्रोह औरंगजेब के शासन काल में छत्रसाल के नेतृत्व में हुआ था।
खान-ए-जहाँ लोदी का विद्रोह
- शाहजहाँ के शासनकाल में एक अन्य विद्रोह उसके अफगान सूबेदार ‘खान-ए-जहाँ लोदी’ ने किया था।
- खान-ए-जहाँ लोदी दक्कन का सूबेदार था। इसने बुंदेला विद्रोह दबाने में शाहजहाँ का साथ दिया था।
- शाहजहाँ ने खान-ए-जहाँ (खानजहाँ) को दरबार में आने का आदेश दिया। दरबार में पहुँचने के बाद वो सम्मान प्राप्त नहीं हुआ जो जहाँगीर के समय में उसे प्राप्त होता था। अपने जीवन के खतरे को भाँपते हुए खान-ए-जहाँ, बादशाह की आज्ञा के बिना दक्षिण की ओर भाग खड़ा हुआ।
- शाही सेना ने उसका पीछा किया, चंबल नदी के किनारे युद्ध हुआ लेकिन खान-ए-जहाँ भाग कर अहमदनगर पहुँच गया।
- अंततः 1631 ई. में खान-ए-जहाँ मारा गया और उसी के साथ विद्रोह समाप्त हो गया।
पुर्तगालियों का विद्रोह
- पुर्तगाली बंगाल में लंबे समय से व्यापार कर रहे थे। मुगल बादशाह की तरफ से उनको नमक के व्यापार का एकाधिकार दिया गया था।
- कालांतर में पुर्तगाली मुगल बादशाह के लिये समस्या उत्पन्न करने लगे। उन्होंने भारतीयों को जबरदस्ती ईसाई बनाना प्रारंभ कर दिया और बाजारों में लूटमार प्रारंभ कर दी।
- शाहजहाँ ने 1632 ई. उनके विद्रोह को दबाने का आदेश दिया। अंततः लगभग चार माह के बाद हुगली पर अधिकार कर लिया गया।
सिख विद्रोह
- 1628 ई. में शाहजहाँ के शासन काल के आरंभ में ही एक साधारण घटना से सिखों और शाहजहाँ के बीच शत्रु-भाव उत्पन्न हो गया। कारण सिर्फ यह था कि शाहजहाँ का प्रिय बाज उड़कर गुरु हरगोबिंद (6वें सिख गुरु) के खेमे में चला गया जिसे गुरु ने देने से इनकार कर दिया। गुरु हरगोबिंद के कुछ मित्र बादशाह के दरबार में थे, उन्होंने समझा-बुझाकर झगड़े को शांत किया।
- मुगलों और सिखों के बीच दूसरा झगड़ा गुरु हरगोबिंद द्वारा श्री गोबिंदपुर नामक एक नगर बसाने को लेकर हुआ। गुरु गोबिंद को आज्ञा दी कि वह नगर-निर्माण को बंद करे। उनके इनकार करने पर आक्रमण किया गया, परंतु इस बार फौजदार अब्दुल्लाह खाँ की सेना परास्त हुई।
- गुरु हरगोबिंद से मुगलों का तीसरा झगड़ा इस कारण हुआ कि बीधीचंद्र नामक एक कुख्यात डकैत ने (जो गुरु हरगोबिंद का शिष्य था) शाही घुड़साल से दो बहुत अच्छे घोड़े चुरा कर गुरु को भेंट किये और गुरु ने स्वीकार कर लिये। एक शक्तिशाली मुगल सेना गुरु हरगोबिंद के विरुद्ध भेजी गई। इस बार भी मुगलों की हार हुई। लेकिन जल्द ही गुरु हरगोबिंद को युद्धों की निरर्थकता समझ में आ गई और अपने नए उभरते सिख धर्म के विकास व रक्षा के लिये कीरतपुर (जो कि कश्मीर की पहाड़ियों में स्थित था) जाकर बस गए। इस प्रकार शाहजहाँ के काल के दौरान मुगल व सिख धर्म के बीच तनाव उत्पन्न हुआ।
साम्राज्य विस्तार (दक्षिण भारत)
अहमदनगर
- अकबर व जहाँगीर की साम्राज्यवादी नीति को शाहजहाँ ने भी आगे बढ़ाया।
- माना जाता है कि जब खान-ए-जहाँ लोदी ने विद्रोह किया था तो दक्षिण भारत में अहमदनगर के शासक मुर्तजा निज़ाम शाह ने उसकी सहायता की थी। मुगलों को अहमदनगर पर आक्रमण के लिये यह बहाना पर्याप्त था।
- शाहजहाँ ने महाबत खाँ के नेतृत्व में अहमदनगर पर आक्रमण किया और अंततः 1633 ई. तक उसे जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया तथा सुल्तान हुसैन शाह को ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया।
गोलकुंडा
- अहमदनगर को साम्राज्य में मिलाने के बाद शाहजहाँ ने गोलकुंडा पर दबाव डाला। अंतत: 1636 ई. में गोलकुंडा के शासक शेख अब्दुल्ला कुतुबशाह ने मुगलों से संधि कर ली।
- गोलकुंडा पर अधिकार हो जाने के बाद शाहजहाँ औरंगजेब को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त करके दिल्ली चला गया।
- कालांतर में गोलकुंडा के वज़ीर मुहम्मद सईद (मीर जुमला) ने शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेंट किया था।
- बीजापुर ने हमेशा से ही मुगलों के विरुद्ध अहमदनगर को सहायता प्रदान की। यह कार्य मुगल सत्ता की अवहेलना थी। परिणामतः बीजापुर का शाह अपनी राजधानी में आसफ खाँ द्वारा घेर लिया गया। हालाँकि बीजापुर को मराठा सैनिकों की सहायता के कारण मुगल सेना का घेरा उठा लेना पड़ा और फिलहाल अभी बीजापुर का राज्य बच गया।
- 1636 ई. में बीजापुर के अपने दूसरे अभियान में शाहजहाँ स्वयं दौलताबाद गया। 1636 ई. तक बीजापुर अपनी पुरानी ताकत खो चुका था।
- बीजापुर के शासक मुहम्मद आदिलशाह का नियंत्रण अपने सरदारों पर पूर्णरूपेण नहीं था। इसी समय शाहजहाँ ने बीजापुर पर आक्रमण किया।
- अंततः 1636 ई. में बीजापुर ने मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया। उसी वर्ष गोलकुंडा ने भी मुगलों से संधि कर ली और शाहजी भोंसले ने मुगलों से संधि करके बीजापुर की सेवाएँ स्वीकार कर ली।
- 1636 का समय मगलों की दक्षिण-नीति के संबंध में महत्त्वपूर्ण था।
नोटः ध्यातव्य है कि औरंगजेब को दो बार दक्षिण का सूबेदार बनाया गया था। प्रथम बार-1636-44 ई. तक, द्वितीय बार-1653-56 ई. तक।
- शाहजहाँ का दक्षिण अभियान सफल माना जाता है।
मध्य एशिया व उत्तर-पश्चिम अभियान
कंधार
- जहाँगीर के समय में 1622 ई. में कंधार मुगलों के अधिकार से निकलकर ईरानियों के हाथ में जा चुका था।
- 1638 ई. में कंधार किलेदार अलीमर्दान खाँ ने ईरान के शाह के डर से कंधार का दुर्ग मुगलों को सौंप दिया। इस प्रकार कंधार पुनः मुगलों को प्राप्त हो गया।
- 1648 ई. में शाह अब्बास द्वितीय (ईरान का शाह) ने कंधार पर आक्रमण किया, उस समय कंधार का मुगल गवर्नर दौलत खाँ था। काबुल (मुगल सैन्य केंद्र) से इससे पहले कि किले को कोई सहायता पहुँच पाती, उस पर शाह अब्बास ने अधिकार कर लिया।
- 1649 ई. में औरंगजेब के नेतृत्व में मुगल सेना कंधार पहुँची, लेकिन वह असफल रही।
- 1652 ई. में औरंगज़ेब को पुनः कंधार जीतने के लिये भेजा गया। इस बार भी वह असफल रहा।
- 1653 में कंधार का एक अभियान दाराशिकोह के नेतृत्व में भी किया गया, किंतु दाराशिकोह द्वारा कंधार को जीतने का प्रयत्न भी असफल रहा।
नोट: 1649 से कंधार हमेशा के लिये भारत से छिन गया।
बल्ख अभियान
- शाहजहाँ को काबुल पर बार-बार होने वाले उज्बेक हमलों तथा बलूच एवं अफगान कबीलों के साथ उनकी साजिश की चिंता थी।
- इस समय बुखारा और बल्ख दोनों नज़र मुहम्मद के अधिकार में था।
- नज़र मुहम्मद का पुत्र अब्दुल अज़ीज़ अपने पिता के ख़िलाफ़ विद्रोह कर बुखारा को अपने अधिकार में ले लिया।
- नज़र मुहम्मद ने शाहजहाँ से सहायता की अपील की, बादशाह ने तत्परता से उसकी सहायता में मुराद के नेतृत्व में मुगल सेना भेज दी। परंतु मुराद की अदूरदर्शिता की वजह से नज़र मुहम्मद को बल्ख छोड़कर भागना पड़ा और मुगलों का बल्ख पर अधिकार हो गया।
शाहजहाँ की दक्कन/दक्षिण नीति
- मुगलों की दक्कन नीति में वास्तविक परिवर्तन शाहजहाँ के काल में होता है, जिसके लिये उसके अधिकारी ‘खान-ए-जहाँ’ लोदी का विद्रोह और इस विद्रोह को अहमदनगर द्वारा समर्थन विशेष रूप से ज़िम्मेदार रहा।
- गौरतलब है कि शाहजहाँ की दक्कन नीति का मुख्य उद्देश्य दक्षिण में मुगल प्रदेशों पर नियंत्रण बनाए रखना और अहमदनगर को नष्ट करना था।
- शाहजहाँ ने 1636 ई. में बीजापुर और गोलकुंडा से संधि की, जिसके तहत बीजापुर को अहमदनगर का कुछ क्षेत्र (लगभग एक-तिहाई क्षेत्र) दे दिया गया और संघर्ष-स्थिति में (बीजापुर और गोलकंडा के बीच) निर्णय का अधिकार अपने पास रखा।
- इस संधि को शाहजहाँ ने स्वयं स्वीकृति प्रदान की थी लेकिन 1656 में उसने इस संधि को तोड़ दिया। फलतः दक्कन की समस्या पैदा हुई।
- दक्कन के संदर्भ में शाहजहाँ द्वारा संधि तोड़ने के मुख्यतः दो कारण थे
- पहला मध्य एशिया के अभियान में एक बड़ी राशि खर्च हो गई थी, जिसे पूरा करना ज़रूरी था।
- मराठा नेता शाहजी भोंसले का बीजापुर में और मीरजुमला का गोलकुंडा में प्रभाव बढ़ रहा था, जो मुगलों को चुनौती दे रहे थे।
धार्मिक और राजपूत नीति
- 1632 ई. में शाहजहाँ अपने पिता के शासन काल में बनवाए गए मंदिरों को तोड़ने का आदेश देता है तथा मुस्लिम कन्याओं का हिंदुओं से विवाह निषिद्ध कर देता है।
- खंभात के निवासियों की प्रार्थना पर वहाँ गोवध पर रोक लगा देता है।
- अकबर द्वारा मुगल काल में अपनाई गई सिजदा को समाप्त कर चहार-ए-तसलीम की परंपरा शुरू की।
- अकबर द्वारा आरंभ ‘इलाही संवत‘ की जगह पुनः ‘हिजरी संवत’ को अपनाता है।
- चित्तौड़ के राजा जगत सिंह ने जब किले की मरम्मत कराई तो संधि तोड़े जाने के आरोप में शाहजहाँ चित्तौड़ पर आक्रमण कर देता है और माफी मांगने व क्षतिपूर्ति के बाद उसे छोड़ देता है।
- शाहजहाँ ने किसी भी राजपूत को सूबेदार का पद नहीं दिया। अपवाद स्वरूप राजा रघुनाथ को ‘शाही-दीवान‘ जैसा महत्त्वपूर्ण पद दिया गया।
नोट: शाहजहाँ का दरबारी कवि पहले कुदसी था, परंतु बाद मेंअबुकालीन हो गया।
- शाहजहाँ का दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी था। वस्तुतः उसके समय इतिहासकार थे- कादिरी, लाहौरी व वारिश।
- कृषि विकास के लिये शाहजहाँ ने सिंचाई व्यवस्था पर ध्यान दिया और ‘फैज’ नामक नहर खुदवाई तथा एक दूसरी नहर ‘नहर-ए-साहिब’ को 60 मील लंबी कराकर उसका नाम ‘नगर-ए-शाह‘ रखा।
- अकबर की ‘आइन-ए-दहशाला‘ में परिवर्तन कर ईजारेदारी या ठेकेदारी प्रथा को अपनाया।
- शाहजहाँ ने कोहिनूर हीरा जड़ित ‘तख्त-ए-ताउस’ का निर्माण कराया, जिसे बेग बादल खाँ के नेतृत्व में तैयार किया गया।
- पंडित जगन्नाथ को शाहजहाँ ने ‘महाकवि राय’ की उपाधि दी जिसने ‘गंगालहरी’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।
- बनारस के विद्वान कविंद्राचार्य के अनुरोध पर विशेष अवसरों पर उसने वहाँ तीर्थकर समाप्त कर दिया।
- शाहजहाँ के शासन काल में साम्राज्य में पड़े भीषण अकाल की चर्चा लाहौरी व विदेशी यात्री पीटर मुंडी ने की है।
- शाहजहाँ ने प्रतिष्ठित विद्वान सादुल्लाखाँ को दीवान के रूप में नियुक्त किया।
- शाहजहाँ ने कश्मीर को लाहौर से ,थट्टा को मुल्तान से ,उड़ीसा को बंगाल से अलग कर 3 नए सूबे बनाए जिससे मुगल साम्राज्य में सूबों की संख्या 18 हो गई।
- शाहजहाँ ने मुगल साम्राज्य की राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की तथा शाहजहाँनाबाद नगर की स्थापना की।
- शाहजहाँ के समय को स्थापत्य कला का स्वर्णयुग कहा जाता है।
उत्तराधिकार का संघर्ष – दारा शिकोह + शाहशुजा + औरंगजेब + मुराद
- दारा शिकोह, शाहशुजा, औरंगजेब तथा मुराद शाहजहाँ के चार पुत्र थे।
- उत्तराधिकार की लड़ाई शाहजहाँ के जीवन काल में ही शुरु हो गई। सितंबर 1657 ई. में शाहजहाँ की बीमारी से लेकर अगले एक साल तक उत्तराधिकारी का संघर्ष चलता रहा।
- शाहजहाँ के चारों पुत्र एक ही माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, तथापि वे सिंहासन के लिये अपना अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं थे। इस समय दारा पंजाब, मुराद गुजरात, औरंगजेब दक्षिण भारत और शाहशुजा बंगाल का राज्यपाल था।
- इन चारों पुत्रों में दारा अपने पिता का विश्वासपात्र था और वह पिता के साथ आगरा में ही अधिकांश समय रहता था। यही कारण है कि शाहजहाँ जब बीमार हुआ, तब उसने दारा शिकोह को शासक नियुक्त किया और कहा कि मेरी अनुपस्थिति में यही शासन का संचालन करेगा और बाद में उसे अप्रत्यक्ष रूप से उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया था।
- शाहजहाँ की चिंताजनक बीमारी की सूचना जब अन्य राजकुमारों के पास पहुँची तो सर्वप्रथम शाहशुजा ने अपने आपको बंगाल में स्वतंत्र सम्राट घोषित किया और दिल्ली पर अधिकार के लिये चल पड़ा।
- औरंगजेब ने भी समाचार पाकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया हालाँकि अभी तक औरंगजेब ने अपने आपको सम्राट का पद ग्रहण करने की कोई घोषणा नहीं की थी।
- सर्वप्रथम 1658 ई. में शाहशुजा को बनारस के पास बहादुरपुर में मुगल सेना ने पराजित किया।
- इसी समय दो अन्य विद्रोही राजकुमार औरंगजेब और मुराद ने आपस में समझौता कर लिया। अप्रैल 1658 ई. में शाही सेना से धरमत का युद्ध हुआ। इस युद्ध में दारा शिकोह की तरफ से शाही सेना का नेतृत्व जोधपुर के राजा जसवंत सिंह व कासिम खाँ ने किया। इस युद्ध में अंततः शाही सेना पराजित हुई।
- 1658 ई. में दारा शिकोह सामगढ़ के युद्ध में औरंगजेब के हाथों पराजित हुआ। औरंगजेब ने धोखे से मुराद को भी कैद कर लिया। सामूगढ़ के युद्ध में विजय के बाद सर्वप्रथम दिल्ली में औरंगजेब ने अपना राज्याभिषेक कराया।
- 1659 ई. को इलाहाबाद के पास खाजवा नामक स्थान पर औरंगजेब और शुजा के बीच पुनः युद्ध हुआ, जिसमें औरंगजेब की विजय हुई।
- उत्तराधिकार की अंतिम लड़ाईदारा और औरंगज़ेब के मध्य मार्च 1659 में ‘देवराई की घाटी‘ में लड़ी गई। इस युद्ध में दारा हताश होकर राजधानी से भाग गया, किंतु शीघ्र ही उसे पकड़ लिया गया। इस तरह औरंगजेब का दिल्ली पर अधिकार हो गया।
- अंततः मुराद और दारा को मृत्युदंड दे दिया गया, जबकि शाहशुजा की मृत्यु अज्ञात परिस्थितियों में हुई। इस प्रकार औरंगजेब ने उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी होकर मुगल साम्राज्य के शासन का पद भार ग्रहण किया।
- दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह ने भागकर गढ़वाल में शरण ली किंतु कुछ समय बाद ही पकड़ा और कैद में उसे धीरे-धीरे जहर देकर मार दिया गया।
विदेशी यात्री
- शाहजहाँ के शासनकाल में अनेक विदेशी यात्री भारत आए। ज्याँ बैप्टिस्ट टेवर्नियर (फ्राँसीसी) जो एक जौहरी था, शाहजहाँ के शासनकाल में भारत आया था। उसने भारत के हीरों और हीरे की खदानों की विस्तृत रूप से चर्चा की।
- दूसरा यात्री फ्राँसिस बर्नियर था, जो एक फ्रांसीसी चिकित्सक था। जब वह हिंदुस्तान आया, तब शाहजहाँ के बेटों में उत्तराधिकार का युद्ध चल रहा था।
- इस काल में आने वाले दो इतालवी यात्री पीटर मुंडी और निकोलो मनूची थे।
- इतालवी यात्री निकोलो मनूची शाहजहाँ के शासन काल में हुई अनेक घटनाओं विशेषतः उत्तराधिकार के युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी था।
- मनूची ने ‘स्टोरियो डी मोगोर’ नामक अपने वृत्तांत में समकालीन इतिहास का बहुत सुंदर चित्रण किया है।
शाहजहाँ की मृत्यु
- शाहजहाँ को औरंगज़ेब ने आगरा के किले के में कैद कर लिया था।
- जनवरी 1666 ई. में किले के अंदर ही शाहजहाँ की मृत्यु हो गई।
- मृत्यु पश्चात् शाहजहाँ को ताजमहल में उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र के निकट दफना दिया गया।
दारा शिकोह
- शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र, जिसे शाहजहाँ ‘बहादुर‘ नाम से पुकारता था।
- लेनपूल ने दारा शिकोह को ‘लघु अकबर‘ की संज्ञा दी।
- शाहजहाँ ने दारा शिकोह को ‘शाह-ए – बुलंद इकबाल‘ को उपाधि प्रदान की।
- सबसे शिक्षित व उदार विचारों का व्यक्तित्व, अकबर के धार्मिक सहिष्णुता पर पूर्णता से विश्वास करने वाला। कादिरी सूफी सिलसिले का अनुयायी और मुल्लाशाह बदाक्शी का शिष्य।
- सफीनत उल औलिया -सूफी संतों की जीवनी तथा उनके विचारों का संग्रह।
- सकीनत-उल-औलिया – मियां मीर व ‘मुल्लाशाह बदाकशी’ का जीवन चरित।
- मज्म-उल-बहरीन -अर्थ- दो समुद्रों का मिलन अर्थात हिंदू और मुस्लिम धार्मिक दार्शनिक विचारों के समन्वय पर।
- सिर-ए-अकबर – 52 उपनिषदों का फारसी अनुवादी संग्रह
- दारा की देखरेख में दो पवित्र हिंदू ग्रंथों ‘योग वशिष्ठ व ‘भगवत गीता‘ का भी अनुवाद हुआ है।
जहाँआरा
- शाहजहाँ की विदुषी पुत्री जो उत्तराधिकार के युद्ध में दारा शिकोह की समर्थक थी।
- औरंगज़ेब द्वारा इसे गिरफ्तार भी करवाया गया।
- सूफी संत मुल्ला शाह पर ‘साहिबिया’ नामक पुस्तक लिखी।
- औरंगजेब ने इन्हें साम्राज्य की प्रथम महिला का ओहदा दिया।