अकबर का प्रारंभिक जीवन व राज्याभिषेक
- अकबर का पिता – हुमायूँ
- अकबर की माँता – हमीदा बानो बेगम (हुमायूँ की पत्नी)
- अकबर का जन्म – 1542 ई. में अमरकोट के राणा वीरसाल के यहाँ
- हुमायूँ का शेरशाह सूरी से पराजित होकर निर्वासित जीवन के दौरान अकबर का जन्म हुआ।
- 3 वर्ष की आयु में अकबर की भेंट अपने पिता से पुनः हुई
- जब हुमायूँ ने कंधार और काबुल पर अधिकार किया था।
- अकबर का मूल नाम – ‘जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर‘ र
- अकबर सर्वप्रथम गज़नी का सूबेदार नियुक्त किया गया।
- दिल्ली पर कब्जा करने के बाद पंजाब का सूबेदार नियुक्त
- अकबर का संरक्षक – बैरम खाँ को
- हुमायूँ की मृत्यु – फरवरी 1556 ई. के आस पास
पानीपत का द्वितीय युद्ध – 1556 में
- नवंबर 1556 में, अकबर और हेमू की सेनाओं के बीच, पानीपत के मैदान में
- हेमू बाइस लड़ाइयाँ लड़ चुका था और सभी को जीता था।
- हेमू को ‘विक्रमादित्य‘ की उपाधि आदिलशाह ने प्रदान की थी।
- युद्ध में हेमूजीत के करीब था, परंतु एक तीर हेमू की आँख में लग गया, वह हाथी के हौदे से गिर गया और हेमू की विजय पराजय में बदल गई।
- फलतः अकबर को दिल्ली व आगरा का शासक बनाया गया।
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बैरम खाँ का संरक्षण काल (1556-1560 ई.)
- बैरम खाँ अकबर का संरक्षक था।
- बैरम खाँ, फारस के शिया संप्रदाय से संबंधित था।
- 1556 में जब अकबर शासक बना , वह अल्पवयस्क (आयु 13 वर्ष) था।
- 1556 से 1560 तक बैरम खाँ द्वारा शासन संबंधी महत्त्वपूर्ण गतिविधियाँ करने के कारण इस काल को बैरम खाँ का संरक्षण काल कहा जाता है।
- बैरम खाँ ने ग्वालियर, जौनपुर तथा चुनार को विजित किया।
- जौनपुर का गवर्नर ज़माल को बनाया गया, जिसने बाद में विद्रोह कर दिया।
- बैरम खाँ की ईमानदारी के कारण उसे संरक्षक ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
- 1560 तक बैरम खाँ का प्रभाव अत्यंत कम हो गया।
- 1561 में बैरम खाँ अकबर के कहने पर मक्का यात्रा हेतु राजी हुआ।
- मक्का जाने के क्रम में बैरम खाँ की हत्या पाटन (गुजरात) नामक स्थान पर मुबारक खाँ द्वारा कर दी गई।
- बैरम खाँ की पत्नी – सलीमा बेगम
- बैरम खाँ के पुत्र – अब्दुर्रहीम (‘खान-ए-खाना’ की उपाधि)
- बैरम खाँ की हत्या के बाद अकबर ने विधवा सलीमा बेगम से निकाह कर लिया, तथा उसके पुत्र अब्दुर्रहीम को गोद ले लिया ।
पेटीकोट शासन/पर्दा शासन ( 1560-64 ई.) ( अन्य स्रोतों में 1560-1562 ई.)
- इसमें मुख्यतः उसके रिश्तेदार व विश्वासपात्र लोग शामिल थे।
- इसमें माहम अनगा, उसका पुत्र आधम खाँ, जिजी अनगा और दिल्ली का राज्यपाल शिहाबुद्दीन प्रमुख थे।
- आधम खाँ एवं माहम अनगा की मृत्यु के बाद 1564 में ख्वाजा मुअज्जम को दिये गए मृत्युदंड ने इस गुट का प्रभाव शासन से समाप्त ।
- पेटीकोट शासन के अंतर्गत मुगल सत्ता द्वारा मालवा व गोंडवाना का क्षेत्र जीत लिया गया।
उतर भारत का राजनैतिक अभियान
अकबर का मालवा पर आक्रमण ( 1561-62 ई.)
- साम्राज्य विस्तार हेतु
- मालवा पर बाजबहादुर का शासन था।
- 1561-62 ई. में बाजबहादुर पराजित हुआ ।
- रूपमती (बाजबहादुर की पत्नी) ने जहर खाकर अपने सतीत्व की रक्षा की।
- बाजबहादुर मालवा से पलायित होकर कई राज्यों में घूमता रहा, किंतु अंततः वह अकबर का संरक्षण स्वीकारता है।
- बाजबहादुर को अकबर द्वारा 2000 का मनसब प्रदान किया गया।
- बाजबहादुर और रूपमती की समाधि उज्जैन में है।
आमेर एवं मेड़ता (1562 ई.)
- अकबर ने राजपूतों के साथ मित्रता और वैवाहिक संबंध स्थापित किये और इस प्रकार अपना राज्यक्षेत्र विस्तृत किया।
- आमेर के राजा भारमल या बिहारीमल ने राजपूत शासकों में सबसे पहले अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- भारमल ने अपनी पुत्री हरखाबाई का विवाह अकबर से किया।
- कालांतर में अकबर ने भारमल के पुत्र भगवान दास को मुगल सेवा में उच्च मनसबदार का पद प्रदान किया।
- 1562 ई. में मेडता के दुर्ग पर अकबर ने अधिकार कर लिया, जो मारवाड़ की सीमा पर स्थित था।
- मेड़ता का दुर्ग एक जागीरदार जयमल राठौर के हाथ में था।
- 1562 में जयमल ने भाग कर मेवाड़ के राणा उदय सिंह के यहाँ शरण ली।
गढ़कटंगा या गोंडवाना (1564 ई.)
- मध्य भारत में गढ़कटंगा या गोंडवाना एक अन्य स्वतंत्र राज्य था।
- इस राज्य पर संग्रामशाह की विधवा रानी दुर्गावती के संरक्षण में उसके अल्पायु पुत्र वीर नारायण का शासन था।
- गढ़कटंगा पर विजय अभियान आसफ खाँ के नेतृत्व में शुरू हुआ, क्योंकि अकबर उस समय उज्बेकों के विद्रोह का सामना कर रहा था।
- 1564 ई. में दुर्गावती को युद्ध में पराजित कर दिया गया।
- बाद में इस राज्य को अकबर ने इसी राजवंश से संबंधित चंद्रशाह को सौंप दिया।
- अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की मदद की थी जिसने उसे ‘संग्रामशाह’ की उपाधि प्रदान की थी।
मेवाड़ (1567-68 ई.)
- 1567 ई. में अकबर ने स्वयं मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ का अभियान किया। कई महीनों तक यह अभियान जारी रहा।
- 1568 ई. में चित्तौड़ पर मुगलों द्वारा अधिकार कर लिया गया। हालाँकि फिर भी. राजा उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर से मुगलों से प्रतिरोध जारी रखा।
- मुगलों को यहाँ कठिन संघर्ष करना पड़ा और यहाँ तक कि अकबर को ‘जेहाद‘ का नारा देना पड़ा।
- माना जाता है कि चित्तौड़ विजय के बाद अकबर ने यहाँ पर निर्दोष जनता के कत्लेआम का निर्देश दिया, जो उसके शासनकाल का एक कलंक माना जाता है।
- चित्तौड़ विजयोपरांत अकबर ने आगरा किले के बाहर हाथी पर बैठे ‘जयमल’ एवं फतहसिंह (फत्ता) की मूर्तियाँ उनकी वीरता की स्मृति में स्थापित की।
रणथंभौर (1569 ई.)
- यहाँ पर सुरजनराय (हाड़ा राजपूत) का शासन था।
- अकबर ने मानसिंह को समझौते के लिये भेजा।
- सूरजन राय ने अकबर की सर्वोच्चता स्वीकार कर लीं, किंतु सशर्तः
- मुगलों से वैवाहिक संबंध नहीं रखेंगे।
- दरबार में सिजदा नहीं करेंगे।
- दरबार में सशस्त्र प्रवेश की अनुमति।
कालिंजर (1569 ई.)
- यहाँ बघेल राजा रामचंद्र का शासन था। उसने इसे मुगलों को सौंप दिया।
- यहाँ का राज्यपाल मजनू खाँ को बनाया गया।
मारवाड़, बीकानेर एवं जैसलमेर (1570 ई.)
- मारवाड़, बीकानेर एवं जैसलमेर के शासक क्रमशः चंद्रसेन, कल्याणमल एवं हरराय ने अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- कालांतर में चंद्रसेन ने विद्रोह कर दिया, जिस कारण अकबर ने थोड़े समय के लिये मारवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
- 1570 ई. के अंत तक मेवाड़ के अतिरिक्त अकबर के प्रभुत्व को न स्वीकार करने वाली तीन रियासतें थीं- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ।
हल्दी घाटी का युद्ध (1576 ई.)
- 1572 ई. में उदयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महाराणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने गोगुंडा नामक स्थान पर राज्याभिषेक कराया।
- महाराणा प्रताप ने उदयपुर के बाद मेवाड़ की राजधानी कुंभलगढ़ स्थानांतरित की।
- 1576 ई. में हल्दीघाटी की लड़ाई हुई।
- इस युद्ध में महाराणा प्रताप की पराजय हुई। लेकिन पराजित होने के बाद भी मेवाड़ शासक ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की।
- इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व आसफ खाँ एवं मानसिंह द्वारा, जबकि महाराणा प्रताप की तरफ से हकीम खाँ सूर (अफगान) एवं भीलों की संयुक्त सेना ने नेतृत्व किया। इसी प्रसंग में भामाशाह का त्याग भी महत्त्वपूर्ण था।
- अबुल फज़ल के अनुसार यह ‘खामनौर का युद्ध’ था।
नोटः महाराणा प्रताप ने गोगुंडा से हटकर चावड को नई राजधानी बनाई। यहाँ गोरिल्ला (छापामार) युद्ध का सफल प्रयोग किया।
गोरिल्ला (छापामार) युद्ध का नेतृत्व
महाराणा प्रताप → मलिक अंबर → शिवाजी → बाजीराव प्रथम।
- महाराणा प्रताप की मृत्यु धनुष पर प्रत्यंचा (धनुष की डोरी) चढ़ाने के दौरान हुई।
- उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र अमर सिंह शासक बना। जिसने अकबर की अधीनता नहीं स्वीकारी।
- बाद में जहाँगीर के साथ अमर सिंह सशर्त समझौता कर लेता है और इस तरह सभी प्रमुख राजपूत रियासतें मुगल प्रभुता स्वीकार कर लेती हैं।
गुजरात की विजय (1572-73 ई.)
- अकबर ने मध्य भारत तथा राजपूताना में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के बाद 1572 ई. में गुजरात पर अपना ध्यान केंद्रित किया।
- गुजरात में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी, इस समय वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों के बीच निरंतर आपसी वैमनस्य बना रहता था।
- गुजरात जहाँ एक ओर कृषि की दृष्टि से अत्यंत उपजाऊ था, वहीं दूसरी ओर वहाँ पर अनेक व्यस्त बंदरगाह थे, जिससे व्यापारिक केंद्रों के रूप में यह तेजी से विकास कर रहा था।
- अकबर के गुजरात अभियान के समय सुल्तान मुज़फ्फर शाह तृतीय यहाँ का शासक था।
- गुजरात आक्रमण के लिये अकबर को राजकुमार इतमाद खाँ द्वारा आमंत्रित किया गया था।
- माना जाता है कि थोड़ी सी मशक्कत के बाद गुजरात की समस्त रियासतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
- गुजरात विजय के बाद अकबर ने उसे एक प्रांत के रूप में संगठित किया और मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका के अधीन कर स्वयं राजधानी लौट गया।
- अकबर के अहमदाबाद से वापस जाने के छह माह के अंदर ही. मिर्ज़ा बंधुओं के अधीन विद्रोही गुट एकत्रित हो गए और उन्होंने मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
- आगरा में अकबर ने विद्रोह का समाचार पाकर पुनः अहमदाबाद की ओर प्रस्थान किया।
- ‘स्मिथ’ ने 1573 ई. में गुजरात के अभियान को ‘ऐतिहासिक द्रुतगामी आक्रमण’ कहा है।
- अहमदाबाद पहुँचकर अकबर ने विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन कर इसे पुनः मुगल साम्राज्य का अंग बना लिया।
- अकबर ने अपनी गुजरात विजय की स्मृति में राजधानी फतेहपुर सीकरी में एक बुलंद दरवाजा बनवाया था।
- अकबर ने पहली बार कैम्बे खंभात में समुद्र को देखा और पुर्तगालियों से भी पहली मुलाकात हुई।
बिहार एवं बंगाल की विजय
- हुमायूँ की पराजय के बाद से ही बिहार तथा बंगाल पर अफगानों का शासन था।
- 1564 ई. में बिहार के गवर्नर सुलेमान किरानी ने बंगाल को भी अपने अधीन कर लिया, लेकिन अकबर के शासनकाल में तत्कालीन शासक ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित नहीं किया और अकबर के नाम से ही खुत्बा पढ़ता था।
- 1572 ई. में दाऊद ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया, अकबर ने मुनीम खाँ ‘खान-ए-खाना‘ के नेतृत्व में शाही सेना भेजकर पटना व हाजीपुर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और दाऊद गौड़ प्रदेश की तरफ भाग गया।
- कुछ समय के बाद दाऊद ने पुनः विद्रोह किया। मुनीम खाँ के नेतृत्व में तुकारोई का युद्ध (1575 ई.) निर्णायक सिद्ध हुआ और बंगाल व बिहार पर मुगल साम्राज्य का आधिपत्य स्थापित हो गया।
- 1576 ई. में दाऊद मारा गया और गौड़ प्रदेश भी मुगलों के अधीन हो गया।
उत्तर-पश्चिम की विजय
काबुल (1581 ई.)
- अकबर के काबुल अभियान के समय काबुल का शासक हकीम मिर्जा था।
- काबुल विजय के बाद अकबर ने हकीम मिर्जा को हटाकर इसकी बहन बख्नुन्निशा बेगम को यहाँ का सूबेदार बनाया, हालाँकि अकबर के लौटते ही हकीम मिर्जा काबुल में पुनः प्रभावशील हो गया। हकीम मिर्जा की मृत्यु के बाद काबुल को मुगल साम्राज्य में मिलाकर मानसिंह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया गया।
- उल्लेख मिलता है कि पुर्तगाली विद्वान मॉन्सरेट भी इसी अभियान पर अकबर के साथ गया था।
कश्मीर की विजय (1585-86 ई.)
- 1585-86 ई. में अकबर ने कश्मीर को विजित करने के लिये राजा भगवानदास तथा कासिम खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसमें कश्मीर का राजा युसूफ खाँ पराजित हुआ और उसने मुगलों की अधीनता स्वाका कर ली। किंतु बाद में उसके पुत्र याकूब ने विद्रोह कर दिया, जिसे कुचलने के बाद कश्मीर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
नोट: कश्मीर के युसूफजाई कबीले के विद्रोह को दबाने के क्रम में ही बीरबल मारा गया था।
थट्टा (सिंध) की विजय (1591 ई.)
- थट्टा उत्तर-पश्चिम क्षेत्र का स्वतंत्र राज्य था।
- अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया और सिंध तथा बलूचियों का दमन करने का आदेश दिया।
- अब्दुर्रहीम खानखाना ने सिंध पर आक्रमण किया, सिंध के शासक जानीबेग ने मुगल सेना का डटकर सामना किया; किंतु वह पराजित हुआ। उसने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।
- थट्टा और सेहवान के किले तथा संपूर्ण सिंध पर मुगलों का अधिकार हो गया।
- 1595 ई. में काठियावाड़, बलूचिस्तान और मकरान पर भी मुगलों का अधिकार हो गया। इस प्रकार पश्चिमोत्तर क्षेत्र में हिंदुकुश पर्वतमाला से अरब सागर तक मुगल साम्राज्य का विस्तार हुआ और एक ‘वैज्ञानिक सीमा’ की प्राप्ति का कार्य संभव हुआ।
दक्षिण भारत का अभियान
- मुगलों में अकबर प्रथम शासक था, जिसने दक्षिण भारत का अभियान किया।
- अकबर के समकालीन दक्षिण भारत में चार राज्य थे-खानदेश ,अहमदनगर, बीजापुर तथा गोलकुंडा।
- अकबर ने 1591 ई. में दक्कन के राज्यों को मुगल साम्राज्य की सर्वोच्चता स्वीकार करने के लिये दूतों को भेजा।
- माना जाता है कि खानदेश को छोड़कर अन्य राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया।
- अकबर ने अपना पहला दक्षिण अभियान 1593 ई. में शाहजादा मुराद और अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में अहमदनगर पर किया।
- 1595 ई. में मुगल सेनाओं ने अहमदनगर का घेरा डाल दिया। इस समय अहमदनगर का नेतृत्व शासिका चांदबीबी के पास था। माना जाता है कि महिला होते हुए भी चांदबीबी ने मुगलों की सेना को बराबर की टक्कर दी। अंतत: दोनों पक्षों के बीच 1596 ई. में संधि हो गई तथा चांदबीबी ने बरार प्रांत मुगलों को सौंप दिया।
- कुछ ही दिनों बाद जब अहमदनगर ने संधि के नियमों का पालन नहीं किया तो अकबर ने पुनः खानखाना और मुराद को आक्रमण के लिये भेजा। किंतु दोनों में मतभेद होने के कारण खानखाना की जगह अबुल फज़ल को भेजा गया। अधिक मद्यपान के कारण मुराद की मृत्यु हो गई। तब अकबर ने दानियाल को खानखाना के साथ अभियान पर भेजा। बाद में स्वयं अकबर अबुल फज़ल के साथ दक्षिण की ओर कूच कर दिया।
- 1601 ई. में असीरगढ़ तथा आसपास के क्षेत्रों को मुगल सेनाओं ने विजित कर लिया। ।
- असीरगढ़ उस समय विश्व के दुर्भेद किलों में से एक था, कहा जाता है कि अकबर ने उसे सोने की चाबी से खोला।
- बीजापुर के शासक आदिलशाह ने मुगलों की सर्वोच्चता को स्वीकार कर लिया तथा शाहजादा दानियाल के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने की पेशकश की।
- अंततः मुगल साम्राज्य में असीरगढ़, बुरहानपुर, अहमदनगर तथा बरार को शामिल कर लिया गया।
नोटः स्मरणीय है कि दक्षिण विजय के बाद ही अकबर ने सम्राट की पदवी धारण की थी।
प्रशासनिक व्यवस्था
- इस क्षेत्र में अकबर की अनूठी उपलब्धि ‘दशमलव पद्धति‘ पर आधारित मनसबदारी व्यवस्था को अपनाना था, जो वस्तुतः मध्य एशियाई मूल्यों से प्रेरित थी।
- 1577 ई. में अकबर ने इसे एकल प्रणाली के रूप में आरंभ किया किंतु बाद में 1592 ई. में इसे ‘जात’ व ‘सवार’ के द्विवर्गीकरण से युक्त कर दिया, जिसमें ‘जात’ मनसबदार की हैसियत व ‘सवार’ घुड़सवारों की संख्या को निर्देशित करता था।
- ‘मनसब’ के द्वारा अकबर ने सरकारी पदों का एकीकरण कर दिया और इसमें सैनिक, सामंत, नागरिक, सेवक आदि सभी को एक ही सूत्र में स्थापित कर दिया गया।
- अबुल फज़ल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में मनसब के 66 वर्गों का उल्लेख किया गया है।
अकबर की धार्मिक नीति
- अकबर की धार्मिक नीति ‘सुलह-ए-कुल’ की नीति पर आधारित थी, जो सार्वभौमिक सहिष्णुता या सार्वभौमिक समन्वय की बात करता है। अकबर ने यह सिद्धांत अपने गुरु अब्दुल लतीफ से सीखा था।
- बाबर व हुमायूँ के राजत्व में उदारता का पक्ष, भक्ति-सूफी समन्वयी समाज और बैरम खाँ जैसे शिया का सानिध्य आदि ने अकबर को प्रारंभ से ही कट्टरता से दूर रखा। इसलिये 1562 ई. में जब वह स्वतंत्र शासक बना तो उसने कुछ ऐसे सुधार प्रस्तुत किये, जो उसकी सामाजिक-धार्मिक उदारता को बताते हैं
- 1562 – युद्ध बंदियों को दास बनाए जाने पर रोक।
- 1563 – तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति।
- 1564 – जज़िया पर रोक।
- वस्तुतः अकबर इस्लाम के रहस्यवादी पक्ष से प्रभावित था। अर्थात् सूफी मत की ओर उसका झुकाव अधिक था और उसकी चाहत धार्मिक सत्य की खोज करना था। इसके लिये उसने क्रमिक रूप से निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की
इबादत खाने की स्थापना (1575 ई.)
- फतेहपुर सिकरी में इबादत खाने का निर्माण कर प्रत्येक बृहस्पतिवार को धार्मिक चर्चा का आयोजन निश्चित किया।
- प्रारंभ में अकबर ने केवल सुन्नी मुसलमान विद्वानों को ही चर्चा हेतु आमंत्रित किया, किंतु उनके बीच विवादों ने अकबर को असंतुष्ट कर दिया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि “सत्य सभी धर्मों में है” अतः इसके सार को समझने के लिये हमें सभी धर्मों के पक्षों को जानना होगा।
- ध्यातव्य है कि प्रारंभ में अकबर शेख अब्दुल नबी का परम भक्त म था और यहाँ तक कि उसने उनकी चरणपादुका अपने सिर पर उठा ली थी।
- अब अकबर ने विभिन्न धर्म के गुरुओं को चर्चा के लिये आमंत्रित किया।
नोट: अकबर ने इसी दौरान पुर्तगालियों/ईसाइयों को लाहौर और आगरा में चर्च बनवाने की अनुमति दी।
महजर की घोषणा (1579 ई.)
- महजर का मतलब : यदि किसी धार्मिक विषय पर धार्मिक गुरुओं के बीच मतभेद है, तो उसकी अंतिम व्याख्या का अधिकार शासक के पास रहेगा। इसके द्वारा शासक को कुरान की व्याख्या का अधिकार नहीं दिया गया।
- अकबर सर्वाधिक विवेकशील प्राणी ‘इंसान-ए-कामिल‘ बनना चाहता था।
- अकबर ने अपने आप को अमीर-उल-मोमिनीन कहा।
- वह 1258 के बाद संभवतः प्रथम व्यक्ति था जिसने यह पदवी धारण की।
- सामान्यतः यह पदवी ख़लीफ़ा धारण करते थे।
- उलेमाओं ने अकबर को ‘इमाम-ए-आदिल’ घोषित किया।
- सीकरी की जामा मस्जिद में उसने स्वयं खुत्बा पढ़ा ।
- खुतबा का अर्थ : शुक्रवार (जुमा) को प्रार्थना (नमाज़/ सला) से पहले दिया जाने वाला उपदेश जुमे का ख़ुत्बा (उपदेश) कहलाता है.
- महजर का मसौदा/प्रारूप – शेख मुबारक ने तैयार किया था।
- शेख मुबारक, फैजी व अबुल फज़ल के पिता थे।
दीन-ए-इलाही (1582 ई.)
- अकबर द्वारा सुरु नया धर्म /आचार संहिता
- यह सभी धर्मों के लिये खुला था।
- बदायूँनी और अबुल फज़ल ने इसे ‘तौहीद-ए-इलाही‘ कहा है।
- दीन-ए-इलाही का अर्थ : एकेश्वरवाद से है।
- अकबर का काबुल (1581 ई.) अभियान के बाद
- बदायूँनी अकबर को काफिर कहता है।
- इस समय मिर्जा हाकिम के विद्रोह के अतिरिक्त पूर्वी क्षेत्र (बंगाल, बिहार) में भी बगावत होती है
- इसी समय जौनपुर के काज़ी मुल्ला अहमद याजदी ने अकबर के विरुद्ध फतवा जारी किया था।
- इसकी कोई विशिष्ट कर्मकाण्डीय पद्धति नहीं थी, न ही कोई ग्रंथ था और न ही कोई पुरोहित वर्ग।
प्रक्रिया
- अबुल फज़ल इस व्यवस्था में प्रधान पुरोहित के रूप में थे, जो इसे स्वीकारने वाले इच्छुक व्यक्ति को सम्राट के पास ले जाते थे।
- सम्राट उस व्यक्ति को पगड़ी पहनाकर दीक्षा का प्रतीक चिह्न (शस्त ओ शबह) प्रदान करता था, जिस पर ‘अल्लाह-हू-अकबर’ अंकित होता था।
- अभिवादन के लिये ‘अल्लाह-हू-अकबर’ तथा ‘जल्ले-जलालहू‘ का संबोधन किया जाता था।
- दीक्षा केवल रविवार के दिन ही दी जाती थी।
- वस्तुतः इसमें कुछ नियम थे और इसे स्वीकार करने के बाद वह व्यक्ति कुछ सामाजिक नैतिक दायित्वों से बंध जाता था, जैसे
- विशेष अवसरों पर सार्वजनिक भोजों का आयोजन।
- मांसाहार निषेध।
- कम उम्र की कन्याओं तथा वृद्ध स्त्रियों से विवाह की मनाही।
- मछुआरे, शिकारी आदि के बर्तनों का इस्तेमाल न करना आदि।
- विडम्बना यह थी कि हिंदू प्रमुख व्यक्तियों में से सिर्फ बीरबल ने ही इसे स्वीकारा और टोडरमल और मानसिंह जैसे अकबर के विश्वसनीय अमीरों ने भी इसे नहीं स्वीकार किया।
- स्मिथ इसे अकबर की मूर्खता का स्मारक तथा उसके साम्राज्यवादी जामे का पोषक कहता है। (हिंदूओं और मुसलमानों, सबमें इसकी आलोचना हुई।)
नोटः अकबर ने कई ईसाई, पारसी, जैन व हिंदू सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं को अपनाया, जैसे- हिंदुओं के त्योहारों में भाग लेना, तिलक लगाना, झरोखा दर्शन इत्यादि।
- 1583 ई. में अकबर ने ‘हिजरी संवत्’ की जगह एक नए संवत के रूप में ‘इलाही संवत्’ को अपनाया।
- वयाजित अंसारी नामक व्यक्ति ने इसके शासनकाल में खुद को पैगंबर घोषित कर दिया।
वित्तीय सुधार
मुद्रा प्रणाली
- 1577 ई. में अकबर ने टकसाल गृहों में सुधार किया और दिल्ली के टकसाल का दरोगा अब्दुल सिराजी को बना दिया।
- सूबों में टकसालों के प्रमुख को ‘चौधरी‘ कहा गया, जिसको कालांतर में सभी सूबों के टकसालों को अब्दुस्समद के निरीक्षण में कर देता है।
सिक्कों के प्रकार
- अकबर ने ‘राम-सीता’ प्रकार के सिक्के चलाए और इन सिक्कों पर ‘राम-सिया’ उत्कीर्ण रहता था।
- शेरशाह की मुद्रा प्रणाली के अनुरूप ही अकबर ने भी चांदी का रुपया और तांबे का दाम चलाया।
नोट: 1 चांदी का रुपया = 40 दामः शेरशाह के काल में 1 रुपया = 64 दाम
- अकबर ने सोने के सिक्के भी जारी किये, जिसमें सबसे ज़्यादा प्रचलित सिक्का ‘इलाही‘ था। (1 इलाही = 10 रुपया)
- अकबर द्वारा जारी सबसे बड़ा स्वर्ण सिक्का ‘संसब’ था जो 100 तोले से भी ज्यादा भारी था।
- अकबर ने मुख्यतः 2 ज्यामितीय प्रकार के सिक्के चलाये, जिसमें वृत्ताकार सिक्का ‘इलाही’ तथा चौकोर/आयताकार सिक्का ‘जलाली’ के नाम से जाना गया।
भू-राजस्व व्यवस्था
- अकबर शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था (जब्ती) को और वैज्ञानिक आधार देता है तथा ‘आइन-ए-दहशाला’ की अवधारणा को 1580 ई. में अमल में लाता है।
- शेरशाह से आगे बढ़ते हुए अकबर ने दो प्रकार से भूमि का वर्गीकरण कराया
- प्रथम प्रकार– उच्च, मध्य व निम्न प्रकार की भूमि।
- द्वितीय प्रकार– उत्पादन व बुआई की निरंतरता के आधार पर यह वर्गीकरण ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था, जिसमें 4 प्रकार की भूमियों का उल्लेख था
- 1. पोलज– प्रति वर्ष बुआई।
- 2. परती– जिस पोलज भूमि पर बुआई न हुई हो (1 से 2 वर्ष के लिये)।
- 3. चाचर– 3 से 4 वर्षों तक बुआई न होने वाली भूमि।
- 4. बंजर– 5 वर्षों से अधिक समय तक न बोई जाने वाली भूमि। विशेष यह था कि बंजर भूमि पर रियायती दर पर कर लगाया जाता था।
- प्रारंभ में अकबर ने शेरशाह की ‘जब्ती ‘ व ‘रै ‘ व्यवस्था का ही पालन किया, किंतु बाद में इसमें व्यापक सुधार प्रस्तुत किये।
- 1570-71 ई. में मुज़फ्फर खाँ तथा टोडरमल को अपनी भू-राजस्व व्यवस्था से जोड़कर अपने मौलिक प्रयोग के लिये वह पहला कदम बढ़ाता है।
- 1573 ई. में वह संपूर्ण उत्तर भारत में ‘करोड़ी’ नामक अधिकारी की नियुक्ति करता है, जिसका दायित्व अपने क्षेत्र से 1 करोड़ दाम वसूलना था। करोड़ी को ‘आमिल’ या ‘अमल गुजार’ के नाम से भी जाना जाता है।
- 1580 ई. में वह ‘दहशाला प्रणाली’ को लागू करता है, जिसमें स्थानीय कीमतों, उत्पादन, उत्पादकता आदि के आँकड़ों का विश्लेषण किया गया था।
- ‘आईन-ए-दहशाला’ के अंतर्गत अलग-अलग फसलों पर पिछले 10 वर्षों में लगने वाले राजस्व का औसत निकाला गया और पिछले 10 वर्षों के उत्पादन का औसत निकालकर उसका एक तिहाई (1/3) भू-राजस्व निर्धारित किया गया।
- कालांतर में स्थानीय कीमतों को आधार बनाकर नकद रूप में विभिन्न फसलों की ‘मूल्य सूची’ बनाई गई, जिसे ‘दस्तूर-ए-अमल’ कहा गया। (यहाँ अकबर की यह सूची शेरशाह की रै’ से इसलिये महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्थानीय कीमतों के कारण गाँव के लोगों को लाभ हुआ।)
- भू-राजस्व नकद व अनाज दोनों में स्वीकार्य था। किंतु, अकबर की इच्छा नकद वसूली में अधिक थी।
- 1586-87 ई. अकबर ने ‘गज-ए-सिकंदरी’ अंक की जगह ‘गज-ए-इलाही’ (41 अंगुल) को अपनाया और भूमि के मापन के लिये लोहे के छल्लों से जुड़े बाँस या तनब का प्रयोग किया, जो शेरशाह की सन या पटुये की रस्सी से मापन की तुलना में अधिक शुद्ध थी।
- शेरशाह द्वारा जारी ‘पट्टा’ व ‘कबूलियत’ की व्यवस्था को जारी रखा गया, जिससे राज्य का सीधा संपर्क किसानों से हुआ। अतः इसमें रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के अंश मौजूद थे। किसानों के लिये अग्रिम ऋण की व्यवस्था की गई, जिसे ‘तकावी’ कहा गया तथा आपदा के समय कर की दरों में समायोजन की व्यवस्था भी की गई, जिससे किसानों पर विपरीत परिस्थितियों में अतिरिक्त बोझ न पड़े।
- अकबर के शासनकाल में ‘आइन-ए-दहशाला’ के अतिरिक्त भू-राजस्व की अन्य विधियाँ भी प्रचलित रही, जिसमें गल्ला-बक्शी या बँटाई जो पुराने रिकॉर्ड के आधार पर निर्धारित किया जाता था।
- नक्श या कनकूत– इसमें मापन के बाद अनुमान को राजस्व निर्धारण का आधार बनाया जाता था। औरंगजेब के समय ‘नक्श या कनकत’ ही सबसे प्रचलित प्रणाली बन गई।
नोट: अकबर के शासनकाल में दक्कन में ‘हल की संख्या’ पद्धति भू-राजस्व वसूली का प्रचलित आधार था।
कृषकों का वर्गीकरण
मुगलकालीन कृषक समुदाय स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित था
- खुदकाश्त– वैसे किसान जो अपने गाँव में ही रहकर खेती करते थे। इनको मालिक ए-ज़मीन’ (भूमि का स्वामी) कहा जाता था।
- पाहीकाश्त-ऐसे किसान जो दूसरे गाँव में जाकर कृषि कार्य करते थे। इनको खुदकाश्त किसानों का स्तर और विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था।
- मुजारियान-ऐसे किसान जो अपनी भूमि पर खेती करने के अतिरिक्त (इनके पास जमीन कम थी) खुदकाश्त किसानों से किराये पर जमीन लेकर उस पर खेती करते थे। इनको मुजारा कृषक भी कहा जाता था।
नाबूद प्रथा
- आइन-ए-दहसाला‘ की व्यवस्था में नाबूद विशिष्ट था। जिसके तहत कोई भी किसान अपनी जमीन का अधिकतम 12 प्रतिशत भाग बगैर कृषि के रख सकता है या छोड़ सकता है और इतने भाग पर सरकार कोई भी कर नहीं लगाएगी। अकबर ने अनुत्पादक भूमि, बंजर भूमि पर उत्पादन हेतु कृषकों को प्रोत्साहित किया।
दहशाला प्रथा में विचलन
शाहजहाँ के शासनकाल में इस व्यवस्था में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए
- नाबूद प्रथा का त्याग कर दिया गया।
- शाहजहाँ ने इजारेदारी/ठेकेदारी प्रथा को अपना लिया।
नोट: शाहजहाँ के युग में ही दक्षिण भारत में मुर्शिद कुली खाँ ने कृषि विकास के लिये दहशाला व्यवस्था को अपनाया और इसीलिये उसे ‘दक्षिण का टोडरमल’ कहा जाता है।
अकबर के नवरत्न
1. बीरबल
- बीरबल का जन्म- कालपी में, एक ब्राह्मण परिवार में,
- बीरबल का बचपन का नाम- महेशदास था।
- वह एक कुशल वक्ता, कहानीकार एवं कवि था।
2.अबुल फज़ल–
- अबुल फज़ल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ और ‘अकबरनामा‘ पुस्तकों की रचना की।
3.टोडरमल
- टोडरमल ने भूमि संबंधी सुधार कार्य किये
- उसे गुजरात का दीवान भी बनाया गया
4. तानसेन
- संगीत सम्राट
- तानसेन का जन्म- ग्वालियर में
- तानसेन का असली नाम- रामतनु पाण्डेय
- तानसेन की प्रमुख गायन कृतियाँ – मियाँ की तोड़ी, मियाँ की मल्हार आदि
5. मानसिंह–
- मानसिंह (कच्छवाहा राजपूत) आमेर के राजा भारमल के पौत्र
6. अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना–
- बैरम खाँ का पुत्र
- गुजरात विजय के बाद अकबर ने खानखाना की उपाधि से सम्मानित किया
- इसने ‘बाबरनामा’ का फारसी भाषा में अनुवाद किया।
7.फैज़ी
- अबुल फज़ल का बड़ा भाई
- अकबर के राज कवि
- इन्होंने ‘लीलावती‘ का फारसी में अनुवाद किया।
8. मुल्ला दो प्याजा–
- अकबर के सलाहकार
9. हक़ीम हुकाम–
- रसोईघर का प्रधान
- लिपि पहचानने व कविता समझने का विशेषज्ञ