Khortha Ke Ritu Geet (खोरठा के ऋतु गीत – 1)

 ऋतुओं में गाये जाने वाले लोकगीत के प्रमुख तथ्य :

  • गीतों का नामकरण उनके स्वर, ताल और लय पर निर्भर करता है।
  • इन गीतों में ढोल, मांदर बाँसुरी, झाल (करताल) धमसा आदि लोक वाद्य यंत्रों का व्यवहार होता है।
  • सबसे ज्यादा गीत वर्षा ऋतु के हैं, जो भदरिया कहलाते हैं। 

 

ऋतुओं में लोकगीत गायन की विभिन्न किस्म निम्नलिखित हैं :-

  • निरइनियाँ, खेमटा, मोटा ताल, झूमटा, मेहीताल, लुझरी, रसधारी, मलहरिया, डहरूवा, रीझा, भदरिया, चांचर, भटियाली, घेरागीत, खासपेलिया, उदासी, गोलवारी, ढेलवा गीत, मोदीयाली, बारोमसिया, घसियाली, डोहा, झिंगफुलिया ।
  • गर्मी के मौसम में गाये जाने वाले लोकगीत –  निरनियाँ मोटा-ताल, मेहीताल, रसधारी एवं डहरूवा
  • सावन-भादो के महीनों में गाये जाने वाले लोकगीत – भदरिया, भटियाली, खासपेलिया, गोलवारी, मोदीयाली, घसियाली, झिंगफूलिया आदि
    • ये पावस ऋतु के लोकगीत हैं। 
  • शीतकालीन मौसम के लोकगीत – चांचइर, घेरागीत, डोहा 
    • चांचर गीत का शुरुआत कर्मा के विसर्जन के साथ होता है और दीपावली में समाप्त हो जाता है

 

भदरिया लोकगीत

कहाँ से उमड़ल कारी बदरिया 

बल सखी मोर। 

बुंदे-बुंदे बरिसय पनियाँ गरजये – 

बरिसये, घने-घने मलकये 

बल सखी मोर। 

उमगे उमड़इ नदिया।

अर्थ : एक सखी दूसरी सखी को कह रही हैं – देखो सखी । आकाश में कहाँ से काले-काले बादल उमड़ते हुए घिर आये हैं और फिर गरजते हुए बरसने भी लगे हैं। बीच-बीच में बिजली कैसे हृदय को रोमांचित कर देती है।

बसंत ऋतु में गाया जाने वाला एक लोकगीत

बीतलइ हेमन्त रितु, अइलइ बसन्त रे 

हुलसल हमर जिया, देखी रितुराज रे। 

अम्बा मंजर गेल, महुवा खोचाइ गेल 

धरती जे धधाइ भाई, नावाँ रंगेक पात रे।।

अर्थ : ऋतु कुमार हेमन्त की समाप्ति के बाद ही फगुनाहट की बयार लिये मदमस्त ऋतुराज बसन्त आ धमका। इस मौसम में आम मंजर और महुवे के फुलों की मादक महक सम्पूर्ण अरण्यांचल के वातावरण को मदमस्त कर देती है। हरे-भरे वृक्षो से परिपूर्ण यह धरती गौरवान्वित होने लगती है। ऐसा सरस वर्णन खोरठा लोक गीतों की विशेषता है। 

 

  • निरनियाँ गीत गर्मी के मौसम में गाये जाते हैं। उनमें रसधारी प्रमुख है। रसधारी की टोलियाँ होती है। जिसमें नर्तक (पुरूष), सूत्रधार (लाबार) और वादक होते हैं। 
    • ये टोलियों गाँव-गाँव घूम कर चौपालों में नृत्य-गीत-संगीत का कार्यक्रम करते हैं। 

एक रसधारी लोक गीत 

कुल्हिायांइ कुकुरा भुकइ, आंगनांइ भेसूरा सुतइ 

हो गोड़े के घूघूरा बाजइ छम-छम कइसे के बाहर होवइ हो 

ओढ़े दे चदरिया, खोले दे घुंघरवा हो 

कुकुरा के कहक तनी चूप-चूप, कले-कल बाहर होबइ हो ।

अर्थ : गरमी का दिन है। ऐसे मौसम में गाँव के लोग आंगन में खुले आकाश के नीचे खटिया पर सोते हैं। नवविवाहिता घर के अन्दर सोयी है, उसे गरमी परेशान कर रही है। वह बाहर गली में निकलना चाहती है, क्योंकि गली में पति सोया है। चूंकि आंगन में भेसूर (पति का बड़ा भाई) सोया हुआ है। गली में कुता भी भौंक रहा है। नवविवाहिता के पैरों में घुंघरू है, बजने का भी डर है, इसी असमंजस में वह पड़ गई है।

 

  • शीतकालीन खोरठा लोक गीतों में प्रमुख डोहा है। इसमें वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता है। 
    • घने जंगलों के मध्य पार्वत्य प्रदेश में, मेला आते-जाते रास्ते में, रात्रि के अन्तिम प्रहर में गाया जाता है। 

पारसनाथेक पहारें दइया रे

छल-छल चेधे पोंठी माछ

एक पोठी धरलो दइया रे

दुवो पोंठी धरलो रे

अरे तीन पोंठी भइये गेल बिहान। ई….

 

  • जाड़े के मौसम में घेरा गीत सुबह-शाम बड़े प्रेम से लोग गाते हैं। गायक अकेला होता है और गाते समय वह घेरा (डफली) बजाते चलता है। शाम को यह गीत गाँव के बीच लोग समूह में एकत्रित होकर सुनते हैं। ये लोकगीत करुण रस के होते हैं, जो मार्मिक एवं हृदय स्पर्शी होते हैं। 

चारी पहरी राती बिनिया डोलावइ जी 

भिनसरे दम छुटी गेलइ रे भाई 

मानुस जनम दिन चारी हो । 

चाइर जुवाना मिली खंटिया उठावइ जी 

लइये गेलथिन दामुदरेक तीर रे भाई 

मानुस जनम दिन चारी हो। 

टूटल खटिया भाई फूटल भोरसिया हो 

दस-पाँच लोक बरियात रे भाई

मानुस जनम दिन चारी हो । 

चंदन काठी केरी सरवा रचलइ भाई 

बेलपतरी अगनी मुख देलइ रे भाई 

मानुस जनम दिन चारी हो। 

केहू कांदई रे भाई जनम-जनम हो 

केहू कांदइ छवों मास रे भाई 

मानुस जनम दिन चारी हो । 

छुटी गेलइ रे भाई गाँव-गरमवा हो 

केहु नाही संग-संगतिया रे भाई 

मानुस जनम दिन चारी हो । 

 

मनुष्य की जिन्दगी चारी (बचपन, जवानी, प्रौढ़ और बुढ़ापा ) दिन की है। मर जाने के बाद चार आदमी खाट उठाकर दामोदर नदी के तट पर दाह-संस्कार हेतु ले जायेंगे। आगे-आगे अग्नि की हाँड़ी नाती लेकर जायगा। लोग शवयात्रा में शामिल होंगे। कुछ सगे-संबंधी चार-छ माह रोयेंगे कुछेक वर्ष भर तक। फिर संसार की गति-विधि पूर्ववत जारी रहेगी। उपरोक्त निर्गुण लोकगीत में गंभीर अर्थ छिपा है कि मानव अंहकार न करे।

 

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