आइझ गीतेक देशे ऑखीक गीत
आइझ हमर गीतेक देसें
आइझ हमर गीतेक देसें
फूटल सुधे फूल
डारी-डारी पाते-पाते
लटकल अलिकूल,
सघन मंजरल आमेक गाछ
करे छाँहुर-दान
कोकिल कुहू कुहू डाके
ऋतु राजेक आहवान
ई पारें अशोक-गाछ
उपारे बकुल
लैके फूलके गन्ध हावा
छूटे दूर देशे
प्राणप्रिया बैसल जहाँ
शुष्क म्लान वेषे
आँखी मधुर दरसन-पियास
लोरे डूबल कुल
आइझ हमर गीतेक देखें
फूटल सूधे फूल
कविता भावार्थ –
इस कविता में कवि पानुरी जी का चित प्रसन्न है, आनंदित है। क्योंकि कवि की रचनाओं ने काव्य-जगत में एक पहचान बना ली है। काव्य-जगत एवं पाठक-जगत में कवि को रचनाओं की सुगंधी फैलने लगी है। स्वर्ग में इनकी कविताओं की चर्चा होने लगी है। कविता-कर्म के समय ही सारी प्रतिकुलता अनुकुलता में बदल गई है अतः स्वर्ग आनंद ही आनंद का वातावरण है। कवि के मन में अपने कवि-कर्म के सफलता का आनंद सागर लहरें मार रहा है।