बिहार में बौद्ध धर्म व भगवान बुद्ध
- बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक भगवान बुद्ध का जन्म लगभग 563 ई० पू० में नेपाल स्थित कपिलवस्तु के लुम्बिनी नामक स्थान में हुआ था । बुद्ध के बचपन का नाम गौतम और सिद्धार्थ था।
- उनके पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम महामाया था ।
- 16 वर्ष की आयु में यशोधरा नामक कन्या से उनका विवाह हुआ ।
- 28 वर्ष की अवस्था में यशोधरा से उन्हें राहुल नामक पुत्र की प्राप्ति हुई ।
- 29 वर्ष की आयु में वे घर छोड़कर चले गये । इस घटना को ‘महाभिनिष्क्रमण‘ कहा जाता है ।
- गृहत्याग के बाद ज्ञान की खोज में भटकते राजगृह पहुँचे गौतम के प्रथम दो गुरु हुए—
- अलार ( अलार कलाम) और उद्रक ( रुद्रकरामपुत्त) ।
- 35 वर्ष की आयु में वे निरंजना नदी के किनारे उरुवेला नामक वन में पहुँचे और पाँच ब्राह्मण साथियों के साथ घोर तपस्या की, परंतु कोई फल नहीं मिला ।
- तत्पश्चात् वे गया पहुँचे जहाँ पर साधना के 8वें दिन वैशाख पूर्णिमा को एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । उस पीपल वृक्ष को ‘बोधिवृक्ष‘, उस स्थान को ‘बोधगया‘, गौतम को ‘बुद्ध‘ तथा इस घटना को बौद्ध धर्म में ‘सम्बोधि‘ कहा जाता है ।
- ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने 40 वर्ष तक मगध, सारनाथ, वैशाली आदि क्षेत्रों में अपने धर्म का प्रचार किया ।
- गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश (प्रवचन) सारनाथ में दिया । इस घटना को ‘धर्मचक्र प्रवर्त्तन‘ कहा जाता है ।
- उनके उपदेश अत्यंत सरल थे तथा इनमें सर्वप्रथम ‘चार आर्य सत्य’ का प्रतिपादन हुआ—
- (i) संसार में दुःख है,
- (ii) दुःख का कारण है,
- (iii) दुःख का निवारण संभव है और
- (iv) इसके लिए उपाय हैं ।
- दुःख दूर करने के लिए उन्होंने ‘अष्टांगिक मार्ग‘ बताया, जिसमें
- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक् (वचन), सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधान पर उन्होंने जोर दिया ।
- नैतिक आचरण को शुद्ध करने के लिए बुद्ध ने दस ( 10 ) शीलों का आदेश दिया, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य, नृत्य-गान का त्याग, शृंगार प्रसाधनों का त्याग, कोमल विस्तर का त्याग एवं कामिनी – कांचन का त्याग शामिल हैं ।
- 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर नामक स्थान पर बुद्ध का ‘महापरिनिर्वाण‘ ( देहावसान) हुआ ।
- प्रथम बौद्ध संगीति अजातशत्रु के शासनकाल में राजगृह में 483 ई० पू० में महाकस्सप की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई ।
- इस संगीति में ‘सुत्तपिटक‘ (धर्म के सिद्धांत) और ‘विनयपिटक‘ ( आचरण के नियम ) संकलित किये गये ।
- द्वितीय बौद्ध संगीति कालाशोक के शासनकाल में वैशाली में 383 ई० पू० में सबाकामी की अध्यक्षता में आयोजित हुई ।
- तृतीय बौद्ध संगीति अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में लगभग 250 ई० पू० में मोगलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई ।
- चतुर्थ बौद्ध संगीति कनिष्क के शासनकाल में प्रथम सदी ईस्वी सन् में कश्मीर के कुण्डलवन में वसुमित्र की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई ।
- इस चतुर्थ बौद्ध संगीति के पश्चात् बौद्ध धर्म दो भागों विभाजित हो गया ।
- ‘हीनयान‘ और ‘महायान‘ में
- इस चतुर्थ बौद्ध संगीति के पश्चात् बौद्ध धर्म दो भागों विभाजित हो गया ।
बिहार में सम्पन्न बौद्ध संगीतियाँ
- प्रथम बौद्ध संगीति
- 483 ई. पू. (राजगृह – सप्तपर्णि गुफा)
- अध्यक्ष – महाकस्सप
- शासक – अजातशत्रु
- सुत्त एवं विनय पिटकों की रचना ।
- द्वितीय बौद्ध संगीति
- लगभग 383 ई.पू.
- वैशाली (चुल्लवग्ग)
- अध्यक्ष – सबाकामी
- शासक – कालाशोक
- बौद्ध धर्म दो भागों- स्थविर एवं महासांघिक में विभाजित ।
- तृतीय बौद्ध संगीति
- 250 ई.पू. लगभग
- पाटलिपुत्र
- मोग्गलिपुत्त तिस्स
- अशोक
- अभिधम्मपिटक की रचना, संघ भेद रोकने के लिए नियम बनाये गये ।
- बिहार से बाहर हुई चतुर्थ बौद्ध संगीति
- प्रथम सदी ईस्वी सन्
- कश्मीर (कुण्डलवन)
- वसुमित्र (उपाध्यक्ष- अश्वघोष)
- कनिष्क
- ‘विभाषाशास्त्र’ नामक टीका संकलित बौद्ध मत दो संप्रदायों ‘हीनयान’ एवं ‘महायान’ में बँट गया ।
गौतम बुद्ध से संबंधित व्यक्ति
- प्रजापति गौतमी : धाय माता (मौसी)
- चन्ना : सारथि
- अलार कलाम : प्रथम गुरु
- चुन्द : पावा का लोहार या सुनार, जिसके यहाँ बुद्ध ने भोजन /भक्षण किया, जिसके कारण उन्हें अतिसार रोग हो गया और अंततः उनकी मृत्यु हो गयी ।
- कंठक : गौतम बुद्ध का प्रिय घोड़ा
- उद्रक रामपुत्त : बुद्ध के द्वितीय गुरु
- बुद्ध के प्रथम पाँच शिष्य थे, जिन्हें उन्होंने सारनाथ में सर्वप्रथम दीक्षित किया ।
- कोन्डन्ना या कौण्डिन्य,
- भद्दिय या भद्रिक,
- वप्पा या वष्प,
- महानामां और
- अस्सजि या अश्वजित गौतम
- गौतम बुद्ध के दस प्रमुख अनुयायी भिक्खु :
- गरिजन,
- मोग्गल्लना ( या मौद्गल्यायन),
- महाकस्सप,
- सुभुति,
- पुर्ण मैत्रायणी – पुत्र ( या पुण्ण मंतनीपुत्त),
- कात्यायन ( या महाकस्सन),
- अनिरुद्ध (या अनुरुद्ध),
- उपालि,
- राहुल और
- आनंद |
- गौतम बुद्ध की तीन प्रमुख भिक्खुणियाँ :
- महाप्रजापति गौतमी,
- खेमा और
- उप्पलावन्न ।
- गौतम बुद्ध के वे शिष्य जो राजा थे ।
- बिम्बिसार,
- अजातशत्रु (मगध नरेश),
- प्रसेनजित (कोसल के शासक ),
- उदयन (कौशांबी के शासक )
बिहार में जैन धर्म व महावीर स्वामी
- बिहार की धरती पर जैन धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ ।
- जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जबकि 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए ।
- जैन धर्म के प्रवर्त्तक वर्द्धमान महावीर थे ।
- लिच्छवी वंश से सम्बद्ध महावीर का जन्म 540 ई० पू० में वैशाली के समीप कुण्डग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआ था ।
- उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो कुण्डग्राम के राजा थे ।
- उनकी माता का नाम त्रिशला था, जो एक लिच्छवी राजकुमारी थी तथा उसकी पत्नी का नाम यशोदा था, जिससे उन्हें प्रियदर्शना नामक पुत्री हुई ।
- 30 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया तथा 12 वर्षों की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान ( कैवल्य) की प्राप्ति हुई ।
- 42 वर्ष की आयु में जम्भिक ग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के किनारे साल के एक वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ।
- इन्द्रियों को जीतने के कारण वे कैवल्य की प्राप्ति पश्चात् महावीर ‘जिन‘ (विजेता) अर्हत ( पूज्य) एवं निर्ग्रन्थ ( बन्धनहीन) कहलाये तथा इसी कारणवश उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म ‘जैन धर्म’ कहलाया ।
- उन्होंने अपने विचारों का प्रचार किया तथा चम्पा, मिथिला, वैशाली एवं राजगीर में भ्रमण किया ।
- महावीर के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का व्यवहार अनिवार्य है ।
- उनके अनुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है और आत्मा की मुक्ति संयमित जीवन से ही संभव है ।
- जैन धर्म में मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए त्रिरत्नों—
- सम्यक् जीवन,
- सम्यक् दर्शन और
- सम्यक् चरित्र का पालन अनिवार्य है ।
- महावीर ने जैन धर्म का प्रचार करने के लिए एक संघ गठित किया था तथा अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति को धर्म-प्रचार का दायित्व सौंपा था ।
- 72 वर्ष की अवस्था में 468 ई० पू० में राजगृह के निकट पावापुरी नामक स्थान पर इन्हें निर्वाण (मृत्यु) की प्राप्ति हुई ।
- जैन धर्म में दो संगीतियों का आयोजन किया गया ।
- प्रथम जैन संगीति का आयोजन तीसरी शताब्दी ई० पू० में पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई ।
- इस संगीति के पश्चात् जैन धर्म दो भागों में बंट गया –
- ( 1 ) श्वेतांबर और (2) दिगम्बर ।
- इस संगीति के पश्चात् जैन धर्म दो भागों में बंट गया –
- द्वितीय जैन संगीति का आयोजन पाँचवीं सदी ईस्वी में गुजरात के वल्लभी में देवर्धि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ ।
- 21 जैन तीर्थंकरों ने पारसनाथ में निर्वाण प्राप्त किया था।
- जैन धर्म के 24 तीर्थंकर : 1. ऋषभदेव, 2. आदिनाथ, 3. सम्भवनाथ, 4. अभिनंदन, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभु, 7. सुपार्श्वनाथ, 8. चंद्रप्रभु 9. सुविधिनाथ, 10. शीतलनाथ, 11. श्रेयसनाथ, 12. वासुपूज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, 15. धर्मनाथ, 16. शांतिनाथ 17. कुन्थुनाथ, 18. अरिनाथ 19. मल्लिनाथ, 20. मुनि सुव्रत 21. नेमिनाथ, 22. अरिष्टनेमि, 23. पार्श्वनाथ तथा 24. महावीर स्वामी ।
- पार्श्वनाथ के अनुयायियों को ‘निर्ग्रन्थ‘ कहा जाता था ।
- पार्श्वनाथ वैदिक कर्मकांड और देववाद के कटु आलोचक थे । उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी बताया तथा नारियों को भी अपने सम्प्रदाय में प्रवेश दिया ।
- वे तप और संयम पर विशेष बल देते थे । उनके द्वारा प्रतिपादित चार सिद्धांत हैं- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय ।
- महावीर स्वामी के महत्वपूर्ण उपनाम हैं: 1. निर्ग्रथ, 2. ज्ञातृपुत्र, 3. नयपुत्र, 4. कासव, 5. वेसालीय, 6. विदेहदीन, 7. निगण्ठ नाथ पुत्र (बौद्धों के अनुसार) तथा 8. जिन !
- जैन धर्म में सांसारिक तृष्णा बंधन से मुक्ति को ‘निर्वाण‘ कहा गया है।
- जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं— श्वेताम्बर और दिगम्बर
- 300 ई. पू. में मगध में लगातार 12 वर्ष तक अकाल पड़ने पर स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही निवास करने वाले और श्वेत वस्त्र धारण करने वाले जैन भिक्षु श्वेताम्बर कहलाये, जबकि अकाल के समय जैन आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में मगध छोड़कर श्रवणबेलगोला जैन तीर्थंकर और उनके प्रतीक चिह्न (कर्नाटक) चले जाने वाले जैन दिगम्बर कहलाये ।
- दिगम्बर अपने को शुद्ध बताते थे और नग्न रहते थे ।
- जैन मत के ‘सप्तभंगी सिद्धांत‘ (स्यादवाद या अनेकांतवाद) में ज्ञान के सात स्वरूप बताये गये हैं तथा निर्वाण को जीव का अंतिम लक्ष्य बताया गया है ।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल (322-298 ई. पू.) में पाटलिपुत्र में जैन धर्म के उपदेशों को संकलित करने के लिए एक महासभा (प्रथम जैन महासभा) का आयोजन किया गया ।
- इसमें जैन धर्म के प्रधान भाग ( 12 अंगों ) का सम्पादन हुआ ।
- इस महासभा का दक्षिण के जैनों (भद्रबाहु आदि) ने बहिष्कार किया ।
- ऋषभदेव प्रतीक चिह्न – साँड़
- आदिनाथ (अजितनाथ ) प्रतीक चिह्न – हाथी
- नेमिनाथ प्रतीक चिह्न – शंख
- पार्श्वनाथ प्रतीक चिह्न- सर्प
- महावीर स्वामी प्रतीक चिह्न- सिंह
- जैनों ने अपने धर्मोपदेश के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा ‘प्राकृत‘ को अपनाया । जैन धार्मिक ग्रन्थ अर्द्ध-मागधी भाषा में संकलित किये गये ।
- जैन मुनि हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का पहला व्याकरण तैयार किया ।
- जैनों ने बाद में संस्कृत और कन्नड़ भाषा में भी प्रचुर मात्रा में लेखन किया ।
- जैन धर्म के अनुयायियों ने कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया । इन्होंने अनेक गुफाओं का निर्माण करवाया, जैसे – उदयगिरी की बाघ गुफा मंदिर, एलोरा की इंद्र सभा आदि ।
जैन महासभाएं | |||
क्रम | स्थान | समय | अध्यक्ष |
प्रथम | पाटलिपुत्र | तीसरी सदी ई. पू. | स्थूल भद्र |
द्वितीय | कलिंग | दूसरी सदी ई. पू. | संभूति विजय |
तृतीय | आंध्र प्रदेश | प्रथम शताब्दी | आचार्य अर्हदवली |
चतुर्थ | वल्लभी | चौथी शताब्दी | नागार्जुन सूरि |
पंचम | वल्लभी | पाँचवीं शताब्दी | देवर्धि क्षमाश्रमण |
- जैन मतावलम्बी भी बौद्धों की भांति आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे, लेकिन कालांतर में (प्रथम
- सदी ई. के बाद) महावीर और अन्य तीर्थंकरों की मूर्ति-पूजा की जाने लगी ।
- 11वीं-12वीं सदी में जैन कला काफी विकसित हुई । आधुनिक काल में श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर की 75 फीट ऊँची मूर्ति की रचना ग्रेनाइट पत्थर को काटकर की गई है ।
बिहार में इस्लाम धर्म और सूफी सिलसिला
- सूफी संतों के प्रयास से बिहार में इस्लाम का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हुआ ।
- बिहार में सर्वप्रथम चिश्ती सिलसिले के सूफी आये ।
- बिहार में सबसे पहले आने वाले सूफी संतों में शाह महमूद बिहारी एवं सैय्यद ताजुद्दीन प्रमुख थे।
- बिहार आने वाले सूफी सिलसिलों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिरदौसी सिलसिला था ।
- फिरदौसी सिलसिला के सर्वाधिक लोकप्रिय संत मखदुम सर्फुद्दीन मनेरी थे । उनका जन्म 1290 ई० में मनेर में हुआ था ।
- मखदुम सर्फुद्दीन मनेरी के पिता मखदुम याहिया मनेरी थे, जो सुहरावर्दी सिलसिले के सूफी संत थे ।
- मखदुम सर्फुद्दीन मनेरी का निधन 1381 ई० में बिहारशरीफ में हुआ था। उनका मकबरा
- आज भी पटना के निकट मनेर में अवस्थित है ।
- विभिन्न सूफी संतों ने धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक सद्भाव, मानव सेवा और शांतिपूर्ण सह
- अस्तित्व का उपदेश दिया । उनके उपदेशों की जानकारी उनके पत्रों के संकलन ‘मकतूबाते सदी’ तथा उनकी रचनाओं ‘आदाबुल मुरीदीन’ और ‘मादनुल मानी’ से मिलती है । दरियापंथी सम्प्रदाय के संस्थापक संत कवि दरिया साहेब का जन्म एक मुसलमान दर्जी परिवार में डुमराँव के निकट धरखंडा गाँव (भोजपुर) में तथा उनका निधन 1780 में हुआ ।
- अहमदिया सम्प्रदाय बिहार में 1893 ई० में आया। भागलपुर के हसन अली के नेतृत्व में
- यह आन्दोलन जोर-शोर से चला ।
- बुकानन के अनुसार 19वीं शताब्दी में दरियापंथी सम्प्रदाय की लोकप्रियता बरकरार थी
- तथा उस समय इसके अनुयायियों की संख्या बीस हजार थी ।
- उस समय इस सम्प्रदाय के प्रधान टेकदास थे । यह सम्प्रदाय हिन्दू व मुसलमान सम्प्रदाय में समन्वय का पक्षधर था । धरखंडा में इसका प्रधान केन्द्र था, जहाँ नवाब मीर कासिम ने इन्हें 101 बीघा करमुक्त भूमि अनुदान में दी थी ।
बिहार में सिक्ख धर्म व गुरु गोविन्द सिंह
- गुरु नानक ने बिहार के गया, पटना, राजगीर, मुंगेर, भागलपुर, कहलगाँव आदि जगहों की यात्रा करते हुए सिक्ख धर्म का प्रचार-प्रसार किया ।
- सिक्खों के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बिहार आये । वह सासाराम और गया होकर पटना आये ।
- पटना निवास के क्रम में ही उन्हें असम की तरफ प्रस्थान करना पड़ा । फलतः वह अपनी
- पत्नी गुजरी देवी को भाई कृपाल चन्द्र के संरक्षण में पटना में ही छोड़ गये ।
- कुछ समय बाद माता गुजरी देवी ने पटना में 26 दिसम्बर, 1666 को गुरु गोविन्द सिंह को जन्म दिया ।
- बुकानन के अनुसार 1812 ई० में बिहार में सिक्खों की संख्या लगभग 50 हजार थी । गोविन्द दास, हरिदयाल दास और उदयन दास इनके प्रमुख धर्म प्रचारक थे ।
- 1857 ई० के विद्रोह में बिहार के सिक्खों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
बिहार में ईसाई धर्म
- बिहार में ईसाई धर्म का प्रचार सर्वप्रथम रोमन कैथोलिक पादरियों ने किया ।
- 1620 में जहाँगीर के आदेश पर पटना में ईसाई चर्च संगठन की स्थापना हुई ।
- बिहार के एक मुगल गवर्नर मुकर्रब खान द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने की चर्चा भी मिलती है ।
- 18वीं शताब्दी के आरंभ में 1707 में दो पादरी, फादर डोमिनिक और फादर फ्रांसिस ने
- पटना से तिब्बत और नेपाल की यात्रा की और वहाँ धर्म प्रचार के प्रयास किये ।
- 1713 में पटना सिटी में ईसाइयों का पहला चर्च निर्मित हुआ । अभी भी यह इमारत और इसके पास के इलाके को ‘पादरी की हवेली’ कहते हैं ।
- आधुनिक काल में 19वीं सदी में बिहार में बड़े पैमाने पर ईसाई लोगों ने प्रवेश किया । इन लोगों ने विशेष रूप से प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश किया ।
- ईसाई धर्म के प्रचार हेतु अधिक संगठित और सुनियोजित ढंग से काम 1846 के बाद आरंभ हुआ, जब अंस्टेशियस हार्टमैन नामक पादरी को इस काम के लिए पटना में पदस्थापित किया गया ।
- पटना के साथ-साथ बेतिया, मुंगेर, भागलपुर और पूर्णिया में ऐसे प्रयास शीघ्र ही आरंभ हुए। कालांतर में इन गतिविधियों का प्रसार छोटानागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में हुआ, जहाँ ऐसे प्रयासों को काफी सफलता मिली ।
- कैथोलिक सम्प्रदाय के अलावा प्रोटेस्टेन्ट, मेथोडिस्ट एवं अन्य ईसाई सम्प्रदाय भी बिहार में लोकप्रिय हुए ।
- इन सम्प्रदायों से संबद्ध अनेक मिशन और चर्च संगठन सक्रिय रहे हैं ।
- स्कूलों और स्वास्थ्य सेवाओं में इन संगठनों की स्वैच्छिक सेवाएँ प्रशंसनीय रही हैं ।
बिहार में धर्म एवं समाज सुधार आंदोलन
- 19वीं शताब्दी के धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों का बिहार पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा ।
- हिन्दू समाज में नवजागरण लाने में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल
- सोसाइटी आदि का योगदान महत्वपूर्ण रहा ।
ब्रह्म समाज
- भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत तथा ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय का बिहार से संबंध रहा था। उन्होंने पटना में रहकर उर्दू एवं फारसी की तालीम हासिल की तथा ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी रामगढ़ से आरंभ की थी ।
- उनके सहयोगियों में केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से पटना और गया में ब्रह्म समाज की शाखाएँ स्थापित की गयीं ।
- डॉ० कृष्ण नंदन घोष द्वारा भागलपुर में 1866 में ब्रह्म समाज की शाखा स्थापित की गयी । बिहार में यह पहली शाखाथी, परन्तु शीघ्र ही पटना, मुंगेर, जमालपुर और अन्य नगरों में भी इसकी शाखाएँ खुलीं ।
- हिन्दू धर्म को अंधविश्वास से मुक्त कराने और नैतिक आचरण एवं एकेश्वरवादी विश्वास पर बल देने में इस आंदोलन का मुख्य योगदान रहा। समाज सुधार और शिक्षा के क्षेत्रों में भी प्रगति लाने में इसकी भूमिका रही ।
- बिहार में इसके प्रमुख नेताओं में गुरु प्रसाद सेन, प्रकाश चन्द्र राय, हरिसुंदर बोस, शिवचन्द्र बनर्जी, डी. एन. सेन, रजनीकान्त गुहा, बजरंग बिहारी लाल, निवारणचन्द्र मुखर्जी और कामिनी देवी के नाम शामिल हैं ।
आर्य समाज
- आर्य समाज की स्थापना के तुरंत बाद इसके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने बिहार की यात्रा की थी। सबसे पहले वे बक्सर आये। उसके बाद डुमराँव एवं आरा पहुँचे। डुमराँव में वे हरबंस सहाय एवं जयप्रकाश लाल के घर रुके। इसके बाद पटना, मुंगेर, भागलपुर 1 और छपरा उनकी यात्रा – क्रम में शामिल हुए ।
- पटना में पं० रामजीवन भट्ट के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। तत्पश्चात् मुंगेर, भागलपुर, छपरा होते हुए वे मुम्बई चले गये । परंतु भोलानाथ जी एवं माखनलाल के आग्रह पर उन्होंने दूसरी बार दानापुर की यात्रा 30 अक्टूबर, 1869 को की। बिहार में पहला आर्यसमाज मंदिर 1885 में दानापुर में स्थापित हुआ ।
- आरा, पटना, सिवान, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, राँची (अब झारखंड में) और भागलपुर आदि नगरों में इसकी शाखाएँ स्थापित हुईं ।
- शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में इस आंदोलन का प्रमुख योगदान रहा । जाति प्रथा और अनावश्यक कर्मकाण्डों का विरोध करने के साथ महिलाओं के उद्धार और शिक्षा के विकास पर इस आंदोलन ने विशेष ध्यान दिया ।
- सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इसने राष्ट्रीय चेतना को पल्लवित करने और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए युवकों को प्रेरित किया ।
- आर्य समाज के प्रमुख बिहारी नेताओं में बालकृष्ण सहाय, पंडित अयोध्या प्रसाद, डॉ० केशवदेव शास्त्री, भवानी दयाल संन्यासी, राजगुरु धीरेन्द्र शास्त्री, पंडित वेदव्रत, पं० रामरक्षा, रमानन्द साह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
- आर्य समाज द्वारा शुद्धि आंदोलन चलाया गया तथा गोरक्षा समिति आदि का गठन एवं प्रसार किया गया ।
रामकृष्ण मिशन
- रामकृष्ण परमहंस ने सिर्फ एक बार 1868 में बिहार की यात्रा की और देवघर पधारे। इसके बाद स्वामी विवेकानन्द द्वारा अप्रैल, 1886 में गया, 1890 में भागलपुर एवं देवघर और 1902 में बोधगया, बिहार की यात्राएँ की गयीं ।
- बिहार में रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे— रख्ता राम एवं मथुरा प्रसाद । रख्ता राम कुछ समय तक दक्षिणेश्वर के मंदिर में भी रहे ।
- 1920 में पहली बार रामकृष्ण मिशन की शाखा बिहार में जमशेदपुर (अब झारखंड में )
- स्थापित हुई। पटना एवं देवघर (झारखंड) में इसकी शाखाएँ 1922 में खुलीं ।
- अध्यात्म और शिक्षा के प्रचार में इस संस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा ।
- बिहार में इसके प्रमुख नेताओं में जतीन्द्रनाथ मुखर्जी और डा० राजेश्वर ओझा के नाम उल्लेखनीय हैं ।
थियोसोफिकल सोसाइटी
- थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल ऑलकॉट ने सर्वप्रथम 1883 में और एनी बेसेन्ट के साथ 20 जनवरी, 1894 को बिहार की यात्रा की थी । उस समय पटना में यह आन्दोलन पल्लवित हो रहा था ।
- 1904 ई० तक इसकी शाखाएँ भागलपुर, गया, आरा, बांकीपुर (पटना), दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, छपरा, पूर्णिया, सीतामढ़ी और देवघर आदि में संगठित हो चुकी थीं ।
- बिहार में इसके प्रमुख नेता मधुसूदन प्रसाद, रामाश्रय प्रसाद, बैजनाथ सिंह, परमेश्वर दयाल, रघुवीर प्रसाद, सरफराज हुसैन खाँ और पूर्णेन्दु नारायण सिन्हा आदि थे। पेशा से वकील श्री सिन्हा 1919 ई० से 1923 ई० तक थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ इण्डिया के महासचिव भी रहे ।
- इस संस्था ने धार्मिक समन्वय, साम्प्रदायिक भाईचारे और अध्यात्म के विकास में योगदान दिया । होम रूल आंदोलन के माध्यम से श्रीमती एनी बेसेन्ट ने स्वतंत्रता संग्राम को भी नयी प्रेरणा प्रदान की जिसका प्रभाव देश में और बिहार में भी महसूस हुआ ।
मुसलमानों में धर्म एवं समाज सुधार
- आधुनिक बिहार में मुस्लिम समाज में शिक्षा के प्रसार हेतु 1872 ई० में मुजफ्फरपुर में बिहार साइन्टिफिक सोसाइटी की स्थापना मौलवी इमदाद अली खाँ द्वारा की गई । 1873 में गया और पटना में इसकी शाखाएँ खुलीं ।
- उन दिनों बिहार के मुसलमानों में धर्म और समाज सुधार के प्रयास का मुख्य केन्द्र पटना था । 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वहाबियों के माध्यम से ये प्रयास आरंभ हुए ।
- इन्होंने इस्लाम धर्म के मूल उपदेशों पर आचरण का आह्वान किया और धर्म में ‘बिदत’ अथवा विकार का विरोध किया ।
- इस उद्देश्य से उन्होंने शैक्षिक संस्थाएँ संगठित कीं, जहाँ पारम्परिक इस्लामी शिक्षा प्रदान की जाती थी । ऐसी संस्थाओं में सबसे पहले पटना का मदरसा इस्लाहुल मुसलमीन (1890-91 में) मौलाना अब्दुर रहीम द्वारा स्थापित किया गया ।
- 1891 ई० में पटना में खुदाबख्श लाइब्रेरी की स्थापना हुई ।
- स्वतंत्रता आंदोलन के क्रम में बिहारी मुसलमानों में भी राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई। 1917 में मौलाना मोहम्मद सज्जाद ने बिहार में जमीतुल-उलेमाए – हिन्द की शाखा संगठित की। खिलाफत और असहयोग आंदोलनों के दौरान 1921 में बिहार के मुसलमानों की एक अ यन्त महत्वपूर्ण संस्था इमारते- शरीया स्थापित हुई ।
- इसके संस्थापक भी मौलाना मोहम्मद सज्जाद थे और इसका मुख्यालय पटना के निकट फुलवारीशरीफ में स्थित था ।
- इसके द्वारा मुस्लिम समुदाय के धार्मिक और सामाजिक कार्यों को संचालित करने और सुनियोजित करने के प्रयास किये गये ।