मुद्रास्फीति (Inflation)
‘मुद्रास्फीति‘ से अभिप्राय दीर्घकाल में सामान्य कीमत स्तर में वृद्धि की स्थिति से है। जब कीमतों के सामान्य स्तर में लगातार वृद्धि होने लगती है तो वह ‘मुद्रास्फीति की अवस्था‘ कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्रा के मूल्य या क्रय शक्ति का कम होना या कमज़ोर होना ही मुद्रास्फीति की अवस्था है। मुद्रास्फीति के कारण आगतों की कीमत तथा ब्याज दर में वृद्धि होती है, जिस कारण निवेश की लागत में भी वृद्धि होती है, जो कि संवृद्धि की प्रक्रिया में एक बाधा के रूप में जानी जाती है।
मुद्रास्फीति संबंधी अवधारणाएँ (Inflation Related Concepts) मुद्रास्फीति (Inflation)
जब अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा, मुद्रा की आपूर्ति अधिक हो जाती है अर्थात् वस्तुओं–सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा उसकी मांग अधिक होती है तो कीमतें सतत् रूप से बढ़ती हैं और मुद्रा का मूल्य घटता है, जिसे ‘मुद्रास्फीति‘ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि 1 जनवरी, 2016 को एक व्यक्ति ₹ 10 में 5 केले क्रय करता है, लेकिन अगले माह 1 फरवरी, 2016 को 5 केले क्रय करने के लिये उसे ₹ 15 खर्च करने पड़ें या वह ₹10 में केवल 4 केले ही क्रय कर सका तो ऐसे में वस्तु (केले) के मूल्य में वृद्धि एवं मुद्रा
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की क्रय क्षमता में कमी प्रदर्शित होती है। इसे ही ‘मुद्रास्फीति‘ कहा जाता है। यह व्यापार चक्रों का एक भाग है। अस्थायी तथा छिटपुट मूल्य स्तर की वृद्धि को मुद्रास्फीति नहीं कहते हैं। मुद्रास्फीति को हमेशा बुरा नहीं माना जाता। मंदी के दौरान सामान्य कीमत स्तर में बढ़ोतरी को स्फीतिकारी नहीं मानते हैं, क्योंकि इसके परिणाम अर्थव्यवस्था के लिये हानिकारक नहीं होते हैं।
वस्तु की मांग 1 + वस्तु की आपूर्ति वस्तु की कीमत 1 (मुद्रास्फीति)
मुद्रा अपस्फीति / विस्फीति (Disinflation)
यह मुद्रास्फीति पर नियंत्रण लगाने की अवस्था है, जिसके तहत कीमतों को धीरे–धीरे घटाकर सामान्य स्तर पर लाने का प्रयास किया जाता है। इसमें मुद्रास्फीति की दर कम होती जाती है, किंतु सकारात्मक बनी रहती है। यह सरकार के मौद्रिक एवं राजकोषीय उपायों का एक भाग है। यह अवस्फीति (Deflation) की तरह अर्थव्यवस्था के लिये हानिकारक नहीं है।
मुद्रा संकुचन / मुद्रा अवस्फीति (Deflation)
जब अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा उनकी मांग कम हो जाती है तो इससे कीमतें घटती हैं, जिसे ‘मुद्रा संकुचन‘ या ‘मुद्रा अवस्फीति‘ कहा जाता है। मुद्रा अवस्फीति (Deflation)
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दृष्टि पब्लिकेशन्स
मूल्य स्तर के गिरने की वह अवस्था है, जो उस समय उत्पन्न होती है, जब वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन मौद्रिक आय की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ता है। इस प्रकार मूल्य में प्रत्येक गिरावट अवस्फीति नहीं होती है। यह मुद्रास्फीति के ठीक विपरीत स्थिति है। इस स्थिति में मुद्रास्फीति की दर शून्य से नीचे अथवा नकारात्मक होती है। इस प्रकार मुद्रा अवस्फीति (Deflation) में कीमतें तो गिरती हैं, परंतु उत्पादन एवं मुद्रा का मूल्य बढ़ता रहता है।
मुद्रा संस्फीति (Reflation)
यह मुद्रा अवस्फीति (Deflation) पर नियंत्रण लगाने की अवस्था है, जिसके तहत बहुत नीचे गिरी हुई कीमतों को धीरे–धीरे बढ़ाकर सामान्य स्तर पर लाने का प्रयास किया जाता है। इसके तहत करों में कटौती, ब्याज दरों में कमी आदि करके अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाया जाता है। मुद्रा संस्फीति (प्रतिसारजन्य मुद्रास्फीति) की स्थिति अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की समस्या को कम करने एवं वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग को बढ़ाने के लिये सरकार द्वारा जान–बूझकर लाई जाती है, जिससे अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधियों एवं आर्थिक संवृद्धि की दर को बढ़ाया जा सके। दूसरे शब्दों में, जब अर्थव्यवस्था मंदी की स्थिति (निम्न मुद्रास्फीति, अधिक बेरोज़गारी एवं अल्प मांग) की समस्या का सामना कर रही हो तब सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि की जाती है एवं कुछ वस्तुओं के मूल्य में अचानक एवं अस्थायी वृद्धि की जाती है। इस प्रकार की जाने वाली अस्थायी वृद्धि ‘मुद्रा संस्फीति‘ (प्रतिसारजन्य मुद्रास्फीति) के रूप में जानी जाती है।
निस्पंदन या मंदीगत मुद्रास्फीति (Stagflation)
जब अर्थव्यवस्था में मंदी एवं स्फीति दोनों की स्थितियाँ साथ–साथ दिखाई दें अर्थात् बेरोज़गारी एवं मुद्रास्फीति दोनों साथ–साथ रहें तो उसे ‘निस्पंदन‘ (Stagflation) कहते हैं। निस्पंदन की स्थिति में मुद्रास्फीति की दर ऊँची, आर्थिक संवृद्धि की दर नीची तथा बेरोज़गारी की दर स्थिर रूप से ऊँची बनी रहती है। इसे नियंत्रित करना कठिन होता है, क्योंकि जहाँ बेरोज़गारी को दूर करने के लिये मांग में वृद्धि हेतु विस्तारक राजकोषीय उपाय किये जाते हैं, वहीं दूसरी ओर उच्च स्फीति के समाधान हेतु संकुचनकारी नीतियाँ अपनाई जाती हैं।
स्क्यूफ्लेशन (Skewflation)
जब अर्थव्यवस्था में एक साथ मुद्रास्फीति और मुद्रा संकुचन की स्थिति हो तो उसे ‘स्क्यूफ्लेशन‘ कहते हैं। इसमें मूल्य वृद्धि से तात्पर्य समस्त वस्तुओं में मूल्य वृद्धि से नहीं है बल्कि एक विशेष वस्तु या वस्तुओं के छोटे समूह में हुई मूल्य वृद्धि से है। इस स्थिति में कुछ क्षेत्रों में तो ऊँची मुद्रास्फीति की दर या कीमत स्तर में भारी वृद्धि देखी जाती है, वहीं दूसरी ओर कुछ क्षेत्रों में मुद्रा संकुचन या कीमत स्तर में गिरावट या स्थिर कीमत स्तर की स्थिति एक साथ प्रदर्शित होती है।
स्क्यूफ्लेशन = मुद्रास्फीति + मुद्रा संकुचन
आर्थिक विकास एवं मुद्रास्फीति में संबंध ( Relation between Economic Development and Inflation)
विकास दर एवं मुद्रास्फीति के बीच एक सीमा तक प्रत्यक्ष संबंध होता है, क्योंकि यदि विकास दर बढ़ानी है तो इसके लिये अर्थव्यवस्था
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मुद्रास्फीति एवं व्यापार चक्र
में उत्पादन बढ़ाना होगा। उत्पादन बढ़ाने के लिये निवेश को बढ़ाना होगा । इसलिये चूँकि निवेश एवं ब्याज दर के बीच विपरीत संबंध होता है, निवेश तभी बढ़ेगा जब ब्याज दर को घटाया जाए, परंतु यदि ब्याज दर बढ़ती है तो निवेश एवं विकास दर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि मुद्रास्फीति की ऊँची दर होने के बावजूद भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज दर को बढ़ाना नहीं चाहता।
”
धारणीय मुद्रास्फीति (Sustainable Infiation)
धारणीय मुद्रास्फीति का अर्थ मुद्रास्फीति की ऐसी दर से होता है, जिस पर अर्थव्यवस्था एक उच्च विकास दर पर गतिमान रहती है तथा आम लोगों को भी कोई विशेष समस्या नहीं होती। भारत जैसे विकासशील देशों के लिये लगभग 5-6 प्रतिशत की मुद्रास्फीति को
‘ धारणीय मुद्रास्फीति‘ कहा जाता है, जबकि विकसित देशों के लिये लगभग 2 प्रतिशत की मुद्रास्फीति धारणीय मानी जाती है।
फिलिप्स वक्र (Phillips Curve)
- न्यूज़ीलैंड के प्रमुख अर्थशास्त्री ए.डब्ल्यू. फिलिप्स द्वारा प्रतिपादित फिलिप्स वक्र ब्रिटेन के 1861-1957 तक के आनुभविक आँकड़ों पर आधारित है। फिलिप्स वक्र बेरोज़गारी की दर, मौद्रिक मज़दूरी में वृद्धि दर तथा मुद्रास्फीति की दर में संबंध स्थापित करता है। इसमें स्फीति की दर तथा बेरोज़गारी की दर के बीच ‘व्युत्क्रमानुपाती संबंध‘ पाया जाता है।
- इस वक्र के अनुसार, यदि बेरोजगारी की दर कम करना चाहते हैं तो इसके लिये अर्थव्यवस्था में मौद्रिक मज़दूरी बढ़ानी होगी, परंतु मौद्रिक मज़दूरी बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ जाएगी, जिससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी। अतः बेरोजगारी समाप्त करना चाहते हैं तो ऊँची मुद्रास्फीति की दर बर्दाश्त करनी होगी और यदि मुद्रास्फीति की दर को कम करना चाहते हैं तो अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की ऊँची दर वहन करनी होगी।
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मुद्रास्फीति दर (%)
7
6
5
+
3
2
1
फिलिप्स वक्र 4
B
1 2 3 4 5 6 7
8
बेरोज़गारी दर (%)
मुद्रास्फीति के प्रकार (Types of Inflation)
मुद्रास्फीति को विभिन्न आधारों पर विभाजित किया जा सकता है,
जो निम्नलिखित रूप में हैं-
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मुद्रास्फीति एवं व्यापार चक्र
रेंगती हुई मुद्रास्फीति /मंद मुद्रास्फीति (Creeping Inflation)
जब मुद्रास्फीति की दर 3 प्रतिशत या उससे कम होती है तो उसे ‘रेंगती हुई मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। यह मुद्रास्फीति का अत्यंत मंद रूप है। सामान्यतः ऐसी स्थिति विकसित देशों में होती है। अर्थव्यवस्था को गतिहीनता के प्रभावों से मुक्त रखने तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहन प्रदान करने के कारण इस स्फीति को वांछित माना जाता है।
चलती हुई मुद्रास्फीति (Walking Inflation)
जब मुद्रास्फीति की दर मंद मुद्रास्फीति की दर से अधिक अर्थात् 3- 10 प्रतिशत के बीच में होती है तो उसे ‘चलती हुई मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। चलती हुई मुद्रास्फीति की मंद गति भारत जैसे विकासशील देशों के लिये अच्छी मानी गई है, किंतु दीर्घ अवधि तक चलती हुई मुद्रास्फीति को दौड़ती हुई मुद्रास्फीति या कूदती हुई मुद्रास्फीति के खतरे के संकेतक के रूप में देखा जाता है।
दौड़ती हुई मुद्रास्फीति (Running Inflation)
,
बढ़ती हुई कीमतों की दर में तीव्र वृद्धि को दौड़ती हुई मुद्रास्फीति ‘ कहा जाता है अर्थात् जब मुद्रास्फीति की दर 10-20 प्रतिशत के बीच होती है तो उसे दौड़ती हुई ‘मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। इस स्थिति में सरकार द्वारा मज़बूत मौद्रिक एवं राजकोषीय नियंत्रण उपाय किये जाने की आवश्यकता होती है, अन्यथा यह अवस्था ‘अतिमुद्रास्फीति‘ के लिये मार्ग प्रशस्त करती है।
कूदती हुई मुद्रास्फीति (Galloping / Over Inflation)
ऐसी स्थिति जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें द्विअंकीय या त्रिअंकीय वृद्धि दर से बढ़ती हैं अर्थात् जब उत्पादन में बिना किसी वृद्धि के या नगण्य वृद्धि के कीमतें काफी तेज़ी से बढ़ती हैं और मुद्रास्फीति की दर 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो उसे ‘कूदती हुई मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। इस स्थिति में स्फीति की वार्षिक वृद्धि दर अत्यंत उच्च होती है।
अतिमुद्रास्फीति (Hyperinflation)
जब स्फीति की दर तीन अंकों से भी अधिक हो जाए तो उसे ‘अतिमुद्रास्फीति‘ कहते हैं। इस स्थिति में स्थिर आय वाली सभी परिसंपत्तियों, यथा- वेतन, बचत, गिरवी, बीमा पॉलिसी, बॉण्ड आदि का वास्तविक मूल्य कम हो जाता है। ऐसी मुद्रास्फीति में न सिर्फ बढ़त बड़ी होती है बल्कि ऐसा बहुत कम समय के अंदर हो जाता है। इस स्थिति में पत्र–मुद्रा बेकार हो जाती है। 1920 के दशक में जर्मनी में तथा 2000 के दशक में जिम्बाब्वे में अतिमुद्रास्फीति की स्थिति देखी गई। ध्यातव्य है कि 2016 – 17 के दौरान वेनेजुएला में अतिमुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हुई।
कोर स्फीति (Core Inflation)
इसकी अवधारणा 1981 में एक्स्टेन (Eckstein) ने दी थी। इसके अनुसार मुद्रास्फीति के मापन के दो भाग होते हैं- स्थायी मुद्रास्फीति और अस्थायी मुद्रास्फीति ।
के
जब जनंसख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, नगरीकरण आदि स्थायी कारणों फलस्वरूप मांग बढ़ने से मुद्रास्फीति फैलती या बढ़ती है तो उसे
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भारतीय अर्थव्यवस्था
‘स्थायी मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। इसके विपरीत जब मानसून का निष्पादन अच्छा न होने और प्राकृतिक आपदा आने जैसे अस्थायी कारणों से उत्पादन में कमी के कारण मुद्रास्फीति फैलती है तो उसे ‘अस्थायी मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। रिज़र्व बैंक गैर–खाद्य विनिर्मित वस्तुओं से संबंधित स्फीति को कोर स्फीति के रूप में लेता है। कोर स्फीति में खाद्य एवं ईंधन की कीमतों में होने वाले उतार–चढ़ाव को सम्मिलित नहीं किया जाता ।
दरअसल मुद्रास्फीति की स्थायी दर को ही मुद्रास्फीति की प्रमुख दर कहा जाता है। प्रायः सरकार एवं केंद्रीय बैंक की नीतियाँ इसी प्रकार की मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की होती हैं।
हेडलाइन मुद्रास्फीति (Headline Inflation)
थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर समग्र मुद्रास्फीति के मासिक आधार पर जारी किये जाने वाले आँकड़ों को ‘हेडलाइन मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। इसमें खाद्य पदार्थों व ईंधन सहित सभी वस्तुओं को शामिल किया जाता है। भारत सरकार द्वारा फरवरी 2015 से औपचारिक रूप से मुद्रास्फीति को लक्षित करने की नीति (Inflation Targeting Policy) अपनाई जा रही है। इसके अंतर्गत सीपीआई (संयुक्त) को हेडलाइन मुद्रास्फीति माना गया है तथा रिज़र्व बैंक अपनी मौद्रिक एवं साख नीतियों में इसे ही लक्षित करता है।
आयातित मुद्रास्फीति (Imported Inflation)
जब विदेशों से आयात किये गए कच्चे उत्पाद की कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति फैलती है तो उसे ‘आयातित मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के कारण भारत में जो मुद्रास्फीति फैली है, वह इसी प्रकार की है।
छिपी हुई मुद्रास्फीति (Hidden Inflation)
किसी उत्पाद की पहले की कीमत पर या कीमत में कमी के बावजूद पहले की तुलना में उस उत्पाद की गुणवत्ता या मात्रा में कमी को ‘छिपी हुई मुद्रास्फीति‘ कहते हैं अर्थात् पूर्ववत् कीमतों पर ही, लेकिन पहले की अपेक्षा कम वज़न, आकार एवं खराब गुणवत्ता वाला माल बेचा जाना ‘छिपी मुद्रास्फीति‘ है।
संरचनात्मक मुद्रास्फीति (Structural Inflation)
मुद्रास्फीति केवल आपूर्ति पर मांग के आधिक्य के कारण ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था में सरकार की मौद्रिक नीतियों के कारण भी बनी रहती है। अधिक लचीली मौद्रिक नीतियों के तहत यदि कोई देश अधिक मात्रा में मुद्रा जारी करता है या ब्याज दरों को दीर्घ अवधि तक कम रखता है तो इस कारण मुद्रा की प्रत्येक इकाई का मूल्य बढ़ी हुई मांग की तुलना में गिर जाता है, इसी अवस्था को ‘संरचनात्मक मुद्रास्फीति‘ कहते हैं । मुद्रास्फीति के संरचनात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन ‘गुन्नार मिर्डल ‘ द्वारा किया गया तथा ‘पॉल स्ट्रीटेन‘ ने इसमें और अधिक योगदान दिया। इस सिद्धांत के अनुसार अर्थव्यवस्था की संरचना में होने वाले असंतुलन स्फीति के कारक होते हैं । अर्थव्यवस्था के प्रमुख असंतुलनकारी तत्त्व हैं- खाद्य की कमी, वस्तुओं की आपूर्ति में कमी, विदेशी विनिमय अवरोध, सामाजिक–राजनीतिक प्रतिबंध, संसाधन असंतुलन तथा अवस्थापनात्मक अवरोध इत्यादि ।
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दृष्टि पब्लिकेशन्स
मुद्रास्फीति के कारण (Causes of Inflation)
मांग प्रेरित मुद्रास्फीति (Demand Pull Inflation)
जब अर्थव्यवस्था में साधन लागत एक समान रहती है, किंतु वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा उसकी मांग अधिक हो जाती है तो उसे ‘मांग प्रेरित मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। मांग प्रेरित मुद्रास्फीति निम्न कारणों से आ सकती है लोगों की आय बढ़ने, सरकारी व्यय में तीव्र वृद्धि, बैंकों द्वारा अधिक मात्रा में ऋण देने, जनसंख्या वृद्धि एवं नगरीकरण आदि कारणों से मांग बढ़ने से ।
लागतजन्य मुद्रास्फीति (Cost – Push Inflation)
यदि उत्पादन लागत में वृद्धि के कारण कीमतें बढ़ती हैं तो उसे ‘लागतजन्य मुद्रास्फीति‘ कहते हैं। उत्पादन की बढ़ती लागत बहुमूल्य आगतों से संबंधित हो सकती है। यह प्राकृतिक कारणों, जैसे- बाढ़, सूखा या मानवीय कारणों, जैसे- हड़ताल व तालाबंदी के कारण भी हो सकती है। मध्यवर्ती वस्तुओं पर अत्यधिक कर, परोक्ष कर में वृद्धि, स्टील, सीमेंट, रेलवे, कोयला एवं विद्युत इत्यादि के मूल्य में वृद्धि उत्पादन लागत में वृद्धि करते हैं।
वैश्विक कारणों से मुद्रास्फीति (Inflation by Global Causes)
वैश्वीकरण के कारण एक देश की आर्थिक क्रियाओं का असर अन्य देशों पर भी पड़ता है। तेल संकट या पेट्रोल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में वृद्धि से मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है। किसी देश में मंदी की स्थिति में उसका निर्यात घटने से उसके साझेदार देश में आयातों में प्रत्यक्षतः कमी आती है, जिससे मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है।
मुद्रास्फीति की गणना (Calculation of Inflation)
- भारत में थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति की गणना वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कार्यालय एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – ग्रामीण, शहरी व संयुक्त की गणना केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा की जाती है।
भारत में पहले मुद्रास्फीति की गणना केवल थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) के आधार पर की जाती थी, परंतु वर्ष 2014 से यह गणना थोक मूल्य सूचकांक एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) दोनों के आधार पर की जाती है ।
- मुद्रास्फीति की गणना के लिये सर्वप्रथम एक मुद्रा सूचकांक बनाया जाता है, जो थोक मूल्य सूचकांक (WPI) एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) के रूप में होता है। मूल्य सूचकांक कीमतों में होने वाले उतार–चढ़ाव की औसत प्रवृत्ति को मापते हैं। मूल्य सूचकांक बनाने के लिये सर्वप्रथम एक आधार वर्ष (Base Year) बनाया जाता है। आधार वर्ष का सूचकांक हमेशा 100 माना जाता है।
भारत में मुद्रास्फीति की गणना के लिये वर्तमान में 2011-12 को आधार वर्ष के रूप में प्रयोग किया जाता है।
आधार प्रभाव (Base Effect)
कीमतों पर तथा मुद्रास्फीति पर पिछले वर्ष के सूचकांक का जो प्रभाव होता है, उसे ‘आधार प्रभाव‘ (Base Effect ) कहा जाता है अर्थात्
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मुद्रास्फीति एवं व्यापार चक्र
आधार प्रभाव पिछले वर्ष में मूल्य स्तर में वृद्धि (यानी पिछले वर्ष की मुद्रास्फीति) के प्रभाव के मुकाबले वर्तमान वर्ष में मूल्य स्तर में समरूपी वृद्धि (यानी वर्तमान मुद्रास्फीति ) के प्रभाव को दर्शाता है। उदाहरण के लिये 2009 में 1973 के बाद मानसून का निष्पादन सबसे खराब था, परिणामस्वरूप 2009 में उत्पादन कम होने के कारण कीमत सूचकांक अधिक था और जब इस सूचकांक की तुलना पिछले वर्ष के सूचकांक से की गई तो मुद्रास्फीति काफी ऊँची दिखाई पड़ रही थी, ऐसा आधार प्रभाव के कारण ही था । इसी प्रकार 2010 में मानसून का निष्पादन सामान्य रहने के कारण चालू सूचकांक सामान्य स्तर पर था और जब इसकी तुलना 2009 के ऊँचे सूचकांक से की गई तो मुद्रास्फीति की दर काफी नीचे दिखाई पड़ी, यह भी आधार प्रभाव के कारण ही था ।
- वर्ष–दर- वर्ष महँगाई की गणना निम्नलिखित सूत्र द्वारा की जाती है-
वर्तमान महँगाई दर
=
चालू मूल्य सूचकांक – पिछले वर्ष
का मूल्य सूचकांक
पिछले वर्ष का मूल्य सूचकांक
मुद्रास्फीति के सूचक (Indicators of Inflation)
मुद्रास्फीति के तीन मानक सूचक
- थोक मूल्य सूचकांक
- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक
- जीडीपी अपस्फीतिकारक
थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index – WPI)
×100
- थोक मूल्य सूचकांक वस्तुओं के थोक मूल्य में परिवर्तन को प्रदर्शित करता है। भारत में थोक मूल्य सूचकांक का संकलन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार कार्यालय द्वारा मासिक स्तर पर होता है, जो पहले साप्ताहिक स्तर पर होता था ।
- भारत में पहला थोक मूल्य सूचकांक 10 जनवरी, 1942 से शुरू होने वाले सप्ताह से शुरू हुआ, जिसका आधार वर्ष 1939 था। स्वतंत्र भारत में भी इसी श्रृंखला का पालन किया गया।
- मार्च 2012 में डॉ. सौमित्र चौधरी की अध्यक्षता में गठित कार्यसमूह की सलाह पर थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011 – 12 कर दिया गया। इसी के साथ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) तथा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) का भी आधार वर्ष 2011-12 कर दिया गया। अब तक कुल 7 बार आधार वर्ष का संशोधन किया जा चुका है।
‘
* 1952-53 आधार वर्ष ( 112 वस्तुएँ); जून 1952 से जारी * 1961-62 आधार वर्ष (139 वस्तुएँ); जुलाई 1969 से जारी * 1970-71 आधार वर्ष (360 वस्तुएँ); जनवरी 1977 से जारी * 1981-82 आधार वर्ष ( 447 वस्तुएँ); जनवरी 1989 से जारी * 1993-94 आधार वर्ष (435 वस्तुएँ); जुलाई 1999 से जारी * 2004-05 आधार वर्ष ( 676 वस्तुएँ); सितंबर 2011 से जारी
- 2011-12 आधार वर्ष (697 वस्तुएँ); जनवरी 2015 से जारी
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मुद्रास्फीति एवं व्यापार चक्र
- थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष 2011-12 करने के साथ ही इस संशोधित श्रृंखला में अब 676 वस्तुओं की जगह 697 वस्तुओं को शामिल किया गया है, जिसमें 199 नई वस्तुओं को जोड़ा गया जबकि 146 पुरानी वस्तुओं को हटाया गया है, संशोधित नई श्रृंखला में प्राथमिक वस्तुओं ( 117 वस्तुएँ) का भारांश 22.62 प्रतिशत, ईंधन तथा ऊर्जा ( 16 वस्तुएँ) का भारांश 13.15 प्रतिशत तथा विनिर्मित उत्पादों (564 वस्तुएँ) का भारांश 64.23 प्रतिशत है। आधार वर्ष 2004-05 में प्राथमिक वस्तुएँ ईंधन तथा ऊर्जा एवं विनिर्मित उत्पादों के लिये भारांश क्रमशः 20.12 प्रतिशत, 14.91 प्रतिशत तथा 64.97 प्रतिशत थे । थोक मूल्य सूचकाक समूह में सेवाएँ शामिल नहीं की गई हैं।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index – CPI)
थोक मूल्य सूचकांक (WPI) के अलावा भारत उपभोक्ताओं के स्तर पर लोगों के द्वारा प्रतिदिन उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में होने वाली वृद्धि अर्थात् मुद्रास्फीति की गणना करता है. ठीक वैसे ही जैसे विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाएँ करती हैं। भारत में उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति और खपत में काफी अंतर रहने के कारण अब तक एक अकेला उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) संभव नहीं हो पाया है, जो भारत के सभी उपभोक्ताओं को अपने में समेट ले, इसलिये उपभोक्ताओं के सामाजिक–आर्थिक अंतर पर निर्भर करते हुए भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ( CPI) को मुख्यत: चार भागों में बाँटा गया है-
औद्योगिक श्रमिक (Industrial Workers–IW)
औद्योगिक श्रमिकों (IW) के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के बास्केट में 370 मदें शामिल हैं और इसका आधार वर्ष 2001 है। मूल रूप से यह सूचकांक सरकारी कर्मचारियों (बैंक और दूतावासों में काम करने वालों को छोड़कर) के लिये है। इसी आधार पर कर्मचारियों के महँगाई भत्ते का भी निर्धारण किया जाता है। जब वेतन आयोग (Pay Commission) वेतन का पुनरीक्षण (Review) करता है तो CPI – IW को ध्यान में रखता है।
शहरी गैर – मैनुअल कर्मचारी
(Urban Non–Manual Employees–UNME)
शहरी गैर – मैनुअल कर्मचारियों के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष 1984-85 है। इसके बास्केट में 146 – 365 मदें शामिल
हैं।
इस सूचकांक के लिये देशभर के 59 केंद्रों से आँकड़े लिये जाते हैं। आँकड़े मासिक आधार पर लिये जाते हैं और इसमें दो सप्ताह का
समयांतराल (Time Lag) होता है। इस मूल्य सूचकांक का सीमित इस्तेमाल होता है। मूल रूप से इसका इस्तेमाल भारत में संचालन कर रही विदेशी कंपनियों के कर्मचारियों के लिये महँगाई भत्ते (डी.ए.) के निर्धारण में होता है। साथ ही इसका इस्तेमाल आयकर अधिनियम के तहत कैपिटल गेन्स के निर्धारण में भी होता है ।
कृषि मज़दूर (Agricultural Labourers–AL)
विभिन्न राज्यों में खेतिहर मजदूरों के लिये इस सूचकांक का प्रयोग इनकी
न्यूनतम मज़दूरी के संशोधन के लिये किया जाता है, जिसका आधार वर्ष 1986-87 है और इसके बास्केट में 260 मदें शामिल हैं।
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ग्रामीण मजदूर (Rural Labourers – RL)
भारतीय अर्थव्यवस्था
ग्रामीण क्षेत्र के मज़दूरों के लिये इस सूचकांक का प्रयोग किया जाता है, जिसका आधार वर्ष 1986-87 है और इसके बास्केट में 260 मदें शामिल हैं।
नोट: इनमें से CPI–UNME को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 2008 से प्रकाशित करना बंद कर दिया है, पर शेष तीन (CPI–IW, CPI–RL और CPI–AL) श्रम और रोज़गार मंत्रालय के ‘ श्रम ब्यूरो‘ द्वारा अभी भी प्रकाशित हो रहे हैं।
विशेष
- पहले केवल अखिल भारतीय स्तर के CPI का निर्माण किया जाता था, परंतु 2011 में सरकार ने CPI को तीन भागों में बनाया, जिसका आधार वर्ष 2010 को माना । लेकिन फरवरी 2015 में CPI को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा पुनः संशोधित किया गया और आधार वर्ष 2010 से बदलकर 2012 कर दिया गया। अप्रैल 2017 से CPI (शहरी, ग्रामीण और संयुक्त ) में आधार वर्ष 2012 का प्रयोग शुरू कर दिया गया।
यह सूचकांक ग्रामीण (R) तथा शहरी (U) दोनों ही सूचकांकों का संयुक्त सूचकांक है। इसलिये इसे हम CPI (R+U) भी कहते हैं। यह सूचकांक केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
- CPI – शहरी, शहरी क्षेत्रों में कीमतों में होने वाले उतार–चढ़ाव को दिखाता है, जबकि CPI – ग्रामीण, ग्रामीण क्षेत्रों में कीमतों में होने वाले उतार–चढ़ाव को दर्शाता है।
जीडीपी अपस्फीतिकारक (GDP Deflator)
यह मुद्रास्फीति मापने का अत्यंत उपयुक्त तरीका है, क्योंकि इसमें किसी अर्थव्यवस्था के किसी वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में परिवर्तन को लिया जाता है। जब सकल घरेलू उत्पाद की गणना बाज़ार कीमतों अर्थात् प्रचलित मूल्यों पर की जाती है तो इसे बाज़ार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् ‘मौद्रिक जीडीपी‘ कहते हैं और जब सकल घरेलू उत्पाद की गणना आधार वर्ष के मूल्यों पर की जाती है तो इसे स्थिर मूल्यों पर जीडीपी अर्थात् ‘वास्तविक जीडीपी‘ कहते हैं। जब हम किसी आधार वर्ष के स्थिर मूल्यों पर जीडीपी की गणना करते हैं तो सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाला स्फीति प्रभाव समाप्त हो जाता है। मौद्रिक जीडीपी में वृद्धि तथा वास्तविक जीडीपी की वृद्धि का अंतर ही जीडीपी की कीमत में वृद्धि है और इसे ही ‘जीडीपी डिफ्लेटर‘ कहते हैं। यह चालू मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद तथा स्थिर मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात है।
जीडीपी डिफ्लेटर
=
चालू कीमतों पर जीडीपी
स्थिर कीमतों पर जीडीपी
यदि जीडीपी का मान 1 हो तो इसका अर्थ है कि कीमत स्तर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, जबकि जीडीपी डिफ्लेटर का मान 2 हो तो दोगुने की वृद्धि और 4 हो तो कीमत स्तर में 4 गुनी वृद्धि प्रदर्शित होगी ।
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दृष्टि पब्लिकेशन्स
अन्य सूचक (Other Indicators)
खाद्य मुद्रास्फीति (Food Inflation)
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक या सामान्य मुद्रास्फीति के सापेक्ष में अनिवार्य खाद्य पदार्थों के थोक मूल्य सूचकांक (खाद्य टोकरी के रूप में परिभाषित) में जारी बढ़ोतरी को खाद्य मुद्रास्फीति के रूप में जाना जाता है। गलत प्रबंधन नीति, गलत बफर स्टॉक नीति और दोषपूर्ण न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति आदि सम्मिलित रूप से खाद्य मुद्रास्फीति के लिये ज़िम्मेदार होते हैं।
आवास मूल्य सूचकांक (Housing Price Index)
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2007 से ‘राष्ट्रीय आवास बैंक रेजीडेक्स‘ (NHB – Residex) इस सूचकांक को जारी कर रहा है। यह सूचकांक विभिन्न शहरों में एवं विभिन्न समयों में आवासीय परिसंपत्तियों की कीमतों में होने वाले उतार–चढ़ाव को प्रदर्शित करता है। इस सूचकांक के निर्माण के लिये 2007 को आधार वर्ष के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।
वर्तमान में एचपीआई के भौगोलिक कवरेज में भारत के 18 राज्य / संघशासित प्रदेशों की राजधानियों और 37 स्मार्ट शहरों सहित कुल 50 शहर शामिल हैं, जिन्हें उत्तरोत्तर विस्तारित करके 100 शहरों तक किया जाएगा।
एचपीआई के तहत चार प्रकार के सूचकांकों अर्थात् मूल्यांकन मूल्य पर एचपीआई, पंजीकृत मूल्य पर एचपीआई, निर्माणाधीन संपत्ति बाजार मूल्य पर एचपीआई तथा विक्रय / पुनर्विक्रय संपत्तियों के लिये बाजार मूल्य पर एचपीआई के लिये विभिन्न स्रोतों का उपयोग होता है, ताकि वर्तमान मूल्य के विस्तार को शहर और आस–पास के स्तर तक उपलब्ध कराया जा सके।
सेवा मूल्य सूचकांक (Service Price Index)
भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सेवा क्षेत्र का योगदान पिछले कुछ वर्षों में मज़बूत हुआ है, जो वर्तमान में लगभग 60 प्रतिशत के आस–पास है। अर्थव्यवस्था में इसके बढ़ते प्रभाव को देखते
हुए सेवा मूल्य सूचकांक आज ज़रूरी हो गया है, क्योंकि सेवा क्षेत्र
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में मूल्यों में बदलाव के लिये अब तक कोई सूचकांक नहीं था ।
- अभिजीत सेन की अध्यक्षता में गठित समिति ने सेवा मूल्य सूचकांक
की संस्तुति की। इसके अलावा, सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग‘ ने भी इसकी संस्तुति की। इस सूचकांक की लगभग सभी औपचारिकताएँ पूरी कर ली गई हैं, लेकिन अभी यह शुरू नहीं किया गया है। उल्लेखनीय है कि 2005 में इस विषय पर ‘ओईसीडी – यूरोस्टैट रिपोर्ट‘ आने के बाद अर्थव्यवस्था के लिये सेवा मूल्य सूचकांक की ज़रूरत ज़्यादा महसूस की गई है।
उत्पादक मूल्य सूचकांक (Producer Price Index)
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यह सूचकांक थोक बाज़ार में निर्माताओं और उत्पादकों द्वारा बेची जाने वाली ‘प्रदर्शक वस्तुओं‘ और ‘सेवाओं की टोकरी‘ की कीमतों में होने वाले औसत परिवर्तन की सापेक्षिक माप है अर्थात् उत्पादक मूल्य सूचकांक वस्तुओं और सेवाओं के घरेलू उत्पादकों द्वारा एक समयावधि में प्राप्त विक्रय मूल्यों में औसत परिवर्तन की माप प्रस्तुत करता है। यह सूचकांक उत्पादक के दृष्टिकोण से मूल्य में बदलाव
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मुद्रास्फीति एवं व्यापार चक्र
को मापता है। इस सूचकांक को तैयार करते समय उत्पादन के तीन क्षेत्रों का ध्यान रखा जाता है- तैयार वस्तुएँ, मध्यवर्ती वस्तुएँ तथा
कच्चा माल या अपरिष्कृत उत्पाद । पीपीआई में केवल मूल कीमतों का प्रयोग होता है, जबकि करों, व्यापार मार्जिन तथा परिवहन लागतों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है।
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योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन की अध्यक्षता वाले कार्यदल ने उत्पादक मूल्य सूचकांक (PPI) को थोक मूल्य सूचकांक (WPI) के स्थान पर अपनाने की सिफारिश की है। यह सूचकांक मुद्रास्फीति के मापन के लिये बेहत