विजयनगर साम्राज्य
- विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों द्वारा 1336 ई. में की गई थी।
- हरिहर और बुक्का वारंगल के काकतीयों के सामंत थे।
- तुगलकों ने वारंगल पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। अतः दोनों भाई-हरिहर और बुक्का कम्पिली अथवा आनेगोंडी (वर्तमान कर्नाटक) में आकर बस गए।
- ऐसा माना जाता है कि मुहम्मद बिन तुगलक के एक विद्रोही को हरिहर और बुक्का द्वारा शरण दिये जाने के कारण कम्पिली पर आक्रमण किया गया।
- आक्रमण के पश्चात् हरिहर और बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया, जहाँ उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार किया।
- इस्लाम धर्म स्वीकार करने के उपरांत इन्हें विद्रोहियों के दमन के लिये दक्षिण भारत भेजा गया। है
- दक्षिण भारत में फैली अराजकता और तुर्क सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाकर तुंगभद्रा नदी के किनारे सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थान को विजयनगर के रूप में बसाया और शासन करने लगे।
- हरिहर और बुक्का ने अपने पिता की स्मृति में संगम वंश की नींव रखी।
- इस्लाम धर्म त्यागकर पुनः दोनों भाई अपने गुरु विद्यारण्य की प्रेरणा से हिंदू बने।
- विजयनगर साम्राज्य के 4 राजवंशों (संगम वंश, सालुव वंश, तुलुव वंश और अराविडु वंश) ने 300 वर्षों से अधिक समय तक शासन किया।
- विजयनगर साम्राज्य की राजधानियाँ भी बदलती रहीं, जिनका क्रम है- आनेगोंडी, विजयनगर (हम्पी), पेनुकोंडा और चंद्रगिरी।
- विजयनगर का वर्तमान नाम हम्पी (हस्तिनावती) है।
संगम वंश
हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.)
- 1336 ई. में हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.) विजयनगर का शासक बना।
- हरिहर प्रथम ने अपने शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य का सीमा विस्तार किया।
- अपने शासनकाल के सातवें वर्ष में यह अपनी राजधानी आनेगोंडी से विजयनगर (हम्पी) ले आया।
- 1346 ई. तक होयसल राज्य का संपूर्ण क्षेत्र विजयनगर की सीमा में आ गया था।
- चूँकि इसका साम्राज्य चारों तरफ से शत्रु शक्तियों से घिरा था, अतः इसने ‘राजा’ या ‘महाराजधिराज’ की उपाधि धारण नहीं की क्योंकि इस नवोदित राज्य से पुरानी शक्तियाँ ईर्ष्याभाव रखती थीं।
- 1347 ई. में बहमनी साम्राज्य की स्थापना के बाद विजयनगर साम्राज्य का विस्तार रुक गया।
- 1356 ई. में हरिहर प्रथम की मृत्यु के बाद बुक्का प्रथम अगला शासक हुआ।
बुक्का प्रथम (1356-1377 ई.)
- इसने ‘वेदमार्ग प्रतिष्ठापक’ की उपाधि धारण की।
- बुक्का के शासनकाल में विजयनगर, उत्तर में तुंगभद्रा घाटी से दक्षिण में तमिल तथा चेर राज्य (वर्तमान केरल) को मिलाते हुए रामेश्वरम् तक विस्तृत था।
- बहमनी शासक से संघर्ष और तत्कालीन शासक मुहम्मद शाह प्रथम के साथ हुए युद्ध में पहली बार तोपों का प्रयोग किया गया।
- बुक्का प्रथम ने बहमनी साम्राज्य के अधीन मुद्गल के किले पर आक्रमण कर संघर्ष की शुरुआत की।
- इसने मदुरै के राजा के विरुद्ध भी सफल अभियान किया, जिसमें उसके पुत्र कंपन की विशेष भूमिका थी। कंपन की पत्नी गंगा देवी ने उसके इस पराक्रम पर संस्कृत में ‘मदुरै विजयम्’ नामक पुस्तक लिखी।
- बुक्का प्रथम को साहित्यकारों ने तीन समुद्रों का स्वामी कहा, किंतु इसने भी ‘महाराज’ की पदवी धारण नहीं की।
- बुक्का प्रथम ने अपनी वैदेशिक नीति का विस्तार करने के लिये एक दूतमंडल चीन भेजा।
- माना जाता है कि हरिहर व बुक्का ने संयुक्त शासन चलाया। (विदित है कि पहली बार कुषाणों ने संयुक्त शासन चलाया था।)
हरिहर द्वितीय (1377-1406 ई.)
- 1377 ई. में बुक्का प्रथम की मुत्यु के उपरांत हरिहर द्वितीय शासक बना।
- हरिहर द्वितीय ने अपने पूर्ववर्ती (हरिहर प्रथम, बुक्का प्रथम) दोनों राजाओं के विपरीत ‘राजपरमेश्वर’ व ‘महाराजाधिराज’ जैसी उपाधियाँ धारण की।
- हरिहर द्वितीय ने कनारा , मैसूर, त्रिचिनापल्ली तथा काँची को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया।
- तत्कालीन बहमनी शासक मुहम्मद शाह द्वितीय शांतिप्रिय व्यक्ति था। अतः हरिहर द्वितीय को राजनैतिक प्रभुता दिखाने का मौका मिला और उसने बहमनी से गोवा व बेलगाँव छीन लिया।
- साम्राज्य विस्तार की नीति के तहत उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया।
- ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध टीकाकार सायण इसके प्रधानमंत्री थे।
- इरूगपा नामक जैन मतानुयायी इसका सेनापति था, जिसने नानर्थरत्नमाला की रचना की।
- इसके शासनकाल में ही विजयनगर साम्राज्य में व्यापार को बढ़ावा मिलने लगा।
- 1406 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
- मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में सत्ता के लिये संघर्ष छिड़ गया, जिसमें अंततः देवराय प्रथम सफल रहा।
देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)
- देवराय प्रथम के शासक बनते ही बहमनी राज्य से तुंगभद्रा-दोआब में वर्चस्व के लिये युद्ध छिड़ गया, जिसमें बहमनी सुल्तान द्वारा देवराय प्रथम पराजित हुआ तथा युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिये जुर्माने सहित सुल्तान को फिरोज़शाह बहमन के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ा, साथ ही भविष्य में वाद-विवाद से बचने के लिये बाँकापुर का क्षेत्र दहेज़ के रूप में देना पड़ा। इस युद्ध को इतिहास में सोनार की पुत्री का युद्ध कहा जाता है।
- कालांतर में सुल्तान फिरोजशाह से संबंध पुनः कटु होने पर देवराय प्रथम ने वारंगल से एक संधि कर बहमनी सुल्तान फिरोजशाह को पराजित किया और कष्णा नदी के तट का (बहमनी राज्य) संपर्ण रेड्डी क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया।
- देवराय प्रथम ने अपनी सेना में तुर्की धनुर्धरों को भी शामिल किया।
- सिंचाई कार्य हेतु देवराय प्रथम ने हरिद्रा (हरिहर नदी) और तुंगभद्रा नदी पर एक बांध बनवाया, जिससे अनेक नहरें निकाली गईं।
- इसके शासनकाल के अंतिम दिनों में प्रसिद्ध इटली यात्री निकोलो डी कॉण्टी आया और देवराय प्रथम को शक्तिशाली राजा कहा।
- 1422 ई. में देवराय प्रथम की मृत्यु हो गई।
- देवराय प्रथम की मृत्यु के बाद वीर विजय और रामचंद्र थोड़े समय के लिये शासक बने।
- इसके बाद देवराय द्वितीय शासक बना।
देवराय द्वितीय (1422-1446 ई.)
- देवराय द्वितीय को संगम वंश का सबसे महानतम शासक माना जाता है।
- देवराय द्वितीय ने अनेक उपाधियाँ, जैसे- गजबेटकर (हाथियों का शिकारी) तथा इम्मादि देवराय आदि धारण की।
- ‘हरविलासम’ पुस्तक के लेखक श्रीनाथ (तेलुगू विद्वान) इसके दरबार में रहते थे।
- देवराय द्वितीय ने कवि श्रीनाथ को कवि सार्वभौम (कवियों का राजा) की उपाधि से सम्मानित किया था।
- देवराय द्वितीय ने सेना तथा प्रशासन का पुनर्गठन किया और भारी संख्या में मुसलमानों को अपनी सेना में शामिल किया।
- देवराय द्वितीय ने अपने साम्राज्य का विस्तार सीलोन (श्रीलंका) से गुलबर्गा तक तथा ओडिशा से मालाबार तक किया।
- फारसी यात्री अब्दुर्रज्जाक ने इसी के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की थी। उसे खुरासान के सुल्तान मिर्जा शाहरुख ने अपने दूत के रूप में भेजा था। अब्दुर्रज्जाक विजयनगर को संसार के देखे और सुने नगरों में सबसे भव्य मानता है।
- 1446 ई. में देवराय द्वितीय की मृत्यु के बाद संगम वंश का पतन शुरू हो गया।
- देवराय द्वितीय का उत्तराधिकारी मल्लिकार्जुन गद्दी पर आसीन हुआ जिसे ‘प्रौढ़ देवराय’ भी कहा जाता है।
- विरूपाक्ष द्वितीय (1465-85 ई.) संगम वंश का अंतिम शासक था।
- विजयनगर राज्य में फैली अराजकता का लाभ उठाकर चंद्रगिरी के गवर्नर सालुव नरसिंह ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया तथा सालुव वंश की स्थापना की।
सालुव वंश (1485-1505 ई.)
- 1485 ई. में संगम वंश के शासक विरूपाक्ष द्वितीय की उसके ही सेनापति सालुव नरसिंह ने हत्या कर विजयनगर में दूसरे राजवंश-सालुव वंश की नींव रखी। विजयनगर के इतिहास में इसे ‘प्रथम बलापहार’ कहा गया।
- सालुव नरसिंह (1485-90 ई.) योग्य एवं प्रतिभा संपन्न शासक था, उसने विजयनगर राज्य के वे क्षेत्र जो संगम वंश के समय बहमनी और उड़ीसा द्वारा हड़प लिये गए थे, को पुनः प्राप्त कर लिया।
- 1490 ई. में सालुव नरसिंह की मृत्यु हो गई।
- सालुव नरसिंह की मृत्यु के बाद उसका अल्प वयस्क पुत्र इम्माडि नरसिंह (1490-1505) शासक बना, जिसका संरक्षक नरसा नायक था।
- 1505 ई. में नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने सालुव शासक इम्माड़ि नरसिंह की हत्या कर सालुव वंश के स्थान पर तुलुव वंश की नींव रखी और इसे द्वितीय बलापहार कहा गया।
तुलुव वंश (1505-1565 ई.)
- 1505 ई. में वीर नरसिंह तुलुव वंश का प्रथम शासक हुआ।
- आंतरिक अशांति और सामंतवादी सरदारों के विरोध के कारण उसका शासनकाल युद्धों में ही व्यतीत रहा।
- 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका सौतेला भाई कृष्णदेव राय शासक बना।
कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.)
- कृष्णदेव राय तुलुव वंश तथा विजयनगर साम्राज्य का महानतम शासक था।
- कृष्णदेव राय जब शासक बना तो राज्य में अव्यवस्था और अशाति व्याप्त थी, जिस पर कृष्णदेव राय ने कठोर कानून व्यवस्था स्थापित कर नियंत्रण किया।
- कृष्णदेव राय ने 1510 में बीदर के शासक महमूद शाह को पराजित किया।
- 1512 ई. में रायचूर-दोआब और गुलबर्गा के दुर्गों को भी जीत लिया।
- 1513-18 ई. के बीच उड़ीसा के गजपति शासक के विरुद्ध कई बार युद्ध अभियान किये। उड़ीसा के शासक प्रताप रूद्रदेव ने कृष्णदेव राय से संधि कर उससे अपनी पुत्री का विवाह कराया।
- 1520 ई. में कृष्णदेव राय ने गोलकुंडा को हराकर वारंगल पर अधिकार कर लिया। अत: मात्र दस वर्षों में कृष्णदेव राय ने अपने सभी विरोधियों को पराजित कर दक्षिण भारत में स्वयं एवं विजयनगर की प्रभुसत्ता को सिद्ध भी कर दिया।
- कृष्णदेव राय के पुर्तगाली व्यापारियों से संबंध मैत्रीपूर्ण थे। इन संबंधों में मिलने वाली सुविधाओं एवं लाभों के द्वारा पुर्तगालियों ने पश्चिमी समुद्र में अपनी नौसेना का विकास भी कर लिया था।
- कृष्णदेव राय महान शासक एवं विद्वान था, जिस कारण उसे विद्वानों की परख भी थी। उसने अनेक विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया।
- उसके दरबार में आठ विद्वान (अष्टदिग्गज) निवास करते थे। अष्टदिग्गज तेलुगू कवियों में पेड्डाना सर्वप्रमुख थे।
- कृष्णदेव ने तेलुगू में ‘आमुक्तमाल्यद’ नामक पुस्तक की रचना की, जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तरह ही राजव्यवस्था पर आधारित थी।
- कृष्णदेव राय को उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण ‘आंध्रभोज’ कहा जाता है।
- उसका काल तेलुगू साहित्य का क्लासिकल युग माना जाता है।
- डोमिंगो पायस नामक पुर्तगाली यात्री ने विजयनगर साम्राज्य की प्रशंसा करते हुए कृष्णदेव राय को ‘एक महान शासक और न्यायप्रिय राजा’ कहा है।
- कृष्णदेव राय के शासनकाल में एक अन्य पुर्तगाली यात्री बारबोसा ने भी विजयनगर की यात्रा की। उसने कृष्णदेव राय के श्रेष्ठ प्रशासन और उसके साम्राज्य की समृद्धि का बखान खुले शब्दों में किया। बारबोसा के अनुसार कृष्णदेव राय एक धर्मनिरपेक्ष शासक था।
- कृष्णदेव राय ने अपनी माता नागल देवी के नाम पर नागलापुर नामक नगर की स्थापना की।
कृष्णदेव राय के उत्तराधिकारी
- कृष्णदेव राय की मृत्यु के बाद सत्ता के लिये संघर्ष हुआ और कृष्णदेव राय के पुत्रों के अल्पवयस्क होने के कारण उसका सौतेला भाई अच्युत देवराय शासक बना।
- उसके पश्चात् सदाशिव राय शासक बना, जिस पर उसके मंत्री रामराय का अत्यधिक प्रभाव था।
- रामराय एक योग्य शासन-प्रबंधक था परंतु सफल कूटनीतिज्ञ न था।
- उसने बहमनी राज्य के खंडों से बने हुए पाँच मुसलमानी राज्यों (अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा, बीदर और बरार) में परस्पर फूट डालने और एक-दूसरे के विरुद्ध सहायता देने की नीति अपनाई।
- कालांतर में रामराय के ख़िलाफ़ दक्षिण भारत के चारों मुस्लिम राज्यो (अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर) ने ‘मुस्लिम महासंघ का निर्माण कर 1565 ई. में तालीकोटा या रक्षसी तंगड़ी के युद्ध में रामराय को परास्त किया। उल्लेखनीय है कि संयुक्त मोर्चे में बरार शामिल नहीं था।
- इस युद्ध के पश्चात् रामराय को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई,विजयनगर को लूट कर ध्वस्त कर दिया गया।
- वर्तमान में कर्नाटक के हंपी नामक स्थान पर इसके अवशेष मिलते हैं।
अराविडु वंश (1570-1652 ई.)
- अराविडु वंश की स्थापना 1570 ई. के लगभग तिरूमल ने पेनुकोंडा में की थी।
- यह दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य का चौथा और अंतिम वंश था।
- इस वंश के शासक वेंकट द्वितीय ने चंद्रगिरी को अपनी राजधानी बनाई।
- इस वंश का अंतिम शासक श्रीरंग तृतीय था।
- जिसके राज्य में तंजौर, मैसूर, मदुरा आदि स्वतंत्र राज्यों का निर्माण हुआ और विजयनगर साम्राज्य का पतन हो गया।
विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन
केंद्रीय प्रशासन
- विजयनगर साम्राज्य का शासन राजतंत्रात्मक था। राजा को ‘राय’ की उपाधि से संबोधित किया जाता था।
- राजा के चयन में नायकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। राजा के भव्य राज्याभिषेक की भी परंपरा थी।
- युवराज के राज्याभिषेक को ‘युवराज पट्टाभिषेकम्‘ कहा जाता था।
- सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। विजयनगर शासकों ने धर्म के मामले में धर्मनिरपेक्ष नीति का अनुसरण किया।
- राज्य संबंधित कार्यों के संचालन के लिये एक राजपरिषद् होती थी।
- राजा राज्य के समस्त मामलों एवं नीतियों के संबंध में इससे परामर्श लेता था।
- कृष्णदेव राय ने अपने ग्रंथ ‘आमुक्तमाल्यद‘ में राजा और प्रजा के बीच संबंध, राजा के कर्त्तव्य आदि का बड़ा ही प्रभावकारी वर्णन किया है।
- कुषाणों की तरह विजयनगर साम्राज्य में भी संयुक्त शासन की परिपाटी देखी गई, जैसे- हरिहर और बुक्का तथा देवराय द्वितीय व विजयराय।
- मौर्य शासक व्यवस्था की तरह सप्तांग व्यवस्था का अनुसरण किया गया। राजा के बाद राजपरिषद् और इसके बाद शासन संचालन के लिये केंद्रीय मंत्रिपरिषद् होती थी। मंत्रिपरिषद् का प्रमुख अधिकारी ‘प्रधानी’ या ‘महाप्रधानी’ होता था। मंत्रिपरिषद् के अध्यक्ष को सभानायक कहा जाता था।
- राजा और युवराज के बाद केंद्र का सबसे प्रधान (मुख्य) अधिकारी प्रधानी होता था, जिसकी तुलना हम मराठाकालीन पेशवा से कर सकते हैं।
- केंद्र में दंडनायक उच्च अधिकारी भी होते थे। दंडनायक पदबोधक नहीं था वरन् विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को ‘दंड नायक‘ कहा जाता था।
प्रांतीय प्रशासन
- शासन प्रबंधन के लिये विजयनगर साम्राज्य बहुत से प्रांतों में बँटा हुआ था।
- प्रांतों में जो इकाई का क्रम मिलता है, उसमें राज्य या मंडलम्, कोट्टम या वलनाडु, नाडु, मेलाग्राम और उर या ग्राम होते थे।
- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम होती थी।
- साम्राज्य → राज्य (मंडलम्) → ज़िला (कोट्टम या वलनाडु) → परगना (नाडु) → मेलाग्राम (50 गाँवों का समूह) → ग्राम (उर)
- सामान्यतः प्रांतों में राजपरिवार के व्यक्तियों को ही गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था।
- प्रांत में शासन व्यवस्था बनाए रखना गवर्नरों का प्रमुख उत्तरदायित्व था।
आयंगर व्यवस्था
- ग्रामीण प्रशासन के संचालन के लिये प्रत्येक गाँव को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया गया और इनके संचालन के लिये 12 अधिकारियों की नियुक्ति की गई, जिन्हें सामूहिक रूप से आयंगर कहा गया।
- इनकी नियुक्ति राज्य करता था, किंतु इन्हें वेतन के बदले कर-मुक्त भूमि प्रदान की जाती थी और ये अधिकारी वंशानुगत होते थे और इनको यहाँ तक अधिकार था कि ये अपने पदों को बेच सकते थे।
भूमि के प्रकार तथा राजस्व व्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य में निम्नलिखित प्रकार के भू-क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है
भंडारवाद ग्राम
- यह प्रत्यक्ष राजकीय नियंत्रण की भूमि थी और इसकी आय का प्रयोग दुर्गों के सुदृढीकरण में किया जाता था।
- मात्रा में इस प्रकार की भूमि सबसे कम थी।
- ब्रह्मदेय, देवदेय और मठापुर भूमि– राज्य विशेष धार्मिक सेवाओं के लिये भी ब्राह्मणों, मंदिरों और मठों को भूमि दान में देता था। इस प्रकार की भूमि कर-मुक्त होती थी।
अमरम्
- यह भूमि का सबसे बड़ा वर्ग था जो नायकों को प्रदान किया जाता था, किंतु भूमि पर नायकों का स्वामित्व नहीं होता था, बल्कि इससे होने वाली आय पर उनका विशेष अधिकार था।
नोट: रत्तकोडगै– यह युद्ध में शौर्य प्रदर्शन करने वालों को दी जाने वाली भूमि थी और यह भी कर-मुक्त थी।
सिंचाई व्यवस्था
- सिंचाई व्यवस्था पर विजयनगर के शासकों ने विशेष बल देते हुए नहरों व बांधों का निर्माण करवाया। यहाँ तक कि सिंचाई साधनों , का विकास करने वाले को राज्य कर-मुक्त भूमि भी दे सकता था और सिंचाई साधनों के पुनर्निर्माण के लिये राज्य द्वारा स्थानीय करों की माफी का भी उल्लेख मिलता है।
- यदि कहीं सिंचाई व्यवस्था नष्ट हो जाती थी तो राज्य अपने साधनों से उसकी मरम्मत करवाता था।
- सिंचाई व्यवस्था में पूंजी निवेश द्वारा भी आय प्राप्त की जाती थी जिसे तमिल क्षेत्र में ‘दासवंदा’ तथा आंध्र व कर्नाटक क्षेत्र में ‘कोट्टकुडगै’ कहा जाता था।
भू-राजस्व
- यह साम्राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत था, जो सामान्य तौर पर हिंदू विधि के अनुसार उपज का 1/6 होता था।
- ब्राह्मणों तथा मंदिरों की भूमि पर क्रमशः 1/20 व 1/30 जैसा न्यूनतम कर लगाया जाता था।
- कृष्णदेव राय के समय साम्राज्य की भूमि का सर्वेक्षण कराया गया तथा राजस्व अनुमान भी आकलित किया गया।
सिक्के
- विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा प्रणाली भारत की सर्वाधिक प्रशंसनीय मुद्रा प्रणालियों में से थी।
- विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का ‘वराह‘ था, जो 52 ग्रेन का होता था। इसे ही विदेशी यात्रियों ने पगोडा कहा है।
- चांदी के छोटे सिक्के ‘तार’ कहलाते थे।
- हरिहर प्रथम के सिक्कों पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ अंकित है।
- तुलुव वंश के सिक्कों पर सामान्यत: उमा-महेश्वर, वेंकटेश, बालकृष्ण की आकृतियाँ अंकित हैं। सदाशिव राय के सिक्कों पर लक्ष्मी-नारायण का अंकन मिलता है।
- अराविडु वंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे। अतः उनके सिक्कों पर शंख एवं चक्र अंकित है।
- पुर्तगालियों ने विजयनगर के सिक्कों की तुलना ‘हूण’ से की है।
सामाजिक व्यवस्था
- विजयनगर साम्राज्य समाजशास्त्रीय परंपराओं के आधार पर व्यवस्थित था तथा यहाँ पर वर्ण एवं जाति व्यवस्था का प्रचलन था।
- ब्राह्मणों को सर्वाधिक विशेषाधिकार प्राप्त थे। ब्राह्मण ही शासन के उच्च पदों पर आसीन थे तथा इन्हें मृत्युदंड से मुक्त रखा जाता था।
- समाज में क्षत्रिय वर्ण की अनुपस्थिति के कारण ब्राह्मणों के बाद दूसरा स्थान चेट्टियों या शेट्टियों का था। सामान्यतः व्यवसाय/व्यापार इन्हीं के हाथों में केंद्रित था।
- उत्तर भारत से आए लोग भी व्यवसाय से जुड़ने लगे और इन बाहरा लोगों को बडवा कहा गया।
- चेट्टियों के ही समतुल्य व्यापार करने वाले तथा दस्तकार वर्ग के लोगों को वीरपांचाल कहा जाता था।
- कैकोल्लार (जुलाहे), कंबलत्तर अर्थात् चपरासी तथा शस्त्रवाहक, नाई और आंध्र क्षेत्र में रेड्डी कुछ महत्त्वपूर्ण समुदायों में गिने जाते थे।
नोटः विजयनगर साम्राज्य में दस्तकार श्रेणी में बढ़ई को विशेष स्थान प्राप्त था। सदाशिव राय ने नाइयों पर से कर हटा लिया था।
महिलाओं की स्थिति
- तुलनात्मक रूप से महिलाओं की स्थिति अच्छी मानी जाती है। महिलाएँ निम्नलिखित भूमिका निभाती थीं
-
- राजा के कार्यों को लिखना;
- आय-व्यय की गणना;
- मल्ल युद्ध में भाग लेना;
- ज्योतिष;
- अंगरक्षक व पहरेदार;
- न्यायाधीश;
- नृत्य व गायन-वादन।
- साम्राज्य में गणिकाओं की भी उपस्थिति थी जो पहले से ही दक्षिण भारत में सामाजिक व्यवस्था का अंग बन चुकी थी। विशेष यह है कि इन पर अध्यारोपित कर के द्वारा ही पुलिस को वेतन दिया जाता था।
- सामाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
- सती प्रथा का उल्लेख विभिन्न विदेशी यात्रियों ने भी किया, जिसमें बारबोसा, नूनिज व सीजर फ्रेडरिक विशिष्ट हैं। सती प्रथा को पवित्र माना गया, किंतु यह नायकों तथा राज परिवारों में ही सीमित थी, चेट्टियों व ब्राह्मणों में नहीं। सती होने वाली स्त्रियों की स्मृति में ‘प्रस्तर स्मारक’ बनाये जाते थे।
- बाल विवाह का भी प्रचलन था, जिसके कारण दहेज प्रथा का भी विकास हुआ किंतु राज्य ने दहेज़ को कुप्रथा मानते हुये असंवैधानिक घोषित करने का निर्णय लिया, जिसमें ब्राह्मणों की भी स्वीकारोक्ति प्राप्त थी।
- विधवा विवाह मान्य होता था। संभवतः इस पर भी टैक्स लगता था, जिसे कृष्णदेव राय ने समाप्त कर दिया।
- मंदिरों में देवपूजा के लिये रहने वाली स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था। इन्हें आजीविका के लिये या तो भूमि दे दी जाती थी अथवा नियमित वेतन दिया जाता था।
- विजयनगर में दास प्रथा प्रचलित थी। मनुष्यों के क्रय-विक्रय को वेस-वग कहा जाता था।
- युद्ध में वीरता दिखाने वाले पुरुष को ‘गंडपेद्र‘ नामक आभूषण पैरों में पहनाया जाता था, जो कड़े की भाँति होता था।
- मनोरंजन के क्षेत्र में विजयनगर राज्य में विविधता थी। बोमलाट छाया नाटक था, जिसे मंडपों में आयोजित किया जाता था। रक्षगान का विकास विजयनगर में ही हुआ था।
- विजयनगर साम्राज्य में शतरंज और पासा अत्यंत लोकप्रिय खेल थे।
- स्वयं कृष्णदेवराय शतरंज में विशेष रुचि लेता था।
- राज्य में रामनवमी, महानवमी तथा नवरात्र आदि त्यौहार मनाए जाते थे। महानवमी सबसे बड़ा त्यौहार था, जिसमें राजा की उपस्थिति अनिवार्य होती थी। इस पर्व पर बड़ी संख्या में बलि दी जाती थी।
- राज्य में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये अनेक कार्य किये जाते थे। मठों, अग्रहारों और मंदिरों में शिक्षा प्रदान की जाती थी। अग्रहरों में मुख्यतः वेदों की शिक्षा दी जाती थी।