बिहार में चित्रकला एवं प्रमुख चित्रकार
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  • पाल युगीन अधिकांश मूर्तियों में गौतम बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाया गया है जैसे उनका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश की प्रस्तुति, निर्वाण आदि ।
  • पाल काल में सुंदर और कलात्मक मृदभांड भी देखे जा सकते हैं। इनके कुछ उल्लेखनीय उदाहरण भागलपुर के समीप अंतिचक में विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों से प्राप्त हुए हैं। ऐसी मूर्तियाँ दीवारों पर सजावट के लिए बनायी जाती थीं । 
  • इन मूर्तियों में धार्मिक और सामान्य जीवन के दृश्य देखे जा सकते हैं। लोगों के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, क्रिया-कलाप, क्रीड़ा एवं मनोरंजन, सुख-दुःख, रीति-रिवाज और संस्कार आदि की झलक इनमें देखी जा सकती है। 
  • इन कलाकृतियों में धार्मिक प्रभाव स्पष्ट है । बुद्ध, बोधिसत्व, तारा आदि की प्रस्तुति बौद्धधर्म तथा विष्णु, आदिवाराह, अर्धनारीश्वर, सूर्य और हनुमान की प्रस्तुति हिन्दू धर्म के प्रभाव को स्पष्ट करती है । 
  • इस युग की कलात्मक सुन्दरता का एक उत्कृष्ट उदाहरण एक तख़्ती (plaque) है, जिसपर एक स्त्री को बैठी हुई मुद्रा में दिखाया गया है। दाहिना पैर बायें पैर पर रखा है और शरीर झुका हुआ है । एक हाथ में आईना लिये वह अपने रूप को निहार रही है और दूसरे हाथ की उंगलियों से अपनी मांग में सिन्दूर भर रही है । 

बिहार में चित्रकला 

  • बिहार में मौर्य, पाल, गुप्त एवं अन्य प्राचीन तथा मध्यकालीन राजवंशों ने चित्रकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । 
  • पालयुग में चित्रकला की भी उल्लेखनीय प्रगति हुई । पांडुलिपियों के चित्रण के अतिरिक्त दीवारों पर चित्र बनाने के उदाहरण भी इस काल में देखे जा सकते हैं । ऐसी चित्रित पांडुलिपियाँ ताड़-पत्र पर लिखी गयी हैं, जिनके श्रेष्ठ उदाहरण हैं- अष्टसहसरिक प्रज्ञापरमित और पंचरक्षक। ये दोनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित हैं । 
  • इनमें लगभग सौ लघु चित्र (miniatures) बने हैं, जिनमें महात्मा बुद्ध के जीवन के दृश्यों के अतिरिक्त महायान परंपरा में पूजे जाने वाले विभिन्न बौद्ध देवी-देवताओं का चित्रण हुआ है । 
  • इन चित्रों में प्राथमिक रंगों में लाल, नीला, काला एवं सफेद तथा सहायक रंगों में हरा, बैंगनी, हल्का गुलाबी और धूसर रंग प्रयोग किया गया है । 
  • इन चित्रों पर तांत्रिक कला का प्रभाव भी स्पष्ट है । कहीं-कहीं इनकी विशेषताएँ नेपाल और बर्मा (म्यान्मार) की कला से समानताएँ भी प्रस्तुत करती हैं । 
  • चित्रकला का एक अन्य रूप भित्तिचित्र (Murals) के रूप में नालंदा जिला के सराय स्थल से प्राप्त हुआ है । ग्रेनाइट पत्थर के बने एक बड़े चबूतरे के नीचे के भाग पर कुछ ज्यामितीय आकार, फूलों के आकार और मनुष्यों एवं पशुओं का चित्रण किया गया है । हालांकि अब यह चित्र काफी धुंधले पड़ चुके हैं फिर भी कुछ आकृतियों की पहचान संभव है । > इन चित्रों में हाथी, घोड़ा, नर्तकी, बोधिसत्व और जम्भला प्रमुख हैं । इन चित्रों की शैली पर अजंता और बाघ गुफा चित्रों की शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। 
  • बिहार की प्रमुख चित्रकला शैलियों में पटना कलम, मधुबनी पेंटिंग, थंका पेंटिंग व मंजूषा कला शैली विशेष लोकप्रिय हैं । 

पटना शैली ( पटना कलम ) 

  • शाहजहां के बाद चित्रकला का हास होने लगा। औरंगजेब ने चूँकि कला की ओर ध्यान नहीं दिया इसलिए उसके शासन काल में कला का लगभग अंत ही हो गया। फलतः सन् 1730 के आसपास वे सभी चित्रकार जो दिल्ली दरबार के गौरव समझे जाते थे, आजीविका के लिए देश के विभिन्न भागों की ओर पलायित होने लगे ।
  • ऐसे चित्रकारों के मुख्यतः तीन दल थे । एक दल दक्षिण भारत में, दूसरा दल उत्तर भारत में और तीसरा दल मुर्शिदाबाद जाकर रहने लगा । 
  • सन् 1760 के आस-पास वे वहाँ से पलायित हो गये और पटना चले आये। ये सभी चित्रकार पटना सिटी के लोदी कटरा, मुगलपुरा, दीवान मुहल्ला, नित्यानंद का कुआँ तथा मच्छरहट्टा में रहने लगे और चित्रकारी करने लगे । 
  • कुछ कलाकार दानापुर में तथा कुछ आरा में बस गये और चित्रकारी करने लगे । इन सभी के चित्रों की शैली को पटना शैली’ (पटना कलम ) कहा जाने लगा । 
  • इस शैली पर एक ओर मुगल शाही शैली का प्रभाव है तो दूसरी ओर तत्कालीन ब्रिटिश कला का भी । साथ ही साथ इसमें स्थानीय विशिष्टताएँ भी स्पष्ट हैं । इन्हीं के सम्मिश्रण से इस शैली की अपनी पृथक् पहचान बनी है । 
  • पटना कलम के चित्र लघुचित्रों (miniatures) की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर कागज और कहीं-कहीं हाथीदाँत पर बनाया गया है। 
  • सामान्यतः इन चित्रों में दैनिक जीवन के दृश्यों और जनसाधारण के जीवन का चित्रण हुआ है, यथा— लकड़ी काटता हुआ बढ़ई, मछली बेचती हुई औरत, लोहार, सुनार, एक्कावाला, पालकी उठाये हुए कहार, खेत जोतता हुआ किसान, साधु-संन्यासी आदि के चित्र ।
  • इनके अलावा इस शैली के चित्रों में पशु-पक्षियों को भी दिखाया गया है और विभिन्न प्रकार के फूलों का भी चित्रण हुआ है । 
  • पटना शैली के चित्रकार मुख्य रूप से तीन प्रकार के चित्र बनाया करते थे — व्यक्ति विशेष के, विवाहोत्सवों या पर्व-त्योहारों के और जीव-जंतुओं (पक्षियों, तितलियों आदि) के । सन् 1880 में इस शैली के प्रमुख चित्रकार शिवलाल के स्वर्गवास के बाद उनकी चित्रकला समाप्त हो गई । 
  • सम्प्रति पटना शैली के चित्र पटना में कला महाविद्यालय, पटना संग्रहालय तथा भानुकजी के संग्रहालय में, कोलकाता में कोलकाता संग्रहालय में तथा विदेशों में उपलब्ध हैं ।

पटना कलम के प्रमुख चित्रकार 

  • पटना शैली के मुख्य चित्रकार रहे हैं— सेवक राम, (1770-1830), हुलास लाल (1785-1885), झूमक लाल, शिव दयाल लाल, लालचंद, ईश्वरी प्रसाद वर्मा, गोपाल लाल, गुरु सहाय लाल, कन्हैया लाल, जयगोविंद लाल, दक्षो बीबी, सोना कुमारी, बहादुर लाल, यमुना प्रसाद, गोपालचंद, जयराम दास, भैरवजी, दल्लू लाल, बेनीलाल, महादेव लाल तथा रामेश्वर प्रसाद । इस चित्रशैली को मूलतः पुरुषों की चित्रशैली कहा जाता है । 
  • इस शैली के महत्वपूर्ण चित्रकारों में पहला नाम सेवक राम का है; जबकि इस श्रृंखला के अंतिम प्रतिनिधि ईश्वरी प्रसाद थे । 

मिथिला पेंटिंग (मधुबनी चित्रकला) 

  • मिथिला पेंटिंग या मधुबनी चित्रकला बिहार की एक विश्वविख्यात चित्रकला शैली है । इसका इतिहास पुराना है, परन्तु इसे ख्याति हाल के दशकों में ही प्राप्त हुई है । 
  • इस शैली के चित्र दो प्रकार के होते हैं— भित्ति चित्र और अरिपन । 
  • भित्तिचित्र में तीन रूप देखे जा सकते हैं,
    • ( 1 ) गोसाउनी घर की सजावट
    • (2) कोहबर घर की सजावट और
    • (3) कोहबर घर के कोणियों (कॉर्नर) की सजावट । 
  • पहली श्रेणी के चित्र धार्मिक महत्व के होते हैं, जबकि अन्य दो में प्रतीकों का उपयोग अधिक होता है। धार्मिक भित्ति चित्रों में दुर्गा, राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी आदि का अधिक चित्रण होता है । 
  • कोहबर घर ( सुहाग कक्ष) के भीतर और बाहर बने चित्र कामुक प्रवृत्ति के होते हैं । इनमें कामदेव, रति और यक्षणियों के अतिरिक्त पुरुष और नारी की जनेन्द्रियाँ बनाई जाती हैं । पृष्ठभूमि के लिए पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के चित्र बनाये जाते हैं, मगर इनका भी प्रतीकात्मक महत्त्व होता है । 
  • इस शैली के चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाये जाते हैं, मगर हाल में कपड़े और कागज 
  • पर भी चित्रांकण की प्रवृत्ति बढ़ी है। चित्र उंगलियों से या बांस की कलम व कूंची (तूलिका या ब्रश) से बनाये जाते हैं । लोक कल्पना की ऊँची उड़ान, कला से गहरा भावात्मक लगाव और सुंदर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग इन चित्रों को विशेष आकर्षण प्रदान करता है ।
  • इन चित्रों में प्रयोग किये जाने वाले रंग अधिकांशतः वनस्पति से प्राप्त किये जाते हैं । इसमें मुख्यतः हरा, पीला, लाल, नीला, केसरिया, नारंगी, बैगनी आदि रंगों का प्रयोग होता है ।
  • मधुबनी चित्रकला का एक प्रमुख प्रकार या रूप अरिपन चित्र है । यह आंगन में या चौखट के सामने ज़मीन पर बनाये जाने वाले चित्र हैं । इन्हें बनाने में कूटे हुए चावल को पानी और रंग में मिलाया जाता है । अरिपन ( रंगोली) चित्र प्रायः उंगली से ही बनाये जाते हैं ।
  • अरिपन चित्रों में पाँच श्रेणियाँ निर्धारित की जा सकती हैं— 
    • (1) मनुष्यों और पशु-पक्षियों को दर्शाने वाले चित्र,
    • (2) फूल, पेड़ और फलों के चित्र,
    • (3) तंत्रवादी प्रतीकों पर आधारित चित्र
    • (4) देवी – देवताओं के चित्र तथा
    • ( 5 ) स्वास्तिक, दीप आदि के आकार । 
  • बिहार की इस प्रमुख चित्रशैली ‘मिथिला पेंटिंग’ की सन् 1942 में लंदन की आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी लगाई गयी थी । सन् 1966 में इस कला को लोकप्रियता तथा ख्याति तब मिलनी प्रारम्भ हुई, जब भारतीय हस्तशिल्प परिषद् (दिल्ली) के सदस्य भास्कर कुलकर्णी मधुबनी आए। 
  • इस चित्रशैली के चित्रकारों के अनुसार, इसे विश्वख्याति दिलवाने का श्रेय भास्कर कुलकर्णी तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. ललित नारायण मिश्र के अतिरिक्त उपेन्द्र महारथी तथा डॉ० उपेन्द्र ठाकुर को भी है । 
  • मिथिला पेंटिंग्स वैसे तो पूरे मिथिलांचल में बनाई जाती हैं, परंतु मुख्य रूप से ये मधुबनी तथा उसके आसपास के क्षेत्रों – जितवारपुर, रांटी, सिमरी, भवानीपुर आदि में बनायी जाती हैं ।
  • इन चित्रों में बनाये गये तोते, बांस, सूर्य, हाथी, मछलियां, मोर तथा सिंह के चित्र क्रमशः काम, वंश-वृद्धि, दीर्घ जीवन, भौतिक समृद्धि, सृष्टि-उत्प्रेरक, शांति तथा शक्ति के प्रतीक के रूप मे बनाये जाते हैं । मिथिला पेंटिंग के चित्रकारों में लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं ही हैं । यही कारण है कि इस शैली को महिलाओं की शैली भी कहा जाता है । 

मिथिला पेंटिंग के मुख्य कलाकार 

  • सीता देवी, जगदम्बा देवी, गंगा देवी, पद्मश्री भगवती देवी, महासुंदरी देवी, शशिकला देवी, गोदावरी दत्त, नीलम कर्ण, बाछो देवी, भूमा देवी, हीरा देवी, ललिता देवी, निर्मला देवी, मुद्रिका देवी, नीलू यादव, भारती दया, अरुण प्रभा दास, विमला दत्त, अरुण कुमार यादव, नरेन्द्र कुमार कर्ण, शिव पासवान, उर्मिला देवी आदि । इनमें से अधिकांश को राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक पुरस्कार मिल चुके हैं । 
  • मिथिला चित्रकला की वरिष्ठ कलाकार एवं पद्मश्री से सम्मानित सीता देवी ने 1986 ई० में बर्लिन में भारत महोत्सव में भाग लिया था । 

मंजूषा चित्रशैली 

  • भागलपुर क्षेत्र में लोकगाथाओं में अधिक प्रचलित बिहुला – विषहरी की कथाएँ ही इस चित्रशैली में चित्रित होती हैं। मूलतः भागलपुर (अंग) क्षेत्र में सुपरिचित इस चित्रशैली में मंदिर जैसी दिखने वाली एक मंजूषा, जो सनाठी ( सनई) की लकड़ियों से बनाई गई होती है, पर बिहुला – विषहरी की गाथाओं से संबंधित चित्र कूंचियों द्वारा बनाये जाते हैं। 
  • मूलतः मालियों द्वारा विकसित एवं प्रतिपालित इस चित्रकला शैली की एक प्रमुख कलाकार चक्रवर्ती देवी का निधन 2009 में हो गया । 

सांझी कला 

  • सांझी कला, जिसे लोग रंगोली, अल्पना या अरिपन के नाम से जानते हैं, पिछले 40 वर्षों से बिहार, विशेषकर पटना व मिथिला क्षेत्र में अधिक प्रचलित हैं । 
  • यह मूलतः ( उद्गम स्थल की दृष्टि से ) ब्रजक्षेत्र की कला है । 

थंका पेंटिंग 

  • इस चित्रशैली के 109 चित्र पटना संग्रहालय के एक भाग में सुरक्षित हैं। हालांकि ये मूलतः बिहार की चित्रशैली के चित्र नहीं, बल्कि तिब्बती चित्रशैली के चित्र हैं, जबकि कुछ लोग इन्हें बिहार का मानते हैं । 
  • बौद्ध शैली की चित्रकला का प्रादुर्भाव बिहार में ही हुआ और उस कला के लिए उत्पन्न विचार यहाँ से विश्व के अनेक भागों में भेजे जाते थे । इसलिए इस चित्रशैली का भाव की दृष्टि से दूर का ही सही, मगर बिहार से संबंध है । 
  • जातक कथाओं, बुद्ध के धर्मोपदेशों, भारतीय आचार्यों तथा तिब्बती संतों के जीवन को अपना मुख्य वर्ण्य विषय बनाने वाली यह चित्रशैली ‘पट’ एवं ‘मंडल’ धार्मिक चित्रशैली से जुड़ी है। इन संरक्षित (109) चित्रों में जिन 5 विषयों का वर्णन किया गया है, वे हैं—दिव्याला, अभिधर्मोपदेश, धर्मपाल, अंतप्रकृति तथा मंडल । इन चित्रों में रंग संयोजन को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है ।