- छउ नृत्य (chhau dance) का प्रारंभ – सरायकेला में हुआ
- यहीं से यह मयूरभंज (उड़ीसा) व पुरूलिया (प० बंगाल) में विस्तारित हुआ।
- इसकी तीन शैलियाँ सरायकेला (झारखण्ड), मयूरभंज (उड़ीसा) तथा पुरूलिया (प० बंगाल) हैं।
- छऊ की सबसे प्राचीन शैली ‘सरायकेला छऊ‘ है।
- झारखण्ड के खूटी जिले में इसकी एक विशेष शैली ‘सिंगुआ छऊ’ का विकास हुआ है।
- यह पुरूष प्रधान नृत्य है।
- इसका विदेश (यूरोप) में सर्वप्रथम प्रदर्शन 1938 ई. में सरायकेला के राजकुमार सुधेन्दु नारायण सिंह द्वारा किया गया।
- छऊ नृत्य को सरायकेला रियासत का संरक्षण प्राप्त था।
- यह एक ओजपूर्ण नृत्य है
- इसमें विभिन्न मुखौटों को पहनकर पात्र पौराणिक व ऐतिहासिक कथाओं का मंचन करते हैं।
- इसके अतिरिक्ति कठोरवा नृत्य में भी पुरूष मुखौटा पहनकर नृत्य करते हैं
- इस नृत्य में प्रयुक्त हथियार वीर रस के तथा कालिभंग श्रृंगार रस को प्रतिबिंबित करते हैं।
- इस नृत्य में भावो की अभिव्यक्ति के साथ-साथ कथानक भी होता है जबकि झारखण्ड के अन्य लोकनृत्यों में केवल भावों की अभिव्यक्ति होती, कथानक नहीं।
- इसमें प्रशिक्षक/गुरू की उपस्थिति अनिवार्य होती है।
- वर्ष 2010 में छऊ नृत्य को यूनेस्को द्वारा ‘विरासत नृत्य‘ में शामिल किया गया है।
- 1947 ई. में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बिहार सरकार ने इस नृत्य को संरक्षण प्रदान किया।
- वर्ष 2000 ई. में झारखण्ड के राज्य बन जाने के बाद इस नृत्य के संरक्षण की जिम्मेदारी झारखण्ड सरकार ने अपने हाथो में ले ली।
- छऊ नृत्य में दो धाराएँ है।
- 1. हातियार धारा – वीर रस की प्रधानता होती है ,जिसमें ओज गुण होता है अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय है।
- 2. काली भंग धारा – शृंगार रस की की प्रधानता होती है
- इस नृत्य को भारतनाट्यम, कत्थक, मणिपूरी आदि की तरह राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय पहचान और सम्मान प्राप्त है, लेकिन शास्त्रीय नृत्य का दर्जा प्राप्त नहीं है।
- छउ नृत्य (chhau dance) कलाकार – बोकारो के छउ नृत्य कलाकार परीक्षित महतो,