- काली/रेगुर मृदा (Black / Regur Soil) – निर्माण – लावा पदार्थो (बेसाल्ट चट्टान) के विखंडन से हुआ है।
- यह भारत की तीसरी प्रमुख मृदा है।
- भारत के 5 .46 लाख वर्ग किलोमीटर में
- इसका सर्वाधिक विकास महाराष्ट्र के ‘दक्कन ट्रैप’ के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में पाई जाती है। ।
- मध्य प्रदेश के मालवा पठार
- गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप
- कर्नाटक के बंगलूरू-मैसूर पठार
- तमिलनाडु के कोयंबटूर-मदुरै पठार
- आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना के पठार और
- छोटानागपुर के राजमहल पर्वतीय क्षेत्र में
- यह मिट्टी कपास की खेती के लिये अधिक उपयोगी एवं विख्यात है ।
- कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।
- अन्य नाम
- ‘काली कपासी मिट्टी’ या ‘रेगुर’
- ‘उष्ण कटिबंधीय चेरनोज़म’
- ‘ट्रॉपिकल ब्लैक अर्थ’
- करेल’ – उत्तर प्रदेश में
- स्वतः जुताई वाली मृदा’
- लावा मिट्टी
- काली मृदा गीली होने पर चिपचिपी हो जाती है तथा शुष्क होने पर इसमें बड़ी-बड़ी दरारें बन जाती हैं, जिससे इनकी स्वतः जुताई हो जाती है इसलिये इसे ‘स्वतः जुताई वाली मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है।
- इस मृदा की जलधारण क्षमता अत्यधिक होती है, जिसके कारण सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है।
- शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाए रखती है।
- ह्यूमस, एल्युमीनियम एवं लोहा के टाइटेनीफेरस मैग्नेटाइट (Titaniferous Magnetite) इस मिट्टी का रंग ‘काला’ होता है।
- इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व जैव तत्त्वों की मात्रा कम होती है।
- लोहा,चुना , पोटाश, एल्युमीनियम, मैग्नीशियम कार्बोनेट की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है।
- क्रेब्स के अनुसार , काली मृदा एक परिपक्व मृदा है।
- भारत के 1.80 लाख वर्ग किलोमीटर में है।