अलंकार का अर्थ ,परिभाषा ,भेद
अलंकार अर्थ एवं परिभाषा
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अर्थ – अलंकार शब्द अलम् + ‘कार’ से बना है जिसका अर्थ होता है – आभूषण या ‘गहना‘ ।
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परिभाषा – कविता में शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाने वाले साधन को अलंकार कहते हैं।
अलंकार के भेद
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अलंकारों का वर्गीकरण ध्वनि और अर्थ के आधार पर किया जाता है।
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ध्वनि पर आश्रित अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थ पर आश्रित अलंकारों को अर्थालंकार तथा जहाँ दोनों रहे उसे उभयालंकार के अन्तर्गत रखा गया है।
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इसी आधार पर अलंकार के तीन भेद होते हैं
(1) शब्दालंकार
(2) अर्थालंकार
(3) उभयालंकार
शब्दालंकार
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जहाँ केवल शब्द में अलंकार होता है, वहाँ शब्दालंकार होता है।
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यह नाद सौंदर्य का प्रतिपादक है। शब्दालंकार वर्णगत, शब्दगत एवं काव्यगत होते हैं।
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इनकी संख्या सात हैं
(1) अनुप्रास
(2) यमक
(3) पुनरूक्तवदाभास
(4) श्लेष
(5) वक्रोक्ति
(6) पुनरूक्ति
(7) वीप्सा
1. अनुप्रास
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‘अनुप्रास’ शब्द ‘अनु’ + ‘प्र’ + ‘आस’ से बना है। जिसका अर्थ हिन्दी साहित्य कोश में इस प्रकार दिया गया है अनु-वर्णनीय रस के अनुकूल, प्र-प्रकर्ष या निकटता, आस-बार-बार रखा जाना, अर्थात् वर्णनीय रस की अनुकूलता के अनुसार वर्णों का बार-बार और पास-पास प्रयोग।
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जब कविता में व्यंजन वर्णों की एक ही क्रम से बार-बार आवृत्ति होती है, तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसेतरिन-तनूजा-तट तमाल-तरूवर बहु छाये । यहाँ ‘त’ व्यंजन वर्ण की एक ही क्रम से बार-बार आवृत्ति हो रही है, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
2. यमक
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‘यमक’ शब्द का अर्थ होता है – ‘जोड़ा’ या ‘दो’ ।
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यमक = यम = जोड़ा + क = तरह।
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जब कविता में भिन्नार्थक अथवा निरर्थक शब्दों की आवृत्ति कम से कम दो बार होती है, तब वहाँ यमक अलंकार होता है।
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जैसे केकी- रव की नूपुर- ध्वनि सुन, जगती जगती की मूक प्यास। यहाँ जगती शब्द की दो बार आवृत्ति होने के कारण यमक अलकार है। प्रथम जगती ‘क्रिया’ है जबकि दूसरी जगती ‘पृथ्वी’ का पर्याय है।
3. पुनरूक्तवदाभास
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पुनरूक्तवदाभास शब्द पुन + उक्त + वत + आभास से बना है, जिसका अर्थ होता है, दोबारा कहे हुए का आभास होना, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होना।
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जब कविता में भिन्न आकार वाले भिन्नार्थक शब्द का प्रयोग हो, परन्तु समान्य रूप से वे समानार्थक लगे, तो वहाँ पुनरूक्तवदाभास अलंकार होता है।
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जैसे हिमगिरि के मस्तक से निर्झर बन बह चला पसीना । पानी में है जान सभी की जीवन ही है जीना।। यहाँ ‘जीवन’ और ‘जीना’ का अर्थ एक होने का आभास मिलता है परन्तु जीवन का अर्थ ‘जल’ है। अतः पनरूक्तवदाभास अलंकार है।
4. श्लेष
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‘श्लेष’ शब्द श्लिष् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है- सटा हुआ, मिला हुआ या चिपका हुआ।
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जब कविता में एक ही शब्द में अनेक अर्थ मिले हुऐ हो, तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
5. वक्रोक्ति
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वक्रोक्ति-वक्र + उक्ति से बना है, जिसका अर्थ होता है वक्र = टेढ़ा, उक्ति = कथन अर्थात टेढ़ा कथन।
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जब कविता में वक्ता के कथन को श्रोता द्वारा अन्य अर्थ समझा जाता है, तो वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
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जैसे एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है? उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ है गया सपर है।। यहाँ जहाँगीर ने दूसरे कबूतर के बारे में पूछा तो नूरजहाँ ने ‘अपर शब्द का अर्थ बिना पर वाला समझकर उत्तर दिया है। अतः वक्रोक्ति अलंकार है।
6. पुनरूक्ति
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पुनरूक्ति का अर्थ होता है एक ही बात को दोबारा कहना।
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जब कविता में किसी भाव की सुन्दरता के लिए एक ही शब्द की आवृत्ति होती है, तो वहाँ पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार होता है।
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जैसे सखी, निरख नदी की धारा । ढलमल ढलमल चंचल चंचल झलमल झलमल तारा । यहाँ सुन्दरता के लिए ढलमल, चंचल, झलमल शब्दों की आवृत्ति हुई है, अतः पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
7. वीप्सा
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वीप्सा का अर्थ होता है ‘दुहराना’ ।
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जब कविता में आदर, आश्चर्य, शोक, घबराहट शब्द की आवृत्ति की जाती है, तो वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
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जैसे मधुर-मधुर मेरे दीपक जल। यहाँ मधुर-मधुर की आवृत्ति है अतः वीप्सा अलंकार है।
अर्थालंकार
1. उपमा
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उपमा का अर्थ होता है
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उप = समीप
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मा = मापना या तुलना करना
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अर्थात् एक वस्तु के समीप किसी दूसरी वस्तु को रखकर तुलना करना।
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जब कविता में किसी वस्तु का उत्कर्ष दिखाने के लिए उस वस्तु की तुलना लोक में प्रसिद्ध दूसरी वस्तु से की जाती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है।
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जैसे- राधा रति के समान सुन्दर है। यहाँ राधा की तुलना रति से की गई है अतः उपमा अलंकार है। उपमा के चार अंग होते
(1) उपमेय – जिसका वर्णन होता है। जैसे – राधा।
(2) उपमान– जिससे समता की जाए। जैसे – रति।
(3) धर्म – जिस गुण धर्म के कारण समता की गई हो। जैसे – सुंदर।
(4) वाचक – जिस शब्द के द्वारा समता प्रकट की गई हो। जैसे – समान।
उपमा अलंकार की पहचान
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इस अलंकार के उदाहरण में इसके वाचक शब्द-सा से, सी, सो, सम, समान, सदृश, सरिस, इव, तूल, लौं, ज्यों, जैसे, इमि, जिमि, ऐसा आदि निश्चित रहते हैं।
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जैसे
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(1) पीपर पात सरिस मन डोला।
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(2) तनु दुति मोर चन्द्र जिमि झलकै।
2. रूपक
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रूपक का अर्थ होता है – ‘एकता’ या अभेद।
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जब कविता में उपमेय (प्रस्तुत) में उपमान ” (अप्रस्तुत) का आरोप कर दोनों को एक कर दिया जाता है, तब रूपक अलंकार होता है।
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आरोप का अर्थ होता है- ‘रूप देना’ अर्थात् एक वस्तु को दूसरे वस्तु के रूप में रंग देना।
आरोप कल्पित होता है।
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जैसे- चरण-कमल बंदौ हरिराई। यहाँ उपमेय (चरण) में उपमान (कमल) का आरोप कर दोनों को एक कर दिया गया है, अतः रूपक अलंकार है।
रूपक अलंकार की पहचान
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इस अलंकार के उदाहरण में प्रायः योंजक चिह्न (-) लगा रहता है।
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जैसे –
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(1) मैया मैं तो चंद्र-खिलौना लैहों
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(2) कर-सरोज सिर परसउ कृपा सिन्धु को रधुवीर।
3. उत्प्रेक्षा
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उत्प्रेक्षा शब्द का अर्थ होता है- उत् + प्र + ईक्षा = ऊँचा देखना या उपमान को प्रधानता से देखना। देखने का अर्थ सम्भावना करना होता है।
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जब कविता में उपमेय (प्रस्तुत) में उपमान (अप्रस्तुत) की संभावना व्यक्त की जाती है, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
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जैसे – सीताजी का मुख मानों चन्द्रमा है।
उत्प्रेक्षा अलंकार की पहचान
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इस अलंकार के उदाहरण में इसके वाचक शब्द-मानो, जानो, मनु, मेरे जानते, मनहु, मनो, जनु, निश्चय, मैं समझता हूँ, प्रायः जान पड़ता है, आदि निश्चित रूप से रहते हैं।
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद
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उत्प्रेक्षा के तीन भेद होते हैं
(1) वस्तूत्प्रेक्षा
(2) हेतूत्प्रेक्षा
(3) फलोत्प्रेक्षा
4. अतिशयोक्ति
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अतिशयोक्ति का अर्थ होता है- अतिशय = बढ़ा चढ़ाकर, उक्ति = कथन या वर्णन अर्थात् किसी बात को बढ़ा चढ़ाकर कहना। जब कविता में किसी विषय को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
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जैसे हनुमान की पूँछ में लगन न पाई आग। लंका सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग ।।
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यहाँ अभी हनुमान की पूँछ में आग भी नहीं लगी थी तब तक सारी लंका जल गई का वर्णन होने के कारण अतिशयोक्ति अलंकार है।
5. उल्लेख
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जब कविता में किसी वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन किया जाता है, तो वहाँ उल्लेख अलंकार होता है।
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जैसे साधुन में तुम साधु हौ, राजन में शिवराज । सठन संग सठता करौ, कठिन संग कविराज ।।
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यहाँ विभिन्न गुणों के कारण एक व्यक्ति का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है अतः उल्लेख अलंकार है।
6. भ्रान्तिमान
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भ्रान्तिमान का अर्थ होता है, भ्रम से युक्त ज्ञान।
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जब कविता में सादृश्य के कारण किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के रूप में कवि द्वारा चमत्कारपूर्ण ढंग से वर्णन हो तो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
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जैसे वृन्दावन विहरत फिरै राधा नन्दकिशोर । नीरद दामिनि जानि सँग डौलैं बोलैं मोर ।।
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यहाँ कृष्ण और राधा को देखकर मोरों को बादल ओर बिजली का भ्रम हो गया जिसे कवि ने चमत्कार पूर्ण ढंग से वर्णित किया हैं अतः भ्रान्तिमान अलंकार है।
7. सन्देह
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जब किसी वस्तु को देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि यह वह वस्तु है, अथवा अन्य वस्तु, तो वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
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जैसे– तारे आसमान के हैं आए मेहमान बन या कि कमला ही आज आके मुसकाई है। यहाँ दीपावली के समय कवि को सन्देह होता है कि आसमान के तारे पृथ्वी पर मेहमान बनकर आए है या लक्ष्मी मुस्करा रही है।
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सन्देह अलंकार की पहचान – इस अलंकार में प्रायः कि, क्या, किधौं, कै, किंवा अथवा, जैसे, या आदि शबद रहते हैं।
8. विरोधाभास
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विरोधाभास का अर्थ होता है – विरोध का अभास।
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जब कविता में दो वस्तुओं में विरोध नहीं होने पर भी जहाँ विरोध का अभास होता है, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।
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जैसे- पर अथाह पानी रखता है यह सूखा-सा गात्र।
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यहाँ सूखा गात्र का अथाह पानी रखना विरोध की प्रतीति कराता है। अत विरोधाभास अलंकार है।
9. विभावना
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विभावना का अर्थ होता है ,वि = विशिष्ट, भावना = कल्पना। – जब कविता में कारण के अभाव में कार्य के होने का वर्णन होता है तब विभावना अलंकार होता है।
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जैसे- बिनु पद चलै सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै विधि नाना।।
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यहाँ बिना पैर का चलना, बिना कान का सुनना तथा बिना हाथ के कार्य का होने का वर्णन किया गया है, अतः विभावना अलंकार है।
10. विरोषोक्ति
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विशेषोक्ति का अर्थ होता है विशेष प्रकार का कथन या उक्ति।
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जब कविता में कारण के रहते हुए भी कार्य के न होने का वर्णन हो तो वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।
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जैसे- धन रहने पर भी गर्व नहीं, चंचलता नहीं जवानी में। जिसने देखी उनकी महानता वही पड़ा हैरानी में।।
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यहाँ धन (कारण) के रहते हुए भी गर्व (कार्य) नहीं करना तथा जवानी (कारण) के रहते हुए चंचलता नहीं होना का वर्णन होने से विशेषोक्ति अलंकार है।
11. असंगति
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असंगति का अर्थ होता है- संगति का नहीं होना।
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जब कविता में कारण और कार्य दोनों का । वर्णन अलग-अलग मिलता है तो वहाँ असंगति अलंकार होता है।
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जैसे तुमने पैरों में लगाई मेंहदी, मेरी आँखों में समाई मेहँदी।
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यहाँ मेहँदी के लगने का वर्णन पैरों (कारण) में है परन्तु उसकी लाली आँखों (कार्य) में छायी है ऐसा वर्णन होने के कारण असंगति अलंकार
12. काव्यलिंग
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काव्यलिंग का अर्थ होता है काव्य का कारण या काव्य का हेतु।
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जब कविता में किसी अर्थ का कारण से समर्थन किया जाता है तो वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है।
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जैसे रहिमन चुप है बैठिये, देखि दिनन को फेर | जब नीके आइहैं, बनत न लहिहै बेर ।।
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यहाँ ‘विपति के समय चुप होकर बैठना’ अर्थ का समर्थन अच्छे दिन आने पर बनते देर नहीं लगती कारण से किया गया है, अतः काव्यलिंग अलंकार है।
13. अर्थान्तरन्यास
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अर्थान्तरन्यास का अर्थ होता है – अर्थ + अन्तर + नि + आस अर्थात् एक बात का दूसरी बात से समर्थन करना।
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जब कविता में सामान्य बात का विशेष से या विशेष बात का समान्य बात से समर्थन किया जाता है तो अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।
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जैसे – निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी। सच ही है- श्रीमान् भोगते सुख वन में भी।।
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यहाँ राम का निर्वासित होकर वन में सुख भोगना का समर्थन सामान्य बात श्रीमान वन में भी सुख भोगते है से किया गया है अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है। किसान
14. व्याजोक्ति
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व्याजोक्ति का अर्थ होता है व्याज = कपट
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उक्ति = कथन अर्थात् कपट उक्ति या बहाने से किसी बात को कहना।
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जब कविता में किसी बात को छिपाने के लिए कोई बहाना बनाया जाता है तो वहाँ व्याजोक्ति अलंकार होता है।
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जैसे- ललन चलन सुनि पलन में, अँसुवा झलके आय। भई लखाइ न सखिनहू, झूठे ही जमुहाय ।।
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यहाँ नायक के विदेश जाने की बात पर नायिका के आँखों में आँसू आ जाते है परन्तु नायिका अंगड़ाई लेकर यह दिखाना चाहती है कि आँसू अंगड़ाई के कारण निकल आये हैं। अतः व्याजोक्ति अलंकार है।
15. स्वभावेक्ति
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स्वभावोक्ति का अर्थ होता है – स्वभाविक कथन या उक्ति।
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जब कविता में किसी वस्तु का स्वभाविक वर्णन किया जाता है तो वहाँ स्वभावोक्ति हलंकार होता है।
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जैसे
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सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरून चलत रेनु तनु मंडित मुख दधि लेप किए।
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यहाँ कृष्ण की बालक्रिड़ाओं का स्वभाविक वर्णन है अतः स्वभावोक्ति अलंकार है।