संगम काल (Sangam period )

संगम काल के बारे में

  • दक्षिण भारत के तीनों ओर समुद्र से घिरा दक्षिणतम् भू-भाग प्राचीन काल में तमिलकम या तमिलहम नाम से विख्यात था।
  • ‘संगम’ का अर्थ तमिल कवियों का संघ, परिषद् अथवा गोष्ठी से है, जिसे राजकीय संरक्षण प्राप्त होता था।
  • संगम काल के बारे में हमें संगम साहित्य के अलावा अन्य स्रोतों यथा स्ट्रैबो, पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी (अज्ञात यूनानी लेखक की रचना), प्लिनी, टॉलेमी आदि की रचनाओं से भी जानकारी मिलती है।
  • संगम साहित्य से ही ज्ञात होता है कि ऋषि अगस्त्य एवं कौंडिन्य ने दक्षिण भारत में वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता का प्रचार-प्रसार किया। 
  • मदुरै में सम्मेलन के रूप में तमिल कवियों का यह संगम पर्याप्त समुन्नत स्थिति में था। इसका सर्वप्रथम उल्लेख इरैयनार अगप्पोरुल के भाष्य से प्राप्त होता है। 
  • इस प्रकार तमिल कवियों के संगम पर आधारित प्राचीनतम तमिल साहित्य, संगम साहित्य कहलाता है और वह युग जिसके विषय में इस साहित्य द्वारा जानकारी प्राप्त होती है ‘संगम युग’ कहलाता है। संगम साहित्य का संकलन नौ खंडों में उपलब्ध है।

 ‘संगम’ अथवा सम्मेलन

प्राप्त विवरण के अनुसार पांड्य राजाओं के संरक्षण में कल तीन संगम आयोजित किये गए

प्रथम संगम 

  • संगम(सम्मेलन) में तमिल कवि एवं विद्वान शामिल होते थे और अपनी रचनाएँ ‘संगम’ के सामने प्रस्तुत करते हो. 
  • प्रथम संगम पांड्य राजाओं की राजधानी मदुरै में अगस्त्य ऋषि की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था।
  • प्रथम संगम में सदस्यों की कुल संख्या 549 थी। 
  • प्रथम संगम 89 पांड्य राजाओं के संरक्षण में हुआ। 

द्वितीय संगम 

  • द्वितीय संगम कपाटपुरम् (अलैवाई) में आयोजित किया गया तथा इस संगम की अध्यक्षता अगस्त्य ऋषि ने की। 
  • इस संगम में 3700 रचनाकारों ने अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाने की आज्ञा प्राप्त की। 
  • द्वितीय संगम 59 पांड्य राजाओं के संरक्षण में हुआ। 
  • इस संगम में संकलित साहित्यों में तमिल व्याकरण ग्रंथ ‘तोल्काप्पियम’ ही एकमात्र शेष है। इस ग्रंथ की रचना का श्रेय अगस्त्य ऋषि के शिष्य तोल्काप्पियर को दिया जाता है।

 तृतीय संगम 

  • तृतीय संगम का आयोजन पांड्य राजाओं की राजधानी मदुरै में किया गया। इस संगम की अध्यक्षता नक्कीरर ने की थी। 
  •  तृतीय संगम में 449 कवियों को उनकी रचना प्रकाशित करने की आज्ञा मिली। 
  • तृतीय संगम में संकलित की गई रचनाएँ वर्तमान में भी उपलब्ध हैं, जिनकी संख्या 49 है। 
  • तृतीय संगम को 49 पांड्य शासकों का संरक्षण मिला। 
  • इस संगम द्वारा संकलित उत्कृष्ट रचनाएँ नेदुथोकै, कुरुंथोक, नत्रिनई, एन्कुरुन्नूर पदित्रुप्पट, नूत्रैबथू, परि-पादल, कुथु, वरि, पैरिसै तथा सित्रिसै है। 
  • उल्लेखनीय है कि वर्तमान में उपलब्ध तमिल ग्रंथ का संकलन इसी संगम में किया गया था।

संगम अथवा सम्मेलन 

संगम

अध्यक्ष

संरक्षक

स्थल

सदस्यों की संख्या 

प्रथम

अगस्त्य ऋषि 

पांड्य शासक

मदुरै

549

द्वितीय

अगस्त्य ऋषि

पांड्य शासक

कपाटपुरम्

59

ततीय

नक्कीरर

पांड्य शासक

मदुरै

49

संगम साहित्य 

  • प्राचीन संगम काल में जिन संगम ग्रंथों की रचनाएँ की गईं, उन्हें संगम साहित्य कहा गया। 
  • विषय-वस्तु की दृष्टि से संगम साहित्य में ‘प्रेम’ और ‘राजाओं की प्रशंसा’ पर अधिक जोर दिया जाता था। तमिल में प्रेम संबंधी मानवीय पहलुओं पर आधारित रचनाओं को ‘अगम‘ तथा राजाओं की प्रशंसा, सामाजिक जीवन, नैतिकता, वीरता, रीति-रिवाजों संबंधी रचनाओं को ‘पुरम‘ कहा जाता था।
  • संगम साहित्य को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है
    • (1) पत्थुप्पातु
    • (2) इत्थुथोकै
    • (3) पदिनेनकीलकन्कु 

पत्थुप्पातु 

  • पत्थुप्पातु दस संक्षिप्त पदों का संग्रह है। संभवतः इन पदों को लिखे जाने का समय द्वितीय सदी ईसवी का है। 
  • इन संक्षिप्त पदों में पाण्ड्य राजा नेडुंजेलियन और चोल राजा करिकाल के विषय में जानकारी मिलती है। 

इत्थुथोकै 

  • इत्थुथोकै आठ कविताओं का संग्रह है।
  • इन कविताओं में संगम काल के राजाओं के नाम और तात्कालिक समाज का विवरण है। 

पदिनेनकीलकन्कु 

  • पदिनेनकीलकन्कु अठारह छोटी कविताओं का संकलन है। इनका भाव उपदेशात्मक है। 
  • इन कविताओं में तिरुवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल या कुरल उत्कृष्ट रचना है।  

संगमकालीन प्रमुख साहित्य

संगम साहित्य

रचनाकार 

तोल्काप्पियम्

(व्याकरण )

तोल्काप्पियर

तिरुक्कुरल या कुरल

(दार्शनिक )

तिरुवल्लुवर

अहनानूरू

रुद्रसर्मन

मरुगढ़प्पादय

नक्कीरर

शिलप्पादिकारम्

(हास्यकाव्य )

इलंगोआदिगल 

मणिमेखले

(हास्यकाव्य )

सीतलैसत्रनार

जीवकचिंतामणि

तिरुत्तक्कदेवर

संगमकालीन महाकाव्य 

  • संगम काल में महाकाव्यों की भी रचना की गई। इस काल के पाँच प्रसिद्ध महाकाव्य हैं- शिलप्पादिकारम्, मणिमेखले, जीवकचिंतामणि, वलयपति तथा कुंडलकेशि। इनमें प्रथम तीन ही उपलब्ध हैं। इनका विवरण इस प्रकार है

शिलप्पादिकारम्

  • शिलप्पादिकारम् महाकाव्य की रचना चेर शासक शेनगुटुवन के भाई इलंगोआदिगल ने की थी। 
  • यह एक प्रेम-कथा पर आधारित महाकाव्य है।
  • इस महाकाव्य के नायक और नायिका क्रमशः कोवलन और कण्णगी है।
  • इस महाकाव्य का नायक कोवलन अपनी पत्नी कण्णगी की उपेक्षा कर माधवी नामक एक वेश्या से प्रेम करता है। 

मणिमेखलै 

  • इस महाकाव्य की रचना मदुरा के एक बौद्ध व्यापारी सीतलैसत्तनार द्वारा की गई। 
  • इस महाकाव्य में महाकाव्य की नायिका मणिमेखलै के साहसिक जीवन का वर्णन है। ‘मणिमेखलै’, शिलप्पादिकारम् के नायक कोवलन और उसकी प्रेमिका माधवी से उत्पन्न पुत्री थी। 
  • उल्लेखनीय है कि जहाँ पर शिलप्पादिकारम् की कहानी खत्म होती है, वहीं से मणिमेखलै की कहानी प्रारंभ होती है। 

जीवकचिंतामणि

  •  इस महाकाव्य के लेखक जैन धर्मावलंबी तिरुत्तक्कदेवर हैं। 
  • इस महाकाव्य में इसके नायक जीवक का चरित्र-चित्रण किया गया है। ऐसा माना जाता है कि जीवक कुल आठ विवाह करता है और गृह जीवन के बाद परिवार का त्याग करके जैन धर्म अपनाकर संन्यास ग्रहण कर लेता है। 
  • जीवकचिंतामणि में आठ विवाहों के वर्णन के कारण इसे धर्मग्रंथ (मणमूल) भी कहा जाता है। 

संगमकालीन राजनैतिक इतिहास

  •  संगमकालीन राजनैतिक इतिहास का ज्ञान हमें ‘संगम साहित्य’ से ही मिलता है। संगम साहित्य में तीन महत्त्वपूर्ण राज्यों- चेर, चोल और पांड्य का उल्लेख किया गया है।
  •  संगम साहित्य के अनुसार चेर का राज्य दक्षिण-पश्चिम में, चोलों का राज्य उत्तर-पूर्व में तथा पांड्यों का राज्य दक्षिण-पूर्व में स्थित था। 

चोल राज्य 

  • संगम काल के तीनों राज्यों में चोल राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था। 
  • चोल राज्य पेन्नार तथा वेल्लारू नदियों के मध्य स्थित था। यह पांड्य राज्य के उत्तर-पूर्व में अवस्थित था। 
  • चोल राज्य ‘चोलमंडलम्’ या ‘कोरोमंडल‘ के नाम से भी जाना जाता था। 
  • इसका मुख्य केंद्र उरैयूर था। 
  • चोल शासकों का राजकीय चिह्न ‘बाघ‘ था। 

प्रमुख शासक 

एलारा 

  • ऐसा माना जाता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में एलारा नामक चोल राजा ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की थी। 
  • एलारा ने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया। 

करिकाल 

  • संगमकालीन चोल शासकों में करिकाल सबसे प्रतापी शासक था।इसका काल लगभग 190 ई. माना जाता है।
  •  करिकाल ने अपने समकालीन चेर तथा पांड्य राजाओं को परास्त किया तथा कावेरी नदी घाटी में अपनी स्थिति सुदृढ़ की। 
  • करिकाल ब्राह्मण मतानुयायी था; उसने इस धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। 
  • करिकाल ने चोलों की तटीय राजधानी ‘पुहार’ (आधुनिक कावेरीपत्तनम्) की स्थापना की तथा कावेरी नदी के किनारे 160 किमी. लंबा बांध बनवाया। 
  • ‘पेरुनानुन्नुपादे’ में करिकाल को संगीत के सप्त स्वरों का विशेषज्ञ बताया गया है। 
  •  करिकाल ने उद्योग-धंधों तथा कृषि की उन्नति में विशेष रुचि ली। उसने जंगल को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित करने को प्रोत्साहन दिया और सिंचाई के लिये तालाब खुदवाए। 

चोलों का पतन 

  • करिकाल के पश्चात् चोलों की शक्ति निर्बल पड़ने लगी। संगमकालीन चोल शासकों ने तीसरी-चौथी शताब्दी तक शासन किया। 
  • नवीं शताब्दी के मध्य पुनः चोल सत्ता का उत्थान विजयालय के नेतृत्व में हुआ। 

चेर राज्य 

  • पांड्यों के संरक्षण में संपन्न संगम में सर्वाधिक बार उल्लेख प्राचीन चेर  वंश का मिलता है।
  •  केरलपुत्र (अशोक के अभिलेख में वर्णित) के नाम से विख्यात यह राज्य (चेर) आधुनिक कोंकण, मालाबार का तटीय क्षेत्र, उत्तरी त्रावणकोर एवं कोच्चि तक विस्तृत था।
  •  चेर शासकों का प्रतीक चिह्न ‘धनुष‘ था। 

चेर राज्य के प्रमुख शासक 

उदियनजेरल 

  • उदियनजेरल (लगभग 130 ई.) चेर शासकों का प्रथम राजा था। 
  • ऐसा माना जाता है कि उदियनजेरल ने महाभारत के युद्ध में भाग लेने वाले वीरों को भोजन कराया था। 
  • उदियनजेरल ‘अधिराज’ की उपाधि धारण करता था जो किसी समकालीन शासक पर विजय का प्रतीक था। 
  • उदियनजेरल नियमित रूप से जनता में भोजन वितरित करवाता था। इस कार्य हेतु उसने एक बड़ी ‘पाकशाला’ भी बनवाई थी। 

नेदुजीरल आदन 

  • नेदुजीरलआदन (लगभग 155 ई.) एक प्रतापी शासक था। इसके द्वारा धारण उपाधियों ‘अधिराज’ और ‘इमयवरंबन’ (हिमालय तक सीमा वाला) से पता चलता है कि उसने समस्त भारत पर विजय प्राप्त की थी। 
  • नेंदुजीरल ने मालाबार तट पर अपने किसी शत्रु को नौसैनिक युद्ध में हराया था तथा यवन व्यापारियों को भी बंदी बनाकर उनसे बहुत सारा धन लूटा। 

शेनगुटुवन 

  • चेर शासकों में शेनगुद्द्वन (लगभग 180 ई.) सबसे प्रसिद्ध था।
  • शेनगुटुवन को ‘लाल चेर’ के उपनाम से भी जाना जाता है।
  • यह एक वीर योद्धा तथा सेनानायक था। शेनगुटुवन ने उत्तर दिशा में चढ़ाई की और गंगा को पार किया।
  • इसके ही शासनकाल में ‘पत्तिनी पूजा’ या कण्णगी पूजा प्रारंभ हुई, जिसमें आदर्श और पवित्र पत्नी की मूर्ति की पूजा की जाती थी। 

सैईयै ( हाथी की आँख वाला )

  • यह चेर वंश का अंतिम शासक (लगभग 210 ई.) था। 
  • इसके समकालीन पाड्य शासक नेडुंजेलियन ने उसे पराजित किया। 

पांड्य राज्य 

  • पांड्य राज्य का क्षेत्र कावेरी के दक्षिण में स्थित था जिसमें वर्तमान मदुरै तथा तिरुनेलवेली के जिले और त्रावणकोर के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे। 
  • पांड्य राज्य का उल्लेख सर्वप्रथम मेगस्थनीज ने किया। मेगस्थनीज ने पांड्य राज्य का उल्लेख ‘माबर’ नाम से किया है। उसके अनुसार, यह राज्य ‘मोतियों’ के लिये अत्यधिक प्रसिद्ध था। 
  • पांड्य राज्य की राजधानी मदुरै थी। 
  • इनका प्रतीक चिह्न ‘कार्प’ (एक प्रकार की मछली) था। 

पाड्य राज्य के प्रमुख शासक 

नेडियोन 

  • संगम ग्रंथों के अनुसार नेडियोन प्रथम पांड्य शासक था। 
  • उसने पहरूली नामक नदी को अस्तित्व प्रदान किया तथा समुद्र पूजा भी प्रारंभ करवाई।

नेडुंजेलियन

  • पांड्य शासकों में प्रथम शक्ति-संपन्न और महत्त्वपूर्ण शासक नेडुंजेलियन (लगभग 210 ई.) था। 
  • नक्कीरर तथा मांमुडि मरुदन, जैसे प्रसिद्ध कवियों ने नेडुंजेलियन पर कविताएँ लिखीं जो ‘पत्तुपात्र’ में संकलित है।
  •  ‘मदुरैकांजी’ नामक एक रचना जो मदुरा और पांड्यों से संबंधित थी, में नेडुजेलियन को कुशल शासक बताया गया है। 
  •  नेडुंजेलियन ने अपने दो पड़ोसी राजाओं और पाँच सामंतों के समूह  को पराजित किया। 
  •  नेडुंजेलियन ने चेर राजा सैईयै (हाथी की आँख वाला) को पराजित कर बंदीगृह में रखा। 
  • संगम ग्रंथों के अनुसार नेडुंजेलियन ने रोमन सम्राट आगस्टस के दरबार में अपना दूत भेजा था। 
  • नेडुंजेलियन ने वैदिक धर्म को प्रोत्साहन दिया और बहुत से यज्ञ किये। 
  • माना जाता है कि शिलप्पादिकारम् की रचना इसी के काल में हुई जब उसने निर्दोष कोवलन को चोरी के इल्जाम में फाँसी की सजा दे दी। 
  • पांड्यों की राजधानी मदुरै, नेडुंजेलियन के काल में सांस्कृतिक और व्यापारिक क्रियाकलापों का केंद्र थी। 
  • नेडुंजेलियन के पश्चात् पांड्य राज्य का इतिहास अंधकारपूर्ण हा गया। सातवीं शताब्दी में पांड्य सत्ता का पुनः उत्कर्ष हुआ। 
  • नल्लिवकोडन संगम युग का अंतिम ज्ञात पांड्य शासक था।

संगमकालीन शासन प्रणाली 

  • संगमकालीन शासन प्रणाली राजतंत्रात्मक एवं वंशानुगत थी, जिसमें राजा की शक्ति सर्वोच्च होती थी। 
  • राजा प्रजा को सर्वोपरि मानता था। राजा प्रतिदिन अपनी सभा में प्रजा के कष्टों को सुनता था और न्याय कार्य संपन्न करता था। राजधानी में एक राजसभा होती थी जिसे नालवै कहा जाता था। यह राजा के साथ न्याय का कार्य करता था। 
  • इस काल के शासक ब्राह्मण मतानुयायी थे, इसलिये उन्होंने ब्राह्मणों को प्रशासन में सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान की थीं। 
  • इस काल के शासक युद्ध प्रेमी होते थे तथा चक्रवर्ती सम्राट बनने की अभिलाषा रखते थे। युद्ध में वीरगति शुभ कार्य माना जाता था। 
  • राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के लिये पाँच समितियों का गठन किया गया था, जो है
    • 1. मंत्री – अमाइच्चार अथवा अमैच्चार
    • 2. पुरोहित – पुरोहितार 
    • 3. सेना नायक – सेनापतियार 
    • 4. राजदूत – दूतार
    • 5. गुप्तचर – ओरार्र 

नगरीय एवं ग्रामीण प्रशासन 

  • इस काल में नगरीय एवं ग्रामीण प्रशासन पर भी समुचित ध्यान दिया जाता था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से राज्य को विभिन्न छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक इकाई का अपना एक प्रशासनिक अधिकारी होता था। 
  • नगरीय और ग्रामीण प्रशासन में ‘मन्नरम्’ प्रमुख थे। 
    1. मंडलम् – राज्य (संपूर्ण) 
    2. अवै – छोटे ग्रामों की सभा 
    3. नाडु – प्रांत
    4. पट्टिनम् – तटीय शहर 
    5. उर (पेरुर) – नगर या बड़े ग्राम 
    6. पोडियाल – सार्वजनिक स्थल 
    7. सिरूर – छोटे ग्राम
    8. सालै – प्रमुख सड़क
    9. मुडुर – पुराना ग्राम
    10. तेरु – नगर की प्रमुख गली 
  • ग्राम, प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। 
  • छोटे ग्रामों की सभा ‘अवै’ कहलाती थी, जो स्थानीय विवादों व व्यापार तथा रोजगार आदि से संबंधित होती थी। 
  • बड़े ग्राम या नगर को ‘उर’ कहा जाता था। 
  • छोटा ग्राम सिरैयूर/सिरूर कहलाता था।

संगमकालीन प्रमुख नगर 

  • उरैयूर- यह चोलों की राजधानी थी तथा सूती कपड़ों का बड़ा केंद्र था। 
  • पुहार – यह चोलों की समुद्र तटीय राजधानी थी। यह एक प्रसिद्ध बंदरगाह भी था।
  • मदुरै पांड्य शासकों की राजधानी थी।
  • कोरकाई – पांड्यों की तटीय राजधानी थी।
  • वाजि या करैयर चेरों की राजधानी थी। 
  • मुशिरी अथवा मुजीरिस-चेरकालीन प्रसिद्ध बंदरगाह था।

 सैनिक व्यवस्था 

  • इस काल के राजा युद्ध प्रेमी होते थे। शासकों के पास पेशेवर सैनिक होते थे। सेना के कप्तान को ‘एनाडि‘ कहा जाता था। 
  • सेना को रथ, हस्ति, दल, घुड़सवार और पैदल सेना में विभाजित किया गया था। सेना की अग्र टुकड़ी ‘तुसी‘ और पिछली टुकड़ी ‘कुलै’ कहलाती थी। 
  • युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की मूर्तियाँ बनाई जाती थी, जिसमें उनका नाम और उनकी उपलब्धियाँ अंकित होती थीं। 
  • चोलों तथा पांड्यों के शासनकाल में नागरिक और सैनिक पदों पर वेल्लाल अर्थात् धनी किसान होते थे। 
  • राजा अपने निवास स्थान की सुरक्षा के लिये सशस्त्र महिलाओं को तैनात करते थे। 

कर प्रणाली या राजस्व 

  • संगम काल में कृषि तथा व्यापार दोनों ही उन्नत अवस्था में था, इसलिये राज्य की आय का मुख्य साधन इन पर लगाए जाने वाले कर थे। 
  • भूमिकरनकद या अनाज दोनों रूपों में वसूल किया जाता था। 
  • संगम काल में युद्ध से लूटा हुआ धन भी आय का एक मुख्य साधन था। 
  • कर अदा करने वाले क्षेत्र की एक प्रसिद्ध इकाई ‘वरियमवारि‘ थी। भूमि का उस इकाई से कर वसूलने वाला प्रभारी ‘वरियार’ कहलाता था। 
  • भूमि निवर्तन के अनुसार मापी जाती थी। सुदूर दक्षिण में ‘मा’ और ‘वेलि’ भूमि के माप थे। 
  • यहाँ कर देने के लिये अनाज को अंबानम् में तौला जाता था। संभवतः यह बड़ा तौल था। छोटे तौल के रूप में नालि, उलाकू और अलाक प्रचलित थे। 

राजस्व से संबंधित शब्दावली 

मा और वेल्लि

भूमि की दो प्रसिद्ध मापन

इरय

भूमिकर

उल्गु या शुंगम

चुंगी एवं सीमा शुल्क

कुडमै या पादु

राजा को अदा किया जाने वाला कर

ईरादु

जबरन वसूला जाने वाला कर

संगमकालीन सामाजिक व्यवस्था 

  • उत्तर भारत की तरह संगम काल का समाज भी वर्गभेद पर आधारित था। 
  • ये वर्ण थे- अरसर (शासक), शुड्डुम (ब्राह्मण), वेल्लाल (किसान), वेनिगर (व्यापारी) तथा पुलैयन (दस्तकार) आदि। 
  • संगम समाज में राजा के बाद ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था। इसके बाद ‘वेल्लाल’ वर्ग का स्थान था जो प्रायः कृषि कार्य करते थे। ‘वेनिगर’ शब्द का उल्लेख व्यापारी वर्ग के लिये किया जाता था। किंतु इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी। दस्तकारों का वर्ग ‘पुलैयन’ कहलाता था, जो रस्सी तथा पशु के चमड़े से चारपाई और चटाई बनाने का काम करते थे। 
  • इसं समय तक दक्षिण के राज्यों का आर्वीकरण हो गया था तथा वैदिक यज्ञ होने लगे थे।
  •  ब्राह्मणों को दान में भूमि, घोडे. रथ. हाथी और स्वर्ण मुद्राएँ दी जाती थीं। इस युग में ब्राह्मण मांस खाते थे और ताड़ी पीते थे, जो समाज में बुरा नहीं माना जाता था। 
  •  संगम काल में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। दरबारों में गायकों के साथ नर्तकियाँ नाचती थीं, जिन्हें ‘पाणर’ और ‘विडैलियर‘ कहा जाता था। 
  • संगम काल में अस्पृश्यता थी, लेकिन दास प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। 
  • तमिल व्याकरण ग्रंथ तोल्काप्पियम् में बताया गया है कि संगम काल में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता दी गई थी। वैदिक धर्मशास्त्रों में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों की चर्चा तोल्काप्पियम् में भी की गई है। 
  • संगम साहित्य में मृतक संस्कार विधियों का भी उल्लेख मिलता है। इस काल में अग्निदाह तथा समाधीकरण दोनों ही विधियाँ प्रचलित थीं। 
  • समाज में सती प्रथा का प्रचलन था तथा विधवाओं की दशा दयनीय थी।
  • संगमकालीन धार्मिक व्यवस्था
    • संगम काल में मुख्य रूप से तीन धार्मिक मत थे – (1) ब्राह्मण मत,    (2) बौद्ध मत और    (3) जैन मत
  • इस काल तक दक्षिण भारत में वैदिक यज्ञ की शुरुआत हो चुकी थी।
  • इस युग में धर्म का संबंध कर्मकांडों और कतिपय आध्यात्मिक अवधारणाओं से था। उनके कर्मकांड का संबंध जीवात्मावादी तथा मानवरूपी देवपूजा के विविध रूपों में था। 
  • दक्षिण भारत के प्रमुख देवता ‘मुरुगन’ थे। मुरुगन का एक अन्य नाम ‘सुब्रह्मण्यम’ भी मिलता है। मुरुगन का प्रतीक ‘मुर्गा’ अर्थात् कुक्कुट है। मुरुगन की उपासना में किए जाने वाले नृत्य को ‘वेलनाडल’ कहा जाता था। 
  • संगम काल में पहाड़ी क्षेत्र के शिकारी पर्वत देव के रूप में मुरुगन की पूजा करते थे। 
  • मछुआरे तथा तटवर्ती क्षेत्र के लोग वरुण की पूजा करते थे। 
  • किसान लोग मरुद्रम (इंद्र देव) की पूजा करते थे। पुहार में वार्षिक उत्सव में इंद्र की विशेष प्रकार की पूजा होती थी। 
  •  ‘मरियम्मा’ शीतला माता थी, जो चेचक से संबंधित थीं। 
  • संगम काल में शिव, अर्द्धनारीश्वर, अनंतशायी विष्णु, कृष्ण, बलराम आदि देवताओं की उपासना भी लोकप्रिय थी। 
  • ‘कोरावई’ विजय की देवी थी। 
  • संगम युग के दौरान बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का भी साथ-साथ विकास हुआ। लेकिन ब्राह्मणवादी वैदिक धर्म के अंतर्गत ही इनका प्रसार हुआ। संगम काल में लोगों का कर्म, पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद पर विश्वास था। 
  • वन देवी (कुडुरैकरडावुल) जिसकी प्रायः दुर्गा देवी के साथ तुलना की जाती है, की उपासना भी एक अन्य अवशिष्ट धार्मिक परंपरा थी। 
  • आर्यांकरण के प्रभाव से शिवाख्यान, वामनावतार रास लीलाएँ आदि कथाएँ प्रचलित हो गई थीं। .

संगमकालीन आर्थिक स्थिति 

  • संगमकालीन साहित्यों में दक्षिण भारत की भूमि को बहुत उर्वरा बताया गया है। कृषि के अंतर्गत धान, गन्ना, रागी, कुल्थी तथा जौ प्रमुख फसलें थीं। 
  • इस काल में कृषि के अतिरिक्त मछली उत्पादन, जहाजों का निर्माण तथा कताई-बुनाई महत्त्वपूर्ण उद्योग थे। 
  • चेरों का राज्य काली मिर्च, हल्दी, मछली, कटहल तथा भैंस आदि के लिये प्रसिद्ध था। 
  • चोलों के राज्य में कावेरी नदी के जल का प्रयोग सिंचाई के लिये किया जाता था। 
  • संगमकालीन राज्यों की मुख्य उपज चावल थी। 
  • संगम काल में व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। अनाज विनिमय का सर्वाधिक स्वीकृत माध्यम होता था। 
  • आयात- घोड़ा, सोना, चांदी, तांबा, रांगा, सीसा, गदला, काँच, शराब, दोहत्थे कलश, मुद्राएँ, पुखराज इत्यादि। 
  •  निर्यात- मसाले (जटामासी, तेजपत्ता, काली मिर्च इत्यादि), वस्त्र, मलमल, विलासिता के सामान, कछुए की खोपड़ी, मोती इत्यादि। 
  • बाह्य व्यापार बंदरगाहों के माध्यम से होता था। बड़े-बड़े बंदरगाह इस काल में नगरों के रूप में प्रसिद्ध थे। तोंडी, . मुशिरी, पुहार, शालियूर आदि प्रमुख बंदरगाह थे। 
  • माना जाता है कि यवन व्यापारी अपने जहाज़ों से यहाँ सोना लाते थे और यहाँ से काली मिर्च, मोती, कीमती रत्न तथा पर्वतों की अमूल्य वस्तुएँ ले जाते थे। इस काल में सर्वाधिक व्यापार रोमन साम्राज्य के साथ होता था।
  •  रोमन सम्राट आगस्टस के सिक्के पुहार, मुजिरिस और अरिकामेडु से मिले हैं। 
  • इस काल में उत्तर भारत एवं सुदूर दक्षिण के बीच व्यापार का भी उल्लेख मिलता है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में जिस मार्ग का संकेत मिलता है, वह गंगा घाटी से गोदावरी घाटी तक जाता था। यह दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता था। कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग के अनेक नाम गिनाए हैं। उत्तर और दक्षिण के बीच व्यापार के अधिकांश मुद्दे विलास की वस्तुएँ थीं, जैसे- मोती, रत्न और स्वर्ण। उत्तम किस्म के वस्त्रों का भी व्यापार होता था। उत्तर के उत्तरी काली मृद्भांड सुदूर दक्षिण में भी लोकप्रिय थे। दक्षिण भारत में भी आहत सिक्के मिले हैं। 
  •  इस काल में पूर्वी तट की अपेक्षा पश्चिमी तट पर बंदरगाहों की संख्या अधिक थी। नौरा, तोंडी, मुशिरी, नेल्सिंडा आदि बंदरगाह पश्चिमी तट पर अवस्थित थे। 
  •  तिरुक्काम्युलियर नामक स्थान चेर, चोल और पांड्य राज्य के संगम स्थल के रूप में था। इस काल में रोम के अतिरिक्त मिस्र, अरब, चीन और मालदीव के साथ भी व्यापार होता था। 
  • इस समय व्यापारिक (स्थल मार्ग) कारवाँ का नेतृत्व करने वाले सार्थवाह को ‘मासात्तुवान’ एवं समुद्री सार्थवाह को ‘मानामिकन्’ कहा जाता था।