गांधीवादी चरण
- 1919-1947 के काल को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के काल का ‘तृतीय चरण’ या ‘गांधी युग’ के नाम से जाना जाता है। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम चरण था। स्वतंत्रता संग्राम के पहले दो चरणों में नरमपंथी एवं गरमपंथी दलों के नेताओं के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन चलाया गया। वहीं तीसरे चरण में महात्मा गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र बिंदु रहे। राष्ट्रवादियों, क्रांतिकारियों, सैनिकों, किसानों, मज़दूरों, सामान्यजन सभी ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi)
- गांधीजी का जन्म – 2 अक्तूबर, 1869 में, गुजरात के पोरबंदर
- गांधीजी का मूल नाम – मोहन दास करमचंद गाँधी
-
पिता का नाम – करमचंद गाँधी
-
माता का नाम – Putli bai
-
पत्नी का नाम – Kasturba Gandhi
- समाधी स्थल – राज घाट
- राजनीतिक गुरु – गोपाल कृष्ण गोखले
- गांधीजी ने अपनी वकालत की पढ़ाई इंग्लैंड से पूरी की।
- गांधीजी 1892-1893 में दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करने वाले एक भारतीय मुसलमान व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने के लिये डरबन (दक्षिण अफ्रीका) चले गए।
- इस मुकदमे में इन्होंने सफलता हासिल की।
- गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ‘एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट’ का विरोध किया।
- भारतीयों के प्रति रंगभेद नीति
- प्रत्येक भारतीय को पंजीकरण प्रमाण पत्र लेना और यह प्रमाण पत्र हर समय अपने पास रखना आवश्यक था।
- 7 JUNE ,1893 डरबन से प्रिटोरिया जाते समय गांधीजी को अपमानित किया गया ।
- RAILWAY STATION – Pietermaritzburg में ट्रैन से बाहर निकाल दिया गया।
- ‘नटाल इंडियन कॉन्ग्रेस’ की स्थापना – 1894 में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में की
- रंगभेद की नीति के विरुद्ध आदोलन भी शुरू किया।
- टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना – जर्मन शिल्पकार ‘कॉलेनबाख’ की मदद से की।
- ‘इंडियन ओपीनियन’ अखबार का प्रकाशन – दक्षिण अफ्रीका में किया (1904 में)
- ‘फीनिक्स आश्रम’ की स्थापना – 1904 में की।
- उनके प्रयासों व आंदोलन के कारण दक्षिण अफ्रीकी सरकार द्वारा सन् 1914 में अधिकांश रंग भेद कानूनों को रद्द कर दिया गया।
- ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक 1909 में लिखी
- मृत्यु – 30 जनवरी 1948 (हत्या )
गांधीजी का भारत आगमन
- जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटे।
- प्रथम विश्वयुद्ध में गांधीजी ने अंग्रेजों का समर्थन किया था
- भारतीयों को सेना में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित किया
- लोग ‘सेना में भर्ती करने वाला सार्जेंट’ भी कहने लगे थे।
- 1915 में गांधीजी को ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि प्रदान की।
- प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों के समर्थन करने के कारण ब्रिटिश सरकार ने
- ‘सत्याग्रह आश्रम/ साबरमती आश्रम’ की स्थापना – गांधीजी ने साबरमती नदी के किनारे की।
भारत में गांधीजी के प्रारंभिक सत्याग्रह
चंपारण सत्याग्रह, 1917 (प्रथम सविनय अवज्ञा/ सत्याग्रह /अहिंसात्मक प्रतिरोध )
- बिहार के चंपारण में गांधीजी ने सत्याग्रह का पहला प्रयोग 1917 में किया। चंपारण में सत्याग्रह प्रारंभ करने के दो प्रमुख कारण थे
- चंपारण में नील बागान के मालिकों द्वारा ‘तकावी ऋण’ और
- ‘तिनकठिया व्यवस्था’ (कृषकों को अपनी जमीन के 3/20वें भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य)
- 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई) का विकास हो गया था जिससे भारतीय कृषकों द्वारा उगाए गए नील की मांग ठप्प हो चुकी थी। परिणामतः चंपारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गए। यूरोपीय बागान मालिकों ने इस स्थिति का फायदा उठाया तथा लगान व गैरकानूनी अबवाब की दर मन माने ढंग से बढ़ा दी। 1917 में चंपारण के एक किसान राजकमार शुक्ल ने इस अवस्थिति से गांधीजी को अवगत कराया।
- गांधीजी चंपारण पहुँचकर कृषकों की समस्याओं से अवगत हुए तथा सरकार को इस समस्या का हल करने के लिये कहा। सरकार ने इस मामले की जाँच के लिये एक आयोग गठित किया और गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया।
- गांधीजी के प्रयास से ही किसानों को अंग्रेज़ नील बागान मालिकों से मुक्ति मिली। और अवैध वसूली का 25 % हिस्सा किसानो को वापस दिया गया
- चंपारण सत्याग्रह के सफल नेतृत्व के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने गांधीजी को पहली बार ‘महात्मा’ कहा।
- चंपारण सत्याग्रह में ब्रज किशोर, राजेंद्र प्रसाद, महादेव देसाई, नरहरि पारिख, जे.बी. कृपलानी।मजहर उल हक़,अनुग्रह नारायण सिन्हा ,रामनवमी प्रसाद ,संभुसरन वर्मा आदि उनके सहयोगी थे।
- नोट: 2017 में चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं।
अहमदाबाद मिल मजदूरों का आंदोलन (प्रथम भूख हड़ताल) 1918
- यह आंदोलन मिल मालिकों एवं मजदूरों के बीच प्लेग बोनस को लेकर हुआ।
- वस्तुतः प्लेग का प्रकोप खत्म होने के बाद मिल मालिक इसे समाप्त करना चाहते थे। जबकि प्रथम विश्व युद्ध के कारण बढ़ी महँगाई के चलते मज़दूर इसे बरकरार रखना चाहते थे।
- तथ्यों की गहराई से जाँच करने के बाद गांधीजी ने 35 प्रतिशत बोनस की मांग की। मिल मालिकों ने 20 प्रतिशत बोनस देने की घोषणा की और यह भी कहा कि जो इसे स्वीकार नहीं करेगा उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा
- गांधीजी इससे क्षुब्ध हुए तथा उन्होंने मजदूरों को हड़ताल पर जाने को कहा तथा सारे मामले को न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) को सौंप दिया।
- न्यायाधिकरण ने भी 35 प्रतिशत बोनस देने को कहा।
- इस पूरे आंदोलन में अम्बालाल साराभाई की बहन अनुसूईया बेन गांधीजी की मुख्य सहयोगी रहीं।
खेड़ा सत्याग्रह (प्रथम असहयोग आंदोलन) 1918
- खेड़ा में फसल बर्बाद होने के बावजूद भी सरकार द्वारा मालगुजारी वसूल की जा रही थी। किसानों द्वारा इसका विरोध किया गया तथा मालगुजारी माफ करने की मांग की गई।
- सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों, विट्ठलभाई पटेल और गांधीजी ने पूरे मामले की पड़ताल करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि किसानों की मांग जायज़ है।
- वल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञनिक आदि नेता भी गांधीजी के साथ रहे।
- इस आंदोलन में ‘गुजरात सभा’ ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस वर्ष इसके अध्यक्ष गांधीजी थे।
- इसी बीच सरकार द्वारा गुप्त निर्देश जारी किया गया कि लगान उन्हा से वसूल किया जाये जो देने की स्थिति में है। इसकी जानकारा – मिलते ही गांधीजी ने आंदोलन समाप्त कर दिया।
रौलेट एक्ट, 1919
- भारत में क्रान्तिकारियों के प्रभाव को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने न्यायाधीश ‘सर सिडनी रौलट’ की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की।
- कमेटी ने 1918 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- समिति द्वारा दी गई सिफारिशों को ही रॉलेक्ट एक्ट के नाम से जाना जाता है
- रौलट एक्ट 8 मार्च, 1919 ई. को लागू किया गया था।
- इस एक्ट के द्वारा एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई जिसमें उच्च न्यायालय के तीन वकील थे
- इस अधिनियम में यह व्यवस्था थी कि मजिस्ट्रेट संदेह के आधार पर ही किसी व्यक्ति को अनिश्चित काल के लिये जेल में डाल सकता है।
- इसे ‘बिना वकील, बिना दलील तथा बिना अपील’ का कानून कहा जाता है। इसे ‘काले कानून/आतंकवादी अपराध अधिनियम’ ‘ की भी संज्ञा दी जाती है।
- गांधी जी ने रॉलेक्ट एक्ट के विरोध सत्याग्रह(सत्य के लिये आग्रह करना)-प्रथम जन आंदोलन को प्रारंभ 6 APRIL 1919 की घोषणा की।
- महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के विरोध हेतु ‘सत्याग्रह सभा‘ की स्थापना फरवरी 1919 में की थी।
- 9 अप्रैल (कुछ स्रोतों में 8 अप्रैल) को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया।
- 18 अप्रैल को आंदोलन वापसी की घोषणा की।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल, 1919)
- 9 अप्रैल (कुछ स्रोतों में 10 अप्रैल) को पंजाब के दो लोकप्रिय नेता-डॉ. सत्यपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।
- इनकी गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ।
- जनरल डायर ने जनता पर गोली चलाने का आदेश दे दिया।
- इस नरसंहार के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई ‘नाइट’ की उपाधि वापस कर दी।
- दीनबंधु एफ.एंड्रूज ने इस हत्याकांड को ‘जानबूझकर की गई हत्या‘ कहा।
- शंकर नायर ने वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य पद से त्यागपत्र दे दिया।
- इस हत्याकांड की जाँच हेतु कॉन्ग्रेस ने मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की। समिति के अन्य सदस्यों में मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, सी.आर.दास, तैय्यबजी और जयकर इत्यादि थे।
- ब्रिटिश सरकार ने इस हत्याकांड की जाँच के लिये हंटर आयोग गठित किया जिसमें तीन भारतीय सदस्य- चिमनलाल शीतलवाड़, सुल्तान अहमद एवं जगत नारायण थे।
- हंटर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “अमृतसर की तत्कालीन परिस्थितियों में मार्शल लॉ लागू और बढ़ती भीड़ को नियंत्रित करने हेतु गोली चलाना आवश्यक हो गया था, लेकिन डायर ने अपने कर्तव्य को गलत समझा और तर्कसंगत आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग किया, फिर भी उसने ईमानदारी से जो उचित समझा, वही किया।
- हत्याकांड के दोषी लोगों को बचाने के लिये सरकार ने हंटर आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ‘इंडेमिटी बिल’ पास कर लिया था।
- सज़ा के तौर पर डायर को नौकरी से बर्खास्त किया गया।
- ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में डायर की प्रशंसा में भाषण दिये गए तथा सम्मानार्थ तलवार (Sword of Honour) और 2600 पौंड की धनराशि दी गई।
सरदार उधम सिंह
- सरदार उधम सिंह ने भारतीय समाज की एकता के लिए अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था. जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है.
- भगत सिंह को वो अपना गुरु मानते थे.
- जनरल डायर की 1927 में ब्रेन हेमरेज से मौत हो चुकी थी. ऐसे में उधम सिंह के आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक़्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर. जिसने नरसंहार को उचित ठहराया था.
- 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन में बैठक थी. वहां माइकल ओ’ ड्वायर की गोली मारकर हत्या कर दी
- उधम को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई
- 4 जून, 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया.
- 31 जुलाई, 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई.
- 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए.
खिलाफ़त आंदोलन
- विश्व एवं भारत के मुसलमान तुर्की के सुल्तान को इस्लामी साम्राज्य का ‘ख़लीफ़ा’ मानते थे। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद मित्र राष्ट्रों ने तुर्की के साथ सेवर्स (सेब्रे) की संधि के तहत तुर्की का विभाजन कर दिया तथा ख़लीफ़ा के पद को समाप्त कर दिया।
- मित्र राष्ट्रों के रवैये से भारतीय मुसलमान सहित, विश्व के सभी मुस्लिमों में रोष की लहर दौड़ उठी। भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य की रक्षा एवं ख़लीफ़ा के पद को बनाये रखने हेतु आंदोलन शुरू कर दिया।
- 1919 में अली बंधुओं (मुहम्मद अली तथा शौकत अली), मौलाना आज़ाद, हकीम अजमल खाँ तथा हसरत मोहानी के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी का नेतृत्व किया गया
- नवंबर 1919 में दिल्ली में ख़िलाफ़त कमेटी का अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी द्वारा की गई। गांधीजी ने इसे हिंदू-मुस्लिम एकता को बनाये रखने का सुनहरा अवसर माना।
- जून 1920 में ख़िलाफ़त कमेटी के इलाहाबाद सम्मेलन में गांधीजी को ब्रिटेन के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने का अधिकार दिया तथा आंदोलन के नेतृत्वकर्ता के रूप में गांधीजी को चुना गया।
- 1924 में यह आंदोलन उस समय समाप्त हो गया जब तुर्की के कमाल पाशा के नेतृत्व में बनी सरकार ने ख़लीफ़ा के पद को समाप्त कर दिया।
असहयोग आंदोलन (1920-21)
- दिसंबर 1920 में नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। नागपुर में असहयोग आंदोलन की पुष्टि के साथ-साथ दो महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए।
- पहले निर्णय के अनुसार स्वशासन का लक्ष्य त्याग कर ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर और आवश्यक हो तो उसके बाहर स्वराज का लक्ष्य घोषित किया गया। इस प्रकार कॉन्ग्रेस ने पहली बार संवैधानिक दायरे से बाहर आकर जन-संघर्ष को अपनाया।
- दूसरे निर्णय के अनुसार कॉन्ग्रेस ने रचनात्मक कार्यक्रमों की एक सूची तैयार की
- सभी वयस्क को कॉन्ग्रेस का सदस्य बनाना। –
- एक अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति का गठन किया गया। भाषायी आधार पर प्रांतीय कॉन्ग्रेस समितियों का पुनर्गठन।
- स्वदेशी वस्तुओं, मुख्यतः हाथ की कताई-बुनाई को प्रोत्साहन, चरखे तथा खादी का प्रयोग शुरू किया गया।
- यथासंभव हिंदी भाषा का प्रयोग आदि।
- स्वराज की प्राप्ति हेतु कॉन्ग्रेसियों ने संवैधानिक उपायों के साथ-साथ, . सरकार को कर देने से मना करने व सीधी कार्रवाई जैसी गतिविधियों को अपनाने पर जोर दिया।
- विदेशी कपड़ों की सार्वजनिक होली जलाई गई, विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरने दिये गए, थोड़े ही समय में विदेशी कपड़ों का आयात घट कर आधा रह गया।
- पूरे देश में आचार्य नरेंद्र देव, सी.आर. दास, लाला लाजपत राय, ज़ाकिर हसैन तथा सभाष चंद्र बोस के नेतत्व में विभिन्न शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई।
- देश के कई प्रख्यात वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी। इनमें मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, सी. राजगोपालाचारी, सैफुद्दीन किचलू, वल्लभभाई पटेल, आसफ अली, टी. प्रकाशम व राजेंद्र प्रसाद प्रमुख थे।
- गांधीजी ने ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि वापस कर दी।
- गांधीजी ने असहयोग आंदोलन 1 अगस्त, 1920 से प्रारंभ किया।
- असहयोग आंदोलन से संबंधित कॉन्ग्रेस के विजयवाड़ा अधिवेशन (मार्च 1921) में कॉन्ग्रेस की सदस्यता का लक्ष्य एक करोड़ रखा गया। इसी अधिवेशन में गांधीजी ने धोती-कुर्ता पहनना छोड़ दिया एवं लँगोटी पहनने लगे और जीवन भर अर्द्धनग्न फकीर की तरह रहे।
- असहयोग आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम दो रूपों में रहे- प्रथम, सकारात्मक, द्वितीय नकारात्मक।
सकारात्मक
- राष्ट्रीय विद्यालयों तथा पंचायती अदालतों की स्थापना।
- अस्पृश्यता विरोध, हिंदू-मुस्लिम एकता। .
- स्वदेशी का प्रचार-प्रसार। ..
- खादी वस्त्रों के निर्माण एवं उपयोग को प्रोत्साहन देना।
- शराब बंदी।
नकारात्मक
- सरकारी उपाधि, प्रशस्ति पत्रों को लौटाना।
- सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, विदेशी कपड़ों आदि क – बहिष्कार।
- सरकारी उत्सवों व समारोहों का बहिष्कार।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, अवैतनिक पदों तथा स्थानीय निकायों के नामांकित पदों से त्यागपत्र।
- असहयोग आंदोलन की शुरुआत के समय कॉन्ग्रेस को तिलक की मृत्यु का एक बड़ा सदमा झेलना पड़ा। उनकी स्मृति में असहयोग में आंदोलन को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिये ‘तिलक स्वराज है. फंड’ की स्थापना की गई।
- 1919 के भारत शासन अधिनियम द्वारा स्थापित केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान मंडलों का कॉन्ग्रेस द्वारा गांधीजी के निर्देशानुसार बहिष्कार किया गया था और कॉन्ग्रेस ने 1920 के चुनावों में भाग नहीं लिया। 1921 में लॉर्ड रीडिंग को भारत का वायसराय बनाए जाने पर दमन चक्र और बढ़ गया। मुख्य नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया
- परिणामतः जगह-जगह पर लाठी चार्ज, मारपीट और हत्याकांड प्रारंभ हो गए। पंजाब के गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का कब्ज़ा समाप्त करने के लिये सिखों द्वारा ‘अकाली आंदोलन’ नामक एक अहिंसक आंदोलन चलाया गया। असम के चाय बागानों के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। मेदिनीपुर के किसानों ने यूनियन बोर्ड को कर देने से इनकार कर दिया। उत्तरी केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला कहे जाने वाले मुस्लिम किसानों ने शक्तिशाली जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया तथा आंध्र प्रदेश में वन कानून के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया गया।
- गांधीजी ने 1 फरवरी, 1922 को घोषणा की कि अगर 7 दिनों के भीतर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं किये गए और प्रेस पर से सरकार ने नियंत्रण समाप्त नहीं किया तो वे करों की अदायगी रोकने समेत सामूहिक रूप से बारदोली में एक ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू कर देंगे, परंतु इसी समय ‘चौरी चौरा कांड’ हो गया, जिसके कारण गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
चौरी-चौरा कांड- 5 फरवरी, 1922
- 5 फरवरी, 1922 को संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले में ‘चौरी-चौरा’ नामक स्थान पर कॉन्ग्रेस व ख़िलाफ़त आंदोलन के एक जूलुस पर गोली चलाए जाने के कारण भडकी जनता ने थाने में आग लगा दी. जिसमें एक थानेदार तथा 21 हवलदारों की मत्य हो गई। बढ़ती हिंसक गतिविधियों को देखते हुए गांधीजी ने बारदोली में कॉन्ग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई, जिसमें चौरी-चौरा कांड के कारण सामूहिक सत्याग्रह व असहयोग आंदोलन स्थगित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। 12 फरवरी, 1922 को असहयोग आंदोलन समाप्त हो गया।
- मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने गांधीजी के इस कदम की आलोचना की।
- देश के विभिन्न भागों में मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई, स्थिति का लाभ उठाते हुए सरकार ने कड़े कदम उठाने का निश्चय किया। 10 मार्च, 1922 को गांधीजी गिरफ्तार कर लिये गए। 18 मार्च, 1922 को अहमदाबाद के सेशन जज ब्रूमफील्ड की अदालत म. गांधीजी पर मुकदमा चलाया गया और 6 वर्ष की सज़ा दी गई। 5 फरवरी, 1924 को बीमारी के कारण गांधी को समय से पूर्व छोड़ दिया गया।
असहयोग आंदोलन का महत्त्व
- असहयोग आंदोलन की राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इसने राष्ट्रीय आंदोलन को जन आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। आंदोलन ने देश को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। लोगों में निर्भीकता व उत्साह का संचार हुआ। जनता को अपनी वास्तविक शक्ति का आभास हुआ और आगे चलकर ऐसे ही तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकी।
स्वराज पार्टी- 1922
- असहयोग आंदोलन की समाप्ति और गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद देश के वातावरण में एक अजीब निराशा का माहौल बन गया था। ऐसी स्थिति में मोतीलाल नेहरू तथा सी.आर. दास ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया। कॉन्ग्रेस ने विधानमंडलों के भीतर प्रवेश कर अंदर से लड़ाई का विचार प्रस्तुत किया तथा 1923 के चुनावों के माध्यम से विधानमंडल में पहुँचने की योजना बनाई।
- 1922 में कॉन्ग्रेस के गया अधिवेशन में बहुमत के साथ इस योजना को अस्वीकार कर दिया गया। सी.आर. दास ने कॉन्ग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया और एक नई पार्टी ‘कॉन्ग्रेस ख़िलाफ़त स्वराज पार्टी’ के गठन की घोषणा की। इसी पार्टी को बाद में ‘स्वराज पार्टी’ (मार्च 1923) के नाम से जाना जाने लगा। सी.आर. दास इसके अध्यक्ष व मोतीलाल नेहरू इसके महासचिव थे।
- ध्यातव्य है कि वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश की वकालत कर रहे थे, उन्हें परिवर्तन समर्थक कहा जाने लगा, जिनमें विट्ठलभाई पटेल, कस्तूरी रंगा, हकीम अजमल खाँ, मोतीलाल नेहरू व सी.आर. दास थे, जबकि वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश के पक्षधर नहीं थे, वे परिवर्तन विरोधी (अपरिवर्तनवादी) कहलाए जिनमें राजगोपालाचारी, आयंगर, एम.ए. अंसारी तथा राजेंद्र प्रसाद थे।
नोट:
- उल्लेखनीय है कि मुहम्मद अली जिन्ना ने केंद्रीय विधानसभा में स्वराज दल का समर्थन किया था।
- सितंबर 1923 में दिल्ली में हुए कॉन्ग्रेस के विशेष अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आज़ाद ने की थी, जिसमें स्वराज पार्टी को मान्यता प्रदान कर दी गई। परिणामस्वरूप कॉन्ग्रेस पुनः विभाजन से बच गई।
- स्वराजियों ने 1923 के विधानमंडल चुनावों में हिस्सा लेते समय जारी किये गए अपने घोषणापत्र में यह प्रतिज्ञा की कि वे केंद्रीय विधानसभा व प्रांतीय परिषदों के द्वारा सरकार के कामकाज को बाधित करने के लिये सतत्, सुसंगत व अविरल नीति का पालन करेंगे।
- नवंबर 1923 के चुनावों में स्वराजियों ने हिस्सा लेकर अच्छा प्रदर्शन किया। केंद्रीय विधानमंडल की 101 निर्वाचित सीटों में से कॉन्ग्रेस ने 42 पर जीत हासिल की।
- प्रांतीय विधानसभाओं में स्वराजियों को मध्य प्रांत में स्पष्ट बहुमत मिला, बंगाल में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे तथा बंबई एवं – उत्तर प्रदेश में संतोषजनक सफलता मिली। स्वराजियों को मद्रास और पंजाब में सांप्रदायिकता एवं जातिवाद की लहर के कारण आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली।
- स्वराजियों ने चुनावी विजय के बाद महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की, जिनमें मुख्य उपलब्धियाँ इस प्रकार थीं
-
- 1919 के अधिनियम की जाँच हेतु ‘मुडीमैन समिति’ की नियुक्ति करवाना।
- दमनात्मक कानूनों को समाप्त करवाने के लिये संघर्ष। –
- श्रमिकों की स्थिति को बेहतर बनाना, मज़दूर संघों की सुरक्षा आदि।
- स्वराजियों ने उत्तरदायी शासन की स्थापना हेतु गोलमेज सम्मेलन बुलाने का सुझाव दिया। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड के सुधारों की खामियों को उजागर किया।
- 1923-24 में नगर पालिकाओं और स्थानीय निकायों में हुए चुनावों में कॉन्ग्रेस को विशेष सफलता मिली। कलकत्ता के मेयर सी.आर. दास, अहमदाबाद के मेयर विट्ठलभाई पटेल, पटना के मेयर राजेंद्र प्रसाद तथा इलाहाबाद का मेयर पं. जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया।
- 1925 में विट्ठलभाई पटेल को केंद्रीय विधानमंडल का अध्यक्ष (स्पीकर) चुना गया, जो स्वराजियों की एक प्रमुख उपलब्धि थी।
- जून 1925 में चित्तरंजन दास की मृत्यु से स्वराज दल को गहरा धक्का लगा। ध्यातव्य है कि चित्तरंजन दास सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु थे।
- नवंबर 1926 के चुनावों में स्वराजियों को हार का सामना करना पड़ा।
- लाहौर अधिवेशन में पारित प्रस्तावों और सविनय अवज्ञा आंदोलन छिड़ जाने के कारण 1930 में स्वराजियों ने विधानमंडल का दामन . छोड़ दिया। इस प्रकार स्वराज पार्टी का अंत हो गया।
गांधी-दास पैक्ट (1924)
- नवंबर 1924 में गांधी, सी.आरः दास और मोतीलाल नेहरू ने एक संयुक्त वक्तव्य दिया, जो ‘गांधी-दास पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है।
- इसकी मुख्य बातों में विधानसभाओं के भीतर स्वराज पार्टी को कॉन्ग्रेस के नाम तथा इसके अभिन्न अंग के रूप में कार्य करने का अधिकार प्रदान किया गया।
- इस एक्ट की दूसरी विशेषता यह थी कि इसमें यह कहा गया था कि असहयोग अब राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं रहेगा। इसके अतिरिक्त ‘ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन’ को संगठित करने तथा चरखे व करघे का प्रचार-प्रसार करने की जिम्मेदारी गांधीजी को सौंपी गई।
- इस पैक्ट की प्रमुख बातों की पुष्टि 1924 के बेलगाँव अधिवेशन में की गई, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की थी।
अन्य राजनीतिक दल एवं आंदोलन (1922-27)
-
इंडियन लिबरल एसोसिएशन:
- 1918 में कुछ उदारवादी नेताओं | ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस से पृथक् होकर, ‘इंडियन लिबरल एसोसिएशन’ का गठन किया। इस संध | ने सरकार के साथ सहयोग की नीति अपनाई।
- अखिल भारतीय मुस्लिम लीगः
- खिलाफ़त आंदोलन की समाप्ति के बाद ख़िलाफ़त समिति पूरी तरह शिथिल पड़ गई, जिसके कारण 1924 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग पुनः अस्तित्व में आई। मुहम्मद अली जिन्ना इसके स्वयंभ नेता के रूप में उभरकर सामने आए।
- हिंदू महासभाः
- 1915 में हरिद्वार के कुंभ मेले में पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा इसकी स्थापना की गई। कासिम बाज़ार के महाराजा की अध्यक्षता में इसका प्रथम सम्मेलन आयोजित किया गया। दिसंबर 1924 में पंडित मदनमोहन मालवीय के अध्यक्ष बनने के उपरांत यह दल बहुत अधिक प्रभावशाली हो गया।
- अकाली दलः
- इसका उद्देश्य सिख गुरुद्वारों को ब्रिटिश समर्थक एवं भ्रष्ट आनुवंशिक महंतों के चंगुल से मुक्त कराना था। 1925 में गुरुद्वारा एक्ट के माध्यम से सिख समुदाय को अपने गुरुद्वारे के प्रबंध के लिये पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं के चुनाव करने विधेयक के परिणामस्वरूप गुरुद्वारों के कार्यों की देखभाल करने के लिये ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति’ की स्थापना हुई।
- नागपुर झंडा सत्याग्रहः
- 1923 में कॉन्ग्रेस के ध्वज प्रयोग को रोकने | वाले एक स्थानीय आदेश के खिलाफ़ किया गया।
1920 के दशक में नई शक्तियों का उदय
- 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंतिम एवं तीसरे दशक के प्रारंभिक वर्ष आधुनिक भारतीय इतिहास में कई कारणों से महत्त्वपूर्ण रहे। 1920 के दशक में जिन नई शक्तियों का अभ्युदय हुआ, वह इस प्रकार थीं
समाजवादी तथा मार्क्सवादी विचारों का प्रसार
- अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर विभिन्न समाजवादी एवं साम्यवादी संगठनों के उदय ने भारत में कॉन्ग्रेस के एक खेमे पर अपना प्रभाव दिखाया, जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस इनमें मुख्य थे।
- ये युवा, राष्ट्रवादी, गांधीवादी विचार तथा राजनैतिक कार्यक्रमों से असंतुष्ट थे तथा भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक रुग्णता को दूर करने की वकालत कर रहे थे। इन युवाओं पर रूस की “क्रांति (1917) ने व्यापक प्रभाव डाला था।
- ताशकंद में 1920 में एम.एन. रॉय, अबनी मुखर्जी तथा ताशकंद में रहने वाले कुछ अन्य उत्प्रवासी भारतीयों (मुहम्मद अली और मुहम्मद शफीक) ने कॉमिंटर्न (रूस का अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी संगठन) के द्वितीय अधिवेशन के पश्चात् ‘भारतीय साम्यवादी पार्टी’ की स्थापना की।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
- 1924 में कम्युनिस्ट नेता सत्यभक्त ने उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की। पार्टी के निम्नलिखित उद्देश्य घोषित किये गए• पूर्ण स्वराज प्राप्त करने का लक्ष्य। – एक ऐसे समाज की स्थापना करना, जहाँ उत्पादन और धन के वितरण पर सामूहिक स्वामित्व हो।
बंबई में स्थापित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
- दिसंबर 1925 में बंबई में सिंगारवेलु चेट्टियार द्वारा विभिन्न कम्यनिस समूहों को संगठित कर इसकी स्थापना की गई। पार्टी का मुख्यालय । कानपुर से बंबई स्थानांतरित किया गया।
- इस संस्था के तीन मुख्य उद्देश्य थे-
- 1. भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्रता दिलाना;
- 2. ब्रिटिश शासन को समाप्त करना;
- 3. भारत में सोवियत रूस जैसी सरकार की स्थापना करना।
- भारत में पूर्ण स्वाधीनता की मांग सबसे पहले भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही की। भारत में साम्यवादी आंदोलन का इतिहास अधोलिखित चरणों में बाँटा जा सकता है
प्रथम चरण : तीन षड्यंत्रों का काल
पेशावर षड्यंत्र केस (1922-23)
- यह केस मॉस्को से कम्युनिस्टों के भारत आने की पृष्ठभूमि पर ब्रिटिशों द्वारा चलाया गया। इसके तहत कुछ लोगों को गिरफ्तार कर 5 उन पर मुकदमा चलाने हेतु पेशावर लाया गया।
- यह मुकदमा 1922-23 में पेशावर षड्यंत्र के नाम से जाना गया।
कानपुर षड्यंत्र केस (1924)
- कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये कानपुर में एक षड्यंत्र को आधार बनाकर कुछ कम्युनिस्टों पर मुकदमा चलाया गया। इन. पर भारत में क्रांतिकारी संगठन की स्थापना करने का आरोप था।
- एस.ए. डांगे, मुज़फ्फर अहमद, शौकत उस्मानी, नलिनी गुप्ता तथा कई अन्य साम्यवादियों को ‘कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र’ केस में कारावास की सजा सुनाई गई।
मेरठ षड्यंत्र केस (1929-33)
- 20 मार्च, 1929 को सरकार ने देश भर से 32 कम्युनिस्टों को गिरफ्तार किया। इसमें आधे तो राष्ट्रवादी तथा व्यापार संघ के लोग थे। इन कम्युनिस्टों ने इस बात की घोषणा की थी कि वे क्रांतिकारी हैं और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करना चाहते हैं।
- कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी ने इनके मुकदमे के लिये एक ‘केंद्रीय सुरक्षा समिति’ का गठन किया, जेल में इनसे मिलने गए।
- कॉन्ग्रेसियों ने साम्यवादियों के विरुद्ध सरकार द्वारा लाए गए सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (Public Safety Bill) को केंद्रीय विधानसभा में पारित नहीं होने दिया।
नोट:
उल्लेखनीय है कि मेरठ षड्यंत्र केस की समस्त संसार में चर्चा हुई थी और अभियुक्तों के समर्थन में अल्बर्ट आइंस्टीन, एच.जी. वेल्स, हैराल्ड लास्की तथा रूजवेल्ट ने सहानुभूतिपूर्ण टिप्पणियाँ की थीं। ।
द्वितीय चरण
- इस समय संपूर्ण भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधीजी कर रहे थे। विभिन्न आंदोलनों का संचालन अहिंसा, सत्याग्रह जसा नीतियों के माध्यम से हो रहा था। व्यवहार में आक्रामक होने के कारण साम्यवादियों ने गांधीजी को ‘बुर्जुआ वर्ग’ का नेता घोषित कर दिया। इन सब से साम्यवादियों का राष्ट्रीय महत्त्व कम हो गया। अंग्रेज़ी सरकार ने 1934 में भारतीय साम्यवादी पार्टी को अवैध घोषित कर दिया।
- कॉन्ग्रेस की स्थापना के साथ आई प्रथम उग्रवादी विचारधारा का पहला चरण 1916 में हुए कॉन्ग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच हुए लखनऊ समझौते के बाद शांत हो गया।
- 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद आई राजनीतिक शून्यता के माहौल में उग्रवादी विचारधारा फिर से पनप उठी। वैश्विक राजनीति से पनपी (रूस, मिस्र, आयरलैंड, चीन तथा तुर्की) क्रांतिकारी विचारधारा ने युवाओं को प्रेरित किया। इन युवाओं ने हिंसा के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की नीति पुनः अपनाई।
- इन क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल था।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (1924)
- अक्तूबर 1924 में समस्त क्रांतिकारी दलों का कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें शचींद्रनाथ सान्याल, योगेश चटर्जी व राम प्रसाद
- बिस्मिल जैसे पुराने क्रांतिकारी नेताओं तथा भगत सिंह, शिव वर्मा, सुखदेव, भगवती चरण बोहरा, चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा क्रांतिकारियों ने भाग लिया।
- 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (अथवा सेना) का कानपुर में गठन हुआ तथा बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं मद्रास आदि प्रांतों में इनकी शाखाएँ स्थापित की गई।
- इस संस्था के तीन मुख्य आदर्श निम्नलिखित थे-
- (i) भारतीय जनता में गांधीजी की अहिंसावादी नीतियों के प्रति निरर्थकता की भावना उत्पन्न करना तथा सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना।
- (ii) पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु प्रत्यक्ष कार्रवाई तथा क्रांति की आवश्यकता का प्रदर्शन करना।
- (iii) अंग्रेजी साम्राज्यवाद के स्थान पर समाजवादी विचारधारा से प्रेरित भारत में संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ की स्थापना करना।
काकोरी कांड (9 अगस्त, 1925)
- हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर-लखनऊ लाइन पर काकोरी जाने वाली 8 डाउन ट्रेन (मालगाड़ी) को सफलतापूर्वक लूट लिया। इस संबंध में क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर काकोरी षड्यंत्र केस के तहत मुकदमा चलाया गया।
- इनमें से 17 लोगों को लंबी सजाएँ, 4 को आजीवन कारावास एवं राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेंद्र लाहिड़ी को क्रमशः गोरखपुर, फैज़ाबाद, नैनी तथा गोंडा में फाँसी दे दी गई। चंद्रशेखर आजाद फरार हो गए।
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन- HSRA (1928)
- चंद्रशेखर आजाद ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की स्थापना की।
- इसका उद्देश्य भारत में समाजवादी गणतंत्रवादी राज्य की स्थापना करना था।
- इसके मुख्य नेता विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा और सुखदेव आदि थे।
सांडर्स की हत्या (17 दिसंबर, 1928)
- HSRA का पहला कार्य लाला लाजपत राय की हत्या के आरोपी लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स की हत्या करना था। सांडर्स ने 30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी अभियान के दौरान लाठीचार्ज करवाया था। यहीं पर लाला लाजपत राय (पंजाब केशरी) साइमन आयोग का विरोध कर रही एक भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे, पुलिस ने इन्हें पीटा . कुछ दिनों बाद ही 15 Nov 1928 में इनकी मृत्यु हो गई।
- 17 दिसंबर, 1930 को लाहौर पुलिस स्टेशन पर भगत सिंह, व राजगुरु ने सांडर्स की हत्या कर दी। इस हत्याकांड में इन्हे सुखदेव एवं चंद्रशेखर आजाद का समर्थन था
सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली बम कांड (8 अप्रैल, 1929)
- एच.एस.आर.ए. के दो सदस्य बटुकेश्वर दत्त व भगत सिंह ने 8 अप्रैल, 1929 को जिस समय ट्रेड डिस्प्यूट बिल तथा सेफ्टी बिल (जिसका उद्देश्य जनता विशेषकर मजदूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाना था) पर बहस चल रही थी, केंद्रीय विधानमंडल में बम फेंका। इनका उद्देश्य सरकार को डराना मात्र था।
- बम के साथ फेंके गए परचों में एच.एस.आर.ए. का संदेश इस · प्रकार था- बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिये बम का प्रयोग किया गया।
लाहौर षड्यंत्र केस (1929)
- लाहौर षड्यंत्र केस के तहत भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ एच.एस.आर.ए. के अन्य सदस्यों पर भी मुकदमा चलाया गया। जेल में बंद क्रांतिकारियों ने राजनैतिक कैदी का दर्जा प्राप्त करने के लिये भूख हड़ताल की।
- भूख हड़ताल पर बैठे जतिनदास की 64 दिन बाद मृत्यु हो गई। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु पर मुकदमा चलाकर फाँसी की – सज़ा सुनाई गई।
- 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सज़ा दे दी गई।
- एच.एस.आर.ए. के एक सदस्य चंद्रशेखर आज़ाद, जो काकोरी षड्यंत्र केस से ही पुलिस को चकमा देकर भाग गए थे। वे लाहौर षड्यंत्र केस से भी बच निकले, लेकिन 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ मुठभेड़ में वे मारे गए। इस तरह भारत में एच.एस.आर.ए. की गतिविधियाँ समाप्त हो गईं।
चटगाँव शस्त्रागार कांड
- बंगाल में सूर्यसेन (जो गांधीजी के असहयोग आंदोलन के सक्रिय नेता थे) ने ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ (I.R.A.) की स्थापना की।
- चटगाँव जो कि बंगाल का एक बंदरगाह क्षेत्र था, सूर्यसेन वहाँ राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे। लोग उन्हें प्यार से ‘मास्टर दा’ कहते थे। रिपब्लिकन आर्मी के सदस्यों में अनंत सिंह, अंबिका चक्रवर्ती, लोकीनाथ, प्रीतिलता वाडेकर, गणेश घोष, कल्पना दत्त आदि शामिल थे।
- सूर्यसेन ने रिपब्लिकन आर्मी के सदस्यों के साथ मिलकर चटगाँव शस्त्रागार पर हमला कर दिया। इसी समय क्रांतिकारी सदस्यों के ‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘वंदे मातरम्’ नारों के बीच सूर्यसेन ने तिरंगा फहराया एवं कामचलाऊ क्रांतिकारी सरकार का गठन किया।
- 16 फरवरी, 1933 को सूर्यसेन गिरफ्तार कर लिये गए, उन पर मुकदमा चला और अंततः 12 जनवरी, 1934 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
- क्रांतिकारी आंदोलन के द्वितीय चरण में बंगाल की महिलाओं की भागीदारी भी रही-
- प्रीतिलता वाडेकर की चटगाँव के रेलवे इंस्टीट्यूट पर छापा मारते समय मृत्यु हो गई।
- कल्पना दत्त को सूर्यसेन के साथ गिरफ्तार कर आजीवन कारावास की सज़ा दे दी गई।
- दिसंबर 1931 में सुनीति चौधरी तथा शांति घोष ने गोली मारकर एक जिलाधिकारी की हत्या कर दी।
- फरवरी 1932 में बीना दास ने दीक्षांत समारोह के दौरान उपाधि ग्रहण करते समय गवर्नर को गोली मार दी।
- इस तरह क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका बढ़ने लगी। ध्यातव्य हो कि भीकाजी रुस्तम कामा को भारतीय क्रांति की माँ कहा जाता है, इन्होंने ही 1907 में स्टुटगार्ड (जर्मनी) में समाजवादी कॉन्ग्रेस के सम्मेलन में भारतीय झंडे को फहराया था।
साइमन कमीशन/भारतीय विधिक आयोग
- Simon Commission/Indian Statutory Commission
- 1919 के भारत शासन अधिनियम में कहा गया था कि भारत शासन अधिनियम अधिनियम ,1919 पारित होने के दस वर्ष बाद एक संवैधानिक आयोग की नियुक्ति की जाएगी, जिसका काम इस एक्ट के द्वारा किए गए सुधारों की पुनः समीक्षा करना होगा ,जांच के पश्चात आयोग को रिपोर्ट देनी थी कि भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना कहां तक उचित है तथा भारत इसके लिए कहां तक तैयार है
- आयोग की नियुक्ति तो 10 वर्ष के बाद की जानी चाहिये थी, लेकिन ब्रिटेन की तत्कालीन कंजरवेटिव सरकार ने दो वर्ष पूर्व ही साइमन कमीशन की नियुक्ति 8 नवंबर, 1927 कर दी, क्योंकि उसे आशंका थी कि दो वर्ष बाद लेबर पार्टी की सरकार भारत समर्थक सदस्यों वाले वैधानिक आयोग की नियुक्ति कर सकती है।
- साइमन कमीशन को भारतीय विधिक आयोग के नाम से भी जाना जाता है
- साइमन आयोग की नियुक्ति राज्य सचिव बर्केनहेड ने की थी।
- साइमन कमीशन 3 फरवरी 1928 को बॉम्बे पहुंचा
- सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में गठित साइमन आयोग में सात सदस्य थे। सातों सदस्यों का अंग्रेज़ होना ही विरोध का कारण बना, इसलिये इसे ‘श्वेत कमीशन’ कहकर इसका बहिष्कार किया गया।
- 27 दिसंबर, 1927 को मद्रास में हुए कॉन्ग्रेस के अधिवेशन साइमन कमीशन के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया, जिसकी अध्यक्षता एम.ए. अंसारी ने की थी।
- तत्कालीन राजनीतिक दलों में लिबरल फेडरेशन, भारतीय औद्योगिक वाणिज्यिक कॉन्ग्रेस, हिंदू महासभा, किसान मज़दूर पार्टी, जिन्ना गुट आदि ने आयोग का बहिष्कार किया।
- संपूर्ण भारत में इसका विरोध हुआ। केवल मुस्लिम लीग, जस्टिस पार्टी, ऑल इंडिया अछुत एसोसिएशन व केंद्रीय सिख संघ ने इसका विरोध नहीं किया।
- जहाँ-जहाँ आयोग गया, वहाँ-वहाँ ‘साइमन गो बैक’ का नारा दिया गया और देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया गया।
- लाहौर में विरोध के दौरान लाला लाजपत राय पर लाठियां चलाई गई जिससे वह बुरी तरह जख्मी हो गए हैं तथा 17 नवंबर 1928 को उनका मृत्यु हो गया
- 1928-29 के बीच कमीशन ने भारत की दो बार यात्रा की। आयोग ने मई 1930 में रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी, जिस पर लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conference) में विचार होना था।
- साइमन कमीशन के द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में दिए गए सुझाव
-
- प्रांतीय क्षेत्रों में कानून तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए
- केंद्रीय विधान मंडल का पुनर्गठन किया जाए इसमें संघ की भावना हो तथा इसके सदस्य उपरांत विधान मंडलों द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से चुने जाए
- केंद्र में उत्तरदायी सरकार का गठन न किया जाए क्योंकि इसके लिए अभी उचित समय नहीं आया है
नेहरू रिपोर्ट (1928) Nehru Report 1928
- साइमन आयोग की नियुक्ति के समय ही भारत सचिव लॉर्ड बर्केनहेड ने भारतीयों के समक्ष एक चुनौती रखी कि वे एक ऐसा संविधान बनाकर तैयार करें, जो सामान्यतः भारत के सभी लोगों को मान्य हो।
- भारतीय नेताओं द्वारा इस चुनौती को स्वीकार करते हुए फरवरी 1928 में दिल्लीमें फिर पुणे में में आयोजित प्रथम सर्वदलीय सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें एक ऐसे संविधान निर्माण की योजना थी, जिसमें पूर्ण उत्तरदायी सरकार की व्यवस्था होगी।
- मई 1928 में बंबई में हुए दूसरे सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक आठ सदस्यीय समिति की स्थापना की गई।
- समिति के अन्य सदस्य
-
1.तेज़ बहादुर सप्रू
-
3.एम.एस. रैने
-
4.मंगल सिंह
-
5.अली इमाम
-
6.जी.आर. प्रधान
-
7.शोएब कुरैशी
-
- रिपोर्ट – अगस्त 1928
- इस रिपोर्ट में भारत के नए डोमेनियन संविधान का खाका था।
- लखनऊ में डॉ अंसारी की अध्यक्षता में फिर से सम्मेलन हुआ जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया
- रिपोर्ट में की गई सिफारिशें इस प्रकार थीं
- भारत को डोमेनियन (अधिराज्य)/पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज का दर्जा।
- भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन
- सिंध को बंबई से पृथक् कर एक पृथक् प्रांत
- उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रांतों क समान वैधानिक स्तर प्रदान किया जाए।
- देशी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।
- भारत में एक प्रतिरक्षा समिति,उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाए
- केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाए, किंतु अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को दी जाए।
- भारत एक संघ होगा, जिसके नियंत्रण में केंद्र में द्विसदनीय विधानमंडल होगा, कार्यपालिका को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाए
- पूर्ण धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना राजनीति से धर्म का पृथक्करण
- सार्वजनिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था की जाए एवं केंद्र एवं उन राज्यों में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ स्थानों को आरक्षित किया जाए ,लेकिन यह व्यवस्था उन प्रांतों में नहीं लागू की जाए जहां मुसलमान बहुसंख्यक हो
- मुसलमानों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों को पूर्ण संरक्षण
- 19 मौलिक अधिकारों की मांग जिसमें महिलाओं को समान अधिकार, संघ बनाने की स्वतंत्रता तथा वयस्क मताधिकार जैसी मांगे सम्मिलित थी
- केंद्र तथा राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाए केंद्र सरकार का प्रमुख गवर्नर जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार के द्वारा किया जाए गवर्नर जनरल, केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा जो कि केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होगी
- कॉन्ग्रेस में सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, सत्यमूर्ति जैसे युवा नेता डोमिनियन स्टेटस की जगह पूर्ण स्वराज को कॉन्ग्रेस का लक्ष्य बनाना चाहते थे। इस मुद्दे को लेकर 1928 में कॉन्ग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में कॉन्ग्रेस के भीतर मतभेद उत्पन्न हो गया। दुर्भाग्य से सर्वदलीय सम्मेलन रिपोर्ट स्वीकार नहीं कर सका।
- सुभाष चंद्र बोस, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सत्यमूर्ति आदि ने इसका विरोध किया तथा पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु 1928 में इन्होंने ‘ऑल इंडिया इंडिपेंडेंस लीग‘ की स्थापना की।
मुस्लिम तथा हिंदू सांप्रदायिक प्रतिक्रिया
- नेहरू रिपोर्ट के रूप में देश के भावी संविधान की रूपरेखा का निर्माण राष्ट्रवादी नेताओं की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। यद्यपि आरंभ में उन्होंने प्रशंसनीय एकता प्रदर्शित की, किंतु सांप्रदायिक निर्वाचन के मुद्दे को लेकर धीरे-धीरे उनके बीच विवाद गहरा गए।
- दिसंबर 1927 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया। उन्होंने चार मांगों को संविधान के प्रस्तावित मसौदे में जोड़ने की मांग की
- सिंध को एक अलग राज्य बनाया जाए।
- उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत को वही दर्जा दिया जाए जो अन्य प्रांतों को मिला हुआ है। . केंद्रीय विधायिका में मुसलमानों को 1/3 प्रतिनिधित्व मिले।
- पंजाब और बंगाल में प्रतिनिधित्व का अनुपात आबादी के – अनुरूप हो तथा अन्य प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटों का मौजूदा आरक्षण बरकरार रहे।
- दिसंबर 1928 में नेहरू रिपोर्ट की समीक्षा हेतुं एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। उपरोक्त मांगों को लेकर मतदान की प्रक्रिया शुरू होते ही जिन्ना ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। परिणामतः मुस्लिम लीग सर्वदलीय सम्मेलन से अलग हो गई तथा मुहम्मद अली जिन्ना, मुहम्मद शफी एवं आगा खाँ के गुट से जाकर मिल गए। इसके पश्चात् मार्च 1929 को जिन्ना ने अलग से चौदह सूत्रीय मांगें पेश की। यहीं से आधुनिक भारतीय इतिहास में ब्रिटिशों द्वारा बोया गया सांप्रदायिकता का बीज पेड़ का रूप धारण किये हुए सामने आया।
जिन्ना की चौदह सूत्रीय मांगें
- संविधान का भावी रूप संघीय हो तथा प्रांतों को अवशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की जाएँ।
- देश के सभी विधानमंडलों तथा सभी प्रांतों की अन्य निर्वाचित संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त एवं प्रभावी नियंत्रण दिया जाए।
- सभी. प्रांतों को समान स्वायत्तता प्रदान की जाए।
- सांप्रदायिक समूह का निर्वाचन पृथक् निर्वाचन पद्धति से किया जाए।
- केंद्रीय विधानमंडल में मुसलमानों के लिये 1/3 स्थान आरक्षित किये जाएँ।
- सभी संप्रदायों को धर्म, पूजा, उपासना, विश्वास. प्रचार एवं शिक्षा की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाए।
- भविष्य में किसी प्रदेश के गठन या विभाजन में बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत की अक्षुण्णता का पूर्ण ध्यान रखा जाए।
- सिंध को बंबई से पृथक् कर एक नया प्रांत बनाया जाए।
- किसी निर्वाचित निकाय या विधानमंडल में किसी संप्रदाय से संबंधित कोई विधेयक तभी पारित किया जाए, जब उस संप्रदाय के 3/4 सदस्य उसका समर्थन करें।
- सभी सरकारी सेवाओं में योग्यता के आधार पर मुसलमानों को पर्याप्त अवसर दिया जाएँ।
- अन्य प्रांतों की तरह बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में भी सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये जाएँ।
- संविधान में मुस्लिम धर्म, संस्कृति, भाषा, वैयक्तिक विधि, मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण एवं अनुदान के लिये आवश्यक प्रावधान किये जाएं।
- केंद्रीय विधानमंडल द्वारा भारतीय संघ के सभी राज्यों की सहमति . बिन कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाए।
- मुस्लिम संस्कृति, धर्म, पर्सनल लॉ और धर्मार्थ संस्थाओं (चैरिटेबल इंस्टीट्यूशंस) को सुरक्षा प्रदान की जाएँ।
कॉन्ग्रेस का लाहौर अधिवेशन
- (पूर्ण स्वराज), 1929
- दिसंबर 1929 में लाहौर में कॉन्ग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू द्वारा की गई।
- इस अधिवेशन में कुछ ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किये गए
- नेहरू रिपोर्ट को निरस्त घोषित कर दिया गया।
- अब से पूर्ण स्वतंत्रता या पूर्ण स्वराज राष्ट्रीय आंदोलन का का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
- गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया जाएगा
- कांग्रेस कार्य समिति को गांधीजी को सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का पूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा गया जिसमें करों का भुगतान नहीं करने जैसे कार्यक्रम सम्मिलित थे
- सभी कांग्रेस सदस्यों को भविष्य में काउंसिल के चुनावों में भाग न लेने तथा काउंसिल के मौजूदा सदस्यों को अपने पदों से त्यागपत्र देने का आदेश दिया गया
- 26 जनवरी 1930 का दिन पूरे राष्ट्र में प्रथम स्वतंत्रता दिवस/पूर्ण स्वराज के रूप में मनाने का निश्चय किया गया .अब से 26 जनवरी को प्रत्येक वर्ष ‘पूर्ण स्वाधीनता दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा।
- सम्मेलन में 31 दिसंबर, 1929 की मध्य रात्रि को रावी नदी के तट पर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय स्वतंत्रता का का प्रतीक तिरंगा झंडा, पूर्ण स्वराज, वंदे मातरम् तथा इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच फहराया।
गांधीजी द्वारा प्रस्तुत 11 सूत्रीय मांगें (31 जनवरी, 1930)
- गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड इरविन एवं ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड के सम्मुख 31 जनवरी, 1930 को 11 सूत्रीय मांगे रखीं, जो निम्नलिखित थीं.
- 1. सेना के व्यय तथा सिविल सेवा के वेतनों में 50 प्रतिशत की कटौती।
- 2. डाक आरक्षण बिल पास किया जाए।
- 3. पूर्ण शराब बंदी।
- 4. राजनीतिक बंदियों की रिहाई। साली
- 5. आपराधिक गुप्तचर विभाग में सुधार।
- 6. हथियार कानून में सुधार करके आत्मरक्षा हेतु भारतीयों को बंदूकों . इत्यादि के लाइसेंस की स्वीकृति प्रदान की जाए।
- 7. रुपया- स्टर्लिंग के विनिमय अनुपात को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेंस करना।
- 8. वस्त्र उद्योग को संरक्षण प्रदान करना।
- 9. भारतीय समुद्र तट केवल भारतीयों के लिये आरक्षित करना।
- 10. भूमिकर में कटौती हो तथा उस पर काउंसिल का नियंत्रण हो।
- 11. नमक कर व नमक पर सरकारी एकाधिकार समाप्त करना। .
- गांधीजी की इस मांग पर सरकार ने कोई सकारात्मक रूख नहीं अपनाया। फलत: 14 फरवरी, 1930 को साबरमती में कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति की एक बैठक में गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने का निश्चय किया गया। |
- ध्यातव्य हो कि इन 11 सूत्रीय मांगों को गांधीजी द्वारा अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में प्रस्तुत किया गया था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)
- गांधीजी ने अपनी 11 सूत्रीय मांगों के न माने जाने पर इरविन को एक पत्र में लिखा कि”मैंने रोटी मांगी थी, बदले में मुझे पत्थर मिला इंतज़ार की घड़ियाँ अब समाप्त हुईं।” ‘
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत महात्मा गांधी ने 12 मार्च, 1930 को ऐतिहासिक सत्याग्रह की शुरुआत की। गांधीजी साबरमती आश्रम से अपने 78 अनुयायियों के साथ 240 मील (कुछ मानक स्रोतों में 241 मील) की लंबी पद यात्रा के बाद 5 अप्रैल, 1930 को गुजराके समुद्र तट पर स्थित दांडी गाँव पहुँचे, जिसे ‘दांडी मार्च’ के ना से जाना जाता है।
- इसी के साथ उन्होंने 6 अप्रैल, 1930 को दांडी में मुट्ठी भर नम उठाकर नमक कानून को तोड़ा।
- सुभाष चंद्र बोस ने इस अभियान की तुलना नेपोलियन के एल्लाह पेरिस की ओर किये जाने वाले मार्च तथा राजनीतिक सत्ता पारित हेतु मुसोलिनी के ‘रोम मार्च’ से की थी।
आंदोलन संबंधी गतिविधियाँ
- सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधीजी के नेतृत्व में समूचे भारत में फैल गया।
- तमिलनाडु में गांधीवादी राजनेता सी. राजगोपालाचारी ने तंजौर के समुद्री तट पर त्रिचिनापल्ली (तिरुचिरापल्ली) से वेदारण्यम तक नमक यात्रा की।
- मालाबार में वायकोम सत्याग्रह के नेता के. कलप्पन ने कालीकट से पेन्नोर तक नमक यात्रा की।
- आंध्र प्रदेश के विभिन्न जिलों में नमक सत्याग्रह के मुख्यालय के रूप में काम करने के उद्देश्य से ‘शिविरम’ (सैनिक शिविरों की तर्ज पर) स्थापित किये गए थे।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन का सबसे प्रबल रूप बंबई (वर्तमान गुजरात) के धरासना में मिला। यहाँ पर सरोजिनी नायडू, मणिलाल तथा इमाम साहब के साथ हज़ारों सत्याग्रहियों ने धरासना नामक कारखाने पर हमला किया। कारखाने की रक्षा के लिये पुलिस ने कठोर दमनात्मक कार्रवाई की, जिसका उल्लेख अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने किया।
- असम के सिलहट स्थान से बंगाल के नोआखली समुद्र तट तक यात्रा कर नमक कानून तोड़ने का प्रयास किया गया।
- पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के मुसलमानों ने खान अब्दुल गफ्फार खाँ या (सीमांत गांधी) के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। उनके नेतृत्व में ‘खुदाई खिदमतगार’ या ‘लाल कुर्ती’ संगठन ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। इन्होंने ‘पख्तून’ नामक म पत्रिका निकाली।
- उत्तर-पश्चिमी सीमा पर आंदोलनकारियों से निपटने में सरकार को अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। आंदोलनकारियों को दबाने के लिये गढ़वाल रेजिमेंट की कुछ टुकड़ियाँ पेशावर भेजी गईं।
- गढ़वाल रेजिमेंट के सिपाहियों ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया।
- उत्तर-पूर्व की जनजातियों ने भी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 13 वर्षीय युवा नागा महिला रानी मैडिनल्य ने अपने नागा साथियों के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन को समर्थन दिया। कालांतर में नेहरू ने गैडिनल्यू को ‘रानी’ की उपाधि से सम्मानित किया।
- इस आंदोलन को अंग्रेजों द्वारा कठोर दमनात्मक प्रक्रिया द्वारा दबाया गया। इसी समय साइमन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर इग्लड में तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए गए।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन (12 नवंबर, 1930 से 19 जनवरी, 1931)
- लंदन में आयोजित यह सम्मेलन पहला ऐसा सम्मेलन था, जिसम ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों को बराबर का दर्जा दिया गया।
- इस सम्मेलन में कुल 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें मुख्य रूप से शामिल हुए
- हिंदू महासभा – जयकर एवं वी.एस. मुंजे
- उदारवादी – सी.वाई चिंतामणि एवं टी.वी.सप्रू,
- मुस्लिम लीग – आगा खाँ, मुहम्मद शफी, मुहम्मद अली जिन्ना और फजलुल हक। सिख – सरदार संपूर्ण सिंह।
- एंग्लो इंडियन – के.टी. पॉल।
- दलित वर्ग – डॉ. भीमराव अंबेडकर।
- देशी रियासतें – 16 नरेश।
- नोट: – ध्यातव्य है कि इस सम्मेलन में कॉन्ग्रेस ने भाग नहीं लिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने इस सम्मेलन का सभापतित्व किया। |
- सम्मेलन में मुस्लिम लीग ने पृथक् निर्वाचन मंडल की मांग रखी। इसी तरह अंबेडकर ने दलित वर्गों के लिये पृथक् निर्वाचन मंडल की मांग की, लेकिन उपस्थित प्रतिनिधियों में एकता का अभाव था।
- सम्मेलन के निष्कर्षों में ब्रिटिश सरकार अखिल भारतीय संघ का निर्माण, प्रदेशों में पूर्ण उत्तरदायी शासन तथा केंद्र में द्वैध शासन पर सहमत हुई।
- तेज बहादुर सपू एवं जयकर के प्रयत्नों से गांधीजी एवं इरविन के मध्य 17 फरवरी से दिल्ली में वार्ता प्रारंभ हुई। 5 मार्च, 1931 को र अंततः एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जो ‘गांधी-इरविन समझौते’ के नाम से जाना गया।
- गांधी-इरविन समझौते पर कॉन्ग्रेस की तरफ से गांधीजी ने हस्ताक्षर किये, जबकि सरकार की ओर से लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये।
गांधी-इरविन समझौता (दिल्ली-समझौता)
- 5 मार्च, 1931 को दिल्ली में एक समझौता हुआ, इस समझौते को गांधी-इरविन समझौता कहा जाता है। सरोजिनी नायडू ने इसे ‘दो महात्माओं का मिलन’ कहा। इस समझौते के अंतर्गत जो शर्ते वायसराय इरविन द्वारा मानी गई, वे निम्न हैं
- जिन राजनीतिक बंदियों पर हिंसा के आरोप हैं, उन्हें छोड़कर शेष को रिहा कर दिया जायेगा।
- भारतीय, समुद्र किनारे नमक बना सकते हैं।
- भारतीय लोग शराब व विदेशी वस्त्रों की दुकान पर कानून की सीमा के भीतर धरना दे सकते हैं।
- सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने वालों को सरकार वापस लेने में उदारता दिखाएगी।
- कॉन्ग्रेस की तरफ से गांधीजी ने निम्न बातों को स्वीकार किया
-
सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया जाएगा।
-
- कॉन्ग्रेस निकट भविष्य में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
- कॉन्ग्रेस ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार नहीं करेगी।
- गांधी-इरविन समझौते का कॉन्ग्रेस के नेताओं ने स्वागत किया। श्री के.एम. मुंशी ने इस समझौते को भारत के सांविधानिक इतिहास में एक ‘युग प्रवर्तक घटना’ कहा। किंतु इस समझौते के कारण कॉन्ग्रेस के वामपंथी, विशेषकर युवा वर्ग में गंभीर असंतोष था। युवा कॉन्ग्रेसी नेताओं में गांधीजी के प्रति असंतुष्टि का कारण क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव
- एवं राजगुरु को फाँसी से न बचा पाने की वजह से था। इन तीनों को 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फाँसी पर लटका दिया गया।
- मार्च 1931 में कॉन्ग्रेस का विशेष अधिवेशन कराची में संपन्न हुआ। युवाओं द्वारा गांधीजी को काले झंडे दिखाए गए। कराची अधिवेशन में ही पूर्ण स्वराज के साथ गांधी-इरविन पैक्ट को स्वीकार कर . लिया गया। साथ ही पहली बार कॉन्ग्रेस ने मौलिक अधिकारों, राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों से संबंधित प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया। ।
- कराची अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभभाई पटेल ने की थी।
- कराची अधिवेशन में ही गांधीजी ने कहा था “गांधी मर सकता है, परंतु गांधीवाद नहीं।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (7 सितंबर, 1931 से 1 दिसंबर, 1931 तक).
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन लंदन में 7 सितंबर, 1931 से 1 दिसंबर, 1931 तक चला। इसमें कॉन्ग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी ने भाग लिया।।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के समय रैम्जे मैकडोनाल्ड ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी सैमुअल होर भारत-सचिव तथा वेलिंग्टन भारत के वायसराय बन चुके थे।
- इस सम्मेलन में गांधीजी के साथ ‘राजपूताना’ नामक जहाज में महादेव देसाई, मदनमोहन मालवीय, देवदास गांधी, घनश्याम दास बिड़ला एवं मीरा बेन भी थीं। कॉन्ग्रेस कार्य समिति की एक और सदस्या सरोजिनी नायडू भी इसमें भाग लेने गईं।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन सांप्रदायिक समस्या पर विवाद के कारण पूरी तरह असफल रहा। दलित नेता भीमराव अंबेडकर ने दलितों के लिये पृथक् निर्वाचन मंडल की सुविधा की मांग की, जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया। अतः सांप्रदायिक गतिरोध के कारण सम्मेलन दिसंबर में समाप्त कर दिया गया।
- इसी सम्मेलन के दौरान विंस्टन चर्चिल ने गांधीजी को ‘अर्द्धनग्न फकीर’ कहा था।
- 28 दिसंबर, 1931 को गांधी लंदन से खाली हाथ निराश बंबई पहुँचे। स्वदेश पहुँचने पर उन्होंने कहा कि यह सच है कि “मैं खाली हाथ लौटा हूँ, किंतु मुझे संतोष है कि जो ध्वज मुझे सौंपा गया था, मैंने उसे नीचे नहीं होने दिया और उसके सम्मान के साथ समझौता नहीं किया।”
- भारत आकर गांधीजी ने वेलिंग्टन (वायसराय) से मिलना चाहा, लेकिन वायसराय ने मिलने से मना कर दिया। दूसरी तरफ गांधी-इरविन समझौते को भी सरकार ने दफ़न कर दिया। अंततः मजबूर होकर गांधीजी ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की घोषणा की।
सांप्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवार्ड, 1932)
- ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 को विभिन्न संप्रदायों के प्रतिनिधित्व के विषय पर एक पंचाट जारी किया, जिसे ‘सांप्रदायिक (कम्युनल) पंचाट’ कहा गया।
- इसके तहत प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय के लिये विधानमंडलों में कुछ सीटें सुरक्षित रखी गईं, जिनके सदस्यों का चुनाव पृथक् निर्वाचक मंडलों द्वारा किया जाना था। मुस्लिम, सिख व ईसाई के साथ ही इस नए पंचाट में दलित वर्ग को भी अल्पसंख्यक मानकर हिंदुओं से अलग कर दिया गया।
पूना पैक्ट (सितंबर 1932)
- दलित वर्ग को पृथक् निर्वाचक मंडल की सुविधा दिये जाने के विरोध में महात्मा गांधी ने जेल (यरवदा जेल) में ही 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन शुरू कर दिया।
- इसी समय टैगोर ने गांधीजी के बारे में कहा कि “भारत की एकता और उसकी सामाजिक अखंडता के लिये यह उत्कृष्ट बलिदान है। हमारे व्यथित हृदय आपकी महान तपस्या का आदर व प्रेम के साथ अनुकरण करेंगे।”
- मदनमोहन मालवीय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास, सी.. राजगोपालाचारी आदि के प्रयत्नों से सितंबर 1932 में गांधीजी और दलित नेता अंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ।
- पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिये पृथक् निर्वाचन व्यवस्था समाप्त कर दी गई तथा विभिन्न प्रांतीय विधानमंडलों में दलित वर्ग के लिये सीटों की संख्या 71 से बढ़कर 147 आरक्षित की गईं तथा केंद्रीय विधानमंडल में सुरक्षित सीटों की संख्या में 18 प्रतिशत की वृद्धि की गई।
गांधीजी और हरिजन उत्थान
- दलित वर्गों को ‘हरिजन’ नाम गांधीजी ने ही दिया।
- पूना समझौता के बाद गांधीजी की रुचि अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन के प्रति अधिक हो गई। इसी समय उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की।
- सितंबर 1932 में गांधीजी ने हरिजन कल्याण हेतु ‘अखिल भारतीय छुआछूत विरोधी लीग’ की स्थापना तथा ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया।
- 8 मई व 16 अगस्त, 1933 को गांधीजी अछूतों के प्रति हिंदुओं के दुर्व्यवहार पर पश्चाताप तथा हरिजन सेवा में लगे कार्यकर्ताओं के समर्थन में देश से अस्पृश्यता को जड़ सहित समाप्त करने के उद्देश्य से अनशन पर बैठे।
- 7 नवंबर, 1933 को गांधीजी ने वर्धा से हरिजन यात्रा प्रारंभ की, लगभग 9 महीने तक उन्होंने देश का दौरा करते हुए 20 हज़ार किमी. की यात्रा तय की। यात्रा के दौरान उन्हें कई स्थानों पर. काले झंडे दिखाए गए, उनकी सभाओं को भंग कर दिया गया तथा उनके विरुद्ध पर्चे बाँटे गए।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन (17 नवंबर, 1932 से 24 दिसंबर, 1932 तक)
- भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की गतिविधियों से अबाधित ब्रिटिश सरकार ने अपने सांविधानिक सुधारों को जारी रखा। 17 नवंबर, 1932 को तृतीय गोलमेज सम्मेलन का लंदन में आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में कॉन्ग्रेस ने हिस्सा नहीं लिया।
- 24 दिसंबर, 1932 को सम्मेलन की समाप्ति के बाद श्वेत पत्र जारी किया गया। श्वेत पत्र पर विचार हेतु लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में ब्रिटिश संसद की एक संयुक्त समिति गठित की गई। इसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर सैमुअल होर द्वारा भारत शासन अधिनियम हेतु ब्रिटिश संसद में बिल पेश किया गया।
- ब्रिटिश सम्राट ने अगस्त 1935 में इस विधेयक पर अपनी सहमति दे दी। यह विधेयक ‘भारत शासन अधिनियम, 1935’ के नाम से जाना गया।
द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन (1932 से 1934 तक)
- जनवरी 1932 में कॉन्ग्रेस कार्य समिति ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू करने का निर्णय लिया। इस बीच देश के अनेक भागों में किसानों में असंतोष की लहर फैल चुकी थी। विश्वव्यापी मंदी के कारण कृषि उपजों के दाम गिर गए। लगान तथा मालगुजारी का बोझ उनके लिये असहनीय हो गया।
- आंदोलन शुरू होने के शीघ्र बाद शीर्ष नेताओं- गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, खान अब्दुल गफ्फार खाँ (पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में) आदि को गिरफ्तार कर सरकार ने कॉन्ग्रेस को ‘गैर-कानूनी संस्था’ घोषित कर उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया।
- आपातकालीन शक्तियों से संबंधी अध्यादेश सरकार द्वारा निकाले गए।
- प्रदर्शनकारियों तथा सत्याग्रहियों पर लाठियों से प्रहार किया गया। . गाँवों में कर अदा न करने वाले किसानों की जमीन, पशु, मकान आदि को जब्त कर लिया गया।
- सरकार ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय प्रमुख नेताओं समेत बड़ी संख्या में (कुछ स्रोतों में यह संख्या 1 लाख से ऊपर बताई गई हैं।) लोगों को जेल भेजा।
- अप्रैल 1934 में गांधीजी ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया।
कॉन्ग्रेस समाजवादी पार्टी
- वर्ष 1934 में कॉन्ग्रेस के बहुत बड़े भाग ने कॉन्ग्रेस के भीतर समाजवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के लिये एक पृथक् दल के गठन पर बल दिया। इसी उद्देश्य से जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव तथा मीनू मसानी ने मिलकर ‘बंबई में कॉन्ग्रेस समाजवादी दल’ की स्थापना की। इसके अन्य सहयोगी नेता अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, डॉ. राम मनोहर लोहिया आदि थे।
- 1936 में कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में समाजवाद का लक्ष्य, विश्व में फासीवाद तथा प्रतिक्रियावाद के विरुद्ध रहते हुए. संघर्ष क परिप्रेक्ष्य में भारतीय संघर्ष को केंद्रित रखने का रखा गया।
- नेहरू का यह प्रस्ताव कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति में अस्वीकृत हो गया।