1857 के पूर्व बिहार में आंदोलन एवं विद्रोह
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  • आधुनिक काल की शुरुआत प्रायः 18वीं सदी के प्रारंभ से मानी जाती है। हालांकि बिहार में यूरोपीय का आगमन 17वीं सदी के प्रारंभ में ही आरंभ हो गया था। 
  • 1711 ई० में डचों ने मुगल सम्राट् जहाँदार शाह से बंगाल एवं बिहार में व्यापार हेतु कुछ रियायतें प्राप्त की । 
  • अलीवर्दी खाँ 1732 ई० में बिहार का नायब नाजिम तथा 1740 ई० में बंगाल का नवाब बना ।
  • उसने भोजपुर, टेकारी, चकवार, बेतिया, तिरहुत आदि क्षेत्रों के विद्रोही शासकों को शांत कर शांति व्यवस्था कायम की। 
  • बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां ने 1750 ई० में सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। 
  • 9 अप्रैल, 1756 को नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के पश्चात् सिराजुदौला बंगाल का नवाब बना ।
  • प्लासी के युद्ध, जो 23 जून, 1757 ई० को नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ, में अंग्रेजों की जीत हुई। 
  • अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया और उसके पुत्र मीरन को बिहार का उप- नवाब बनाया गया। परन्तु बिहार की वास्तविक सत्ता राजा रामनारायण के हाथों में बनी रही।
  • मुगल सम्राट अली गौहर अपने को बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा का अधिपति मानता था ।
  • प्लासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल की राजनीतिक अस्त-व्यस्तता को देखते हुए उसने बिहार पर आक्रमण किया, जिसमें उसकी पराजय हुई | 
  • 1760 में अली गौहर, जिसने अब शाह आलम द्वितीय की उपाधि धारण कर ली थी, ने बिहार पर आक्रमण किया, परन्तु धन एवं साधन के अभाव में उसका यह अभियान भी बेकार साबित हुआ । 
  • 1760 ई० में मीर कासिम अंग्रेजों की सहायता से बंगाल का नवाब बना । 

बक्सर का युद्ध 

  • अंग्रेजों ने मीर कासिम के स्वच्छंद आचरण को देखकर उसे नवाब पद से हटाने का निर्णय किया। 
  • मीर कासिम भागकर पहले पटना आया और फिर लखनऊ जाकर नवाब शुजाउद्दौला से सहायता माँगी। उन दिनों मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय भी अवध में ही उपस्थित था ।
  • मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक गुट का निर्माण कर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध (बक्सर में) किया । 
  • परन्तु 22 अक्टूबर, 1764 ई० में सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना ने उन्हें पराजित कर दिया। 
  • बक्सर युद्ध के पश्चात् विहार प्रशासन मिर्जा मोहम्मद कासिम खाँ के द्वारा बिहार के डिप्टी गवर्नर धीरज नारायण (राजा रामनारायण का भाई) के सहयोग से चलाया जा रहा था। 

दीवानी अधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी को मिला 

  • 12 अगस्त, 1765 ई० को शाह आलम द्वितीय ने बिहार, बंगाल तथा उड़ीसा के क्षेत्रों में दीवानी (लगान वसूली) का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को प्रदान किया। एक अलग संधि के माध्यम से कंपनी ने बिहार का प्रशासन चलाने के लिए उप प्रांतपति का पद बनाया।
  • बिहार के कुछ महत्वपूर्ण उप प्रांतपतियों में राजा रामनारायण तथा सिताब राय का नाम  प्रमुख है। 
  • 1761 ई० में राजबल्लभ भी बिहार के नायव के पद पर रहे। 
  • 1766 ई० में पटना स्थित अंग्रेजों की फैक्ट्री के मुख्य अधिकारीको राजा धीरज नारायण और राजा सिताब राय के साथ एक प्रशासन मंडली का सदस्य नियुक्त किया गया। 
  • 1767 ई० में धीरज नारायण को हटाकर सिताब राय को कंपनी द्वारा नायव दीवान बनाया गया। उसी वर्ष टॉमस बोल्ड पटना फैक्ट्री का मुख्य अधिकारी नियुक्त हुआ। 
  • 1769 ई० में प्रशासन चलाने के लिए अंग्रेज निरीक्षकों की बहाली हुई । 
  • इस अवधि में लगान वसूली का काम अत्यधिक कठोर और अन्यायपूर्ण ढंग से किया जाता रहा, जिससे कृषक वर्ग तथा आम आदमी की हालत दयनीय होती गयी। 
  • 1770 ई० में बिहार और बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। 
  • 1770 ई० में एक लगान परिषद् का गठन हुआ, जो ‘रेवेन्यू काउन्सिल ऑफ पटना’ के नाम से जाना गया । 
  • लगान परिषद् के अध्यक्ष के रूप में जॉर्ज वेसिटार्ट (1770-73) के बाद क्रमश: थॉमस लेन (1773-75), फिलिप मिल्नर डैक्टीस (1775-76), इशाक सेज (1776-77) तथा इवान छा (1777-80) की नियुक्ति हुई । 
  • 1781 ई० में लगान परिषद् को समाप्त कर दिया गया और उस स्थान पर ‘रेवेन्यू चीफ और बिहार’ का पद सृजित हुआ और विलियम मैक्सवेल उस पद पर नियुक्त हुए। 
  • 28 अगस्त, 1771 के पत्र द्वारा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने द्वैध शासन को समाप्त करने की घोषणा की, जिसके द्वारा वारेन हेस्टिंग्स को पहला गवर्नर नियुक्त किया गया। 
  • 3 अप्रैल, 1772 ई० को वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल के गवर्नर का पद संभाला। 

गोलघर का निर्माण 

  • 1783 ई० में बिहार में पुनः अकाल पड़ा। जॉन शोर को इसके कारण एवं प्रकृति की जाँच हेतु नियुक्त किया गया । 
  • जॉन शोर के एक अन्नागार के निर्माण के सुझाव पर 1784 ई० में पटना में गोलघर का निर्माण हुआ । 

फौजदारी प्रशासन भी अंग्रेजों के नियंत्रण में आया 

  • 1790 ई० तक अंग्रेजों ने फौजदारी प्रशासन को भी अपने नियंत्रण में ले लिया । 
  • पटना के पहले मजिस्ट्रेट के रूप में चार्ल्स फ्रांसिस ग्रांड नियुक्त हुआ । 
  • 1865 ई० में पटना और गया जिले अलग-अलग संगठित किये गये । 
  • 1866 ई० में सारण जिले को दो भागों में बांटा गया। एक भाग सारण तथा दूसरा भाग चंपारण कहलाया । 
  • 1875 ई० में तिरहुत को भी मुजफ्फरपुर और दरभंगा की दो इकाइयों में विभाजित कर दिया गया । 

जमीदारों को प्रभावित करने के लिए सम्मान 

  • 1857 ई० की क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों ने जमींदारों को प्रभावित करने के लिए उन्हें उपाधियाँ एवं सम्मान दिये। 
  • सम्मान एवं पुरस्कार पाने वालों में सासाराम के शाह कबीरूद्दीन, बाढ़ के मुंशी अमीर अली एवं मुजफ्फरपुर के कुलदीप नारायण सिंह सम्मिलित थे। उन सम्मानों के द्वारा अंग्रेज. जमींदारों को अपना समर्थक बनाने में कामयाब हुए। 
  • आरंभ में अंग्रेज दरभंगा महाराज एवं डुमरांव के महाराज से काफी नाराज थे, किन्तु वे बाद में उनसे संतुष्ट हो गये । 

नील विद्रोह 

  • 1860-61 ई० में बंगाल में ‘नील विद्रोह’ हुआ । इस समय उत्तरी बिहार के दरभंगा एवं बेतिया जिलों में भी जबरदस्ती नील की खेती करवायी जाती थी एवं खेतिहर मजदूरों के साथ पशुवत् व्यवहार किया जाता था । 
  • बंगाल के नील विद्रोह का प्रभाव बिहार पर भी पड़ा तथा 1866 ई० में पंडौल (मधुबनी) में और 1867 ई० में चंपारण में नील विद्रोह हुआ, किंतु यह जल्दी ही शांत पड़ गया । 

ब्रिटिश सत्ता को चुनौती 

  • 1757 ई० से लेकर 1857 ई० तक अर्थात् प्लासी की लड़ाई से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक बिहार के स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की सत्ता को असंगठित या संगठित रूप में चुनौती दी जाती रही । 
  • इन चुनौतियों में वहाबी आन्दोलन और विभिन्न जनजातीय विद्रोह प्रमुख हैं । 
  • बिहार, बंगाल और उड़ीसा ही एक सम्मिलित क्षेत्र / राज्य था जहां अंग्रेजों ने आरंभिक सफलता के साथ सत्ता स्थापित कर विस्तार का काम शुरू किया । अतः यही क्षेत्र अंग्रेजी राज के अत्याचार से पहले प्रभावित हुआ और इन्हीं इलाके के लोगों ने सर्वप्रथम विद्रोह किया । इसमें बिहार का स्थान अग्रणी है । 
  • अंग्रेज विरोधी संघर्ष का यह आरंभिक चरण था, जिसे प्रोटो नेशनलिज्म या पूर्व – राष्ट्रीयता का चरण माना जाता है । 
  • स्वतंत्रता संघर्ष का दूसरा चरण राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में उभरा। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही देश में राष्ट्रीय चेतना जागृत होने लगी । संघर्ष के दूसरे चरण के अंतर्गत भी बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण रही । 
  • देश में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग चंपारण में महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ ।
  • फिर खिलाफत, असहयोग, होमरूल, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन के विविध चरणों में बिहार की जनता ने सक्रिय भूमिका निभायी। इस चरण में बिहार की एक अलग पहचान बनी । 

वहाबी आंदोलन 

  • वहाबी मत के आदि- प्रवर्तक अरब का अब्दुल-अल-वहाब ( 1703-87 ) था । उन्हीं के नाम पर इस आंदोलन का नाम वहाबी आंदोलन पड़ा । 
  • भारतवर्ष में इस आंदोलन के जन्मदाता और आदि प्रचारक उत्तर प्रदेश के रायबरेली में 1786 ई० में पैदा हुए सैयद अहमद बरेलवी थे । 
  • पहली बार पटना आने पर सैयद अहमद ने मुहम्मद हुसैन को अपना मुख्य प्रतिनिधि नियुक्त किया था। दोबारा (1821 ई०) आने पर उन्होंने यहाँ चार खलीफा नियुक्त किये, जिनके नाम थे – मुहम्मद हुसैन, विलायत अली, इनायत अली और फरहत अली ।
  • 1831 ई० में बालकोट की लड़ाई में सिक्खों के खिलाफ लड़ते हुए  हो गयी। इस लड़ाई में सिखों का सेनापति शेर सिंह था । 
  • सैयद अहमद की मृत्यु के बाद उनका उत्तराधिकार तो दिल्ली के मोहम्मद नसीरूद्दीन को मिला, किन्तु आंदोलन का व्यावहारिक नेतृत्व विलायत अली के पास रहा। 
  • वहाबी आंदोलन मूलतः मुस्लिम समाज में एक सुधार आंदोलन था । 
  • इस ब्रिटिश विरोधी आंदोलन के दो मुख्य केन्द्र थे । 
  • पश्चिमोत्तर सीमांत के अफगान कबीलों की मदद से वहाबियों ने सितना में एक स्वतंत्र राज्य का गठन किया, जहां सैनिक और आर्थिक साधन पहुंचाने के लिए पटना में एक केन्द्र बनाया गया । यहाँ से धन और स्वयंसेवक सितना भेजे जाते थे । 
  • बंगाल का ‘फरायजी आंदोलन’ इसी आंदोलन से प्रेरित था, जिसके नेता हाजी शरीयतुल्लाह थे और 1828 ई० से 1868 ई० तक पटना इसका प्रमुख केन्द्र था । 
  • 1857 के विद्रोह के समय पटना के वहाबी आंदलोनकर्मी काफी सक्रिय रहे । 
  • बिहार में वहाबी आंदोलन का दमन करने के उद्देश्य से 1863 में अम्बेला और 1865 में पटना में वहाबियों पर राजद्रोह के मुकदमे चलाये गये और अनेक नेताओं को कारावास की सजा दी गयी । 
  • 1868 ई० में पटना में चुन्नी एवं मो० इस्माइल को गिरफ्तार किया गया । 1869 ई० में अमीर खाँ एवं उसके साथियों को आजीवन कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया। हालांकि इसके बाद यह आंदोलन शिथिल पड़ता गया, परंतु ब्रिटिश शासन के विरुद्ध यह भी एक महत्वपूर्ण विद्रोह था । 
  • वहाबियों ने ब्रिटिश संस्थानों के बहिष्कार का पहला उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने भी अपनाया । 
  • वहाबी आंदोलन केवल धार्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह साम्रज्यवाद के खिलाफ लड़ाई थी । 
  • इसके अनुयायी अपने आपको ‘अहले हदीस’ कहते थे । 

नोनिया विद्रोह (1770-1800 ई०) 

  • बिहार में शोरे के उत्पादन का मुख्य केन्द्र हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया था ।
  • शोरे की मिट्टी इकट्ठा करने और उसे तैयार करने का काम नोनिया करते थे । 
  • शोरा का उपयोग मुख्यतः बारूद बनाने में होता था । 
  • ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता का शिकार इन्हें भी होना पड़ा, अतः इन्होंने भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध छोटे-मोटे ही सही, किन्तु विद्रोह किये । 

लोटा विद्रोह (1856 ई०) 

  • सन् 1857 ई० की क्रांति के पहले ही मुजफ्फरपुर में अंग्रेजी राज के प्रति जनता में घोर असंतोष फैला हुआ था । 
  • यहाँ के प्रत्येक कैदी को पहले पीतल का लोटा दिया जाता था, लेकिन सरकार ने निर्णय लिया कि पीतल के लोटे की जगह मिट्टी के बर्तन दिये जायेंगे । 
  • इसका कैदियों ने कड़ा विरोध किया । फलतः सरकार ने कैदियों को पुनः पीतल का लोटा देना शुरू कर दिया । 
  • इस विद्रोह को ‘लोटा विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है । 

1857 के पूर्व बिहार में आंदोलन एवं विद्रोह 

  • सन् 1767 ई० से छोटानागपुर ( वर्तमान में झारखंड राज्य में स्थित ) के आदिवासियों ने 
  • ब्रिटिश सेना का धनुष-बाण और कुल्हाड़ी से लैश होकर विरोध करना शुरू कर दिया था । 
  • घाटशिला में सन् 1773 में भयंकर विद्रोह हुआ था । 
  • आदिवासियों ने दमामी बन्दोबस्त (1793 ई०) के तहत जमीन की पैमाइश और नयी जमाबंदी का घोर विरोध किया था । 
  • 1795 से 1800 ई० के मध्य पंचेत तथा अन्य क्षेत्रों में विद्रोह होते रहे । 
  • 1771 ई० के बाद से पलामू और छोटानागपुर क्षेत्र में मुंडा और उरांव जनजाति के लोगों ने भी ब्रिटिश शासन का विरोध किया । 
  • 1797 ई० में तमाड़ के विद्रोहियों ने भी साथ दिया। सन् 1819-20 ई० में रूदन और कन्ता के नेतृत्व में तमाड़ के मुंडा लोगों ने भीषण विद्रोह कर दिया। कई महीनों तक संघर्ष तथा सैनिक कार्रवाई के बाद ये लोग अंग्रेजी सरकार की गिरफ्त में आये । 

तमार विद्रोह (1789-1794 ई०) 

  • 1789 ई० में छोटानागपुर के उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत हुई। यह विद्रोह लगभग 1794 ई० तक चलता रहा । 
  • इस विद्रोह के परिणामस्वरूप 1809 ई० में ब्रिटिश सरकार ने छोटानागपुर में शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए जमींदारी पुलिस बल की व्यवस्था की । 

चेरो विद्रोह (1800-02 ई०) 

  • 1770 ई० के आस-पास से ही अंग्रेज पलामू के दुर्ग पर कब्जा करने के लिए प्रयासरत थे । अंग्रेजों ने पलामू के चेर शासक छत्रपति राय से दुर्ग की माँग की। परंतु छत्रपति राय ने दुर्ग समर्पण से मना कर दिया। इससे अंग्रेजों तथा चेर शासक के बीच युद्ध हुआ और अन्ततः 20 फरवरी, 1771 में इस दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 
  • 1783 ई० में अंग्रेजों के समर्थन से चूड़ामन राय शासक बना। इसके विरुद्ध धीरे-धीरे असंतोष बढ़ता गया और 1800 ई० में चेरो के विरोध ने खुले विद्रोह का रूप धारण कर लिया । > भूषण सिंह, जो स्वयं एक चेरो थे, के नेतृत्व में पलामू रियासत के लोगों ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया। 1802 ई० में भूषण सिंह पकड़े गये और उन्हें फाँसी दे दी गयी । परन्तु इसके बाद भी विद्रोह जारी रहा । 

हो विद्रोह (1820-21 ई०) 

  • अंग्रेजों द्वारा संरक्षित सिंहभूम (वर्तमान में झारखंड में स्थित ) के राजा जगन्नाथ सिंह ने जब जानजातियों का दमन करना चाहा तब 1820-21 ई० में छोटानागपुर के ‘हो’ लोगों ने जबर्दस्त विद्रोह किया । 
  • अंग्रेजों ने ‘हो’ लोगों को बेवकूफ बनाने हेतु ‘हो’ को राजा के विरुद्ध सहायता देना स्वीकार कर लिया परंतु कालांतर में धोखा दे दिया । इससे वहाँ के ‘हो’ जनजाति के लोगों और अंग्रेजों के मध्य संघर्ष हुआ। 1821 ई० में एक महीना तक अंग्रेजी सेना का डटकर मुकाबला करने के बाद अंततः ‘हो’ लोगों को मजबूर होकर अंग्रेजों से समझौता करना पड़ा ।

कोल विद्रोह (1831-32 ई०) 

  • 1831 ई० में छोटानागपुर क्षेत्र में हुआ यह विद्रोह भारत के इतिहास में अपना एक अविस्मरणीय स्थान रखता है । इस विद्रोह का मुख्य कारण भूमि संबंधी असंतोष था । 
  • वास्तव में यह मुंडों का विद्रोह था, जिसमें ‘हो’ ‘उराँव’ एवं अन्य जनजातियों के लोग भी शामिल थे। 
  • हो और मुंडा लोगों पर ही परम्परागत रूप से ग्राम्य प्रशासन और लगान वसूली की जिम्मेदारी होती थी । परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस अंचल की जमींदारी विभिन्न राजाओं को दे रखी थी ।
  • ये जमींदार अपने रैयतों से अनाप-शनाप कर वसूला करते थे, जिससे वहाँ के निवासी कोलों का असंतोष बढ़ने लगा । परंतु, कोल विद्रोह का तात्कालिक कारण छोटानागपुर के महाराजा भाई हरनाथ शाही द्वारा इनकी जमीन को छीन कर अपने प्रिय लोगों को सौंप दिया जाना था ।
  • शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध रांची, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम के पश्चिमी हिस्से में फैले इस विद्रोह के प्रमुख नेता थे— बुद्धो भगत, विन्दराय, सिंगराय एवं सुर्गा मुंडा । बुद्धो भगत एवं उनके परिजनों के साथ इस विद्रोह में 800 से 1000 लोग मारे गये । सिंगराय, विन्दराय एवं सुर्गा अंत तक लड़ते रहे, लेकिन अंततः 19 मार्च, 1832 ई० को उन्हें अंग्रेजी सेना के समक्ष आत्मसमर्पण करना पड़ा । 

भूमिज विद्रोह (1832-33 ई०) 

  • अंग्रेजी सरकार ने वीरभूम के जमींदारों पर इतना राजस्व बढ़ा दिया कि उसे चुका कर भरण-पोषण कर पाना किसानों और छोटे जमींदारों के लिए कठिन हो गया । 
  • वे बाहरी साहूकारों के कर्ज से दब गये थे । इस संकट को समाप्त करने के लिए यह विद्रोह 1832 ई० में गंगा नारायण के नेतृत्व में हुआ था । 

संथाल विद्रोह (1855-56 ई०) 

  • संथाल विद्रोह का प्रभाव मुख्यतः भागलपुर से लेकर राजमहल (वर्तमान में झारखंड में स्थित ) के समीपवर्ती क्षेत्रों में रहा । जमीन्दारों और साहूकारों के शोषण और अत्याचार, ठेकेदारों द्वारा संथाल मजदूरों से बेगारी कराने के साथ-साथ पुलिस या प्रशासन की कठोर कार्रवाइयाँ आदि संथाल विद्रोह के अनेक कारण थे । 
  • संथाल विद्रोह का नेतृत्व हालांकि चार भाइयों – सिद्धू, कान्हू, भैरव और चाँद ने किया, किन्तु इनमें से सिद्धू और कान्हू ने अधिक सक्रिय योगदान किया । 
  • यह विद्रोह/संघर्ष लगभग एक साल तक जारी रहा, जिसमें अंग्रेजों की आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से लैश सेना के साथ संघर्ष करते हुए अनेक संथाल नेता शहीद हो गये । 
  • 1880-81 ई० में संथालों ने पुनः विद्रोह किया, परन्तु इस बार भी उसे दबा दिया गया ।

सरदारी लड़ाई और मुंडा विद्रोह (1858 – 1895 1895-1901) 

  • मुंडा सरदारों का आंदोलन ‘सरदारी लड़ाई’ के नाम से प्रसिद्ध है । 
  • यह सरदारी आंदोलन रांची से आरंभ हुआ और शीघ्र ही सिंहभूम में फैल गया । 1858 ई० में आरंभ हुआ यह आंदोलन 30 वर्षों तक जारी रहने के बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में परवान चढ़ा । 
  • बिरसा आंदोलन एक सुधारवादी प्रयास के रूप में आरंभ हुआ । बिरसा ने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया । उन्होंने एक ईश्वर (सिंग बोंगा) की पूजा का निर्देश दिया । 
  • बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता को ईसाई मिशनरी अपने धर्म प्रचार के मार्ग में बाधक मानने लगे । फलतः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । परंतु 1897 ई० में उसे रिहा कर दिया गया । 1898 ई० में आंदोलन शुरू हो गया । 1899 ई० में बिरसा ने आंदोलन का नेतृत्व करना आरंभ किया, ईसाई मिशनों पर आक्रमण किया । 
  • उसने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया । 
  • इस आंदोलन के विरुद्ध सरकार ने दमन चक्र चलाया और 3 मार्च, 1900 ई० को बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और 1901 ई० में जेल में ही हैजा से उनकी मृत्यु हो गयी । ‘उलगुलान’ विद्रोह 
  • 1895 से 1900 के बीच हुए जनजातीय विद्रोहों में सबसे संगठित और व्यापक था ‘मुण्डा विद्रोह’ ।  
  • ब्रिटिश प्रशासन तथा जमींदार साहूकार शोषण के विरुद्ध बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में आदिवासियों ने राँची, सिंहभूम, खूँटी, तामार आदि क्षेत्रों में सशस्त्र या उग्र प्रतिरोध किया था । 
  • बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में हुए इसी प्रबल प्रतिरोध को उलगुलान विद्रोह कहा जाता है ।

सफाहोड़ आंदोलन 

  • 1870 ई0 में इस आंदोलन के जन्मदाता बाबा भागीरथ मांझी थे । 
  • सफाहोड़ आंदोलन का स्वरूप धार्मिक था, परंतु उसका लक्ष्य राजनीतिक था । 
  • आंदोलनकारी राम नाम का हमेशा जप करते थे । ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा जबसे उनके राम-नाम जप एवं अन्य धार्मिक विश्वासों पर पाबंदी लगा दी गई तबसे ब्रिटिश शासन से उनका विरोध बढ़ता चला गया । 
  • कालांतर में सफाहोड़ आंदोलन के नेता लाल हेम्ब्रम तथा पैका मुर्मू को डाकू घोषित कर दिया गया। 
  • लाल हेम्ब्रम ने आजाद हिंद फौज के अनुरूप संथाल परगना में देशीद्धारक दल का गठन किया। 
  • सन् 1945 ई० में लाल हेम्ब्रम ने महात्मा गाँधी के आदेश पर आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन साक्ष्य के अभाव में 1946 ई० में वे रिहा हो गये। 

ताना भगत आंदोलन 

  • ताना भगत आंदोलन का शुभारंभ 21 अप्रैल, 1914 ई० को गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के नावा टोली ग्राम से हुआ था । इस आंदोलन के परिणामस्वरूप एक नया धार्मिक आंदोलन उरांवों द्वारा आरंभ किया गया, जिसे कुरुख धर्म या कुरुखों का धर्म कहा गया। 
  • जतरा भगत इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे । 
  • ताना भगत आंदोलन बिहार की जनजातियों का राष्ट्रीय आंदोलन की धारा में आत्मसात होने का सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक उदाहरण है । 
  • मूलतः यह आंदोलन भी जमींदारों, प्रशासन तथा दिकुओं (बाहरी लोगों) के अत्याचारों के विरुद्ध था । किन्तु इसमें हिंसात्मक संघर्ष के बदले संवैधानिक संघर्ष का रास्ता अपनाया गया । 
  • ये आंदोलनकारी कांग्रेस के कार्यक्रम और गाँधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित थे । इन्होंने खादी का प्रचार किया तथा ईसाई धर्म प्रचारकों का विरोध किया । 
  • इनकी मुख्य मांगें थीं— स्वशासन का अधिकार, लगान का बहिष्कार तथा मनुष्यों से समता । 
  • 1919 ई० तक इस आंदोलन का वृहत स्तर पर प्रसार हो चुका था । 
  • असहयोग आंदोलन के समय ताना भगत आंदोलनकारियों ने भी इसमें भाग लिया और मदिरा त्याग, मदिरा के दुकानों पर धरना आदि कार्यक्रम को समर्थन दिया । 
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में भी ये आंदोलनकारी काफी सक्रिय रहे तथा डॉ० राजेन्द्र प्रसाद एवं कृष्ण बल्लभ सहाय को वे अपना मार्गदर्शक मानते रहे । 
  • सिबू, माया, देविया आदि इस आंदोलन के अन्य प्रमुख नेता थे । 

स्वतंत्रता आंदोलन और बिहार (1857-1947)

1857 का विद्रोह 

  • 1857 की क्रांति की शुरुआत बिहार में 7-12 जून, 1857 ई० को देवघर जिले (जो अब झारखंड में है) के रोहिणी गाँव में सैनिकों के विद्रोह से हुई । यहाँ 32वीं इन्फैंट्री रेजिमेंट का मुख्यालय था । 
  • इस विद्रोह में लेफ्टीनेंट नार्मन लेस्ली एवं सहायक सर्जन डॉ० ग्रांट मारे गये । 
  • इस विद्रोह को मेजर मैक्डोनाल्ड द्वारा सख्ती से कुचल डाला गया तथा विद्रोह में शामिल 
  • तीनों सैनिकों को 16 जून को फाँसी दे दी गई।  
  • 3 जुलाई, 1857 ई० को पटना सिटी के एक पुस्तक विक्रेता पीर अली के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हुआ। पटना सिटी के चौक तक के इलाके को विद्रोहियों ने अपने कब्जे में ले लिया । 
  • इस विद्रोह में अफीम व्यापार का एजेंट आर० लायल मारा गया। परंतु कमिश्नर टेलर ने इस विद्रोह को बलपूर्वक दबा दिया। 
  • पीर अली के घर को नष्ट कर दिया गया तथा पीर अली समेत 17 व्यक्तियों को फाँसी दे दी गयी । 
  • 25 जुलाई, 1857 ई० को मुजफ्फरपुर में भी असंतुष्ट सैनिकों ने कुछ अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी । 
  • उसी दिन दानापुर के तीन रेजिमेंटों के सैनिक विद्रोही हो गये और उन्होंने शाहाबाद जिले में पहुँचकर जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह से मिलकर विप्लव प्रारंभ किया । कुंवर सिंह ने कमिश्नर टेलर के आग्रह को ठुकरा कर अपने 4000 सैनिकों के सहयोग से संघर्ष प्रारंभ किया। सबसे पहले उन्होंने 27 जुलाई को आरा पर नियंत्रण कर लिया । 
  • आरा में हुए युद्ध में कैप्टन डनबर सहित कई अंग्रेज सैनिक मारे गये। 30 जुलाई, 1857 ई० को सरकार ने तत्कालीन सारण, तिरहुत, चम्पारण और पटना जिलों में सैनिक शासन लागू कर दिया । 
  • कुंवर सिंह को आरा छोड़ना पड़ा। इसके बाद कुंवर सिंह ने नाना साहेब से मिलकर 26 मार्च, 1858 ई० को आजमगढ़ में अंग्रेजों को हराया । 
  • 23 अप्रैल, 1858 ई० को कैप्टन ली ग्रांड के नेतृत्व में आयी ब्रिटिश सेना को कुंवर सिंह ने पराजित किया। लेकिन इस लड़ाई से पूर्व शिवपुर घाट पर नदी पार करते समय ब्रिगेडियर डगलस के तोप के गोले से उनका बायाँ हाथ बुरी तरह से घायल हो गया तथा दो दिन के बाद उनकी मृत्यु हो गयी । 
  • संघर्ष का क्रम उनके भाई अमर सिंह ने आगे बढ़ाया। शाहाबाद में उनका नियंत्रण बना रहा ।
  • 9 नवंबर, 1858 ई० तक अंग्रेजों का इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं हो सका। महारानी द्वारा 
  • क्षमादान की घोषणा के बाद ही इस क्षेत्र में विद्रोहियों ने हथियार डाले । 

होमरूल आंदोलन 

  • 1916 ई0 में भारत में होमरूल आंदोलन प्रारंभ हुआ । 
  • श्रीमती एनी बेसेंट के नेतृत्व में मद्रास तथा बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में पूना में होमरूल लीग की स्थापना हुई । 
  • 16 दिसंबर, 1916 ई० को पटना में मजहरूल हक के नेतृत्व में एक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें पटना में होमरूल की स्थापना पर विचार-विमर्श के उपरांत बिहार में होमरूल लीग की शाखा की स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष मौलाना मजहरूल हक बनाये गये तथा सचिव बने चंद्रवंशी सहाय और वैद्यनाथ नारायण सिंह । 

चंपारण सत्याग्रह 

  • बिहार का चंपारण जिला 1917 ई० में महात्मा गांधी द्वारा भारत में सत्याग्रह के प्रयोग का पहला स्थल रहा । 
  • उस समय वहाँ अंग्रेज भूमिपतियों द्वारा किसानों को बलात् नील की खेती के लिए बाध्य किया जाता था । 
  • किसानों को प्रत्येक बीघे पर तीन कट्ठे में नील की खेती अनिवार्यतः करनी होती थी, जिसे तीनकठिया व्यवस्था कहा जाता था । इसके बदले में उन्हें उचित मजदूरी भी नहीं मिलती थी। इसके कारण किसानों तथा खेतिहर मजदूरों में भयंकर आक्रोश था । 
  • 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल ने इस समस्या की तरफ देशवासियों का ध्यान आकृष्ट किया तथा ब्रजकिशोर प्रसाद ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें इन समस्याओं के निदान के लिए एक समिति के गठन की बात कही गयी । 
  • मुरली भरहवा गाँव के निवासी राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर गाँधीजी कलकत्ता से 10 अप्रैल, 1917 को पटना पहुँचे तथा वहाँ से मुजफ्फरपुर तथा दरभंगा होते हुए 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी (चंपारण) पहुँचे । । 
  • स्थानीय प्रशासन ने हालांकि उनके आगमन तथा आचरण को गैरकानूनी घोषित कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया, किंतु बाद में बिहार के तत्कालीन उप राज्यपाल एडवर्ड गेट ने गांधीजी को वार्ता के लिए बुलाया और किसानों के कष्टों की जांच के लिए एक समिति के गठन का प्रस्ताव रखा, जो चंपारण कमेटी कहलायी । 

आरंभिक किसान आंदोलन 

  • चम्पारण सत्याग्रह की सफलता ने छपरा (सारण) के विभूशरण प्रसाद एवं अन्य किसानों को भी शोषण और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी। जून, 1919 ई० में मधुबनी जिला के किसानों को दरभंगा राज के विरुद्ध आंदोलन के लिए स्वामी विद्यानंद के नाम से विख्यात विभूशरण प्रसाद ने संगठित किया । लगान वसूली के क्रम में राज के गुमाश्तों के अत्याचार के विरोध और जंगल से फल और लकड़ी प्राप्त करने के अधिकार की प्रस्तुति इस आंदोलन की मुख्य विशेषता थी । 
  • आंदोलन का विस्तार धीरे-धीरे पूर्णिया, सहरसा, भागलपुर और मुंगेर जिलों तक हो गया । > महाराजा दरभंगा ने आंदोलन का प्रभाव नष्ट करने के लिए एक प्रान्तीय सभा का गठन 1922 ई० में कराया। कालांतर में महाराजा ने किसानों की कुछ माँगें स्वीकार कर लीं और आन्दोलन शिथिल पड़ गया । 

किसान सभा 

  • 1922-23 ई० में मुंगेर में किसान सभा का गठन शाह मोहम्मद जुबैर और श्रीकृष्ण सिंह द्वारा किया गया । 
  • 4 मार्च, 1928 ई० को बिहटा (पटना) में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान सभा की औपचारिक स्थापना की तथा 1929 में सोनपुर मेला में आयोजित सभा में बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की गई तथा स्वामी सहजानंद इसके अध्यक्ष एवं श्रीकृष्ण सिंह इसके सचिव बने ! 
  • इसे बिहार के गाँवों में फैलाने में उन्हें कार्यानन्द शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पंचानन शर्मा, यदुनंदन शर्मा आदि वामपंथी नेताओं का सहयोग मिला । 
  • 1935 ई० में किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव पास किया । 
  • कार्यानंद शर्मा के नेतृत्व में मुंगेर जिले में ‘बड़हिया ताल’ या बकाश्त आंदोलन चला । 1936 ई० में लखनऊ में स्वामी सहजानंद की अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ । प्रो० एन० जी० रंगा को इसका सचिव बनाया गया । 

मजदूर आंदोलन 

  • दिसम्बर 1919 में जमशेदपुर व जमालपुर में मजदूरों की हड़ताल हुई । 
  • 1920 में एस० एन० हल्दर तथा व्योमकेश चक्रवर्ती के नेतृत्व में जमशेदपुर वर्कर्स एसोसिएशन तथा 1929 में माणिक होमी के नेतृत्व में जमशेदपुर लेबर फेडरेशन की स्थापना हुई । 
  • सुभाष चन्द्र बोस, प्रो० अब्दुल बारी, जय प्रकाश नारायण, योगेन्द्र शुक्ल, बसावन सिंह, 
  • ब्रजनंदन शर्मा, बालेश्वर सिंह आदि मजदूर आंदोलन के महत्त्वपूर्ण नेता थे । 
  • 1929 में झरिया में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें पं० जवाहर लाल नेहरू को आगामी अध्यक्ष चुना गया । 
  • 1937 से 1939 के बीच तथा आगे भी बिहार में अनेक स्थानों पर हड़तालें हुईं। इसी आंदोलन के क्रम में जमशेदपुर में दिये हुए भाषण के लिए जयप्रकाश नारायण को 18 फरवरी, 1940 को गिरफ्तार करके 9 महीने की कड़ी सजा दी गई। 
  • 1942, 1944, 1947 में अनेक सभा एवं हड़तालों का आयोजन हुआ । 

पटना युवा संघ 

  • 1927 में पटना युवा संघ की स्थापना हुई । 
  • 1929 तक इसकी शाखाएँ बिहार के अनेक नगरों में स्थापित हो गई थीं। इसके फलस्वरूप बिहार में युवा आंदोलन ने जोर पकड़ा। 

खिलाफत आंदोलन

  • प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब विजयी राष्ट्रों ने तुर्की के सुल्तान के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया और ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के स्वशासन की माँग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने के अपने आश्वासन को पूरा नहीं किया, तो भारतीय मुसलमानों तथा राष्ट्रवादियों का गुस्सा भड़क उठा। इसकी परिणति खिलाफत आंदोलन (1919-23 ) के रूप में हुई ।
  • इसमें मौलाना मजहरूल हक का सक्रिय सहयोग रहा। 
  • 16 फरवरी, 1919 को पटना में हसन इमाम की अध्यक्षता में एक सभा हुई, जिसमें खलीफा के प्रति मित्र राष्ट्रों द्वारा उचित व्यवहार के लिए लोकमत बनाने की बात कही गयी ।
  • 30 नवम्बर, 1919 को एक सभा में हसन इमाम ने शांति समारोहों के बहिष्कार की बात कही। मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में राँची में भी ऐसा ही प्रस्ताव पारित किया गया । 
  • 19 मार्च, 1920 को मुसलमानों ने समूचे बिहार में हड़ताल की, जिसका व्यापक असर हुआ। > अप्रैल में खिलाफत आंदोलन के प्रमुख नेता मौलाना शौकत अली पटना आये। 1920 में खिलाफत आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया । 

असहयोग आंदोलन 

  • असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सितंबर 
  • 1920 में पारित हुआ, किंतु इसके पूर्व ही बिहार में असहयोग का प्रस्ताव पारित हो चुका था और राष्ट्रवादियों ने सरकार से असहयोग आरंभ कर दिया था । 
  • 29 अगस्त, 1918 को कांग्रेस ने अपने बम्बई अधिवेशन में मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पर विचार किया, जिसकी अध्यक्षता बिहार में प्रसिद्ध बैरिस्टर हसन इमाम ने की । 
  • अधिवेशन में रिपोर्ट पर असंतोष जाहिर करते हुए ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने के लिए हसन इमाम के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल को इंग्लैंड भेजने का प्रस्ताव किया गया ।
  • इस बीच क्रांतिकारियों के दमन के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा रौलेट एक्ट के कुछ उपबंधों का इस्तेमाल किया गया । 
  • इस काले कानून के खिलाफ गांधीजी के नेतृत्व में पूरे देश में जन-आंदोलन छिड़ गया । बिहार में 6 अप्रैल, 1919 को हड़ताल हुई । 
  • असहयोग आंदोलन के क्रम में मजहरूल हक, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, मोहम्मद शफी और अन्य नेताओं ने विधायिका के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली ।
  • महेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह तथा ब्रजनंदन प्रसाद आदि ने अदालतों का बहिष्कार किया ।
  • छात्रों को वैकल्पिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पटना गया रोड पर एक राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना की गयी। इस राष्ट्रीय महाविद्यालय के ही प्रांगण में बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फरवरी, 1921 को गांधीजी द्वारा किया गया।  
  • मजहरूल हक इसके कुलाधिपति, ब्रजकिशोर प्रसाद कुलपति तथा डॉ० राजेन्द्र प्रसाद महाविद्यालय के प्राचार्य बने । 
  • 30 सितंबर, 1921 को मजहरूल हक ने सदाकत आश्रम से ‘दि मदरलैंड’ नामक अखबार निकालना प्रारंभ किया । 
  • 22 दिसंबर, 1921 को ब्रिटेन के युवराज का पटना आगमन हुआ। इस दिन पूरे शहर में हड़ताल रखी गयी । 
  • असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था कि 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा कांड के फलस्वरूप गांधीजी ने आंदोलन स्थगित कर दिया । 
  • इसके बाद 10 मार्च, 1922 को गांधीजी गिरफ्तार कर लिये गये। इन घटनाओं का असर बिहार पर भी हुआ तथा असहयोग आंदोलन का प्रभाव समाप्त होने लगा । 
  • खिलाफत आन्दोलन एवं असहयोग आन्दोलनों ने बिहार में राजनैतिक चेतना जगाने में निर्णायक भूमिका निभाई। बिहार अब पूरी तरह राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से जुड़ गया।
  • इन आंदोलनों का सबसे व्यापक प्रभाव तत्कालीन मुज़फ्फरपुर और शाहाबाद जिलों में देखा गया। 
  • आरा, गया, राँची, गिरिडीह, मुंगेर, किशनगंज और पूर्णिया के नगर भी इससे प्रभावित हुए । 
  • पटना इसका मुख्य केन्द्र रहा। 
  • मुसलमानों में भी एक नयी चेतना जगी । ब्रिटिश सरकार से असहयोग के क्रम में ही फुलवारीशरीफ में मौलाना सज्जाद द्वारा इमारते- शरीया संस्था का गठन हुआ जो अभी भी सक्रिय है । 
  • इसका कार्य क्षेत्र बिहार एवं उड़ीसा था और इसके माध्यम से मुसलमानों द्वारा सभी धार्मिक और सामाजिक मामलों में सरकारी संस्थाओं की सहायता के बिना निर्णय लेने और इनका समाधान करने की व्यवस्था की गयी थी । 

स्वराज दल 

  • 1922 में काँग्रेस का 38वाँ अधिवेशन बिहार में गया नगर में हुआ। इसके अध्यक्ष देशबंधु चित्तरंजन दास थे । 
  • इस अधिवेशन में काँग्रेस द्वारा विधायिका में भाग लेने या इसके बहिष्कार को जारी रखने के मुद्दे पर बहस हुई और निर्णय बहिष्कार के पक्ष में हुआ । 
  • परन्तु मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, सत्यमूर्ति आदि विधायिका में प्रवेश करने के पक्ष में थे । इन्होंने स्वराज दल का गठन किया । 
  • बिहार में फरवरी, 1923 में स्वराज दल की शाखा का गठन हुआ तथा श्रीकृष्ण सिंह इसके नेता बनाये गये । 2 जून को पटना में इसकी आरंभिक बैठक हुई। 
  • बिहार में स्वराज दल का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा । स्वराज दल की बिहार में विफलता दिसम्बर, 1923 तक स्पष्ट हो चुकी थी तथा 1925 ई० तक यह दल अप्रभावी हो गया । साइमन कमीशन का बहिष्कार
  • 1928 में साइमन कमीशन का भारत में आगमन हुआ । सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग भारत में मॉण्टफोर्ड सुधारों की प्रगति की जाँच करने के उद्देश्य से संगठित हुआ था, जिसके सभी सदस्य गोरे थे । राष्ट्रवादियों ने इसके बहिष्कार का निश्चय किया ।
  • बिहार में अनुग्रह नारायण सिन्हा के नेतृत्व में एक सर्वदलीय बैठक का आयोजन हुआ, जिसमें साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए नौजवानों को संगठित करने और विरोध प्रदर्शन करने की योजना बनायी गयी । 
  • 12 दिसम्बर को आयोग के पटना तथा 24 दिसम्बर को राँची पहुँचने पर इसके विरुद्ध प्रदर्शन हुए, काले झंडे दिखाये गये और आयोग का बहिष्कार हुआ । 

बिहार सोशलिस्ट पार्टी 

  • 1931 में ही गंगाशरण सिन्हा, रामवृक्ष बेनीपुरी और रामानंद मिश्र आदि ने बिहार सोशलिस्ट पार्टी नामक एक संगठन स्थापित किया । 
  • 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की औपचारिक स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष आचार्य नरेन्द्र देव और सचिव जयप्रकाश नारायण थे । 
  • इसके अन्य सदस्यों में रामवृक्ष बेनीपुरी, गंगाशरण सिन्हा, योगेन्द्र शुक्ल, अब्दुल बारी, कर्पूरी ठाकुर और बसावन सिंह आदि प्रमुख थे। एक ओर जहाँ इनका तालमेल काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से रहा वहीं दूसरी ओर इन्होंने किसानों और मजदूरों को संगठित करने और राजनैतिक स्तर पर सचेत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया । 
  • 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी इनकी गतिविधियाँ बहुत बड़े पैमाने पर रहीं। इन नेताओं ने इस आंदोलन के दौरान ‘सर्वस्व त्याग’ का ज्वलंत आदर्श देशवासियों के समक्ष रखा । 
  • ऐसे ही उद्देश्यों से प्रेरित एक अन्य संगठन फॉरवर्ड ब्लॉक था, जिसके संस्थापक सुभाषचन्द्र बोस थे। 20 अक्तूबर, 1940 को बिहार प्रान्तीय फॉरवर्ड ब्लॉक की कार्यकारिणी की बैठक पटना में हुई थी । 
  • इस संगठन पर सरकार की कड़ी निगरानी थी और मार्च, 1942 तक ही इसके प्रमुख नेता बिहार में कैद किये जा चुके थे । 

सविनय अवज्ञा आंदोलन 

  • दिसंबर, 1929 में कॉंग्रेस के लाहौर अधिवेशन में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ । इसकी अध्यक्षता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने की । 
  • इस अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव भी पारित हुआ तथा 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाने का फैसला हुआ ।
  • 26 जनवरी, 1930 को बिहार में स्वाधीनता दिवस उत्साहपूर्ण ढंग से मनाया गया ।
  • 12 मार्च, 1930 को गाँधीजी की डांडी यात्रा आरंभ हुई और 5 अप्रैल को उन्होंने नमक कानून का उल्लंघन कर सत्याग्रह प्रारंभ किया। इस नमक सत्याग्रह में बिहार के बेरि (दरभंगा) निवासी एवं गाँधीजी के निकट सहयोगी श्री गिरिवरधारी चौधरी (उर्फ कारो बाबू), जिन्होंने ‘बापू’ के साथ साबरमती आश्रम में काफी समय बिताया, शामिल हुए थे । 
  • बापू के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के लिए प्रस्थान करने वाले 78 स्वयंसेवकों में गिरिवरधारी चौधरी बिहार के एकमात्र प्रतिनिधि थे । 
  • बिहार में नमक सत्याग्रह का आरंभ, 15 अप्रैल, 1930 को चम्पारण और सारण जिलों में नमकीन मिट्टी से नमक बना कर किया गया । 
  • इस आंदोलन का नेतृत्व पटना में जगतनारायण लाल, सारण में गिरीश तिवारी, चंद्रिका सिंह आदि, मुजफ्फरपुर में रामदयालु सिंह, रामनंदन सिंह आदि, मुंगेर में श्रीकृष्ण सिंह, दरभंगा में सत्यनारायण सिन्हा आदि ने किया । 
  • 4 मई, 1930 को गाँधीजी की गिरफ्तारी हुई। इसके विरोध में पूरे बिहार में प्रदर्शन हुए तथा 9 मई, 1930 को बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी ने विदेशी वस्त्रों और शराब की दुकानों के आगे धरने का प्रस्ताव रखा | 
  • इसी आंदोलन के क्रम में बिहार में चौकीदारी कर बंद कर देने के लिए भी आंदोलन हुए 
  • 26 जनवरी, 1932 को समस्त बिहार में स्वाधीनता दिवस मनाया गया । 
  • 7 अप्रैल, 1934 को गाँधीजी ने अपने एक वक्तव्य में सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करने की सलाह दी । 
  •  18 मई, 1934 को बिहार प्रदेश काँग्रेस कमिटी ने इसका समर्थन किया तथा बिहार में यह आंदोलन स्थगित हो गया । 

नखासपिंड आंदोलन 

  • नखासपिंड आंदोलन का योगदान विशेष रूप से सविनय अवज्ञा आंदोलन के दिनों में नमक कानून भंग करने में रहा है। 
  • नखासपिंड नामक स्थान पटना जिला में है जिसे नमक कानून भंग करने के लिए चुना गया था ।
  • पटना में 16 से 21 अप्रैल, 1930 के बीच ‘नखासपिंड चलो’ का नारा गूंजा करता था । यहाँ के लोगों ने महात्मा गाँधी के आह्वान पर नमक सत्याग्रह चलाते रहने का दृढ़ संकल्प लिया और पुलिस के जुल्म के आगे कभी नहीं झुके । 
  • 16 अप्रैल, 1930 को ‘सर्चलाइट’ के मैनेजर और पटना नगर काँग्रेस कमिटी के सचिव अम्बिका कान्त सिंह के नेतृत्व में लोगों का एक जत्था पटना के नखासपिंड नामक स्थान की ओर नमक कानून भंग करने के लिए चला । 
  • परंतु पुलिस द्वारा इसे रास्ते में ही रोक कर कुछ लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया । 
  • इससे लोगों में उत्तेजना फैल गई और पुलिस से उनका संघर्ष हुआ । 
  • इसी बीच दूसरी तरफ से कुछ जत्थे नखासपिंड पहुँच गये और नमक बनाकर नमक कानून भंग किया । 
  • इस आंदोलन में बिहार के अनेक प्रमुख नेताओं ने भाग लिया था, जिसमें प्रमुख हैं— प्रो० अब्दुल बारी, राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य जे० बी० कृपलानी आदि । 

भारत छोड़ो आंदोलन (1942) 

  • 5 अगस्त, 1942 को बम्बई में काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया । 
  • अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने इस प्रस्ताव को 8 अगस्त को स्वीकार किया तथा गाँधीजी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । 
  • 9 अगस्त को सरकार ने अध्यादेश जारी करके कॉंग्रेस को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया ।
  • 9 अगस्त, 1942 को राजेन्द्र प्रसाद, मथुरा बाबू, श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह बाबू इत्यादि बिहार के नेता गिरफ्तार कर लिये गये, जबकि श्री बलदेव सहाय ने सरकारी नीति के विरोध में महाधिवक्ता के पद से इस्तीफा दे दिया । 
  • सीताराम केसरी, श्रीकृष्ण सिंह, श्रीमती भागवती देवी आदि ने आंदोलन को संगठित करने में अहम् भूमिका निभायी । 
  • 11 अगस्त, 1942 को विद्यार्थियों के एक जुलूस ने पटना में सचिवालय भवन के पूर्वी गेट पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया । 
  • छात्रों की इस कार्रवाई पर पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्चर के आदेश पर पुलिस ने निहत्थे छात्रों पर अंधाधुंध गोलियां चलायी । 
  • इस गोलीकांड में सात छात्र उमाकांत प्रसाद सिंहा, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, देवीपद चौधरी, राजेन्द्र सिंह, रामगोविन्द सिंह और जगपति कुमार शहीद हो गये तथा अनेक छात्र घायल हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस स्थान पर शहीद स्मारक का निर्माण हुआ । 
  • इस स्मारक का शिलान्यास जहाँ बिहार के प्रथम राज्यपाल जयराम दास दौलतराम के हाथों 15 अगस्त, 1947 को हुआ, वहीं इसका औपचारिक अनावरण देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा 1956 में हुआ । 

पटना- सचिवालय गोलीकांड (11 अगस्त, 1942 ) के शहीद 

  • उमाकांत प्रसाद सिंहा उर्फ रमण जी – नरेन्द्रपुर, सारण 
  • रामानंद सिंह – शहादत नगर ( वर्तमान धनरुआ), पटना 
  • सतीश प्रसाद झा – खड़हरा, भागलपुर
  • जगपति कुमार – खराटी ( ओबरा थाना), औरंगाबाद
  • देवीपद चौधरी – सिलहट, जमालपुर
  • राजेन्द्र सिंह – बनवारी चक, सारण
  • रामगोविन्द सिंह – दशरथा, पटना

 

  • इस गोलीकांड के विरोध में 12 अगस्त, 1942 को पटना में पूर्ण हड़ताल रही । 
  • उसी दिन शाम में कदमकुआँ (पटना) स्थित कॉंग्रेस मैदान में आयोजित सभा में जगत नारायण लाल की अध्यक्षता में संचार सुविधाओं की ठप करने तथा सरकारी कार्यों की शिथिल बना देने का प्रस्ताव पारित हुआ । फलस्वरूप पूरे बिहार में उग्र आंदोलन की लहर चल पड़ी । > बिहार के समाजवादियों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इस आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने हजारीबाग जेल से पलायन कर नेपाल के हनुमान नगर में शरण ली।
  • जयप्रकाश के नेतृत्व में नेपाल में क्रांतिकारी युवकों को छापामार युद्ध की शिक्षा देने के लिए 
  • एक केन्द्र संगठित हुआ । नेपाल में ही ‘आजाद दस्ते’ का गठन किया गया ।  
  • 1943 के मार्च अप्रैल में नेपाल के राजविलास जंगल में आजाद दस्ते के पहले प्रशिक्षण शिविर का गठन हुआ, जिसमें सरदार नित्यानंद सिंह के निर्देशन में बिहार के पच्चीस युवकों को आग्नेयास्त्र चलाने की शिक्षा दी गयी । 
  • ‘आजाद दस्ते’ के कार्यक्रम में जयप्रकाश के साथ भाग लेनेवाले प्रमुख समाजवादी लोग थे – राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्द्धन, योगेन्द्र शुक्ल, रामनन्दन मिश्र, सूरजनारायण सिंह, सीताराम सिंह, गंगाशरण सिंह आदि । 
  • 1943 के अंत तक यह आजाद दस्ता सक्रिय रहा। परन्तु नेपाल सरकार द्वारा राममनोहर 
  • लोहिया आदि क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिये जाने के कारण यह शिथिल पड़ गया ।
  • जयप्रकाश नारायण इस काल में भूमिगत गतिविधियों में सक्रिय रहे तथा उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द सरकार से भी सम्पर्क करने का प्रयास किया था, हालांकि यह संभव नहीं हुआ । 
  • 1942 के आंदोलन के क्रम में हिंसा और पुलिस दमन के असंख्य उदाहरण सामने आये ।
  • सिवान थाने पर राष्ट्रीय झंडा लहराने की कोशिश में फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव पुलिस की गोलियों का शिकार हुए। 
  • सारण में जगलाल चौधरी ने पुलिस थाने को जला डाला । चम्पारण में एक पृथक् सरकार बना ली गयी । 
  • दरभंगा में कुलानंद वैदिक और सिंघवारा में कर्पूरी ठाकुर ने संचार व्यवस्था को ठप कर दिया ।
  • मुजफ्फरपुर के पास थाने को जला डाला गया जबकि गया के कुर्था थाने पर झंडा लहराने की कोशिश में श्याम बिहारी लाल मारे गये । 
  • कटिहार थाने पर झंडा लगाने की कोशिश में ध्रुव कुमार को पुलिस ने गोली मार दी।
  • डुमराँव में ऐसे ही प्रयास के फलस्वरूप कपिल मुनि को पुलिस ने गोली मार दी ।
  • छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासियों ने और विशेषकर ताना भगत आंदोलनकारियों ने भी अपने क्षेत्र में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी । पलामू, हजारीबाग, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और दरभंगा के क्षेत्रों में कई स्थानों पर क्रांतिकारी सरकारें संगठित कर ली गयीं । 
  • गाँवों में पंचायतों और रक्षा दलों की स्थापना की जाने लगी और राष्ट्रवादियों ने वस्तुतः समानान्तर सरकार की स्थापना कर ली । 
  • भारत छोड़ो आन्दोलन में बिहार में 15,000 से अधिक व्यक्ति बंदी बनाये गये । 8783 को सजा हुई, 134 व्यक्ति मारे गये और 362 घायल हुए, जिसने अंततः सरकार को अपना रूख बदलने पर बाध्य कर दिया । 
  • 1945 में राजनैतिक प्रक्रिया बहाल हुई और युद्ध की समाप्ति के बाद पुनः चुनाव हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति 
  • द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के उपरान्त 1945 में इंगलैंड में चुनाव हुए और मजदूर दल सत्ता में आया। प्रधानमंत्री क्लीमेन्ट एटली ने भारत में सत्ता हस्तांतरण का प्रस्ताव रखा। 
  • 24 मार्च, 1946 को ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन सदस्य पैथिक लॅॉरन्स, स्टैफर्ड क्रिप्स और 
  • ए० वी० अलेक्जेण्डर से युक्त कैबिनेट मिशन भारत आया । 
  • इस मिशन के द्वारा संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के उपाय सुझाये गये। लेकिन इन प्रस्तावों को सामान्य स्वीकृति नहीं मिल सकी । 
  • देश भर में चुनाव हुए, किन्तु काँग्रेस और मुस्लिम लीग में गतिरोध बने रहने के कारण सरकार निर्माण में आरंभ में हालांकि बाधा पहुँची परन्तु अंततः 2 दिसम्बर, 1946 को काँग्रेस द्वारा सरकार का गठन हुआ इस सरकार में बिहार के डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और जगजीवन राम शामिल हुए । 
  • 9 दिसम्बर, 1946 को स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का सत्र डाक्टर सच्चिदानंद सिन्हा ( अस्थायी अध्यक्ष ) की अध्यक्षता में आरंभ हुआ। बाद में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद संविधान निर्मात्री सभा के पूर्णकालीन अध्यक्ष बने । 
  • काँग्रेस और मुस्लिम लीग में देश के विभाजन के प्रश्न पर समझौता हो जाने के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया । 
  • 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ बिहार भारतीय संघ एक राज्य में परिवर्तित हो गया । 
  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्वायत्तता लागू करने का फैसला हुआ, ताकि प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की जा सके। इसके पश्चात् सभी पार्टियाँ चुनाव की तैयारी में लग गयीं । 
  • 1935 में प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में बिहार में काँग्रेस का स्वर्ण जयंती वर्ष धूमधाम से मनाया गया । 
  • जनवरी, 1936 में छह वर्षों के प्रतिबंध के बाद बिहार राजनीतिक सम्मेलन का 19वां अधिवेशन पटना में आयोजित हुआ, जिसकी अध्यक्षता रामदयालु सिंह ने की । ।
  • जवाहरलाल नेहरू ने बिहार के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा करके काँग्रेस के लिए सघन प्रचार कार्य किया ।
  • 22 से 27 जनवरी, 1937 के मध्य बिहार के 152 निर्वाचन मंडल क्षेत्रों में चुनाव संपन्न हुए । 
  • इसमें कॉंग्रेस ने अपने 107 प्रत्याशी खड़े किये थे, जिनमें 98 प्रत्याशी विजयी रहे।  
  • दोनों सदनों को मिलाकर काँग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ । 
  • 17-18 मार्च, 1939 को काँग्रेस की नयी दिल्ली बैठक में प्रांतों में मंत्रिमंडल गठित करने की अनुमति दी गयी । 
  • मंत्रिमंडल गठित करने का आमंत्रण पाकर श्रीकृष्ण सिंह ने जब गवर्नर एम. जी. हैलेट से अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग न करने का आश्वासन माँगा तो उन्होंने इंकार कर दिया । परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण सिंह ने सरकार बनाने से मना कर दिया। इसके बाद दूसरी बड़ी पार्टी ‘इंडिपेंडेंट पार्टी’ के मोहम्मद युनूस को सरकार बनाने का निमंत्रण मिला, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया । 
  • इस प्रकार मोहम्मद युनूस बिहार के पहले भारतीय प्रधानमंत्री ( उस समय प्रांतीय सरकार के प्रधान को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) बने । 1 अप्रैल, 1937 को गठित इस मंत्रि परिषद् में मो० युनूस के अतिरिक्त वहाव अली, कुमार अजीत प्र० सिंह और गुरु सहाय लाल शामिल हुए। परंतु काँग्रेस पार्टी ने गवर्नर के इस कदम का विरोध किया । 
  • 21 जून, 1937 को वायसराय लिनलिथगो ने आश्वासन दिया कि भारतीय मंत्रियों के वैधानिक कार्यों में राज्यपाल हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इसके उपरान्त कॉंग्रेस कार्यकारिणी ने सरकार बनाने का फैसला किया। फलतः मोहम्मद युनूस को त्याग पत्र देना पड़ा ।