मौर्य साम्राज्य (322 ई.पू.- 185 ई.पू.)
- मौर्य वंश से संबंधित जानकारी विभिन्न स्रोतों से मिलती है
- साहित्यिक साक्ष्य
- विदेशी विवरण
- पुरातात्त्विक साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य
- अर्थशास्त्र,पुराण,मुद्राराक्षस नाटक ,बौद्ध एवं जैन ग्रंथ आदि
विदेशी विवरण
- मेगस्थनीज,स्ट्रैबो ,कर्टियस ,डाइमेकस ,डाइनोसिस आदि।
पुरातात्त्विक साक्ष्य
- अशोक के अभिलेख
- जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख
- काली पॉलिश वाले मृद्भांड
- भवन : स्तूप एवं गुफ़ा
- मुद्रा : आहत मुद्रा (पंचमार्क)
साहित्यिक साक्ष्य
- ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन साहित्य मौर्य वंश के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं।
- ब्राह्मण साहित्य में पुराण, कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, सोमदेव कृत कथासरित्सागर, क्षेमेन्द्र कृत बृहत्कथामंजरी तथा पतंजलि के महाभाष्य आदि से जानकारी मिलती है।
- बौद्धग्रंथों में दीपवंश, महावंश, महावंश टीका, महाबोधिवंश, दिव्यावदान आदि प्रमुख हैं। इनसे चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक तथा परवर्ती मौर्य शासकों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
- जैन ग्रंथों में प्रमुख स्रोत ग्रंथ हैं- भद्रबाहु का कल्पसूत्र एवं हेमचंद्र का परिशिष्टपर्वन।
नोट: इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ‘अर्थशास्त्र’ है, जो मौर्य प्रशासन के अतिरिक्त चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर भी प्रकाश डालता है।
विदेशी विवरण
- विदेशी लेखकों में स्ट्रैबो, कर्टियस, डियोडोरस, प्लिनी, एरियन, जस्टिन, प्लूटार्क, नियार्कस, ऑनेसिक्रिटस व अरिस्टो ब्यूलस आदि हैं जिन्होंने मौर्य वंश के बारे में लिखा है।
इण्डिका
- मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’ मौर्य इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराने का प्रमुख स्रोत है। परंतु यह अपने मूलरूप में प्राप्त नहीं हुई है, बल्कि इसके कुछ भाग परवर्ती लेखकों के ग्रंथों से प्राप्त होते हैं। इनमें स्ट्रैबो, प्लिनी, एरियन, प्लूटार्क तथा जस्टिन के नाम उल्लेखनीय हैं।
- जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने चंद्रगुप्त मौर्य को ‘सैंड्रोकोट्टस‘ कहा है।
- सर्वप्रथम विलियम जोन्स ने ही ‘सेंड्रोकोट्टस’ की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से की है।
- मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था, जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आयो। इसने ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र का विस्तार से वर्णन किया।
पुरातात्त्विक साक्ष्य
- इस काल के पुरातात्त्विक साक्ष्यों में अशोक के अभिलेख अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे अशोक के शासनकाल की समस्त जानकारी मिलती है।
- अशोक के 40 से अधिक अभिलेख भारत, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के विभिन्न भागों से प्राप्त हुए हैं।
- अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त शक महाक्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख भी मौर्य इतिहास के विषय में जानकारी प्रदान करता है।
- मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी काली पॉलिश वाले मृभांड तथा चांदी व तांबे के ‘पंचमार्क’ (आहत सिक्के) से भी मिलती है।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना
- चौथी शताब्दी ई. पू. मगध में नंद वंश के शासक धनानंद का शासन था। साक्ष्यों से पता चलता है कि धनानंद एक क्रूर और अत्याचारी शासक था।
- मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने राजनीतिक गुरु चाणक्य के साथ मिलकर इसी नंद वंशीय शासक धनानंद को पराजित कर मगध में मौर्य वंश की स्थापना की। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
- चंद्रगुप्त मौर्य, मौर्य वंश का प्रथम राजा और संस्थापक था।
- उसकी माता का नाम मूर था जिसका संस्कृत में अर्थ मौर्य होता है, इसलिये इस वंश का नाम मौर्य वंश पड़ा।
- मौर्य वंश के शासक किस ‘वर्ण’ के थे, इसको लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। लेकिन बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में उसे (चंद्रगुप्त) ‘मोरिय क्षत्रिय’ कहा गया है। ऐसा इसलिये भी प्रामाणिक लगता है क्योंकि चंद्रगुप्त का गुरु चाणक्य वर्णाश्रम धर्म का प्रबल पोषक था जिसके अनुसार क्षत्रिय वर्ण का व्यक्ति ही राजत्व का अधिकारी हो सकता था।
मौर्य वंश के प्रमुख शासक
चंद्रगुप्त मौर्य (322 ई.पू.-298 ई.पू.)
- चंद्रगुप्त मौर्य चाणक्य की सहायता से अंतिम नंद वंशीय शासक धनानंद को पराजित कर 322 ई. पू. में मगध की गद्दी पर बैठा।
- चंद्रगुप्त मौर्य के वंश और जाति के संबंध में विद्वान एकमत नहीं हैं।
- कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण साहित्य, मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण आदि के आधार पर इसे शूद्र माना है।
- बौद्ध एवं जैन ग्रंथ के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय था। अधिकांश विद्वान इसी मत से सहमत हैं।
कौटिल्य/चाणक्य
- महावंश टीका में उल्लेख मिलता है कि चाणक्य तक्षशिला निवासी एक ब्राह्मण था। चाणक्य का पालन-पोषण और शिक्षा उसकी माता के संरक्षण में हुआ।
- ‘मुद्राराक्षस’ में कहा गया है कि राजा नंद ने भरे दरबार में चाणक्य को उसके उस सम्मानित पद से हटा दिया जो उसे दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि “वह उसके परिवार तथा वंश को समूल नष्ट करके नंद से बदला लेगा।”
- ‘बृहत्कथाकोश’ के अनुसार चाणक्य की पत्नी का नाम यशोमती था।
- चंद्रगुप्त एवं चाणक्य ने मिलकर नंद वंश का उन्मूलन कर मौर्य वंश की नींव डाली।
- चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान (फारस) से लेकर पूर्व में बंगाल तक, उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक (मैसूर) तक फैला हुआ था।
- चंद्रगुप्त मौर्य ने तत्कालीन यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित किया। संधि हो जाने के पश्चात् सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से 500 हाथी लेकर बदले में एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया (बलूचिस्तान) एवं पेरीपेनिसदाई (काबुल) के क्षेत्रों का कुछ भाग सौंपा और अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त से किया। इस वैवाहिक संबंध का विवरण सिर्फ एप्पियानस नामक यूनानी ही देता है।
- सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज को चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। यूनानी लेखकों ने पाटलिपुत्र को ‘पालिब्रोथा’ के नाम से संबोधित किया।
- मेगस्थनीज मौर्य दरबार में काफी समय तक रहा। भारत में रहकर उसने जो कुछ देखा-सुना उसे उसने ‘इण्डिका‘ नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया। बंगाल पर चंद्रगुप्त मौर्य की विजय के बारे में जानकारी महास्थान अभिलेख से मिलती है।
- इसकी दक्षिण भारत की विजय के विषय में जानकारी तमिल ग्रंथ ‘अहनानूर’ एवं ‘मुरनानूर’ तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है।
- सोहगौरा ताम्रपत्र (गोरखपुर) तथा महास्थान अभिलेख (बांग्लादेश के बोगरा जिले) चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित हैं। ये अभिलेख अकाल के समय किये जाने वाले राहत कार्यों के संबंध में विवरण देते हैं।
अर्थशास्त्र
- विष्णुगुप्त /कौटिल्य /चाणक्य) रचित ‘अर्थशास्त्र’ प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें चक्रवर्ती सम्राट, राजा के कर्तव्य, विस्तृत कर प्रणाली तथा सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
- रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अधीन कर लिया था। इस प्रदेश में पुष्यगुप्त जो चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था, पुष्यगुप्त ही सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था।
- चंद्रगुप्त मौर्य जैन मतानुयायी था।
- उसने अपने जीवन के अंतिम चरण में पुत्र के पक्ष में सिंहासन छोड़कर जैनमुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ली और श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में जाकर 298 ई. पू. में उपवास द्वारा शरीर त्याग दिया। इसे जैन धर्म में ‘सल्लेखना/संथारा’ कहा जाता है।
चंद्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन
- चंद्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता, साम्राज्य निर्माता तथा कुशल प्रशासक था।
- चंद्रगुप्त की प्रशासनिक योग्यता अपने समय में उत्कृष्ट थी। मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था कालांतर की सभी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार कही जा सकती है। यह बहुत कुछ चंद्रगुप्त की रचनात्मक प्रतिभा तथा उसके गुरु एवं प्रधान कौटिल्य की राजनीतिक सूझबूझ का ही परिणाम थी।
- जैन धर्म के मतानुसार, चंद्रगुप्त एक राजर्षि था जिसने जीवन के अंतिम दिनों में सुख-वैभव त्यागकर जैन परंपरा के अनुसार मृत्यु का वरण किया।
बिंदुसार. (298 ई.पू.- 273 ई.पू.)
- चंद्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी बिंदुसार हुआ, जो 298 ई. पू. में ‘ मगध की राजगद्दी पर बैठा।
- बिंदुसार, ‘अमित्रघात’ नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ होता है- ‘शत्रु विनाशक‘।
- बिंदुसार को वायुपुराण में भद्रसार/मद्रसार तथा जैन ग्रंथों में ‘सिंहसेन’ कहा गया है।
- नोटः स्ट्रैबो के अनुसार, सीरिया का शासक एंटियोकस प्रथम ने डायमेकस नामक एक राजदूत बिंदुसार के दरबार में भेजा, जो मेगस्थनीज का उत्तराधिकारी माना जाता था।
- बिंदुसार के शासनकाल में तक्षशिला में हुए दो विद्रोहों का वर्णन मिलता है। इस विद्रोह को दबाने के लिये बिंदुसार ने पहले सुसीम को और बाद में अशोक को भेजा।
- एथीनियस नामक एक अन्य यूनानी लेखक ने बिंदुसार तथा सीरिया के शासक एंटियोकस प्रथम के बीच मैत्रीपूर्ण पत्र-व्यवहार का वर्णन किया है, जिसमें भारतीय शासक ने तीन चीजों की मांग की थी
- 1. सूखी अंजीर 2. अंगूरी मदिरा . 3. एक दार्शनिक
- सीरियाई सम्राट ने दो चीजें (अंगूरी मदिरा तथा सूखी अंजीर) भिजवा दी, परंतु तीसरी मांग के संबंध में कहा कि यूनानी कानून के अनुसार दार्शनिकों का विक्रय नहीं किया जा सकता है।
- मिस्र के शासक टॉलेमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने ‘डायनोसिस‘ नामक राजदूत बिंदुसार के दरबार में भेजा।
- ‘दिव्यावदान’ से ज्ञात होता है कि उसकी राजसभा में आजीवक संप्रदाय का एक ज्योतिषी पिंगलवत्स निवास करता था।
- बिंदुसार के काल में भी चाणक्य प्रधानमंत्री था।
अशोक (273 ई.पू.-232 ई.पू.)
- अशोक बिंदुसार का पुत्र था।
- अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई. पू. में हुआ। इससे पहले अशोक उज्जैन का राज्यपाल था।
- जैन अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बिंदुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार कर लिया।
- सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर सिंहासन प्राप्त किया।
- महाबोधिवंश तथा तारानाथ के अनुसार सत्ता प्राप्ति के लिये गृहयुद्ध में अपने भाइयों का वध करके अशोक ने साम्राज्य प्राप्त किया।
- अशोक को उसके अभिलेखों में सामान्यतः ‘देवनांपिय पियदसि’ (देवों का प्यारा) उपाधि दी गई हैं।
- अशोक नाम का उल्लेख मास्की, गुर्जरा, नेटूर तथा उदेगोलम अभिलेख में ही मिलता है।
- पुराणों में उसे ‘अशोकवर्धन’ तथा दीपवंश में ‘करमोली’ कहा गया है।
- राज्याभिषेक से संबंधित मास्की के लघु शिलालेख में अशोक ने स्वयं को बुद्ध शाक्य कहा है। |
- नोटः 1750 में टीफेथैलर ने सबसे पहले दिल्ली में अशोक के स्तंभ का पता लगाया, किंतु अशोक के अभिलेखों को सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई. में पढ़ा।
कलिंग युद्ध
- अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष लगभग 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया और कलिंग की राजधानी तोसली पर अधिकार कर लिया।
- यह वर्तमान ओडिशा के दक्षिणी भाग में स्थित है।
- अशोक के तेरहवें अभिलेख से कलिंग युद्ध के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
- कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से विचलित अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिये त्याग दिया।
- कई अभिलेखों से स्पष्ट हो जाता है कि उसका साम्राज्य उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत (अफगानिस्तान) से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तथा पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था।
- कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से पता चलता है कि उसका अधिकार कश्मीर पर भी था। इसके अनुसार उसने वहाँ धर्मारिणी विहार में ‘अशोकेश्वर’ नामक मंदिर की स्थापना करवाई थी। कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में देवपत्तन नामक नगर बसाया।
अशोक का धार्मिक जीवन
- अशोक शुरुआत में ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था परंतु बाद में बौद्ध अनुयायी बन गया।
- ‘राजतरंगिणी‘ के अनुसार ‘अशोक शैव धर्म का अनुयायी था’। उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘देवानांपिय पियदसि‘ कहा गया है, जिसका अर्थ है- देवताओं का प्रिय या देखने में सुंदर। इससे उसके हिंदू धर्म में आस्था के संकेत मिलते हैं।
- सिंहली अनुश्रुतियों (दीपवंश एवं महावंश) के अनुसार, अशोक ने अपने शासन के चौथे वर्ष में बड़े भाई सुमन पुत्र निग्रोध के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म अपना लिया।
- उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी।
- नोटः अशोक ने आजीविकों के रहने हेतु बराबर की पहाड़ियों में चार गुफाओं का निर्माण करवाया, जिनका नाम लोमश ऋषि गुफा, कर्ण चोपार, सुदामा गुफा तथा विश्व झोपड़ी था।
- अशोक ने अपने शासन के दसवें वर्ष सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की और इसके बाद अभिषेक के बीसवें वर्ष लुंबिनी ग्राम गया।
- लुंबिनी ग्राम को उसने कर मुक्त घोषित कर दिया तथा केवल 1/8 भाग कर के रूप में लेने की घोषणा की।
- भाब्रू से प्राप्त लघु शिलालेख में अशोक स्पष्टतः बुद्ध, धम्म तथा संघ का अभिवादन करता है।
- सारनाथ, साँची तथा कौशांबी के लघु स्तंभों से भी अशोक के बौद्ध होने का प्रमाण मिलता है।
- बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अशोक ने आखेट तथा विहार यात्राएँ रोक दी तथा उनके स्थान पर धर्म यात्राएँ प्रारंभ की।
- वह महात्मा बुद्ध के चरणों से पवित्र हुए स्थानों पर गया तथा उनकी पूजा की। उसकी यात्राओं का क्रम इस प्रकार है- बोधगया, कुशीनगर, लुंबिनी, कपिलवस्तु, सारनाथ तथा श्रावस्ती।
अशोक द्वारा भेजे गए धर्म प्रचारक
अशोक का धम्म
- अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिये जिन नियमों की संहिता प्रस्तुत की, उसे उसके अभिलेख में ‘धम्म’ कहा गया है।
- ‘धम्म’ संस्कृत के ‘धर्म’ का ही प्राकृत रूपान्तर है। अशोक के धम्म की परिभाषा ‘राहुलोवादसुत्त’ से ली गई है।
- स्वनियंत्रण अशोक की धम्म नीति का मूल सिद्धांत है। अशोक अपने दूसरे एवं सातवें स्तंभ लेखों में धम्म के गुणों को बताता है, जो इस प्रकार हैं – साधुता, मृदुता, पवित्रता, सत्यवादिता, दान, दया, कल्याण आदि।
- विहार यात्रा के रूप में प्रचलित यात्रा को अशोक ने अपने 8वें शिलालेख में धम्मयात्रा के रूप में परिवर्तित कर दिया।
- अशोक ने धम्म के प्रचार के लिये नियुक्त रज्जुकों, प्रादेशिकों एवं युक्तों को यह आज्ञा दी गई थी कि वे प्रत्येक पाँचवें वर्ष राज्यों का भ्रमण करें और जनता को धर्मोपदेश दें। अभिलेखों में इसे ‘अनुसंधान’ कहा गया है।
- अशोक ने धम्म के विचारों को प्रसारित करने के लिये सीरिया, मिन, ग्रीस तथा श्रीलंका आदि देशों में दूत भेजे।
अशोक के अभिलेख
- भारत में शिलालेख का प्रचलन सर्वप्रथम अशोक ने किया।
- अशोक के अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किये गए। वह पहला शासक था, जिसने अभिलेखों के द्वारा जनता को संबोधित किया।
- अशोक के अभिलेखों का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है
- शिलालेख – इन्हें दो वर्गों वृहद् शिलालेख तथा लघु शिलालेख में बाँटा जा सकता है।
- स्तंभ लेख – इन्हें दीर्घ स्तंभलेख एवं लघु स्तंभलेख में विभाजित किया जाता है।
- गुहालेख – ये गुफाओं में उत्कीर्ण लेख हैं।
नोट: अशोक के वृहद् शिलालेखों की संख्या चौदह है, जो आठ स्थानों से प्राप्त हुए हैं (कुछ स्रोतों में सात स्थान)
- अशोक के दीर्घ स्तंभ लेखों की संख्या 7 है जो छः भिन्न स्थानों में पाषाण स्तंभों पर उत्कीर्ण पाये गए हैं, जैसे-
- कुछ स्तंभों पर केवल एक लेख है, अतः उन्हें 7 दीर्घ स्तंभ लेखों के क्रम से अलग रखा गया है और वे लघु स्तंभ लेख कहे जाते हैं। इस प्रकार के लघु स्तंभ लेख साँची, सारनाथ, रुम्मिनदेई आदि स्थलों पर मिले हैं।
- अशोक के लघु शिलालेख, स्तंभ लेख (दीर्घ एवं लघु) एवं गुहालेखों की लिपि ब्राह्मी है।
नोटः केवल दो अभिलेखों शाहबाज़गढ़ी तथा मानसेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। खरोष्ठी लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी।
- अशोक के सभी अभिलेखों का विषय प्रशासनिक था, जबकि रुम्मिनदेई अभिलेख (सर्वाधिक छोटा अभिलेख) का विषय आर्थिक था।
- कौशांबी तथा प्रयाग के स्तंभ लेखों में अशोक की रानी कारुवाकी के द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख है। इसे ‘रानी का अभिलेख‘ भी कहा जाता है।
- अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं, उन्हें साधारण तौर पर लघु स्तंभ लेख कहा जाता है। गुहा लेख धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।
- फ़िरोज़शाह तुगलक ने मेरठ तथा टोपरा से अशोक स्तंभ दिल्ली मंगवाए थे।
- इलाहाबाद स्तंभ लेख पहले कौशांबी में था। अकबर के शासनकाल में जहाँगीर द्वारा इसे इलाहाबाद के किले में रखा गया।
- रामपुरवा स्तंभलेख चंपारण (बिहार) में स्थापित है। इसकी खोज 1872 ई. में कार्लाइल ने की।
- लौरिया-नंदनगढ़ (चंपारण, बिहार) स्तंभ पर मोर का चित्र बना हुआ है।
- अशोक का ‘शर-ए-कुना’ (कंधार) अभिलेख ग्रीक एवं अरमाइक भाषाओं में प्राप्त हुआ है।
अशोक का मूल्यांकन
- प्राचीन भारत के इतिहास में अशोक को महानतम सम्राटों में सबसे आगे रखा जाता है। अशोक के शासनकाल में भारतवर्ष ने अभूतपूर्व राजनीतिक एकता एवं स्थायित्व का साक्षात्कार किया।
- राष्ट्रीय एकता की समस्या को उसने अत्यंत कुशलतापूर्वक हल किया तथा संपूर्ण देश में एक भाषा, एक लिपि तथा एक ही प्रकार के कानून का प्रचलन करवाया। ऐसी व्यवस्था वर्तमान में भी प्रासंगिक हो सकती है।
- अशोक कला प्रेमी एवं कला का संरक्षक था।
- बौद्ध परंपरा उसे 84 हज़ार स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है।
- कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में देवपत्तन नामक दो नगरों की स्थापना भी उसने कराई थी।
- अशोक का साम्राज्य बहुत विशाल था, लेकिन राज्य विस्तार के हिसाब से उनकी महानता को मापना तर्कसंगत नहीं है। उनकी महानता तो उनके मानववादी सिद्धांतों के कारण है। इन्हीं उच्च सिद्धांतों के आधार पर ही उन्होंने शासन किया।
- अपने दसवें धम्म अभिलेख में उन्होंने कहा कि “राजा की कीर्ति का मूल्यांकन प्रजा की नैतिक उन्नति से किया जा सकता है।”
- यही कारण था कि सम्राट अशोक ने युद्ध का विनाशकारी मार्ग छोड़कर बुद्ध के शांतिपूर्ण मार्ग का अनुसरण किया।
- सही अर्थों में अशोक प्रथम राष्ट्रीय सम्राट था, जिसने विश्व इतिहास में भारत का नाम दर्ज कराया।
अशोक के उत्तराधिकारी
- अशोक की मृत्यु 232 ई.पू. के लगभग हुई।
- उसके एक लघुस्तंभ लेख में केवल एक पुत्र तीवर का उल्लेख मिलता है, जबकि अन्य स्रोत इसके विषय में मौन हैं।
- पुराणों में उल्लिखित दशरथ के विषय में पुरातात्त्विक साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। उसने आठ वर्षों तक शासन किया। वह अशोक की तरह ‘देवानामप्रिय’ की उपाधि धारण करता था।
- दशरथ ने बिहार प्रांत के गया जिले में स्थित नागार्जुनी पहाड़ी पर आजीवक संप्रदाय के साधुओं के निवास के लिये तीन गुफाएँ निर्मित करवाई थीं।
- सभी पुराण बृहद्रथ को ही मौर्य वंश का अंतिम शासक मानते हैं। उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग था।
- पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. के लगभग बृहद्रथ को सेना का निरीक्षण करते समय धोखे से उसकी हत्या कर दी।
- बृहद्रथ की मृत्यु के साथ ही मौर्य वंश का अंत हो गया।
मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था
- मौर्यकालीन प्रशासन लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित था।
- यह केंद्रीकृत स्वरूप लेने के बावजूद भी निरंकुश नहीं था।
- कौटिल्य ने राज्य की सप्तांग विचारधारा को प्रतिपादित किया।
- राज्य के सात अंग हैं- राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड और मित्र।
- इन सप्तांगों में कौटिल्य राजा को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है तथा शेष को अपने अस्तित्व के लिये राजा पर ही निर्भर बताता है।
सप्तांग सिद्धांत
- राजा (सिर) → अमात्य (आँख) -→ जनपद (जंघा) → दुर्ग (बाँह) → कोष (मुख) → दंड/बल/सेना (मस्तिष्क) → मित्र (कान) ।
अर्थशास्त्र में वर्णित प्रमुख तीर्थ एवं अध्यक्ष
- ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार मौर्य काल में उच्चाधिकारी ‘तीर्थ’ कहलाते थे।
- अर्थशास्त्र में कुल 18 तीर्थों की चर्चा मिलती है, जिनके लिये अधिकतर स्थानों पर ‘महामात्र‘ शब्द मिलता है। इसके अतिरिक्त 26 अध्यक्षों की चर्चा भी मिलती है।
मौर्यकालीन प्रांत
- चंद्रगुप्त मौर्य ने शासन की सुविधा हेतु अपने विशाल साम्राज्य को चार प्रांतों में विभाजित किया।
- उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला,
- दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरि,
- अवंति की राजधानी उज्जयिनी
- प्राची (मध्य देश) की राजधानी पाटलिपुत्र
- प्रांतों का शासन ‘राजवंशीय कुमार’ या ‘आर्यपुत्र‘ नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था।
- मौर्य काल में प्रांतों को ‘चक्र’ कहा जाता था, जो मंडलों में विभाजित थे।
- इन प्रांतों का शासन सीधे सम्राट द्वारा नियंत्रित न होकर उसके प्रतिनिधि द्वारा संचलित होता था।
- अशोक के समय में प्रांतों की संख्या चार से बढ़कर पाँच हो गई। पाँचवा प्रांत कलिंग था, जिसकी राजधानी तोसली थी।
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मौर्य प्रशासन का स्तरीय खंड
- 1. केंद्र
- 2. प्रांत/चक्र’ (प्रमुख अधिकारी ‘कुमार’ या आर्यपुत्र)
- 3. मंडल (प्रमुख अधिकारी प्रदेष्टा या प्रादेशिक)
- 4. आहार या विषय (जिला प्रमुख अधिकारी विषयपति या स्थानिक)
- 5. स्थानीय (800 ग्रामों का समूह)
- 6. द्रोणमुख (400 ग्रामों का समूह)
- 7. खार्वटिक (200 ग्रामों का समूह)
- 8. संग्रहण (10 ग्रामों का समूह)
- 9. ग्राम (प्रशासन की सबसे छोटी इकाई, प्रमुख अधिकारी ग्रामणी)
- ग्राम सभा एवं इसका प्रमुख गाँव के छोटे कार्यों एवं राजस्व संग्रहणं के लिये उत्तरदायी थे। गोप नामक प्रशासनिक कर्मचारी उनकी इस संबंध में सहायता करता था।
- सोहगौरा एवं महास्थान से ग्राम शासन की कुछ सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिसमें अन्नागारों एवं अन्न संचय का उल्लेख है।
- गोप गाँव में हदबंदी, भूमि एवं मकान का पंजीयन, कर की छूट एवं जनगणना का कार्य भी करता था।
- ग्राम का अध्यक्ष ‘ग्रामणी’ होता था, जिसे ग्राम की भूमि प्रबंध एवं सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था।
सैन्य व्यवस्था
- मौर्य राजाओं की सेना बहुत संगठित तथा बड़े आकार में व्यवस्थित थी। चाणक्य ने ‘चतुरंगबल‘ (पैदल सैनिक, घुड़सवार, हाथी और युद्ध रथ) को सेना का प्रमुख भाग बताया है।
- मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’ के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य के पास 6 लाख पैदल, 50 हज़ार अश्वारोही, 9 हज़ार हाथी तथा 800 रथों से सुसज्जित विराट सेना थी।
- जस्टिन चंद्रगुप्त की सेना को ‘डाकुओं का गिरोह‘ कहता है।
- कौटिल्य ने सेना को तीन श्रेणियों में विभाजित किया
- 1. पुश्तैनी सेना
- 2. भाटक सेना
- 3. नगरपालिका सेना
न्याय व्यवस्था
- मौर्य काल में मौर्य सम्राटसर्वोच्च तथा अंतिम न्यायालय एवं न्यायाधीश था।
- ग्राम सभा सबसे छोटा न्यायालय था, जहाँ ग्रामणी तथा ग्रामवृद्ध अपना निर्णय देते थे। इसके ऊपर मुख्यतः संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय तथा जनपद के न्यायालय थे।
- ‘अर्थशास्त्र’ में दो तरह के न्यायालयों की चर्चा की गई है- धर्मस्थीय तथा कंटकशोधन।
- धर्मस्थीय न्यायालय के द्वारा दीवानी अर्थात् स्त्रीधन तथा विवाह संबंधी विवादों का निपटारा होता था, जबकि कंटकशोधन न्यायालय द्वारा फौजदारी मामले अर्थात् हत्या तथा मारपीट जैसी समस्याओं का निपटारा होता था।
गुप्तचर व्यवस्था
- गुप्तचर से संबंधित विभाग को ‘महामात्यापसर्प’ कहा जाता था।
- अर्थशास्त्र में गुप्तचरों को गूढ़पुरुष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को ‘सर्पमहामात्य’ कहा गया है।
- अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन है, संस्था- जो संगठित होकर कार्य करते थे तथा संचरा– जो घुमक्कड़ थे।
- गुप्तचर के अलावा शांति व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस भी थी, जिसे अर्थशास्त्र में ‘रक्षिण‘ कहा गया है।
मौर्यकालीन सामाजिक व्यवस्था
- मौर्यकालीन समाज की संरचना का ज्ञान हमें मुख्यतः कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’, मेगस्थनीज का यात्रा वृत्तांत ‘इण्डिका’, अशोक के अभिलेख तथा रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होता है।
- मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है-दार्शनिक, किसान, अहीर, कारीगर व शिल्पी, सैनिक, निरीक्षक तथा सभासद। इनमें सर्वाधिक संख्या किसानों की थी।
दास व्यवस्था
- मेगस्थनीज तथा स्ट्रैबो के अनुसार भारत में दास प्रथा नहीं थी, जबकि मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान था।
- त्रिपिटक में चार प्रकार तथा कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकार का उल्लेख मिलता है।
- कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार मौर्य काल में दासों को कृषि कार्यों में बड़े पैमाने पर लगाया गया।
स्त्रियों की स्थिति
- मौर्यकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति स्मृति काल की अपेक्षा अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह व नियोग की अनुमति थी।
- स्त्रियों को प्रशासन में शामिल किया जाता था।
- स्त्री एवं पुरुष दोनों को मोक्ष (तलाक) लेने का अधिकार प्राप्त था।
- कौटिल्य ने ‘मोक्ष’ शब्द तलाक के लिये प्रयुक्त किया है।
- मौर्यकालीन समाज में विधवा विवाह प्रचलित था। कुछ विधवाएँ स्वतंत्र रूप से जीवन-यापन करती थीं, जिन्हें ‘छंदवासिनी’ कहा जाता था।
- समाज में वेश्यावृति की प्रथा प्रचलित थी तथा उसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृति करने वाली स्त्रियाँ रूपाजीवा कहलाती थीं। इनके कार्यों का निरीक्षण गणिकाध्यक्ष करता था।
- संभ्रांत घर की स्त्रियाँ प्रायः घरों में ही रहती थीं। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को ‘अनिष्कासिनी’ कहा है।
- मौर्य काल के बारे में कुछ यूनानी लेखकों ने उत्तर-पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है, जबकि अर्थशास्त्र में सती प्रथा का कोई प्रमाण नहीं मिलता. है।
मौर्यकालीन धर्म
- मौर्य काल में वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म तथा आजीवक धर्म प्रमुख थे।
- मौर्य सम्राटों में चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का अनुयायी,बिंदुसार आजीवक तथा अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था, परंतु अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता थी तथा किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था।
- सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपने शासनकाल में राजकीय संरक्षण दिया था।
- मौर्य काल में भी वैदिक धर्म प्रचलित था, परंतु कर्मकांड प्रधान वैदिक धर्म अभिजात ब्राह्मण तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। इस काल में बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन होने लगा।
- जनसाधारण में नागपूजा का प्रचलन था। मूर्तिपूजा भी की जाती थी।
- पतंजलि के अनुसार, मौर्य काल में देवमूर्तियों को बेचा जाता था।
- देवमूर्तियों को बनाने वाले शिल्पियों को ‘देवताकारू‘ कहा जाता था।
- अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ ने कुछ गुफाएँ आजीवकों को दान में दी थीं। अशोक के समय में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ।
- बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने 84 हज़ार स्तूपों का निर्माण करवाया।
- चंद्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला में जाकर जैन प्रथा ‘सल्लेखना’ के अनुसार प्राण त्याग दिये।
- मेगस्थनीज ने धार्मिक व्यवस्था में डायोनिसस एवं हेराक्लीज की चर्चा की है, जिसकी पहचान क्रमशः शिव एवं विष्णु से की गई है।
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था
- मौर्य काल की अर्थव्यवस्था के तीन स्तंभ थे, जिन्हें सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ (वृत्ति का साधन) कहा जाता था
- 1. कृषि
- 2. पशुपालन/उद्योग
- 3. वाणिज्य या व्यापार
कृषि
- मौर्य काल मुख्यतः कृषि प्रधान था।
- भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था।
- राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी ‘सीताध्यक्ष‘ कहलाता था। भूमि पर दासों, कर्मचारियों और कैदियों द्वारा जुताई-बुआई होती थी।
- कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में कृष्ट (जुती हुई), आकृष्ट (बिना जुती हुई), स्थल (ऊँची भूमि) आदि अनेक भूमि का उल्लेख किया है।
- ‘अदेवमातृक’ भूमि वह भूमि होती थी, जिसमें बिना वर्षा के भी अच्छी खेती होती थी।
- राज्य में आय का प्रमुख स्रोत भूमिकर था। यह मुख्यतः उपज का 1/6 भाग होता था। भूमिकर दो प्रकार का होता था
- 1. सेतु कर
- 2. वन कर
चाणक्य के अनुसार
- क्षेत्रक– भूस्वामी को कहा जाता था।
- उपवास– काश्तकार को कहा जाता था।
उद्योग
- मौर्य काल का प्रधान उद्योग सूत कातना एवं बुनना था।
- प्रमुख व्यापारिक संगठन
- श्रेणी – शिल्पियों का संगठन
- निगम – व्यापारियों का संगठन
- संघ – देनदारों/महाजनों का संगठन
- सार्थवाह – कारवाँ व्यापारियों का प्रमुख व्यापारी (अनाज से संबंधित)
- उद्योग धंधों की संस्थाओं को ‘श्रेणी’ (Guilds) कहा जाता था। श्रेणी न्यायालय के प्रधान को ‘महाश्रेष्ठि’ कहा जाता था।
- मौर्यों की राजकीय मुद्रा ‘पण’ थी। ।
- मुद्राओं का परीक्षण करने वाले अधिकारी को ‘रूपदर्शक‘ कहा जाता था।
- राज्य के शीर्षस्थ अधिकारियों को 48000 पण तथा सबसे निम्न अधिकारियों को 60 पण वेतन मिलता था।
- पण 3/4 तोले के बराबर चांदी का सिक्का था।
- मयूर, पर्वत और अर्द्धचंद्र की छाप वाली आहत रजत मुद्राएँ मौर्य साम्राज्य की मान्य मुद्राएँ थीं।
वाणिज्य एवं व्यापार
- मौर्य काल में व्यापार (आंतरिक एवं बाह्य), जल एवं स्थल दोनों मार्गों से होता था।
- इस समय भारत का बाह्य व्यापार रोम, सीरिया, फारस, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था। यह व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ बंदरगाह से तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति के बंदरगाहों द्वारा किया जाता था।
- आंतरिक व्यापार के प्रमुख केंद्र थे – तक्षशिला, काशी, उज्जैन, कौशांबी तथा तोसली(कलिंग राज्य की राजधानी) आदि।
- मेगस्थनीज ने ऐग्रोनोमोई नामक अधिकारी की चर्चा की है, जो मार्ग निर्माण का विशेष अधिकारी था।
- व्यापारिक जहाज़ों का निर्माण इस काल का प्रमुख उद्योग था।
- भारत से मिस्र को हाथी दाँत, कछुए, सीपियाँ, मोती, रंग, नील और लकड़ी निर्यात होता था।
- व्यापार शुल्क तीन प्रकार के बताए गए हैं
- स्वदेश में उत्पन्न वस्तु पर लिया जाने वाला शुल्क बाह्य
- राजधानी में लिया जाने वाला शुल्क अभ्यांतर
- विदेशी माल पर वसूल किया जाने वाला शुल्क आधित्य
- इसी प्रकार निर्यात पर निष्क्रामय तथा आयात पर प्रवेश्य लगाया जाता था।
मौर्यकालीन कला
- मौर्ययुगीन कला को दो भागों में विभाजित किया गया
- राजकीय कला
- लोककला
- राजकीय कला में राजरक्षकों द्वारा निर्मित स्मारकों को शामिल किया गया, जैसे-स्तंभ, गुहा, स्तूप आदि।
- लोककला के अंतर्गत स्वतंत्र कलाकारों द्वारा निर्मित वस्तुएँ, जैसे-यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाएँ, मिट्टी की मूर्ति आदि शामिल किए गए।
- मौर्य काल के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्म स्तंभ हैं जोकि उसने धम्म प्रचार के लिये देश के विभिन्न भागों में स्थापित किये अशोक ने चट्टानों को काटकर कंदराओं का निर्माण करवाकर वास्तुकला में एक नई शैली आरंभ किया।
- गुहा वास्तु इस काल की अन्य देन है।
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अशोक के शासनकाल से ही गुहाओं का उपयोग आवास के रूप में होने लगा था।
मौर्यकालीन स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ
- निर्माण कार्य में पत्थरों का इस्तेमाल
- लौह अयस्कों का सधा हुआ प्रयोग
- चमकदार पॉलिश (ओप) का प्रयोग
- भवन निर्माण में लकड़ी का विशेष प्रयोग
- मौर्य काल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि (अंगुलियों याचुटकियों का इस्तेमाल करके) या साँचे में ढालकर किया जाता था।
- पारखम (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त 7 फीट ऊँची यक्ष की मूर्ति, दिगंबर प्रतिमा (लोहानीपुर-पटना), धौली (ओडिशा) का हाथी तथा दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी मूर्ति मौर्य कला के विशिष्ट उदाहरण हैं।
- सारनाथ स्तंभ के शीर्ष पर बने चार सिंहों की आकृतियाँ तथा उसके नीचे की बल्लरी आकृति अशोक कालीन मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है, जो आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
- मौर्य साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण थे
- मौर्य साम्राज्य केंद्रीकृत प्रशासन पर टिका था, जिसका सबसे मज़बूत आधार था-सुयोग्य एवं दूरदर्शी सम्राट। 232 ई. पू. में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर होने लगा और अंततः लगभग 185 ई. पू. में अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या हो गई। बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की थी। बृहद्रथ की मृत्यु के साथ ही मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
- हालाँकि मौर्य साम्राज्य जैसे विस्तृत साम्राज्य के पतन के लिये किसी एक कारण का होना पर्याप्त नहीं है। स्पष्ट साक्ष्यों के अभाव में विद्वानों ने अलग-अलग कारण प्रस्तुत किये हैं
- हरि प्रसाद शास्त्री – धार्मिक नीति (ब्राह्मण विरोधी नीति के कारण)।
- हेमचंद्र राय चौधरी – सम्राट अशोक की अहिंसक एवं शांतिप्रिय नीति
- डी.डी. कौशांबी – आर्थिक संकटग्रस्त व्यवस्था का होना
- पतन के अन्य कारणों में
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