न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)
- एक विधायी अधिनियम की संवैधानिक वैधता की कोर्ट द्वारा समीक्षा।
- न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत की उत्पत्ति एवं विकास अमेरिका में हुआ।
- इसका प्रतिपादन पहली बार जॉन मार्शल द्वारा किया गया था।
- भारत में, भारत का संविधान स्वयं न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति देता है (सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को)।
- न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति संविधान में मूलभूत ढांचे का एक तत्व है। इसलिए न्यायिक समीक्षा की शक्ति में संविधान संशोधन के द्वारा कटौती नहीं की जा सकती है ,न ही इसे हटाया जा सकता ह।
न्यायिक समीक्षा का अर्थ
- विधायी अधिनियमनों तथा कार्यपालिका आदेशों की संवैधानिकता की जांच की न्यायपालिका की शक्ति है जो केन्द्र और राज्य सरकारों पर लागू होती है।
- संविधान द्वारा पारित किसी अधिनियम तथा कार्यपालिका आदेशों का न्यायिक समीक्षा करने के बाद अगर पाया गया कीउनसे संविधान का उल्लंघन होता है तो उन्हें अवैध, असंवैधानिक तथा अमान्य घोषित किया जा सकता है और सरकार उन्हें लागू नहीं कर सकती।
- न्यायमूर्ति सैयद शाह मोहम्मद कादरी ने न्यायिक समीक्षा को निम्नलिखित तीन कोटियों में वर्गीकृत किया है:
- 1. संविधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा।
- 2. संसद और एक विधायिकाओं द्वारा पारित कानूनों एवं अधीनस्थ कानूनों की समीक्षा।
- 3. संघ तथा राज्य एवं राज्य के अधीन प्राधिकारियों द्वारा प्रशासनिक कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा।
- वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन, 2014 तथा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC), अधिनियम, 2014 दोनों को असंवैधानिक करार दिया।
न्यायिक समीक्षा का महत्व
- संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को बनाए रखने के लिए।
- संघीय संतुलन (केंद्र एवं राज्यों के बीच संतुलन) बनाए रखने के लिए।
- नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए।
- न्यायपालिका ही तय कर सकती है कि कोई अधिनियम संवैधानिक है अथवा नहीं।
- “संविधान सर्वोच्च विधि है, देश का स्थायी कानून और सरकार की कोई भी शाखा इसके ऊपर नहीं है।
- सरकार के समस्त अंग, चाहे वह कार्यपालिका हो, विधायिका हो अथवा न्यायपालिका संविधान से ही शक्ति और अधिकार पाते हैं और उन्हें अपने संवैधानिक प्राधिकार की सीमा में ही रहकर कार्य करना होता है।
नवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा
- अनुच्छेद 31Bतथा नवीं अनुसूची में शामिल अधिनियमों एवं विनियमों की किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती देने एवं अवैध नहीं ठहराया जा सकता था । अनुच्छेद 31B तथा नवीं अनुसूची को पहले संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ा गया था।
- लेकिन न्यायालय की व्यवस्था के अनुसार 24 अप्रैल, 1973 के बाद नवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को चुनौती दी जा सकती है, अगर उनसे अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के अंतर्गत प्रदत्त मौलिक अधिकारों अथवा संविधान की मूलभूत विशेषता‘ का हनन होता है।
- 24 अप्रैल, 1973 को केशवानंद मामले में ही सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार संविधान की मूलभूत विशेषता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था ।
- मूल रूप में (1951 में) नवीं अनुसूची में केवल 13 अधिनियम एवं विनियम थे लेकिन वर्तमान में (2016 में) इनकी संख्या 282 है। इनमें से राज्य विधायिका के अधिनियम एवं विनियम भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन से संबंधित है, जबकि संसदीय कानून अन्य मामलों से।
- आर.आर. कोएल्हो (2007) मामले में दिए महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि नवीं अनुसूची में शामिल कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बाहर नहीं माना जा सकता। न्यायालय का कहना था कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूलभूत विशेषता है और इसे नवीं अनुसूची में शामिल किसी कानून के लिए वापस नहीं लिया जा सकता।