भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण: सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव

1991 के आर्थिक संकट के बाद भारत द्वारा अपनाए गए उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एल.पी.जी.) के नए आर्थिक मॉडल ने देश के आर्थिक इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की। वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होती हैं, जिससे वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी, प्रौद्योगिकी और श्रम का अबाध प्रवाह सुनिश्चित होता है। भारत पर इसके गहन एवं बहुआयामी प्रभाव पड़े हैं।

वैश्वीकरण के सकारात्मक प्रभाव

1. आर्थिक विकास एवं सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में वृद्धि

    • वैश्वीकरण ने भारत की आर्थिक विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि की है।

    • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (FPI) के प्रवाह से पूंजी निर्माण को बल मिला।

    • निर्यात में विविधता आई, जिससे व्यापार का संतुलन सुधरा और विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी हुई।

2. सेवा क्षेत्र में क्रांति (आईटी/आईटीईएस)

    • भारत की सूचना प्रौद्योगिकी और व्यापार प्रक्रिया आउटसोर्सिंग (IT/ITeS) उद्योग वैश्वीकरण की सबसे बड़ी सफलता है।

    • भारत ‘विश्व का बैक ऑफिस’ बना, जिससे लाखों युवाओं के लिए रोजगार के अवसर सृजित हुए।

    • इसने देश की छवि एक ज्ञान-अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित की।

3. उपभोक्ताओं को लाभ

    • उपभोक्ताओं के पास वस्तुओं और सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला उपलब्ध हो गई।

    • प्रतिस्पर्धा बढ़ने से गुणवत्ता में सुधार हुआ और कीमतें नियंत्रित हुईं।

    • ‘ग्राहक राजा है’ की अवधारणा को बल मिला।

4. प्रौद्योगिकी और नवाचार में उन्नति

    • विदेशी कंपनियों के प्रवेश और ज्वाइंट वेंचर के माध्यम से उन्नत प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण हुआ।

    • दूरसंचार, ऑटोमोबाइल और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में उत्पादकता और दक्षता बढ़ी।

5. पूंजी बाजार का विकास

    • विदेशी निवेशकों तक पहुंच ने भारतीय शेयर बाजारों को गहराई और तरलता प्रदान की।

    • कॉर्पोरेट प्रशासन के मानकों में सुधार आया।

वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव

1. कृषि क्षेत्र पर दबाव

    • वैश्विक प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे और सीमांत किसानों को नुकसान हुआ।

    • बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बीजों और कीटनाशकों पर एकाधिकार बढ़ने की आशंका।

    • निर्यातोन्मुखी नीतियों के कारण फसल चक्र में बदलाव, जिससे खाद्य सुरक्षा के प्रश्न उठे।

2. आर्थिक असमानता और विषमता में वृद्धि

    • वैश्वीकरण का लाभ मुख्यतः शहरी, शिक्षित और कुशल वर्ग तक सीमित रहा।

    • ग्रामीण-शहरी, कृषि-उद्योग और कुशल-अकुशल श्रम के बीच आय का अंतर बढ़ा।

    • इसने सामाजिक-आर्थिक तनावों को जन्म दिया।

3. छोटे उद्योगों पर संकट

    • सस्ते आयात और बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों की भारी प्रतिस्पर्धा के कारण लघु और कुटीर उद्योगों का पतन हुआ।

    • पारंपरिक हस्तशिल्प और स्थानीय उद्योगों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हुआ।

4. सांस्कृतिक समरूपता का खतरा

    • पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति का तेजी से प्रसार, जिससे स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के क्षरण की आशंका पैदा हुई।

    • वैश्विक ब्रांड्स ने स्थानीय बाजारों में हावी होकर सांस्कृतिक पहचान को प्रभावित किया।

5. पर्यावरणीय क्षरण

    • तेजी से औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण प्रदूषण, संसाधनों का दोहन और पर्यावरणीय गिरावट में वृद्धि हुई।

    • विकसित देशों के ‘प्रदूषण भंडार’ के रूप में विकासशील देशों के इस्तेमाल की चिंताएं उभरीं।

6. वित्तीय अस्थिरता

    • वैश्विक वित्तीय संकटों (जैसे- 2008 का संकट) का भारतीय अर्थव्यवस्था पर तत्काल और प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

    • FII/FPI की ‘गर्म पूंजी’ (Hot Money) के अचानक बाहर जाने से बाजारों में उतार-चढ़ाव और मुद्रा में अस्थिरता आती है।

निष्कर्ष एवं आगे की राह

वैश्वीकरण भारत के लिए एक ‘दोधारी तलवार’ साबित हुआ है। इसने एक ओर आर्थिक विकास, तकनीकी उन्नति और वैश्विक पहचान दिलाई है, तो वहीं दूसरी ओर आर्थिक विषमता, क्षेत्रीय असंतुलन और सामाजिक चुनौतियां भी पैदा की हैं। भविष्य की राह वैश्वीकरण की प्रक्रिया को समावेशी और टिकाऊ बनाने में निहित है। इसके लिए शिक्षा और कौशल विकास पर जोर, कृषि का आधुनिकीकरण, सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करना और पर्यावरणीय मानकों का कठोरता से पालन करना आवश्यक है। ‘आत्मनिर्भर भारत’ की अवधारणा वैश्वीकरण का विरोध नहीं, बल्कि एक ऐसी रणनीति है जिसका लक्ष्य वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की भागीदारी को और अधिक मजबूत, स्वावलंबी और लाभप्रद बनाना है।

भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) एवं विदेशी संस्थागत निवेश (FII)

भारत में आर्थिक विकास एवं वित्तीय बाजारों के एकीकरण के साथ, विदेशी निवेश के दो प्रमुख घटकों – विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment – FDI) और विदेशी संस्थागत निवेश (Foreign Institutional Investment – FII) का महत्व काफी बढ़ गया है। यद्यपि दोनों ही पूंजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रवाह का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन इनकी प्रकृति, उद्देश्य और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव में मूलभूत अंतर हैं।

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI)

FDI से तात्पर्य किसी विदेशी इकाई द्वारा किसी दूसरे देश में स्थायी हित स्थापित करने के उद्देश्य से दीर्घकालिक निवेश से है। इसमें निवेशक को प्रबंधन में महत्वपूर्ण प्रभाव या नियंत्रण प्राप्त होता है।

  • उदाहरण: अमेज़न द्वारा भारत में वेयरहाउस और लॉजिस्टिक्स नेटवर्क स्थापित करना, या टोयोटा द्वारा कर्नाटक में एक विनिर्माण संयंत्र लगाना।
  • मार्ग: स्वचालित मार्ग (Automatic Route) और सरकारी मार्ग (Government Route)।
  • क्षेत्र: रक्षा, बीमा, दूरसंचार, एकल-ब्रांड रिटेल, आदि जैसे क्षेत्रों में FDI की अनुमति सीमाओं के साथ दी गई है।

विदेशी संस्थागत निवेश (FII)

FII (जिसे अब अक्सर FPIs – Foreign Portfolio Investors कहा जाता है) से तात्पर्य विदेशी निवेशकों (जैसे हेज फंड, म्यूचुअल फंड, पेंशन फंड) द्वारा भारत के प्रतिभूति बाजारों (शेयर, बॉन्ड, डिबेंचर) में निवेश से है। यह अल्पकालिक और अधिक तरल होता है तथा इसमें कंपनी के प्रबंधन में कोई नियंत्रण नहीं होता।

  • उदाहरण: एक अमेरिकी म्यूचुअल फंड द्वारा भारतीय शेयर बाजार में Reliance या Infosys के शेयर खरीदना।
  • मार्ग: SEBI (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) द्वारा पंजीकृत पोर्टफोलियो निवेशकों के माध्यम से।
  • प्रकृति: अधिक अस्थिर, ‘गर्म पूंजी’ (Hot Money) के रूप में जाना जाता है, जो तेजी से बाजार में प्रवेश और निकास कर सकती है।

FDI और FII के बीच प्रमुख अंतर

आधार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) विदेशी संस्थागत निवेश (FII)
प्रकृति दीर्घकालिक, स्थिर एवं स्थायी अल्पकालिक, अस्थिर एवं mobile
उद्देश्य प्रबंधन में भागीदारी एवं नियंत्रण पूंजीगत लाभ अर्जित करना
प्रवेश एवं निकास आसान नहीं, दीर्घकालिक प्रतिबद्धता बहुत आसान, सेकंडों में शेयर बेचे जा सकते हैं
प्रभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था पर (उत्पादन, रोजगार) वित्तीय बाजारों पर (तरलता, अस्थिरता)
क्षेत्र उद्योग, बुनियादी ढांचा, सेवाएं शेयर बाजार, डेब्ट मार्केट

विदेशी निवेश के सकारात्मक प्रभाव

FDI के सकारात्मक प्रभाव:

  • पूंजी निर्माण: दीर्घकालिक पूंजी का प्रवाह होता है, जो बुनियादी ढांचे और उद्योगों के विकास में सहायक है।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: उन्नत प्रौद्योगिकी, प्रबंधन कौशल और वैश्विक best practices का आयात होता है।
  • रोजगार सृजन: नए उद्यमों और उत्पादन इकाइयों के स्थापित होने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार बढ़ते हैं।
  • निर्यात को बढ़ावा: अंतर्राष्ट्रीय बाजारों तक पहुंच के कारण निर्यात बढ़ सकता है।
  • विकास को गति: उत्पादक क्षमता और औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलता है।

FII के सकारात्मक प्रभाव:

  • बाजार में तरलता: शेयर बाजार में पूंजी का प्रवाह बढ़ता है, जिससे तरलता सुधरती है।
  • पूंजी बाजार का विकास: बाजार की गहराई और परिपक्वता बढ़ती है।
  • दक्षता में वृद्धि: कॉर्पोरेट प्रशासन मानकों में सुधार होता है क्योंकि कंपनियों को वैश्विक मानकों पर खरा उतरना होता है।
  • विनिमय दर को सहयोग: डॉलर जैसी कठोर मुद्राओं का प्रवाह बढ़ता है, जो रुपए को मजबूत कर सकता है।

विदेशी निवेश के नकारात्मक प्रभाव

FDI के नकारात्मक प्रभाव:

  • घरेलू उद्योग पर दबाव: छोटे और मझौले उद्यम (MSMEs) बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते।
  • आर्थिक संप्रभुता का जोखिम: रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों (जैसे मीडिया, डेटा) में अत्यधिक विदेशी नियंत्रण चिंता का विषय बन सकता है।
  • लाभ का पलायन: निवेशित कंपनियां अपने मुनाफे को वापस अपने मूल देश भेज सकती हैं, जिससे देश की संपदा बाहर जाती है।
  • पर्यावरणीय चिंताएं: तीव्र औद्योगीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्यावरण को नुकसान हो सकता है।

FII के नकारात्मक प्रभाव:

  • बाजार की अस्थिरता: FII निवेश ‘गर्म पूंजी’ है। वैश्विक स्थितियों (जैसे US फेड रेट) में बदलाव या आंतरिक झटकों पर यह तेजी से बाहर निकल सकता है, जिससे बाजार में गिरावट और अस्थिरता आती है।
  • मुद्रा जोखिम: FII के बाहर निकलने पर डॉलर की मांग बढ़ती है, जिससे रुपए का अवमूल्यन हो सकता है।
  • अर्थव्यवस्था की निर्भरता: घरेलू बाजार FII के प्रवाह पर निर्भर हो सकते हैं, जो एक जोखिम भरी स्थिति है।
  • सट्टेबाजी का स्वरूप: FII अक्सर उत्पादक निवेश के बजाय सट्टेबाजी को बढ़ावा दे सकता है।

निष्कर्ष

भारत के लिए, FDI और FII दोनों ही आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनके प्रबंधन का तरीका अलग-अलग है। FDI को दीर्घकालिक, स्थिर और वास्तविक अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी माना जाता है, और सरकार ने इसे आकर्षित करने के लिए उदार नीतियां बनाई हैं। दूसरी ओर, FII एक आवश्यक लेकिन अधिक जोखिम भरा स्रोत है, जिसके लिए मजबूत विनियामक ढांचे (SEBI) और मैक्रोइकॉनॉमिक स्थिरता की आवश्यकता होती है ताकि इसकी अस्थिरता से निपटा जा सके। एक संतुलित दृष्टिकोण, जहां FDI को प्राथमिकता दी जाए और FII के प्रवाह को स्थिर रखा जाए, भारत के हित में सर्वोत्तम है।

JPSC MAINS PAPER 5/Chapter – 26