हिंदू शाही राज्य
- कश्मीर से मुल्तान की सीमा तक (चिनाब नदी से लेकर हिन्दुकुश पर्वतमाला तक) फैला हुआ था ।
- अरब के शासक इस राज्य को जीत सके। अंत में उन्हें अफगानिस्तान और काबुल छोड़ना पड़ा।
- दसवीं शताब्दी के अंत में जयपाल यहाँ का शासक बना था, किंतु तुर्कों का सामना करने में वह असफल रहा।
जेजाकभुक्ति का चंदेल वंश
- 9वीं सदी के आरंभ में बुंदेलखंड क्षेत्र में इनका उदय हुआ।
- ये जनजातीय (गोंड) मूल के थे।
- इस वंश का प्रमुख शासक नन्नुक था।
- उसके पौत्र जयसिंह अथवा जेजा के नाम पर उनका राज्य ‘जेजाकभुक्ति’ कहलाया।
- चौहान राजा पृथ्वीराज के हाथों 1182 ई. में परमर्दिदेव की पराजय के बाद इनकी शक्ति का पतन हो गया।
बादामी या वातापी के चालुक्य
- वातापी के चालुक्य वंश का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था।
- कीर्तिवर्मन प्रथम (566-597 ई.) को ‘वातापी का प्रथम निर्माता‘ कहा जाता है।
- पुलकेशिन द्वितीय (609-642 ई.) चालुक्य वंश के शासकों में सर्वाधिक प्रतापी शासक हुआ।
- ऐहोल अभिलेख : पुलकेशिन द्वितीय का हर्ष से नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ।
- इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को पराजित किया।
- ऐहोल अभिलेख (एक प्रशस्ति के रूप में) की रचना रविकीर्ति ने की थी।
- कालांतर में विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 746 ई. के लगभग कीर्तिवर्मन द्वितीय चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना.
- महाराष्ट्र में राष्ट्रकूट वश की नींव : दंतिदुर्ग ने ,कीर्तिवर्मन द्वितीय को परास्त कर
गुजरात (अन्हिलवाड़) का चालुक्य अथवा सोलंकी वंश
- दसवीं सदी के अंत में गुजरात में चालुक्य वंश की नींव – मूलराज प्रथम ने
- चालुक्य वंश का शासक- जयसिंह सिद्धराज, कुमारपाल
- इस राज्य की सीमा के अंदर गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, आबू, नदौला और कोंकण स्थित थे।
- भीम प्रथम (1022-1064) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।
- इसके शासनकाल में गुजरात पर महमूद गजनवी का आक्रमण (1025-26 ई.) हुआ।
- 1187 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण करके अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया।
कल्याणी के चालुक्य
- कल्याणी के चालुक्य वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता तैलप ( तैल/तैलप्प/तैलपप्पा) द्वितीय था।
- सोमेश्वर प्रथम, 1043 ई. में शासक बना।
- उसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानांतरित की।
- सोमेश्वर प्रथम कोप्पम तथा कुडलसंगमम् के युद्ध में चोलों से बुरी तरह पराजित हुआ। चोलों से निरंतर पराजय के कारण उसने तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।
- सोमेश्वर प्रथम के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076 ई.) तथा इसके बाद विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) राजसिंहासन पर बैठा।
- विक्रमादित्य षष्ठ की राजसभा में ‘विक्रमांकदेवचरित’ के रचयिता विल्हण तथा ‘मिताक्षरा’ के लेखक विज्ञानेश्वर निवास करते थे।
- विल्हण उसके राजकवि थे।
- विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के पश्चात् चालुक्य वंश की अवनति प्रारंभ हो गई।
- इस वंश का अंतिम शासक तैल तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1189 ई.) था।
राष्ट्रकूट वंश
- दक्षिण में राष्ट्रकूटों का शासन पाल और प्रतिहार वंशों के शासन के समकालीन था।
- राष्ट्रकूट साम्राज्य का संस्थापक दंतिदुर्ग था।
- दंतिदुर्ग ने मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाया।
- राष्ट्रकूटों की भाषा कन्नड़ थी।
- दंतिदुर्ग ने मालवा पर अभियान किया और हिरणगर्भ (महादान) यज्ञ किया, जिसमें प्रतिहारों ने द्वारपाल की भूमिका निभाई।
- राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष (814-878 ई.) ने ‘वीर नारायण’ की उपाधि धारण की।
- अमोघवर्ष ने ‘कविराजमार्ग’ ग्रंथ की रचना कन्नड़ भाषा में की।
- राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय के समय अलमसूदी भारत आया।
- तक्कोल्लम की लड़ाई (949 ई.) में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय और चोल शासक परांतक प्रथम ने भाग लिया, जिसमें चोल शासक पराजित हुआ।
- राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने रामेश्वरम् में ‘कृष्णेश्वर’ तथा ‘गंडमार्तंडादित्य’ नामक मंदिर बनवाए।
- उसकी राजसभा में कन्नड़ भाषा का कवि पोन्न निवास करता था, जिसने ‘शांतिपुराण’ की रचना की थी।
- 974-75 ई. में चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूट वंश के अंतिम शासक कर्क द्वितीय को परास्त करके राष्ट्रकूट राज्य पर अधिकार कर लिया तथा कल्याणी के चालुक्य वंशीय राज्य की स्थापना की।
वाकाटक वंश
- वाकाटक राजवंश की स्थापना –विंध्यशक्ति ने , 255 ई.
- इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण अजंता गुहालेख से मिलता है।
- वाकाटक शासक प्रवरसेन द्वितीय ने अपनी पुरानी राजधानी नंदिवर्धन से प्रवरपुर स्थानांतरित की।
- इस वंश के प्रतापी शासक प्रवरसेन द्वितीय ने ‘सेतुबंध‘ तथा सर्वसेन ने ‘हरविजय‘ नामक प्राकृत काव्य ग्रंथ की रचना की।
- संस्कृत के विदर्भी शैली का पूर्ण विकास वाकाटक नरेशों के दरबार में ही हुआ।
- कुछ विद्वानों का मत है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के राजकवि ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राजसभा में निवास किया था।
पल्लव वंश
- पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक – सिंह विष्णु (लगभग 565-600 ई.)
- सिंह विष्णु की राजसभा में संस्कृत के विद्वान भारवि निवास करते थे, जिन्होंने ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य लिखा।
- सिंह विष्णु का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) था।
- महेंद्रवर्मन प्रथम एक महान निर्माता , कवि एवं संगीतज्ञ था।
- पाधि– चैत्यकरी’ (अनेक मंदिरों व चैत्यों का निर्माण करवाने के कारण )
- उसने ‘मत्तविलास प्रहसन’ नाटक की रचना की।
- इसमें कापालिकों तथा भिक्षुओं पर व्यंग्य कसा गया है।
- संगीतज्ञ रुद्राचार्य से महेंद्रवर्मन प्रथम ने संगीत सीखा ।
- नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.)
- काशाक्कुटि ताम्रपत्र और महावंश के अनुसार : नरसिंह वर्मन प्रथम ने श्रीलंका के मानवर्मा को सहायता देने के लिये एक शक्तिशाली नौसेना सिंहल भेजी।
- नरसिंह वर्मन प्रथम के समय में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची गया था ।
- वैलूरपाल्यम् लेख में नरसिंह वर्मन प्रथम के बादामी के चालुक्यों पर विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तंभ स्थापित करने का वर्णन है।
- इसी विजय के उपरांत उसने ‘वातापीकोण्ड’ तथा ‘महामल्ल’ की उपाधि धारण की।
- नरसिंह वर्मन द्वितीय (700-728 ई.)
- कांची के ‘कैलाशनाथ मंदिर’ तथा महाबलीपुरम के ‘शोर मंदिर’ का निर्माण कराया।
- संस्कृत विद्वान दंडिन, नरसिंह वर्मन द्वितीय की राजसभा में निवास करते थे
- दंडिन ने काव्यदर्श, दशकुमारचरित की रचना की है।
- दंतिवर्मन : ‘विष्णु का अवतार’
- वैलूरपाल्यम् अभिलेख में कहा गया है।
- पल्लव वंश का अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक : अपराजित
- पल्लवकालीन वास्तुकला शैलि- महेंद्रवर्मन शैली, मामल्ल शैली एवं राजसिंह शैली
चोल वंश
- चोल पल्लवों के सामंत थे।
- चोल राष्ट्र या चोलमंडलम, पेन्नार और कावेरी नदियों के बीच पूर्वी समुद्र तट पर अवस्थित था। इसमें कोरोमंडल तट तथा दक्कन के कुछ भाग यथा उरैयूर, कावेरीपट्टनम, तंजावुर आदि क्षेत्र शामिल थे।
- विजयालय ने चोल साम्राज्य की स्थापना की तथा तंजौर पर अधिकार कर ‘नरकेसरी’ की उपाधि धारण की।
- परांतक प्रथम (907–953 ई.) ने पांड्य नरेश राजसिंह द्वितीय तथा सिंहल राजा की संयुक्त सेना को बेल्लूर युद्ध में पराजित कर मदुरा पर अधिकार कर लिया तथा ‘मदुरैकोंड’ की उपाधि धारण की।
- परांतक प्रथम को अपने शासनकाल के अंत में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय से तक्कोल्लम के युद्ध में पराजित होना पड़ा। इससे चोल राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा।
- परांतक प्रथम के बाद अगले लगभग 30 वर्षों तक का समय चोलों की अवनति का काल था, जिसमें परांतक द्वितीय या सुंदर चोल तथा उत्तम चोल ने शासन किया।
- चोल शक्ति का पुनः जीर्णोद्धार राजराज प्रथम (985-1014 ई.) के समय में हुआ।
- राजराज प्रथम (985-1014 ई.) ने पांड्य, चेर तथा सिंहल (श्रीलंका) के त्रिसंगठन को पराजित किया।
- राजराज प्रथम ने सिंहल (श्रीलंका) के शासक महेंद्र पंचम को पराजित कर लंका का उत्तरी क्षेत्र जीतकर वहां ‘मुम्डि चोलमंडलम’ की स्थापना की और ‘मुम्मडिचोल देव’ की उपाधि धारण की।
- राजराज प्रथम ने मालदीव पर अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से विजय प्राप्त की।
- यह प्रथम चोल शासक था, जिसने भूमि की पैमाइश कराई और पैमाइश के आधार पर कर निर्धारित किया ।
- यह शैव धर्म मतानुयायी था, इसने तंजौर में ‘बृहदेश्वर मंदिर’ का निर्माण कराया जिसे ‘राजराजेश्वर या राजराज मंदिर’ भी कहते हैं।
- राजराज प्रथम के बाद उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम शासक बना। उसने 1022 ई. में बंगाल का अभियान किया। वहाँ उसने पाल शासक महिपाल को पराजित किया। इसी अवसर पर उसने ‘गंगैकोंडचोलपुरम’ नामक नई राजधानी की स्थापना की और ‘गंगैकोंडचोल’ की उपाधि धारण की।
- राजेंद्र प्रथम ने दक्षिण-पूर्व एशिया में सैन्य अभियान किया। इन राज्यों के अंतर्गत मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा तथा अन्य द्वीप सम्मिलित थे।
- राजेंद्र प्रथम एक विद्वान भी था। उसने वैदिक शिक्षा के लिये अनेक संस्थाओं की स्थापना कराई।
- शिक्षा के लिये दिये गए भूमि अनुदानों को ‘भोगम्‘ कहा जाता था।
- उसने ‘पंडित चोल’ की उपाधि धारण की।
- राजेंद्र प्रथम के बाद राजाधिराज शासक बना। संभवतः चालुक्य सोमेश्वर से लड़ते हुए इसकी मृत्यु हो गई और राजेंद्र द्वितीय ने रणक्षेत्र में ही अपना राज्यभिषेक किया और कोप्पम के युद्ध में सोमेश्वर को मात दे दी। इस हार से सोमेश्वर ने शर्मिंदा होकर तुंगभद्रा नदी में आत्महत्या कर ली।
- इसके बाद वीर राजेंद्र शासक बना।
- अधिराजेन्द्र मूल चोल वंश का अंतिम शासक था। जनता ने इसके प्रति विद्रोह कर इसे अपदस्थ कर दिया।
- कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.) चोल, चालुक्य रक्त मिश्रित था। उसका पिता चालुक्य वंश का शासक और माता चोल राजकुमारी थी।
- कुलोत्तुंग प्रथम के साथ ही चोल – चालुक्य वंश की शुरुआत हुई।
- कुलोत्तुंग प्रथम ने भूमि का पुनः सर्वेक्षण कराया। भूमि की माप है लिये उसने अपने पैर की छाप दी।
- चीनी ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार 1077 ई. में कुलोत्तुंग प्रथम ने चीन के सम्राट के समक्ष 72 व्यक्तियों (अन्य स्रोतों में 92) का एक दूत मंडल भेजा था । यह दूत मंडल एक व्यापारिक शिष्टमंडल था, जिसे तमिल व्यापार के लिये चीन से अधिक सुविधाएं प्राप्त करने के लिये भेजा गया था।
- कुलोत्तुंग द्वितीय (1135-50 ई.) ने चिदंबरम में स्थित ‘नटराज मंदिर’ का पुनरुद्धार करवाया। कुलोत्तुंग ने इस मंदिर के प्रांगण से गोविंदराज की प्रतिमा को हटाकर समुद्र में फिकवा दिया।
- राजेंद्र तृतीय चोल वंश का अंतिम शासक था।
नोट: चोलकालीन चतुर्भुज नटराज (शिव) की प्रतिमा, विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिमा-रचनाओं में से एक हैं। ये मूर्ति कांस्य निर्मित हैं।
चोलकालीन शासन व्यवस्था
- चोल सम्राट का पद वंशानुगत था।
- चोल सम्राट की प्रतिमा मंदिरों में स्थापित की जाती थी और उसकी पूजा की जाती थी।
- चोलों से पूर्व कुषाण सम्राटों की प्रतिमाएँ मंदिर में स्थापित की जाती थीं, जो ‘रोमन प्रथा‘ से ग्रहण किया गया था।
- ‘पेरुन्दनम्’ – उच्च श्रेणी के अधिकारी
- ‘सेरुतारम्’ – निम्न श्रेणी के अधिकारी
- चोल साम्राज्य प्रांतों (मंडलम्) में विभक्त था, जिन पर राजपरिवार के लोग नियुक्त होते थे।
सैन्य व्यवस्था
- चोल सेना छावनियों में रहती थी, जिसे ‘कडगम’ कहा गया।
- राजा के अंगरक्षक व विश्वसनीय सैनिकों को ‘वल्लैकार’ कहा जाता था, जो राजा के आदेश पर तुरंत अपने प्राण तक त्याग सकते थे।
- ‘रक्त कोड्गय’ ऐसी भूमि होती थी, जो सैनिकों को उनके शौर्य प्रदर्शन के लिये दी जाती थी।
राजस्व व्यवस्था
- चोल राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था।
- भू राजस्व को ‘कड़माप या कुडिमै‘ कहा जाता था, जो कुल उपज का 1/3 भाग होता था।
- अकाल तथा आपदा की स्थिति में भूमि कर में छूट दी जाती थी, किंतु यह भी उल्लेख मिलता है कि भू-राजस्व न जमा करने पर किसानों की भूमि नीलाम कर दी जाती थी।
- भूमि मापकर से भू-राजस्व निर्धारित किया जाता था।
- चोल अभिलेखों में प्रमुख करों व वसूलियों के लिये प्रयुक्त शब्द
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- राजस्व कर – आयम
- व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर कर – कडैइरै
- द्वारकर – वाशल्पिरमम्
- आजीवकों पर कर – आजीवकक्काशु
- वृक्ष कर – मरमज्जाडि
- गृह कर – मनैइरै
- ग्राम सुरक्षा कर – पडिकावल
- व्यवसाय कर – मगन्मै
- एरिपत्ति वह भूमि होती थी जिससे मिलने वाला राजस्व अलग से ग्राम जलाशय के रखरखाव के लिये निर्धारित कर दिया जाता था।
- ‘वेलि’ भूमि माप की इकाई थी। |
नोट: भूमि को तीन भागों में बाँटा गया था ब्रह्मदेय, देवदान तथा शालभोग
- कृषकों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जाती थी, जिसमें राज्य सरकार के अलावा मंदिरों तथा व्यक्तिगत प्रयासों की भी भूमिका होती थी।
- सिंचाई पर कर लगता था। कुछ लोगों को इस कर से छूट मिलती थी, जो सेवाविधि के रूप में जानी जाती थी।
- बढ़ई, सुनार, लुहार, धोबी आदि के व्यावसायिक समुदाय थे, जिन्हें ‘कलनै’ कहा जाता था।
- नगरो में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे, जिनके लिये ‘बणज्ज’ शब्द का उल्लेख मिलता है। इन्हें वलंजियम्, वलंजियर, बलजि आदि नामों से जाना जाता है। व्यापारिक क्षेत्र के लिये ‘नगरम्’ का भी प्रयोग हुआ है।
- मानक सिक्का ‘कलंजु’ या ‘कल्याणजू’ कहलाता था।
- चोल काल में मंदिर आर्थिक गतिविधियों के केंद्र थे। ये मंदिर बैंकिंग का कार्य भी करते थे।
- दक्षिण भारत में घटिका प्रायः मंदिरों के साथ संबद्ध विद्यालय होते थे।
स्थानीय स्वायत्त शासन
- ग्रामीण प्रशासन
- ग्रामों में मुख्यतः दो प्रकार की संस्थाएँ कार्यरत थीं:
- उर – सामान्य लोगों की संस्था
- सभा या महासभा
उर – सामान्य लोगों की संस्था
- यह सामान्य लोगों की संस्था थी।
- उर की बैठक में सभी ग्रामवासी भाग लेते थे।
- उर का मुख्य कार्य अपने प्रतिनिधियों से दस्तावेज तैयार कराना था और यह अपने प्रतिनिधियों को नकद वेतन देती थी।
सभा या महासभा
- यह अग्रहार (ब्राह्मणों को दान में दिये गए गाँव) ग्रामों में होती थी।
- सभा अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थी, जिसे ‘वारियम‘ कहा जाता था।
- समिति के सदस्य का चुनाव लॉटरी पद्धति से किया जाता था। कुछ प्रमुख समितियाँ इस प्रकार थीं
- तोट्टवारियम् – उद्यान समिति
- एरिवारियम् – सिंचाई/तालाब समिति
- पोन्वारियम् – मुद्रा नियमन से संबंधित समिति
- सम्वत्सर वारियम् – वार्षिक समिति
- बड़े नगरों में स्थानीय प्रशासन से अलग कुर्रम (ग्राम संघ) गठित किये जाते थे जिन्हें तनियूर/तकुर्रम कहा जाता था।
समाज
- चोल कालीन समाज में वर्ण व्यवस्था विद्यमान थी। हालाँकि, समाज ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मणों में बँटा था।
- व्यावसायिक आधार पर वर्ग विभाजन का उल्लेख मिलता है, जिसे ‘वलंगई’ व ‘इडंगई’ कहा जाता था।
- वलंगई, जो कृषि उत्पादन से जुड़े थे व विशेषाधिकार युक्त थे। इन्हें समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त था।
- इडंगई, जिसमें सामान्यतः मजदूर और शिल्पकार आते थे। इन्हें हीन समझा जाता था।
- दास प्रथा का समाज में अंश था, लेकिन बड़े पैमाने पर दास प्रथा प्रचलित नहीं थी।
- सती प्रथा, बहु विवाह प्रचलन में था, लेकिन पर्दा प्रथा नहीं थी।
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