भारतीय नृत्य परंपरा – नृत्यकला के दो अंग
- 1.तांडव नृत्य – जनक भगवान महादेव (शंकर) को
- 2.लास्य नृत्य – आरंभ देवी पार्वती से
नटराज-शिव
- नटराज, शिव का दूसरा नाम है।
- ‘नटराज’ का शाब्दिक अर्थ है- नृत्य करने वालों का सम्राट।
- नटराज समस्त चराचर जगत के सृजन एवं विनाश का प्रतीक है।
- नटराज की मुद्रा में नृत्य करने वाले शिव की प्रसिद्ध मूर्ति की चार भुजाएँ हैं
- उनके चारों तरफ अग्नि का घेरा है।
- एक पाँव से उन्होंने राक्षस को दबा रखा है तथा दूसरा पाँव नृत्य की मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है
- उन्होंने अपने दाहिने हाथ (जो कि ऊपर की ओर उठा हुआ है) में डमरू को पकड़ रखा है।
- इस डमरू से निकलने वाली ‘ध्वनि सृजन का प्रतीक है।
- दूसरे हाथ में अग्नि है, जो विनाश की द्योतक है।
- उनका एक अन्य हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है जो बुराइयों से हमारी रक्षा करता है।
- उनका उठा हुआ पाँव मोक्ष का द्योतक है
- उनका दूसरा बायाँ हाथ उनके उठे हुए पाँव की ओर इशारा करता है जिसका अर्थ है- शिव मोक्ष के मार्ग को दिखा रहे हैं अर्थात् शिव के चरणों में ही मोक्ष है।
- चारों ओर उठने वाली अग्नि की लपटें ब्रह्मांड का प्रतीक हैं।
- शिव के नटराज नृत्य को ‘तांडव नृत्य’ कहा गया।
- स्वरमाला की उत्पत्ति शिव के डमरू से निकली ध्वनि से मानी जाती है।
- भरतमुनि के ‘नाट्य शास्त्र’ तथा आचार्य नंदिकेश्वर के ‘अभिनय दर्पण’ को नृत्य के आदि ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया जाता है।
- भरतमुनि ने नाट्यवेद को पंचमवेद की संज्ञा दी है।
भारत में शास्त्रीय नृत्य
- शिव की नटराज मूर्ति, शास्त्रीय नृत्य का प्रतीक है, जिसमें नृत्य के हाव-भाव एवं मुद्राओं का समावेश है।
- शास्त्रीय नृत्य से संबंधित उल्लेख भरतमुनि द्वारा लिखित ‘नाट्य शास्त्र’ एवं आचार्य नंदिकेश्वर द्वारा रचित ‘अभिनय दर्पण’ में मिलता है।
- नाट्य शास्त्र में वर्णित मुद्राएँ ही भारतीय शास्त्रीय नृत्य की मूल आधार हैं।
- भारतीय शास्त्रीय नृत्य की संख्या 8 हैं।
भरतनाट्यम नृत्य (तमिलनाडु)
- इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ।
- भरतनाट्यम तमिल संस्कृति में लोकप्रिय एकल नृत्य है.
- इसे मंदिर की देवदासियों द्वारा भगवान की मूर्ति के समक्ष किया जाता था।
- इसे ‘दासीअट्टम’ के नाम से भी जाना जाता था।
- 20वीं शताब्दी में रुक्मिणी देवी अरुंडेल तथा ई.कृष्ण अय्यर के प्रयासों ने इस नृत्य को सम्मान दिलाया।
- इस नृत्य का उदाहरण नटराज की मूर्ति को माना जाता है।
- भरतनाट्यम में शारीरिक प्रक्रिया को तीन भागों में बाँटा जाता है
- समभंग
- अभंग
- त्रिभंग
- इस नृत्य को निम्नलिखित क्रमों में किया जाता है
- आलारिपु :
- जातीस्वरम :
- शब्दम :
- वर्णम :
- पदम :
- तिल्लाना :
कथकली नृत्य (केरल)
- कथकली केरल का शास्त्रीय नृत्य है।
- केरल के स्थानीय लोक नाटक कुडियाट्टम एवं कृष्णाट्टम इसके प्रेरणा स्रोत हैं।
- यह पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य था
- किंतु नृत्यांगना रागिनी देवी ने पुरुषों के इस एकाधिकार को तोड़ा।
- पुरुष प्रधान नृत्य होने के कारण इसमें स्त्री पात्र का नृत्य भी पुरुष ही करते थे।
- इस नृत्य में नर्तक द्वारा रामायण, महाभारत तथा पुराणों से लिये गए चरित्रों का अभिनय किया जाता है।
- इस नृत्य में दो प्रकार के पात्र होते हैं
- नायक (पाचा)
- खलनायक (कैथी)
- इस नृत्य में नर्तक के चेहरे पर हरा, लाल, पीला एवं काला रंग लगाया जाता है,
- इसके अलावा सफेद रंग का भी प्रयोग किया जाता है।
- यह केरल के साथ-साथ कर्नाटक क्षेत्र में भी प्रचलित है।
मोहिनीअट्टम नृत्य (केरल)
- यह केरल का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है
- इसे एकल महिला द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
- 19वीं सदी में त्रावणकोर के राजा स्वाति तिरूनल राम वर्मा के काल में इसका विकास हुआ।
- ऐसी मान्यता है कि भस्मासुर वध के लिये विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करने की कथा से इसका विकास हुआ है।
- मोहिनीअट्टम, कथकली एवं भरतनाट्यम का मिला जुला रूप है।
- मोहिनीअट्टम आँखों एवं इशारों की अभिव्यक्ति के लिये कथकली का ऋणी है।
- यह एक लास्य प्रधान नृत्य है जिसकी प्रस्तुति नाट्य शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार होती है।
- मोहिनीअट्टम नृत्य को पुनर्जीवन प्रदान करने में तीन लोगों की भूमिका है-
- स्वाति तिरूनल राम वर्मा
- वल्लतोल नारायण मेनन
- कलामंडलम कल्याणी कुट्टी अम्मा
कुचिपुड़ी नृत्य (आंध्र प्रदेश)
- आंध्र प्रदेश की नृत्य शैली है
- कुचिपुड़ी नृत्य का जन्म आंध्र प्रदेश के कुचेलपुरम गाँव में हुआ तथा इसी के नाम पर इसे ‘कुचिपुड़ी’ नाम दिया गया।
- यह गीत एवं नृत्य का समन्वित रूप है।
- भागवत् पुराण इसका मुख्य आधार है।
- कुचिपुड़ी नृत्य का सबसे लोकप्रिय रूप मटका नृत्य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भरकर और उसे अपने सिर पर रखकर, पीतल की थाली में पैर रखकर, नृत्य करती है।
- कुचिपुड़ी नृत्य नृत्य के दौरान कलाकार अपने पैर के अँगूठे से फ़र्श पर एक काल्पनिक आकृति बनाता है।
ओडिसी नृत्य (ओडिशा)
- ओडिसी शास्त्रीय नृत्य ओडिशा में प्रचलित है।
- ईसा पू. द्वितीय शताब्दी में ‘महरिस’ नामक संप्रदाय हुआ जो शिव मंदिरों में नृत्य करता था, इसी से ओडिसी नृत्यकला का विकास हुआ।
- 12वीं शताब्दी में ओडिसी नृत्य पर वैष्णववाद का प्रभाव फलस्वरूप भगवान जगन्नाथ इस नृत्य के केंद्र बिंदु बने।
- ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखों तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर के केंद्रीय कक्ष में इसका उल्लेख है।
- इस नृत्य की मुद्राएँ एवं अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं।
- इस नृत्य में प्रयोग होने वाले छंद संस्कृत नाटक ‘गीतगोविंदम्’ से लिये गए हैं।
मणिपुरी नृत्य (मणिपुर)
- मणिपुर राज्य की नृत्य शैली है।
- यह नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में, वैष्णव संप्रदाय के साथ विकसित हुआ।
- इसमें मुद्राओं का सीमित प्रयोग होता है तथा इसमें नर्तक धुंघरू नहीं बांधते।
- यह एक सामूहिक नृत्य है।
- आधुनिक समय में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसके विकास में महती भूमिका निभाई।
- उन्होंने इसका समस्त भारत में प्रसार किया ।
मणिपुरी नृत्य के विभिन्न रूप
- रासलीला
- संकीर्तन – पुरुष नर्तक, झुककर नृत्य करते हैं।
- थांगटा – युद्ध संबंधी दृश्यों का प्रदर्शन किया जाता है।
कथक नृत्य (उत्तर प्रदेश)
- कथक का उद्भव ‘कथा’ शब्द से हुआ है
- कथा का शाब्दिक अर्थ होता है- कथा कहना।
- इसी से दक्षिण भारत में कथा कलाक्षेपम/हरिकथा का रूप बना,ओर यही उत्तर भारत में कथक के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
- कथक का जन्म उत्तर भारत में हुआ ।
- इसे ‘नटवरी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है।
- अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय ठाकुर प्रसाद एक उत्कृष्ट नर्तक थे, जिन्होंने नवाब को नृत्य सिखाया तथा ठाकुर प्रसाद के तीन पुत्रों – बिंदादीन, कालका प्रसाद एवं भैरव प्रसाद ने कथक को लोकप्रिय बनाया।
- कालका प्रसाद के तीन पुत्रों- अच्छन, लच्छू तथा शम्भू ने इस पारिवारिक शैली को आगे बढ़ाया।
- कथक नृत्य की खास विशेषता इसके घिरनी खाने (चक्कर काटने) में है। इसमें घुटनों को नहीं मोड़ा जाता।
- कथक नृत्य को ध्रुपद एवं ठुमरी गायन के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
- भारत के शास्त्रीय नृत्यों में केवल कथक का ही संबंध मुस्लिम संस्कृति से भी रहा है।
कथक के घराने
- जयपुर घराना
- लखनऊ घराना
- बनारस घराना
- रायगढ़ घराना
जयपुर घराना
- जयपुर घराने से संबंधित गुरु
- गिरधारी महाराज ,श्रीमती शशि मोहन गोयल ,उमा शर्मा, प्रेरणा श्रीमाली, शोभना नारायण, राजेंद्र गगानी
लखनऊ घराना
- इस नृत्य को कई विधाओं में बाँटा गया है
- अप्सरा नृत्य
- बेहर नृत्य
- चाली नृत्य
- दशावतार नृत्य
- मंचोक नृत्य
- रास नृत्य आदि।
- इस घराने को प्रसिद्धि दिलाने का श्रेय पंडित लच्छू महाराज एवं पंडित बिरजू महाराज को जाता है।
वनारस घराना
- बनारस घराने की प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना – सितारा देवी ,जयंतीमाला
रायगढ़ घराना
- इस घराने की स्थापना जयपुर घराने के पंडित जयलाल, पंडित सीताराम प्रसाद, हनुमान प्रसाद तथा लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज, पंडित शंभू महाराज एवं पंडित लच्छू महाराज ने रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह के आश्रय में की।
- इस घराने को लोकप्रिय बनाने में पंडित कार्तिक राम एवं उनके पुत्र पंडित रामलाल का योगदान उल्लेखनीय है।
- रायगढ़ घराने के कथक में लखनऊ एवं जयपुर की मिश्रित शैली का उपयोग किया जाता है।
सत्रिया नृत्य (असम)
- यह असम की नृत्य शैली है।
- यह संगीत, नृत्य तथा अभिनय का सम्मिश्रण है।
- असम की इस नृत्य शैली के विकास का श्रेय 15वीं सदी के संत शंकरदेव को दिया जाता है।
- शंकरदेव ने इसे ‘अंकिया नाट’ के प्रदर्शन के लिये विकसित किया था।
- प्रारंभ में यह सत्रिया नृत्य पुरुषों द्वारा किया जाता था, परंतु अब इसे महिलाएँ भी करती हैं।
- इसमें शंकरदेव द्वारा संगीतबद्ध रचनाओं का प्रयोग होता है, जिसे ‘बोरगीत’ कहा जाता है।
- इस नृत्य शैली को संगीत नाटक अकादमी द्वारा 15 नवंबर, 2000 को शास्त्रीय नृत्य की सूची में सम्मिलित कर लिया गया।
भारत के प्रमुख लोकनृत्य
रउफ नृत्य
- कश्मीर घाटी
- सिर्फ महिलाओं द्वारा किया जाता है।
- यह नृत्य फसल कटाई के अवसर पर किया जाता है
- इस नृत्य में किसी भी प्रकार के वाद्ययंत्र का उपयोग नहीं होता है।
धमाली नृत्य
- कश्मीर घाटी
- पुरुषों द्वारा किया जाता है।
हिक्कात नृत्य
- कश्मीर घाटी
- इसमें युवा लड़के-लड़कियाँ आपस में जोड़ा बनाकर नृत्य करते हैं
- इस नृत्य में किसी वाद्ययंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता
कूद नृत्य
- सामूहिक नृत्य।
- फसल पकने के पश्चात्
जाब्रो नृत्य
- लद्दाख का लोकनृत्य
- इसमें महिलाएँ एवं पुरुष दोनों सम्मिलित होते हैं।
गिद्दा नृत्य
- पंजाब में महिलाओं द्वारा किया जाने वाला लोकनृत्य है।
मालवी गिद्दा नृत्य
- पंजाब में पुरुषों द्वारा
कीकली नृत्य
- पंजाब में केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है।
सम्मी नृत्य
- यह नृत्य गोल घेरे में महिलाओं द्वारा किया जाता है ।
पुंग चोलम नृत्य
- मणिपुर क्षेत्र में प्रचलित लोकनृत्य है।
- यह लोकनृत्य पुरुष प्रधान है, किंतु इसे पुरुष एवं महिला पुंग चोलम दोनों करते हैं।
- इस नृत्य का विषय रासलीला है।
- इसमें ‘पुंग’ नामक ढोल बजाया जाता है ।
ओट्टम थुल्लाल नृत्य
- इस लोकनृत्य को केरल के प्रसिद्ध कवि कुंचन नांबियार से जोड़ा जाता है।
कोथू नृत्य
- केरल के चाकयार कलाकारों द्वारा कोथामबम मंदिर में ।
- इस नृत्य में प्रयोग किये जाने वाले वाद्ययंत्र झाँझ, मंजीरा, ढोल आदि हैं। इन वाद्ययंत्रों में से झाँझ हमेशा महिलाओं द्वारा ही बजाया जाता है, जिसे ननगियार कहते हैं।
- इस नृत्य को एकल तौर पर भी प्रस्तुत किया जाता है, इसे प्रबंधा नृत्य कोथू भी कहते हैं।
कुडियाट्टम नृत्य
- यह केरल का प्रमुख लोकनृत्य है।
- इसे ‘कुडियाट्टम’ या ‘एक साथ नृत्य’ कहा गया।
- इसमें महिला एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं।
- कुडियाट्टम का मंचन मंदिर के आकार के बनाए गए थियेटर में किया जाता है।
- 10वीं सदी के राजा कुलशेखर द्वारा इस नृत्य में कुछ सुधार किये गए थे।
- कुडियाट्टम नृत्य एक सामूहिक नृत्य है, जिसे परंपरागत रूप से चाकयार जाति के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
- मंदिरों इत्यादि के अंदर किये जाने के पश्चात् इस नृत्य को कुथांबालम के नाम से जाना जाता है।
कृष्णाट्टम नृत्य
- यह केरल की प्रसिद्ध नृत्य है।
- इसमें भगवान कृष्ण की पूरी कहानी का अभिनय किया जाता है।
- प्राचीन धार्मिक लोकनृत्यों, जैसे- थियाट्टम, मुडियेटू एवं थेय्यम की कई विशेषताओं को कृष्णाट्टम में देखा जा सकता है।
भगोरिया नृत्य
- यह मध्य प्रदेश के ‘भील जनजाति ‘ का लोकनृत्य है।
- इसका प्रदर्शन होली के अवसर पर किया जाता है।
- फाल्गुन मास में
- इस पर्व में आयोजित हाट के द्वारा अविवाहित युवक-युवतियों को अपना मनपसंद जीवन-साथी चुनने का सुअवसर प्राप्त होता है।
मुखौटा नृत्य
- हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र किन्नौर तथा लाहुल-स्पीति में किया जाता है।
- नोटः ध्यातव्य है कि मुखौटा नृत्य अरुणाचल प्रदेश का भी लोकप्रिय लोकनृत्य है।
पडुआ गिद्दा
- हिमाचल प्रदेश में प्रचलित है।
- जब बारात वधू के घर पर जाती है तो उसके पश्चात् घर की स्त्रियाँ घर में ही यह यह नृत्य करती हैं।
नाटी नृत्य
- नाटी नृत्य हिमाचल प्रदेश में किया जाता है।
- इसे ढीली नाटी भी कहा जाता है।
झमाकड़ा नृत्य
- हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा क्षेत्र में
- विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य है।
घुरेई नृत्य
- यह हिमाचल प्रदेश के चंबा में किया जाने वाला पारंपरिक नृत्य है।
- इस नृत्य को केवल स्त्रियाँ ही करती हैं।
छाम नृत्य (पिशाच या असुर नृत्य)
- यह हिमाचल प्रदेश का एक प्रसिद्ध लोकनृत्य है।
बुराह नृत्य
- हिमाचल प्रदेश में प्रचलित लोकनृत्य है।
- यह युद्ध कौशल को प्रदर्शित करने वाला नृत्य है, जिसमें नर्तक कुल्हाड़ी लेकर नृत्य करते हैं।
गरबा नृत्य
- यह गुजरात का नृत्य है, जिसे नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है।
- गरबा नृत्य देवी दुर्गा की आराधना में किया जाता है।
डांडिया रासनृत्य
- यह गुजरात का लोकनृत्य है।
- इसे नवरात्रि के अवसर प्रस्तुत किया जाता है।
भवई नृत्य
- राजस्थान और गुजरात का लोकनृत्य है
- नवरात्रि के अवसर पर देवी अंबा की पूजा के दौरान प्रस्तुत किया जाता है।
घूमर नृत्य
- राजस्थान का लोकनृत्य
- राजस्थान की भील जनजाति द्वारा विकसित किया गया।
- घूमर नृत्य केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है।
बिहू नृत्य
- असम का लोकनृत्य
- असम की कचारी, खासी आदि जनजातियों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है।
- इस नृत्य के 3 रूप हैं – बोहाग बिहू, माघ बिहू एवं काटी बिहू।
- इस नृत्य में ढोल, पेपा (भैंस के सींग से बना उपकरण), बाँसुरी, गोगोना जैसे वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।
पंडवानी नृत्य
- यह छत्तीसगढ़ का लोकनृत्य है।
- इस लोकनृत्य का मूल आधार पांडवों की कथाएँ हैं।
- प्रसिद्ध कलाकार – तीजनबाई
कालबेलिया नृत्य
- राजस्थान की कालबेलिया जनजाति द्वारा
- यह नृत्य महिलाओं द्वारा किया जाता है।
- 2010 में कालबेलिया नृत्य को यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल कर लिया गया।
तेरहताली नृत्य
- कमाड़ जाति की महिलाओं द्वारा
- राजस्थान का लोकनृत्य
- नृत्य करते समय महिलाएँ अपने हाथों, पैरों व शरीर के 13 स्थानों पर मंजीरे बांधती हैं।
- इस नृत्य का उद्गम स्थल पादरला गाँव (पाली ज़िला में अवस्थित) को माना जाता है।
- यह रामदेवजी मेले का मुख्य आकर्षण होता है।
रासलीला नृत्य
- उत्तर प्रदेश और मणिपुर में प्रचलित
- भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं पर आधारित है।
- इसमें नर्तक राधा-कृष्ण तथा गोप-गोपियों का रूप धारण करके नृत्य करते हैं।
- रासलीला के सभी पात्र मुख्य रूप से किशोर अथवा युवा पुरुष होते हैं, जो महिला पात्रों की भूमिका को भी निभाते हैं।
चौलरनृत्य
- उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर क्षेत्र में प्रचलित है।
- इस लोकनृत्य को कजरी लोकगीत के गायन के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
सायरा नृत्य
- यह लोकनृत्य बुंदेलखंड क्षेत्र में प्रचलित है।
- बरसात के मौसम में
छऊनृत्य
- छऊ का सामान्य अर्थ ‘छाया’ अथवा ‘मुखौटा’ होता है।
- झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के जन जातीय क्षेत्रों में
- चैत्र माह में
- सन् 2010 में छऊ नृत्य को यूनेस्को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल कर लिया गया।
गंगिया नृत्य
- यह बिहार का प्रसिद्ध लोकनृत्य है।
बोलबै नृत्य
- बिहार के भागलपुर एवं उसके आस-पास के इलाके में
- इस नृत्य में पति के परदेश जाने का ज़िक्र होता है।
सामा-चकेवानृत्य
- बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में
- इस नृत्य को महिलाओं एवं लड़कियों द्वारा अपने भाइयों के हित के लियेकार्तिक मास में किया जाता है।
झिझिया नृत्य
- बिहार के मिथिला क्षेत्र में
जट-जटिन नृत्य
- जट-जटिन, बिहार में प्रचलित लोकनृत्य है।
- यह नृत्य बरसात के मौसम में भगवान इंद्र को मनाने के लिये किया जाता है।
डोमकच नृत्य (पाई)
- शादी-ब्याह के अवसर पर बिहार में महिलाओं द्वारा
- जब बारात दुल्हन के घर की तरफ रवाना होती है और घर पर सिर्फ महिलाएँ ही रह जाती हैं तो वे पुरुषों का वेश धारण कर नृत्य नाटिका करती हैं।
तमाशा नृत्य
- महाराष्ट्र का लोकनृत्य है।
- महाराष्ट्र के कोल्हाटी समुदाय द्वारा किया जाता है।
लावणी नृत्य
- महाराष्ट्र
- यह दो प्रकार का होता है- निर्गुणी लावणी तथा शृंगारी लावणी।
दिंडी नृत्य
- महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में
- कार्तिक मास की एकादशी के दिन
कला नृत्य
- महाराष्ट्र क्षेत्र
- श्री कृष्ण के नटखट स्वभाव को दर्शाने के साथ ही मटकी फोड़ने का खेल
बगुरूंबानृत्य
- असम में बोडो जनजातियों का नृत्य
- महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य
बाँस नृत्य/चेराव नृत्य
- मिज़ोरम के आदिवासियों द्वारा
चौंगलैजॉन नृत्य
- मिज़ोरम की पावि जनजाति द्वारा किया जाता है।
- चौंगलैजॉन नृत्य सुख एवं दुःख, दोनों अवसरों पर किया जाता है।
- कब आयोजित
- किसी विवाहित महिला की मृत्यु पर पति की पीड़ा को चित्रित करने हेतु
- अच्छे शिकार के बाद शिकारी का स्वागत करने हेतु
परलम नृत्य
- मिज़ोरम में महिलाओं द्वारा
चैलम नृत्य /चपचर कुट त्योहार
- चपचर कुट त्योहार मार्च के महीने में मिज़ोरम में
- यह त्यौहार जंगल की सफाई से संबंधित है।
- इस नृत्य में पुरुष तथा महिलाएँ एक के बाद एक गोलाकार घेरे के रूप में खडे रहते हैं।
करमा नृत्य
- (ओडिशा/छत्तीसगढ़/मध्य प्रदेश/बिहार)
- इस नृत्य में स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं।
चरकुलानृत्य
- उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र में प्रचलित लोकनृत्य है।
- यह नृत्य होली के तीसरे दिन आयोजित किया जाता है।
- इसमें महिलाएँ दीपक रखे हुए गोलाकार पात्र को सिर के ऊपर रखकर नृत्य करती हैं।
काठी नृत्य व बाउल नृत्य
- पश्चिम बंगाल
- इस नृत्य में ‘मादल’ नामक वाद्य-यंत्र का प्रयोग होता है।
रायबेशी लोकनृत्य
- पश्चिम बंगाल
- यह नृत्य पुरुष प्रधान होता है, ।
नोंग्क्रम लोकनृत्य
- मेघालय का लोकनृत्य
- मेघालय की जनजातियों ( खासी जनजाति) द्वारा शरद् ऋतु (पतझड़ का मौसम) में किया जाता है।
लॉयन एंड पीकॉक नृत्य
- अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र के मोनपा जनजाति द्वारा
- इसमें महिला व पुरुष दोनों भाग लेते हैं।
- नृत्य में भाग लेने वाले लोग, सिंह का मुखौटा धारण करते हैं।
घुमुरा लोकनृत्य
- ओडिशा का जनजातीय लोकनृत्य है जो विशेषतः कालाहांडी जिले में प्रचलित है।
प्रमुख आधुनिक नृत्य
हिप-हॉप डांस
- इसे ‘स्ट्रीट डांसिग’ भी कहा जाता है।
- डांस की इस शैली में ‘लॉकिंग’ और ‘पॉपिंग’ भी आते हैं।
सालसा
- यह क्यूबा का डांस स्टाइल है, जिसे कामुक एवं जीवंत माना जाता है।
- इसमें रोमांस, प्यार और भावनाओं को प्रदर्शित किया जाता है।
बेली डांस
- बेली डांस पश्चिमी एशियाई देशों की महिलाओं के बीच लोकप्रिय है।
लाइन डांस
- इसे एरोबिक्स या जुंबा के नाम से भी जाना जाता है।
बॉलरूम डांस
नृत्य से जुड़े प्रमुख व्यक्तित्व
पद्मा सुब्रह्मण्यम,
- भरतनाट्यम की कलाकार
- जन्म- मद्रास प्रेसिडेंसी में ,4 फरवरी, 1943
सोनल मानसिंह
- ओडिसी नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना
- जन्म – 30 अप्रैल, 1944 ,मुंबई में
- ओडिसी के अतिरिक्त ये भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी एवं छऊ नृत्य से भी जुड़ी हैं।
- पुरस्कार – पद्मविभूषण, पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड
मृणालिनी साराभाई
- कथकली एवं भरतनाट्यम की प्रसिद्ध नत्यांगना
- जन्म – 11 मई, 1018 ,केरल में
- इन्होंने प्रसिद्ध नृत्यांगना मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई से भरतनाट्यम का प्रशिक्षण लिया
- उसके पश्चात् दक्षिण भारत के थाकाजी कुंचू कुरूप से कथकली का प्रशिक्षण प्राप्त किया।
- सम्मान- पद्मश्री, पद्मभूषण तथा कालिदास सम्मान
सितारा देवी
- ‘कथक’ की नृत्यांगना
- जन्म – 8 नवंबर, 1920 ,कोलकाता में,
- शंभू महाराज एवं अच्छन महाराज से नृत्य की शिक्षा ग्रहण की।
- सम्मान- संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री, कालिदास सम्मान
- देहावसान- 25 नवंबर, 2014 को मुंबई में हुआ।
बिरजू महाराज
- कथक नर्तक ,शास्त्रीय गायक
- जन्म – लखनऊ के एक बड़े कथक घराने में हुआ था।
- पिता – अच्छन महाराज एवं चाचा शंभू महाराज कथक के सुप्रसिद्ध कलाकार थे।
- पुरस्कार – पद्मविभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कालिदास सम्मान ,’विश्वरूपम’ फिल्म के लिये बेस्ट कोरियोग्राफर सम्मान
यामिनी कृष्णमूर्ति
- ‘भरतनाट्यम’ एवं ‘कुचिपुड़ी’ की प्रसिद्ध नृत्यांगना हैं।
- जन्म – 20 दिसंबर, 1940 ,आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में
- सम्मान- पद्मश्री (1968), पद्मभूषण (2001), पद्मविभूषण (2016), सांभवी स्कूल ऑफ डांस द्वारा ‘नाट्यशास्त्र सम्मान’
आरुषि मुद्गल
- ओडिसी नृत्यांगना
- इन्होंने अपनी बुआ माधवी मुद्गल से नृत्य की शिक्षा ली।
- माधवी मुद्गल के अतिरिक्त इन्होंने केलुचरण महापात्र, लीला सैमसन, प्रियदर्शिनी गोविंद जैसे कलाकारों का भी मार्गदर्शन प्राप्त किया।
- पुरस्कार – संगीत नाटक अकादमी ,’बिस्मिल्लाह खाँ युवा पुरस्कार’
चारू सिजा माथुर
- मणिपुरी नृत्य का नृत्यांगना
- पुरस्कार– संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, दिल्ली साहित्य कला परिषद् सम्मान ,इंदिरा प्रियदर्शिनी पुरस्कार
भारती शिवाजी
- मोहिनीअट्टम की प्रसिद्ध नृत्यांगना
- जन्म- 1948 ई. में, तमिलनाडु के कुंबकोणम में हुआ था।
- इन्होंने मोहिनीअट्टम के साथ ही भरतनाट्यम एवं ओडिसी नृत्य की भी शिक्षा क्रमशः ललिता शास्त्री एवं केलुचरन महापात्र से ली तथा मोहिनीअट्टम की शिक्षा इन्होंने राधा मरार कलामंडलम सत्यभामा एवं कलामंडलम कल्यानीकुट्टी अम्मा से प्राप्त की।
लच्छू महाराज
- भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक के नर्तक
- इन्होंने हिंदी सिनेमा ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘पाकीज़ा’ के लिये भी नृत्य-निर्देशन किया।
- इन्होंने पंडित बिंदादीन महाराज से नृत्य की शिक्षा ली।
- 1957 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (कला के क्षेत्र में)