मूल अधिकार (Fundamental right)
- संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकारों का विवरण है।
- भारतीय संविधान में मूल अधिकार अमेरिकी संविधान से लिया गया है ।
- संविधान के भाग 3 को भारत का मैग्नाकार्टा” कहा जाता है।
- मूल अधिकारों को मूल अधिकार नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि मूल अधिकारों को संविधान द्वारा गारंटी एवं सरक्षा प्रदान की गई है। ये ‘मूल’ इसलिए भी हैं क्योंकि ये व्यक्ति के चहुंमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक) के लिए आवश्यक हैं।
मूल संविधान ने सात मूल अधिकार प्रदान किए:
- संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया गया है। इसे संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300A के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
- वर्तमान में छह मूल अधिकार है।
मूल अधिकारों की विशेषताएं
- कुछ मूल अधिकार सिर्फ नागरिकों के लिए हैं, जबकि कुछ अन्य सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हैं
- चाहे वे नागरिक, विदेशी लोगों या कानूनी व्यक्ति, जैसे-परिषद् एवं कंपनियां हों।
- ये असीमित नहीं है, लेकिन वादयोग्य होते हैं। राज्य उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। हालांकि ये कारण उचित है या नहीं इसका निर्णय अदालत करती है।
- ये न्यायोचित हैं । ये व्यक्तियों को अदालत जाने की अनुमति देते हैं। जब भी इनका उल्लंघन होता है।
- इन्हें उच्चतम न्यायालय द्वारा गारंटी व सुरक्षा प्रदान की जाती है।
- ये स्थायी नहीं हैं। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है लेकिन संविधान संशोधन अधिनियम के तहत, न कि साधारण विधेयक द्वारा । यह सब संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित किए बिना किया जा सकता है
- राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित 6 मूल अधिकारों को तब स्थगित किया जा सकता है, जब युद्ध या विदेशी आक्रमण के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो। इसे सशस्त्र विद्रोह (आंतरिक आपातकाल) के आधार पर स्थगित नहीं किया जा सकता।
- सशस्त्र बलों, अर्द्ध सैनिक बलों, पुलिस बलों, गुप्तचर संस्थाओं और ऐसी ही सेवाओं से संबंधित सेवाओं के क्रियान्वयन पर संसद प्रतिबंध आरोपित कर सकती है (अनुच्छेद 33)।
- ऐसे इलाकों में भी इनका क्रियान्वयन रोका जा सकता है, जहां फौजी कानून प्रभावी हो। फौजी कानून का मतलब ‘सैन्य शासन’ से है, जो असामान्य परिस्थितियों में लगाया जाता है (अनुच्छेद 34)। यह राष्ट्रीय आपातकाल से भिन्न है।
- इनमें से ज्यादातर अधिकार स्वयं प्रवर्तित हैं, जबकि कुछ को कानून की मदद से प्रभावी बनाया जाता है। ऐसा कानून देश की एकता के लिये संसद द्वारा बनाया जाता है, न कि विधान मंडल द्वारा ताकि संपूर्ण देश में एकरूपता बनी रहे (अनुच्छेद 35)।
राज्य की परिभाषा
- ‘राज्य’ शब्द को अनुच्छेद 12 में भाग-III के उद्देश्य के तहत परिभाषित किया गया है।
- राज्य में निम्न शामिल हैं:
- कार्यकारी एवं विधायी अंगों को संघीय सरकार में क्रियान्वित करने वाली सरकार और भारत की संसद।
- राज्य सरकार के विधायी अंगों को प्रभावी करने वाली सरकार एक और राज्य विधानमंडल
- सभी स्थानीय निकाय अर्थात् नगरपालिकाएं, पंचायत, जिला बोर्ड सुधार न्यास आदि।
- अन्य सभी निकाय अर्थात् वैधानिक या गैर-संवैधानिक प्राधिकरण, जैसे-एलआईसी, ओएनजीसी, सेल आदि।
मूल अधिकारों से असंगत विधियां
- अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां शून्य होंगी।
- ये न्यायिक समीक्षा योग्य हैं।
- यह शक्ति उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को प्राप्त है, जो किसी विधि को मूल अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर गैर-संवैधानिक या अवैध घोषित कर सकते हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) में कहा कि मूल अधिकारों के हनन के आधार पर संविधान संशोधन को चुनौती दी जा सकती है। यदि वह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ हो तो उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।
समानता का अधिकार (LD-OUT)
अनच्छेद 14 -विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण
- अनच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
- प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह नागरिक हो या विदेशी सब पर यह अधिकार लागू होता है।
- इसके अतिरिक्त व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात् सांविधानिक निगम, कपंनियां, पंजीकृत समितियां या किसी भी अन्य तरह का विधिक व्यक्ति सम्मिलित हैं।
- ‘विधि के समक्ष समता’ का विचार ब्रिटिश मूल का है, जबकि ‘विधियों के समान संरक्षण’ को अमेरिका के संविधान से लिया गया है।
अनुच्छेद 15 -कुछ आधारों पर विभेद का प्रतिषेध
- पहला व्यवस्था– राज्य किसी नागरिक के प्रति केवल धर्म,वंश जाति, लिंग या जन्म स्थान को लेकर विभेद नहीं करेगा।
- दूसरी व्यवस्था – कोई नागरिक केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधर पर किसी अन्य नागरिक के साथ विभेद नहीं करेगा।
- दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश
- राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, के प्रयोग से ।
अनुच्छेद 16-लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता
- अनुच्छेद 16 में राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति सबधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी ।
- किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता या केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म का स्थान ,निवास के स्थान के आधार पर राज्य के किसी भी रोजगार एव कार्यालय के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
मंडल आयोग और उसके परिणाम
- वर्ष 1979 में मोरारजी देसाई सरकार ने द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन संसद सदस्य बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में किया।
- अनुच्छेद 340 – संविधान पिछड़े वर्गों के लोगों की शैक्षणिक एवं सामाजिक स्थिति की जांच करते हुए उनकी उन्नति के लिए सुझाव प्रस्तुत करने की व्यवस्था करता है।
- आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में प्रस्तुत की और 3743 जातियों की पहचान की जो सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार पर पिछड़ी थीं।
- आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की।
- इस तरह संपूर्ण आरक्षण (अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों का) 50 प्रतिशत हो गया।
- दस वर्ष बाद 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने सरकारी सेवाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी।
उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के बाद सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए:
- अन्य पिछड़े वर्गों में क्रीमीलेयर की पहचान के लिए राम नंदन समिति का गठन किया।
- इसने 1993 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसे स्वीकार कर लिया गया।
- संसद के एक अधिनियम द्वारा 1993 में पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया।
- प्रोन्नति में आरक्षण को समाप्त करने के मामले में 77वें संशोधन अधिनियम को 1995 में पास कराया गया।
- इसने अनुच्छेद 16 में नई व्यवस्था जोड़ी। इसके तहत राज्यों को शक्ति प्रदान की गई कि राज्य सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में राज्य के अंतर्गत सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है।
- 2001 का 85वां संशोधन अधिनियम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सरकारी सेवकों हेतु आरक्षण नियम के तहत प्रोन्नति के मामले में परिणामिक वरिष्ठता की व्यवस्था करता है।
- इसे पूर्वगामी जून, 1955 से प्रभावी किया गया।
- इसने बैकलॉग रिक्तियों में आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को समाप्त कर दिया।
- बैकलॉग रिक्तियों के संबंध में निर्णय को 81वें संशोधन अधिनियम 2000 के तहत रद्द किया गया।
- 76वें संशोधन अधिनियम 1994 ने तमिलनाडु आरक्षण अधिनियम, 1994 9वीं सूची में न्यायिक समीक्षा के तहत 69 प्रतिशत आरक्षण को 50 प्रतिशत के स्थान पर स्थापित कर दिया गया।
अनुच्छेद 17-अस्पृश्यता का अंत
- अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करने की व्यवस्था और किसी भी रूप में इसका आचरण को निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि अनुसार दंडनीय होगा।
- 1976 में, अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 में मूलभूत संशोधन किया गया और इसको नया नाम ‘नागरिक अधिकारों की रक्षा अधिनियम 1955’ दिया गया तथा इसमें विस्तार कर दंडिक उपबंध और सख्त बनाए गए।
- अधिनियम में अस्पृश्यता को समाप्त किया गया
- जन अधिकार सुरक्षा अधिनियम (1955) के अंतर्गत छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित किया गया।
- इसके तहत 6 माह का कारावास या 500 रुपये का दंड अथवा दोनों शामिल हैं।
- जो व्यक्ति इसके तहत दोषी करार दिया जाए, उसे संसद या राज्य विधानमंडल चुनाव के लिए अयोग्य करार देने की व्यवस्था की गई।
यह अधिनियम निम्नलिखित को अपराध मानता है
- किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पूजा स्थल में प्रवेश से रोकना या कहीं पर पूजा से रोकना।
- परंपरागत, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधार पर ‘अस्पृश्यता’ को न्यायोचित ठहराना।
- किसी दुकान, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन स्थल में प्रवेश से इंकार करना।
- ‘अस्पृश्यता’ के आधार पर अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति की बेइज्जती करना।
- अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों या हॉस्टल में सार्वजनिक हित के लिए प्रवेश से रोकना।
- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता को मानना।
- किसी व्यक्ति को सामान बिक्री या सेवाएं देने से रोकना।
अनुच्छेद 18-उपाधियों का अंत
- यह निषेध करता है कि राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाएं और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
- यह निषेध करता है कि भारत का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।
- कोई विदेशी, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी ” पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
- राज्य के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
- 1996 में उच्चतम न्यायालय ने पद्म विभूषण, पद्म भूषण एवं पद्म श्री उपलब्धियों की संवैधानिक वैधता को उचित ठहराया था
- न्यायालय ने कहा कि ये पुरस्कार उपाधि नहीं हैं तथा अनुच्छेद 18 में वर्णित प्रावधानों का इनसे उल्लंघन नहीं होता है।
- पुरस्कार पाने वालों के नाम के प्रत्यय या उपसर्ग के रूप में इनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, अन्यथा उन्हें पुरस्कारों को त्यागना होगा।
मूल अधिकार
स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19(6 अधिकार)
1. छह अधिकारों की रक्षा अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को छह अधिकारों की गारंटी देता है। ये हैं:
- मूलतः अनुच्छेद 19 में 7 अधिकार थे, लेकिन संपत्ति को खरीदने, अधिग्रहण करने या बेच देने के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम के तहत समाप्त कर दिया गया।
- इन छह अधिकारों की रक्षा केवल राज्य के खिलाफ मामले में है न कि निजी मामले में।
- ये अधिकार केवल नागरिकों और कंपनी के शेयर धारकों के लिए हैं, न कि विदेशी या काननी लोगों जैसे कंपनियों या परिषदों के लिए।
- राज्य इन छह अधिकारों पर अनुच्छेद 19 में उल्लिखित आधारों पर ‘उचित’ प्रतिबंध लगा सकता है।
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
- यह प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत देने, विश्वास एवं अभियोग लगाने की मौखिक, लिखित, छिपे हुए मामलों पर स्वतंत्रता देता है।
- उच्चतम न्यायालय ने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निम्नलिखित को सम्मिलित कियाः
(i) अपने या किसी अन्य के विचारों को प्रसारित करने का अधिकार।
(ii) प्रेस की स्वतंत्रता।
(iii) व्यावसायिक विज्ञापन की स्वतंत्रता।
(iv) फोन टैपिंग के विरुद्ध अधिकार ।
(v) प्रसारित करने का अधिकार अर्थात् सरकार का इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर एकाधिकार नहीं है।
(vi) किसी राजनीतिक दल या संगठन द्वारा आयोजित बंद के खिलाफ अधिकार।
(vii) सरकारी गतिविधियों की जानकारी का अधिकार।
(viii) शांति का अधिकार।
(ix) किसी अखबार पर पूर्व प्रतिबंध के विरुद्ध अधिकार।
(x) प्रदर्शन एवं विरोध का अधिकार, लेकिन हड़ताल का अधिकार नहीं।
- राज्य वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है।
- यह प्रतिबंध लगाने के आधार इस प्रकार हैंभारत की एकता एवं संप्रभुता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों से मित्रवत संबंध, सार्वजनिक आदेश, नैतिकता की स्थापना, न्यायालय की अवमानना, किसी अपराध में संलिप्तता आदि।
शांतिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता
- किसी भी नागरिक को बिना हथियार के शांतिपूर्वक संगठित होने का अधिकार है।
- इसमें शामिल हैं-
- सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन।
- इस स्वतंत्रता का उपयोग केवल सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के किया जा सकता है।
- यह व्यवस्था हिंसा, अव्यवस्था, गलत संगठन एवं सार्वजनिक शांति भंग के लिए नहीं है। इस अधिकार में हड़ताल का अधिकार शामिल नहीं है।
- राज्य संगठित होने के अधिकार पर दो आधारों पर प्रतिबंध लगा सकता है
- भारत की एकता अखंडता
- सार्वजनिक आदेश, सहित संबंधित क्षेत्र में यातायात नियंत्रण।
संगम या संघ बनाने का अधिकार
- सभी नागरिकों को सभा, संघ अथवा सहकारी समितियां गठित करने का अधिकार होगा।
- इसमें शामिल हैं
- राजनीतिक दल बनाने का अधिकार, कंपनी, साझा फर्म, समितियां, क्लब, संगठन, व्यापार संगठन या लोगों की अन्य इकाई बनाने का अधिकार।
- यह न केवल संगम या संघ बनाने का अधिकार प्रदान करता है, वरन उन्हें नियमित रूप से संचालित करने का अधिकार भी प्रदान करता है।
- इस अधिकार पर भी राज्य द्वारा युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
- इसके आधार हैं भारत की एकता एवं संप्रभुता, सार्वजनिक आदेश एवं नैतिकता।
- इन प्रतिबंधों का आधार है कि नागरिकों को कानूनी प्रक्रियाओं के तहत कानून सम्मत उद्देश्यों के लिए संगम या संघ बनाने का अधिकार है तथापि किसी संगम की स्वीकारोक्ति मूल अधिकार नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि श्रम संगठनों को मोलभाव करने, हड़ताल करने एवं तालाबंदी करने का कोई अधिकार नहीं है।
- हड़ताल के अधिकार को उपयुक्त औद्योगिक कानून के तहत नियंत्रित किया जा सकता है।
अबाध संचरण की स्वतंत्रता
- प्रत्येक नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में संचरण का अधिकार प्रदान करती है।
- वह स्वतंत्रतापूर्वक एक राज्य से दसरे राज्य में या एक राज्य में एक से दूसरे स्थान पर संचरण कर सकता है।
- इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने के दो कारण हैं
- आम लोगों का हित
- किसी अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा या हित।
- उच्चतम न्यायालय ने इसमें व्यवस्था दी कि किसी वेश्या के संचरण के अधिकार को सार्वजनिक नैतिकता एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है।
- बम्बई उच्च न्यायालय ने एड्स पीड़ित व्यक्ति के संचरण पर प्रतिबंध को वैध बताया।
- संचरण की स्वतंत्रता के दो भाग हैं-
- आंतरिक (देश में निर्बाध संचरण)
- बाह्य (देश के बाहर घूमने का अधिकार) तथा देश में वापस आने का अधिकार।
- अनुच्छेद 19 मात्र पहले भाग की रक्षा करता है। दूसरे, भाग को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) व्याख्यायित करता है।
निवास का अधिकार
- हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में बसने का अधिकार है।
- इस अधिकार के दो भाग हैं-
- देश के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार
- अस्थायी रूप से रहना
- (ब) देश के किसी भी हिस्से में व्यवस्थित होने का आधकार
- घर बनाना एवं स्थायी रूप से बसना।
- देश के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार
- यह अधिकार देश के अंदर कहीं जाने के आंतरिक अवरोधों का समाप्त करता है।
- राज्य इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध दो आधारों पर लगा सकता है
- विशेष रूप से आम लोगों के हित में
- अनुसचित जनजातियों के हित में जनजातीय क्षेत्रों में ।
व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता
- सभी नागरिकों को किसी भी व्यवसाय को करने, पेशा अपनाने एवं व्यापार शुरू करने का अधिकार दिया गया है।
- यह अधिकार जीवन निर्वहन हेतु आय से संबंधित है।
- राज्य सार्वजनिक हित में इसके प्रयोग पर प्रतिबंध लगा सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य को यह अधिकार है कि वहः
- किसी पेशे या व्यवसाय के लिए पेशेगत या तकनीकी योग्यता को जरूरी ठहरा सकता है।
- किसी व्यापार, व्यवसाय, उद्योग या सेवा को पूर्ण या आंशिक रूप से स्वयं जारी रख सकता है।
- इस प्रकार, राज्य किसी व्यापार, व्यवसाय उद्योग पर अपना एकाधिकार जता सकता है
अनुच्छेद-20-अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण
- अनुच्छेद-20 किसी भी अभियुक्त या दोषी करार व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी या कंपनी व परिषद का कानूनी व्यक्ति हो, उसके विरुद्ध मनमाने और अतिरिक्त दण्ड से संरक्षण प्रदान करता है है।
- इस संबंध में तीन व्यवस्थाएं हैं:
(अ) no ex post facto law : (संविधान भूतपूर्व कानून बनाने पर रोक लगाता है।)
(अपराध के घटित होने के समय के आधार पर )- when act was committed, that act was legal but after commitment, new law makes that act illegal .
- किसी व्यक्ति को अपराध के लिए तब तक दोषसिद्ध नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने अपराध के रूप में ऐसा कोई कार्य करने के लिए विधि का अतिक्रमण नहीं किया है
- किसी व्यक्ति को अपराध के लिए विधि के अधीन अधिरोपित दंड से अधिक का दंडभागी नहीं होगा, जो उस अपराध के लिए थी।
(ब) दोहरी क्षति नहीं: (No double jeopardy)
- किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक दंडित नहीं किया जाएगा।
(स) स्व-अभिशंसन नहीं:
- किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति(accused) को अपने विरुद्ध स्वयं साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
- एक पूर्व पद प्रभाव-कानून वह है, जो पूर्व व्यापी प्रभाव से दण्ड अध्यारोपित करता है अर्थात् किए गए कृत्यों पर या जो ऐसे कृत्यों हेतु दण्ड को बढ़ाता है।
- इस तरह की सीमाएं केवल आपराधिक कानूनों में ही हैं, न कि सामान्य सिविल अधिकार या कर कानूनों में।
अनुच्छेद 21- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 21 में घोषणा की गई है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।
- उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ एक व्यक्ति की शारीरिक एवं निजी स्वतंत्रता से है।
- मेनका मामले (1978) में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को उचित एवं न्यायपूर्ण मामले के आधार पर रोका जा सकता है।
- इसके प्रभाव में अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा केवल मनमानी कार्यकारी क्रिया पर ही उपलब्ध नहीं बल्कि विधानमंडलीय क्रिया के विरुद्ध भी उपलब्ध है।
-
इसमें अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में निम्नलिखित अधिकारों की घोषणा की:
अनुच्छेद 21A – शिक्षा का अधिकार
- अनुच्छेद 21क में ,राज्य 6 से 14 वर्ष तक का उम्र के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा। इसका निर्धारण राज्य करेगा।
- यह व्यवस्था 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत की गयी है।
- 1993 में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वयं जीवन के अधिकार में प्राथमिक शिक्षा को मूल अधिकार में जोड़ा।
- इसमें व्यवस्था की गई कि भारत के किसी भी बच्चे को 14 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जाए।
- इसके उपरांत उसकी शिक्षा का अधिकार आर्थिक क्षमता की सीमा एवं राज्य के विकास का विषय है।
शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009
- अनुच्छेद 21A के अनुसरण में, संसद ने बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 अधिनियमित किया
- इस अधिनियम के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि 14 वर्ष की आयु तक के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है।
अनुच्छेद 22-निरोध एवं गिरफ्तारी से संरक्षण
- अनुच्छेद 22 किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी एवं निरोध से संरक्षण प्रदान करता है।
- हिरासत दो तरह की होती हैं
- दंड विषयक (कठोर)
- निवारक
दंड विषयक हिरासत
- एक व्यक्ति को दंड देती है, जिसने अपराध स्वीकार कर लिया है और अदालत में उसे दोषी ठहराया जा चुका है।
निवारक हिरासत
- वह है, जिसमें बिना सुनवाई के अदालत में दोषी ठहराया जाए।
- इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को पिछले अपराध पर दंडित न कर भविष्य में ऐसे अपराध न करने की चेतावनी देने जैसा है।
- इस तरह निवारक हिरासत केवल शक के आधार पर एहतियाती होती है।
अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं
- पहला भाग साधारण कानूनी मामले से संबंधित है,
- दूसरा भाग निवारक हिरासत के मामलों से(from preventive custody cases) संबंधित है।
(A) अनुच्छेद 22 का पहला भाग – उस व्यक्ति को जिसे साधारण कानून के तहत हिरासत में लिया गया निम्नलिखित अधिकार उपलब्ध कराता है:
- गिरफ्तारी के आधार के बारे में जानने का अधिकार
- विधि व्यवसायी से परामर्श और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार।
- दंडाधिकारी (magistrate) के सम्मुख 24 घंटे में, यात्रा के समय को मिलाकर पेश होने का अधिकार।
- दंडाधिकारी द्वारा बिना अतिरिक्त निरोध दिए 24 घंटे में रिहा होने का अधिकार।
Note:
- यह सुरक्षा कवच विदेशी व्यक्ति या निवारक हिरासत कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार व्यक्ति के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
- अनुच्छेद 22 का प्रथम भाग ‘गिरफ्तारी और निरोध’ न्यायालय के आदेश के अंतर्गत गिरफ्तारी, जन-अधिकार गिरफ्तारी, आयकर न देने पर गिरफ्तारी एवं विदेशी के पकड़े जाने पर लागू नहीं होता।
- इसका प्रयोग केवल आपराधिक क्रियाओं या सरकारी अपराध प्रकृति एवं कुछ प्रतिकूल सार्वजनिक हितों पर हो सकता है।
(B) अनुच्छेद 22 का दूसरा भाग – उन व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है, जिन्हें दंड विषयक कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है। यह सुरक्षा नागरिक एवं विदेशी दोनों के उपलब्ध है। इसमें शामिल हैं
- व्यक्ति की हिरासत तीन माह से ज्यादा नहीं बढ़ाई जा सकती,
- जब तक कि सलाहकार बोर्ड इस बारे में उचित कारण न बताए। बोर्ड में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश होंगे।
- निरोध का आधार संबंधित व्यक्ति को बताया जाना चाहिए।
- हालांकि सार्वजनिक हितों के विरुद्ध इसे बताना आवश्यक नहीं है।
- निरोध वाले व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह निरोध के आदेश के विरुद्ध अपना प्रतिवेदन करे।
NOTE :
- 44वें संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा निरोध की अवधि को बिना सलाहकार बोर्ड के राय के तीन से दो माह कर दिया गया है।
- हालांकि यह व्यवस्था अब भी प्रयोग में नहीं आई, जबकि निरोध की मूल अवधि तीन माह की अब भी जारी है।
- संविधान ने हिरासत मामले में वैधानिक शक्तियों को संसद एवं विधानमंडल के बीच विभक्त किया है।
- निवारक निरोध कानून, जिन्हें संसद द्वारा बनाया गया है:
- निवारक निरोध अधिनियम 1950
- आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) 1971
- विदेशी मुद्रा का संरक्षण एवं व्यसन निवारण अधिनियम (COFEPOSA) 1974
- राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NASA), 1980
- चोरबाजारी निवारण और आवश्यक वस्तु प्रदाय अधिनियम (PBMSECA), 1980
- आतंकवादी और विध्वंसक क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (TADA) 1985
- स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ व्यापार निवारण(PITNDPSA) अधिनियम, 1988।
- आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA) 2002
- भारत में भी ब्रिटिश शासनकाल क समय निवारक निरोध की व्यवस्था थी।
- बंगाल राज्य कैदी घयक, 1818
- भारत की सुरक्षा अधिनियम, 1939
शोषण के विरुद्ध अधिकार
Right against Exploitation
अनुच्छेद 23-मानव दुर्व्यापार एवं बलात् श्रम का निषेध
Prohibition of human trafficking and forced labor
- अनुच्छेद 23 मानव दुर्व्यापार, बेगार और बलात् श्रम पर प्रतिबंध लगाता है।
- यह अधिकार नागरिक एवं गैर-नागरिक दोनों के लिए उपलब्ध होगा।
- यह किसी व्यक्ति को न केवल राज्य के खिलाफ बल्कि व्यक्तियों के खिलाफ भी सुरक्षा प्रदान करता है।
‘मानव दुर्व्यापार’ शब्द में शामिल हैं
(i) पुरुष, महिला एवं बच्चों की, वस्तु के समान खरीद-बिक्री,
(ii) महिलाओं और बच्चों का अनैतिक दुर्व्यापार(वेश्यावृत्ति शामिल)
(iii) देवदासी
(iv) दास
- इस तरह के कृत्यों पर दंडित करने के लिए संसद ने अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 बनाया है।
बेगार का अभिप्राय है
- बिना परिश्रमिक/बिना कोई भुगतान के काम कराना।
बलात् श्रम का अर्थ है
- किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उससे कार्य लेना।
- आर्थिक परिस्थितियों से उत्पन्न बाध्यता
- न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम कराना
- इस संबंध में कई अधिनियम बनाए गए
- बंधुआ मजदूरी व्यवस्था (निरसन) अधिनियम, 1976,
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948
- ठेका श्रमिक अधिनियम 1970,
- समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976
अनुच्छेद-24-कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का निषेध
Prohibition of employment of children in factories
- अनुच्छेद-24 किसी फैक्ट्री, खान अथवा अन्य संकटवाली गतिविधियों में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन का प्रतिषेध करता है
- यह अनुच्छेद किसी नुकसान न पहुंचाने वाले अथवा निर्दोष कार्यों में नियोजन का प्रतिषेध नहीं करता है।
- इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानून जो ,निश्चित आयु से कम के बालकों के नियोजन का प्रतिषेध करते हैं।
- बाल श्रम (प्रतिषेध एवं नियमन) अधिनियम, 1986
- बालक नियोजन अधिनियम, 1938
- कारखाना अधिनियम 1948;
- खान अधिनियम, 1952;
- वाणिज्य पोत परिवहन अधिनियम, 1958;
- बागान श्रम अधिनियम, 1951;
- मोटर परिवहन कर्मकार अधिनियम 195.1;
- प्रशिक्षु अधिनियम 1961;
- बीड़ी तथा सिगार कर्मकार अधिनियम 1966
- और इसी प्रकार के अन्य अधिनियम
- 1996 में उच्चतम न्यायालय ने बाल श्रम पुनर्वास कल्याण कोष की स्थापना का निर्देश दिया, जिसमें बालकों को नियोजित करने वाले द्वारा प्रति बालक 20,000 रुपए जमा कराने का प्रावधान है।
- बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अधिनियमित किया गया।
- 2006 में सरकार ने बच्चों के घरेलू नौकरों के रूप में काम करने पर अथवा दुकानों आदि में नियोजन पर रोक लगा दी है।
- इसमें 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को नियोजित करने वालों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी गई है।
बाल एवं किशोर श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986
The Child and Adolescent Labor (Prohibition and Regulation) Act, 1986
- बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 द्वारा बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 को संशोधित कर दिया।
- इसने मूल अधिनियम का नाम बदलकर बाल एवं किशोर श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 कर दिया है।
- यह संशोधित अधिनियम 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सभी व्यवसायों एवं प्रक्रियाओं में रोजगार निषिद्ध करता है।
धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार
Right to Freedom of Religion
अनुच्छेद 25 -अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता
इसके प्रभाव हैं:
(i) अंतःकरण की स्वतंत्रता(Freedom of conscience:)
- किसी भी व्यक्ति को भगवान या उसके रूपों के साथ अपने ढंग से अपने संबंध को बनाने की आंतरिक स्वतंत्रता।
(ii) मानने का अधिकारः
- अपने धार्मिक विश्वास और आस्था की सार्वजनिक और बिना भय के घोषणा करने का अधिकार।
(iii)आचरण का अधिकार:
- धार्मिक पूजा, परंपरा, समारोह करने और अपनी आस्था और विचारों के प्रदर्शन की स्वतंत्रता।
(iv) प्रसार का अधिकारः
- अपनी धार्मिक आस्थाओं का अन्य को प्रचार और प्रसार करना या अपने धर्म के सिद्धांतों को प्रकट करना। परन्तु इसमें किसी व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मांतरित करने का अधिकार सम्मिलित नहीं है।
- जबरदस्ती किया गया धर्मांतरण सभी समान व्यक्तियों के लिए सुनिश्चित अंत:करण की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है।
- यह अधिकार सभी व्यक्तियों नागरिकों एवं गैर-नागरिकों सबके लिए उपलब्ध हैं।
अनुच्छेद 25 में दो व्याख्याएं भी की गई हैं
- पहला, कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा
- दूसरा इस संदर्भ में हिन्दुओं में सिख, जैन और बौद्ध सम्मिलित हैं।’
अनुच्छेद 26-धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 26 के अनुसार, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होंगे:
(i) धार्मिक एवं मूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार;
(ii) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार,
(ii) movable and immovable संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का का अधिकार
(iv) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार
- अनुच्छेद 25 जहां व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदाय या इसके अनुभागों को अधिकार प्रदान करता है।
अनुच्छेद 27-धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय से स्वतंत्रता
- राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धर्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए करों के भुगतान हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा।
- राज्य कर के रूप में एकत्रित धन को किसी विशिष्ट धार्मिक उत्थान एवं रख-रखाव के लिए व्यय नहीं कर सकता है।
- यह व्यवस्था केवल कर की उगाही पर रोक लगाती है, न कि शुल्क पर।
- इस तरह तीर्थ यात्रियों से शुल्क की उगाही की जा सकती है। ताकि उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं एवं सुरक्षा मुहैया कराई जा सके।
- इसी तरह धार्मिक कार्यकलापों और उनके खर्च के नियमितीकरण पर भी शुल्क लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 28-धार्मिक शिक्षा में उपस्थित होने से स्वतंत्रता
- राज्य-निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नही दी जाए।
- यह व्यवस्था उन संस्थानों में लागू नहीं होती, जिनका प्रशासन तो राज्य कर रहा हो लेकिन उसकी स्थापना किसी विन्यास या न्यास के अधीन हुई हो।
- राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता प्राप्त शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिए उसकी अपनी सहमति के बिना बाध्य नहीं किया जाएगा।
- अवयस्क के मामले में उसके संरक्षक की सहमति की आवश्यकता होगी।
- अनुच्छेद 28, चार प्रकार की शैक्षणिक संस्थानों में विभेद करता है:
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार
Cultural and Educational Right
अनुच्छेद 29-अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण
- भारत के किसी भी भाग में रहने वाले नागरिकों के अनुभागको अपनी बोली, भाषा, लिपि, संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है।
- नागरिकों के अनुभाग’ – अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक दोनों(धार्मिक या भाषायी)
- किसी भी नागरिक को राज्य के संस्थान या उससे सहायता प्राप्त संस्थान में धर्म, जाति या भाषा के आधार पर प्रवेश से रोका नहीं जा सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी है कि भाषा की रक्षा में भाषा के संरक्षण हेतु आंदोलन करने का अधिकार भी सम्मिलित है। भाषा के संरक्षण हेतु राजनीतिक भाषण या वादे, जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का उल्लंघन नहीं करते हैं।
अनुच्छेद 30- शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार
- अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों(धार्मिक या भाषायी) को निम्नलिखित अधिकार प्रदान करता है:
- सभी अल्पसंख्यकों वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
- अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए राज्य द्वारा निर्धारित मुआवजे की राशि उन्हें गारंटीकृत अधिकार को प्रतिबंधित या निरस्त नहीं करेगी।
- इस उपबंध 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया।
- राज्य आर्थिक सहायता में अल्पसंख्यकों द्वारा प्रबंधित संस्थानों में विभेद नहीं करेगा।
- अल्पसंख्यक’ शब्द को संविधान में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है।
- अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा का अधिकार भी प्रदान करता है।
अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाएं तीन प्रकार की होती हैं:
- राज्य से आर्थिक सहायता एवं मान्यता लेने वाले संस्थान।
- ऐसे संस्थान, जो राज्य से मान्यता लेते हैं, लेकिन उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं होती।
- ऐसे संस्थान, जो राज्य से मान्यता या सहायता नहीं लेते।
पहले एवं दूसरे प्रकार के संस्थानों में राज्य के अनुसार शिक्षण, स्टाफ, पाठ्यक्रम, शैक्षणिक मानक, अनुशासन, सफाई व्यवस्था होगी।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
Right to Constitutional Remedies
- अनुच्छेद 32 – संवैधानिक उपचार का अधिकार/मूल अधिकारों के संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है।
- डॉ. अंबेडकर ने इसे “संविधान की आत्मा और हृदय कहा है।
- इसे संविधान संशोधन के तहत बदला नहीं जा सकता।
इसमें निम्नलिखित चार प्रावधान हैं:
- मूल अधिकारों को लागु कराने के लिए द्वारा उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार है।
- उच्चतम न्यायालय को किसी भी मूल अधिकार को लागू करने हेतु आदेश(रिट) जारी करने का अधिकार होगा। उसके द्वारा जारी रिट में शामिल हैं,
- संसद किसी अन्य न्यायालय (उच्चतम न्यायालय/उच्च न्यायालय को छोड़कर) को सभी प्रकार के निर्देश, आदेश और रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करे।
- उच्चतम न्यायालय में जाने के अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाएं निलंबित नहीं किया जाएगा।
- इस तरह राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 359) के तहत इनको स्थगित कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला है।
- अधिकारों के हनन पर कोई व्यक्ति बिना अपीली प्रक्रिया के उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
अनुच्छेद 32 – मूल अधिकारों का हनन होने पर उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार
अनुच्छेद 226- मूल अधिकारों का हनन होने पर उच्च न्यायालय में जाने का अधिकार
रिट प्रकार एवं क्षेत्र
- उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं
- संसद (अनुच्छेद 32 के तहत) किसी अन्य न्यायालय को भी इन रिटों को जारी करने का अधिकार दे सकती है ।
- उच्चतम न्यायालय का रिट संबंधी न्यायिक क्षेत्र उच्च न्यायालय से तीन प्रकार से भिन्न हैं:
- इस तरह उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला बनाया गया है।
बंदी प्रत्यक्षीकरण(Habeas corpus)
- बंदी प्रत्यक्षीकरण(Habeas corpus) का शाब्दिक अर्थ होता है ‘को प्रस्तुत किया जाए‘।
- यह उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश है, जिसने किसी दूसरे व्यक्ति को हिरासत में रखा है, उसे न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया जाए।
- प्रस्तुत करने के बाद न्यायालय मामले की जांच करता है
- यदि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का मामला अवैध है तो उसे स्वतंत्र किया जा सकता है।
- इस तरह यह किसी व्यक्ति को जबरन हिरासत में रखने के विरुद्ध है।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट सार्वजनिक प्राधिकरण या व्यक्तिगत दोनों के खिलाफ जारी किया जा सकता है ।
- यह रिट तब जारी नहीं किया की जा सकता है. जब यदि
- हिरासत(detention) कानूनी है
- कार्यवाही किसी विधानमंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो
- न्यायालय के द्वारा हिरासत
- हिरासत न्यायालय के न्यायक्षेत्र से बाहर हुई हो।
परमादेश (Mandamus)
- इसका शाब्दिक अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं।
- यह न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है ताकि उनसे उनके कार्यों और उसे नकारने के संबंध में पूछा जा सके।
- इसे किसी भी सार्वजनिक इकाई, निगम, अधीनस्थ न्यायालयों, प्राधिकरणों या सरकार के खिलाफ समान उद्देश्य के लिए जारी किया जा सकता है।
- परमादेश रिट जारी नहीं किया जा सकता
- निजी व्यक्तियों या इकाई के विरुद्ध
- ऐसे विभाग जो गैर-संवैधानिक हैं
- जब कर्तव्य विवेकानुसार हो, जरूरी नहीं
- संविदात्मक दायित्व को लागू करने के विरुद्ध
- भारत के राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जो न्यायिक क्षमता में कार्यरत हैं।
प्रतिषेध(Prohibition)
- इसका शाब्दिक अर्थ ‘रोकना‘।
- इसे किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को अपने न्यायक्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है।
- प्रतिषेध संबंधी रिट सिर्फ न्यायिक एवं अर्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध ही जारी किए जा सकते हैं ।
- यह प्रशासनिक प्राधिकरणों, विधायी निकायों एवं निजी व्यक्ति या निकायों के उपलब्ध नहीं है।
उत्प्रेषण (Certiorari)
- इसका शाब्दिक अर्थ ‘प्रमाणित होना’ या ‘सूचना देना‘ है।
- इसे एक उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को या लंबित मामलों के स्थानांतरण को सीधे या पत्र जारी कर किया जाता है।
- इसे अतिरिक्त न्यायिक क्षेत्र या न्यायिक क्षेत्र की कमी या कानून में खराबी के आधार पर जारी किया जा सकता है।
- 1991 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि उत्प्रेषण व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है।
अधिकार पृच्छा(Quo-Warranto)
- इसका शाब्दिक अर्थ – किसी ‘प्राधिकृत या वारंट के द्वारा’ है।
- इसे न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय में दायर अपने दावे की जांच के लिए जारी किया जाता है।
- यह किसी व्यक्ति द्वारा लोक कार्यालय के अवैध अनाधिकार ग्रहण करने को रोकता है।
- रिट को सार्वजनिक कार्यालयों के मामले में तब जारी किया जा सकता है जब उसका निर्माण संवैधानिक हो। इसे मंत्रित्व कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता।
- अन्य चार रिटों से हटकर इसे किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा मांगा जा सकता है न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा।
सशस्त्र बल एवं मूल अधिकार
- अनुच्छेद 33 संसद को यह अधिकार देता है कि वह सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों एवं अन्य के मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगा सके।
- अनुच्छेद 33 के अंतर्गत विधि निर्माण का अधिकार सिर्फ संसद को है न कि राज्य विधान मंडल को।
- इस तरह के संसद द्वारा बनाए गए कानून को किसी न्यायालय में किसी मूल अधिकार के उल्लंघन के संबंध में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों एवं अन्य के मूल अधिकारों पर प्रतिबंध के लिए संसद द्वारा बनाए गए कानून
- ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने के अधिकार, श्रमिक संघों या राजनीतिक संगठनों का सदस्य बनने का अधिकार, प्रेस से मुखातिब होने का अधिकार, सार्वजनिक बैठकों या प्रदर्शन का अधिकार आदि पर रोक लगाते हैं।
- ‘सैन्य बलों के सदस्य’ अभिव्यक्ति का अभिप्राय इसमें वो कर्मचारी भी शामिल हैं, जो सेना में नाई, बढ़ई, मैकेनिक, बावर्ची, चौकीदार, बूट बनाने वाला, दर्जी आदि का कार्य करते हैं।
- अनुच्छेद 33 के अंतर्गत निर्मित संसदीय विधि, कोर्ट मार्शल को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के रिट क्षेत्राधिकार से बाहर करती है।
मार्शल लॉ एवं मूल अधिकार
- मार्शल लॉ का शाब्दिक अर्थ है-सैन्य शासन।
- अनुच्छेद 34 मूल अधिकारों पर तब प्रतिबंध लगाता है जब भारत में कहीं भी मार्शल लॉ लागू हो।
- संसद द्वारा बनाए गए क्षतिपूर्ति अधिनियम को किसी न्यायालय में केवल इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह किसी मूल अधिकार का उल्लंघन है।
- यह सैन्य कानून से अलग है, जो कि सशस्त्र बलों पर लागू होता है।
- इसे अनुच्छेद 34 के तहत भारत में कहीं भी लागू किया जा सकता है।
- मार्शल लॉ को असाधारण परिस्थितियां, जैसे—युद्ध, अशांति, दंगे या कानून का उल्लंघन आदि में लागू किया जाता है।
- मार्शल लॉ के क्रियान्वयन के समय सैन्य प्रशासन के पास जरूरी कदम उठाने के लिए असाधारण अधिकार मिल जाते हैं वे अधिकारों पर प्रतिबंध यहां तक कि किसी मामले में नागरिकों को मृत्युदंड तक लागू कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने घोषणा की कि मार्शल लॉ के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट को निलंबित नहीं कर सकता।
- अनुच्छेद 34 के तहत मार्शल लॉ की घोषणा अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा से भिन्न है।
कुछ मूल अधिकारों का प्रभाव
- अनुच्छेद 35 केवल संसद को कुछ विशेष मूल अधिकारों का प्रभावी बनाने के लिए कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
- यह अधिकार राज्य विधानमंडल को नहीं प्राप्त है।
अनुच्छेद 35 निम्नलिखित व्यवस्था करता है:
- संसद के पासनिम्नलिखित मामलों में कानून बनाने का अधिकार होगाः
- किसी राज्य या केंद्र शासित या स्थानीय या अन्य प्राधिकरण में किसी रोजगार या नियुक्ति हेतु निवास की व्यवस्था (अनुच्छेद 16)।
- मूल अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए निर्देश, आदेश, रिट जारी करने के लिए उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों को छोड़कर अन्य न्यायालयों की सशक्त बनाना (अनुच्छेद 32)।
- सशस्त्र बलों, पुलिस बलों आदि के सदस्यों के मूल अधिकारों पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 33)।
- किसी सरकारी कर्मचारी या अन्य व्यक्ति को किसी क्षेत्र में मार्शल लॉ के दौरान किसी कृत्य हेतु क्षतिपूर्ति देना (अनुच्छेद 34)।
2. संसद के पास मूल अधिकारों के तहत दंडित करने के लिए कानून बनाने का अधिकार होगा। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- अस्पृश्यता (अनुच्छेद 17) एवं
- मानव के दुर्व्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेध (अनुच्छेद 23)।
उपरोक्त कार्यों के तहत दंड के लिए संसद कानून बनाती है।
संपत्ति के अधिकार की वर्तमान स्थिति
- वास्तव में संविधान के भाग 3 में उल्लिखित 7 मूल अधिकारों में से संपत्ति का अधिकार एक था।
- अनुच्छेद 19 (1) (च) एवं अनुच्छेद 31 में वर्णित था।
- अनुच्छेद 19(1)(च) – प्रत्येक नागरिक को संपत्ति को अधिग्रहण करने, उसको रखने एवं निपटाने की गारंटी देता था,
- अनुच्छेद 31 – प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह नागरिक हो या गैर-नागरिक को अपनी संपत्ति वंचन करने के खिलाफ अधिकार प्रदान करता है।
- इसमें यह व्यवस्था है कि बिना विधि सम्मत कानून के कोई भी संपत्ति पर अधिकार नहीं जताएगा। यह राज्य को किसी व्यक्ति की संपत्ति अधिग्रहण कर दो शर्तों के अधार पर शक्ति प्रदान करता है-
- इसे सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए
- इसका हरजाना (क्षतिपूर्ति) उसके मालिक को दिया जाना चाहिए।
- 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा मूल अधिकारों में से संपत्ति के अधिकार को भाग 3 में अनुच्छेद 19(1)(च) और अनुच्छेद 31 को निरसित किया गया।
- संपत्ति का अधिकार’ शीर्षक के तहत भाग 12 में नए अनुच्छेद 300A को शुरू किया गया।
- इसमें व्यवस्था दी गई कि कोई भी व्यक्ति कानून के बिना संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
- संपत्ति का अधिकार एक कानूनी या संवैधानिक अधिकार है। यह कोई मूल अधिकार नहीं है।
संपत्ति का अधिकार एक विधिक अधिकार की तरह निम्नलिखित तरीकों से लागू होता
- इसे बिना संविधान संशोधन के संसद के साधारण कानून के तहत पुनर्निर्धारित किया जा सकता है।
- यह कार्यकारी क्रिया के खिलाफ निजी संपत्ति की रक्षा करता है लेकिन विधायी कार्य के खिलाफ नहीं।
- उल्लंघन के मामले में पीड़ित व्यक्ति अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचार के अधिकार जिसमें रिट शामिल है) के तहत सीधे उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकता। वह अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय जा सकता है।
- राज्य द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण या अनुरोध के मामले में हरजाने के अधिकार की कोई गारंटी नहीं। लेकिन राज्य द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण पर हरजाने का अधिकार होगा। इन दो मामलों में भुगतान होगाः
- जब राज्य द्वारा किसी अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (अनुच्छेद 30) की संपत्ति का अधिग्रहण किया जाए – 44वें संशोधन अधिनियम (1978) के तहत जोड़ा गया
- जब राज्य उस संपत्ति का अधिग्रहण करे, जिस पर व्यक्ति अपनी फसल उगा रहा है और भूमि सांविधिक निर्धारित सीमा के अंदर (अनुच्छेद 31क)। – 17वें संशोधन अधिनियम (1964) के तहत जोड़ा गया
भाग 3 के बाहर अधिकार
- भाग 3 में सम्मिलित मूल अधिकारों के अतिरिक्त संविधान के कुछ अन्य भागों में अन्य अधिकार वर्णित हैं।
- इन अधिकारों को सांविधानिक अधिकार या विधिक अधिकार या गैर-मूल अधिकार भी कहा जाता है। ये हैं
- विधि के प्राधिकार के बिना किसी कर को अधिरोपित या संगृहीत न किया जाना (भाग-12 में अनुच्छेद 265)।
- विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किया जाना (भाग 13 में अनुच्छेद 300क)।
- भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध होगा (भाग 13 में अनुच्छेद 301)।
- लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिए निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे (भाग 15 में अनुच्छेद 326)।
नोट :
- मूल अधिकार का उल्लंघन होने पर दुखी व्यक्ति अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।
- परन्तु उपरोक्त अधिकारों के उल्लंघन के मामले में व्यक्ति इस सांविधानिक उपचार को प्रयुक्त नहीं कर सकता।
- वह सामान्य मुकदमों या अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालय का रिट क्षेत्राधिकार) के तहत केवल उच्च न्यायालय में जा सकता है।