आपातकालीन प्रावधान
- संविधान के भाग XVIII/18 में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन प्रावधान उल्लिखित हैं।
- आपातकालीन स्थिति में केंद्र सरकार सर्वशक्तिमान हो जाता है तथा सभी राज्य, केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में आ जाते हैं। ये संविधान में औपचारिक संशोधन किए बिना ही संघीय ढांचे को एकात्मक ढांचे में परिवर्तित कर देते हैं।
संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल को निर्दिष्ट किया गया है:
1. ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ (अनुच्छेद 352)
- युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल , को ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ के नाम से जाना जाता है।
- संविधान ने इस प्रकार के आपातकाल के लिए ‘आपातकाल की घोषणा’ वाक्य का प्रयोग किया है।
2. राज्य आपातकाल/संवैधानिक आपातकाल/राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)
- राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण आपातकाल को राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के नाम से जाना जाता है।
- इसे दो अन्य नामों से भी जाना जाता है-राज्य आपातकाल अथवा संवैधानिक आपातकाल।
- संविधान ने इस स्थिति के लिए आपातकाल शब्द का प्रयोग नहीं किया है।
3. वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)
- भारत की वित्तीय स्थायित्व अथवा साख के खतरे के कारण अधिरोपित आपातकाल, वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) कहा जाता है।
राष्ट्रीय आपातकाल
घोषणा के आधार
- यदि भारत के किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरा उत्पन्न हो गया हो तो अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है।
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- राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा वास्तविक युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशक्त विद्रोह से पहले भी कर सकता है। यदि वह समझे कि इनका आसन्न खतरा है।
- बाह्य आपातकाल- युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण के आधार पर
- आंतरिक आपात काल – सशस्त्र विद्रोह के आधार पर
आंतरिक गड़बड़ी’- सशस्त्र विद्रोह’ शब्द से विस्थापित
- प्रारंभ में संविधान ने राष्ट्रीय आपातकाल के तीसरे आधार के रूप में आंतरिक गड़बड़ी’ का प्रयोग किया था
- 44वें संशोधन अधिनियम 1978 के द्वारा आंतरिक गड़बड़ी शब्द को सशस्त्र विद्रोह‘ शब्द से विस्थापित कर दिया गया।
- 38वें संविधान संशोधन अधिनियम1975 के प्रावधान के तहत राष्ट्रपति युद्ध, बाह्य आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह अथवा आसन्न खतरे के आधार पर वह विभिन्न उद्घोषणाएं भी जारी कर सकता है।
- राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा संपूर्ण देश या केवल देश के किसी एक भाग पर लागू हो सकती है।
- 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रपति को भारत के किसी विशेष भाग पर राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने का अधिकार प्रदान किया है।
- राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा केवल मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश प्राप्त होने पर ही कर सकता है।
- आपातकाल की घोषणा केवल मंत्रिमंडल की सहमति से ही हो सकती है न कि मात्र प्रधानमंत्री की सलाह से।
- 44वें संशोधन अधिनियम1978 ने प्रधानमंत्री के इस संदर्भ में अकेले बात करने और निर्णय लेने की संभावना को समाप्त कर दिया है।
- 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा न्यायिक समीक्षा योग्य है।
- मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
संसदीय अनुमोदन तथा समयावधि
- संसद के दोनों सदनों द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा जारी होने के एक माह के भीतर अनुमोदित होनी आवश्यक है।
- किंतु आपातकाल की उद्घोषणा के समय लोकसभा का विघटन हो गया हो या लोकसभा का विघटन एक माह के समय में बिना उद्घोषणा के अनुमोदन के हो गया हो; तब उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक जारी रहेगी, जबकि इस बीच राज्यसभा द्वारा इसका अनुमोदन कर दिया गया हो।
- यदि दोनों सदनों से इसका अनुमोदन हो गया हो तो आपातकाल छह माह तक जारी रहेगा तथा प्रत्येक छह माह में संसद के अनुमोदन से इसे अनंतकाल तक बढ़ाया जा सकता है।
- किंतु यदि लोकसभा का विघटन, छह माह की अवधि में आपातकाल को जारी रखने के अनुमोदन के बिना हो जाता है, तब उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक जारी रहती है, जबकि इस बीच राज्यसभा ने इसके जारी रहने का अनुमोदन कर दिया हो।
- आपातकाल की उद्घोषणा अथवा इसके जारी रहने का प्रत्यक प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहमत से पारित हो” चाहिए, जो कि है-
- उस सदन के कुल सदस्यों का बहुमत
- उस सदन में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत
- इस विशेष बहुमत का प्रावधान 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा किया गया।
उद्घोषणा की समाप्ति
- राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की उदघोषणा किसी भी समय एक दूसरी उद्घोषणा से समाप्त की जा सकती है। ऐसी उद्घोषणा को संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती।
- इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को ऐसी उद्घोषणा को समाप्त कर देना आवश्यक है, जब लोकसभा इसके जारी रहने के अनुमोदन का प्रस्ताव निरस्त कर दे। यह सुरक्षा उपाय भी 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा पेश किया गया था।
- 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने यह व्यवस्था भी की है कि यदि लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10 सदस्य स्पीकर (अध्यक्ष) को (अथवा राष्ट्रपति को यदि सदन नहीं चल रहा हो) लिखित रूप से नोटिस दें तो 14 दिन के अंदर उद्घोषणा के जारी रहने के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए सदन की विशेष बैठक विचार-विमर्श के उद्देश्य से बुलाई जा सकती है।
- उद्घोषणा को अस्वीकार करने का प्रस्ताव उद्घोषणा के जारी रहने के अनुमोदन के प्रस्ताव से निम्न दो तरह से भिन्न होता है:
राष्ट्रीय आपातकाल के प्रभाव
इन परिणामों को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है
- केंद- राज्य संबंधों पर प्रभाव
- लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव
- मौलिक अधिकारों पर प्रभाव
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
- जब आपातकाल की उद्घोषणा लागू होती है, तब केंद्र-राज्य के सामान्य संबंधों में परिवर्तन होते हैं।
- इन परिवर्तन का अध्ययन तीन शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है
- कार्यपालक
- विधायी
- वित्तीय
(अ) कार्यपालक :
- राष्ट्रीय आपातकाल के समय केंद्र ,किसी राज्य को किसी भी विषय पर कार्यकारी निर्देश दे है।
- राज्य सरकारें, केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में हो जाती हैं, लेकिन उन्हें निलंबित नहीं किया जाता।
(B) विधायी :
- राष्ट्रीय आपातकाल के समय संसद को राज्य सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। संक्षेप में, संविधान संघीय की जगह एकात्मक हो जाता है।
- संसद द्वारा आपातकाल के समय में राज्य के विषयों पर बनाए गए कानून आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह तक प्रभावी रहते हैं।
- जब राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा लागू होती है, तब यदि संसद का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी का सकता है।
(C) वित्तीय :
- जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब राष्ट्रपति, केंद्र तथा राज्यों के मध्य करों के वितरण को संशोधित कर सकता है।
- राष्ट्रपति, केंद्र से राज्यों को दिए जाने वाले धन (वित्त) को कम अथवा समाप्त कर सकता है।
- ऐसे संशोधन उस वित्त वर्ष की समाप्ति तक जारी रहते हैं, जिसमें आपातकाल समाप्त होता है।
- राष्ट्रपति के ऐसे प्रत्येक आदेश को संसद के दोनों सदनों के सभा पटलों पर रखा जाना आवश्यक है।
लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव
लोकसभा का कार्यकाल
- जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब लोकसभा का कार्यकाल इसके सामान्य कार्यकाल (5 वर्ष) से आगे संसद द्वारा विधि बनाकर एक समय में एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ाया जा सकता है।
- आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह से ज्यादा नहीं हो सकता।
- राष्ट्रीय आपात के समय संसद किसी राज्य विधानसभा का कार्यकाल (पांच वर्ष) प्रत्येक बार एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ा सकती है जो कि आपात काल की समाप्ति के बाद अधिकतम छह माह तक ही रहता है।
मूल अधिकारों पर प्रभाव
- अनुच्छेद 358 तथा 359 राष्ट्रीय आपातकाल में मूल अधिकार पर प्रभाव का वर्णन करते हैं।
राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणाएं
- राष्ट्रीय आपातकाल अभी तक तीन बार घोषित किए गए हैं।
- दूसरी तथा तीसरी दोनों ही आपातकाल घोषणाएं मार्च, 1977 में समाप्त की गईं।
- 1975 में घोषित आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी पराजित हो गई और जनता दल सत्ता में आया। इस सरकार ने 1975 में घोषित आपातकाल के कारणों तथा परिस्थितियों का पता लगाने के लिए ‘शाह आयोग’ का गठन किया गया।
राष्ट्रपति शासन आरोपण का आधार
- अनुच्छेद 355 केंद्र को इस कर्तव्य के लिए विवश करती है कि प्रत्येक राज्य सरकार संविधान की प्रबंध व्यवस्था के अनुरूप ही कार्य करेंगी।
- इस कर्तव्य के अनुपालन के लिए केंद्र, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य में संविधान तंत्र के विफल हो जाने पर राज्य सरकार को अपने नियंत्रण में ले सकता है।
- यह सामान्य रूप में ‘राष्ट्रपति शासन’ के रूप में जाना जाता है। इसे ‘राज्य आपात’ या ‘संवैधानिक आपातकाल’ भी कहा जाता है।
राष्ट्रपति शासन अनुच्छेद 356 के अंतर्गत दो आधारों पर घोषित किया जा सकता है-
- अनुच्छेद 356 के आधार पर
- अनुच्छेद 365 के आधार पर
1. अनुच्छेद 356
- राष्ट्रपति को घोषणा जारी करने के अधिकार देता है, यदि राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकती है।
- राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल (रिपोर्ट) के आधार पर या दूसरे ढंग से (राज्यपाल के विवरण के बिना) भी प्रतिक्रिया कर सकता है।
2. अनुच्छेद 365
- यदि कोई राज्य, केंद्र द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने या उसे प्रभावी करने में असफल होता है तो यह राष्ट्रपति के लिए विधिसंगत होगा कि उस स्थिति को संभाले, जिसमें अब राज्य सरकार संविधान की प्रबंध व्यवस्था के अनुरूप नहीं चल सकती।
संसदीय अनुमोदन तथा समयावधि
- राष्ट्रपति शासन के प्रभाव की घोषणा जारी होने के दो माह के भीतर इसका संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदन हो जाना चाहिए।
- यदि राष्ट्रपति शासन का घोषणापत्र लोकसभा के विघटित होने के समय जारी होता है या लोकसभा दो माह के भीतर बिना घोषणापत्र को स्वीकृत किए विघटित हो जाती है, तब घोषणापत्र लोकसभा की पहली बैठक के तीस दिन तक बना रहता है, बशर्ते राज्यसभा ने इसे निश्चित समय में स्वीकृत कर दिया हो।
- यदि दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत हो तो राष्ट्रपति शासन छह माह तक चलता है इसे अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिए संसद की प्रत्येक छह माह की स्वीकृति से बढ़ाया जा सकता है।
- हालांकि यदि छह माह की अवधि में यदि लोकसभा, राष्ट्रपति के शासन को जारी रखने के प्रस्ताव को मंजूर किए बिना विघटित हो जाती है तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद इसकी प्रथम बैठक के तीस दिनों तक लागू रहेगी, परंतु इस अवधि में राज्यसभा द्वारा इसे मंजूरी देना आवश्यक है। यह
- राष्ट्रपति शासन की घोषणा को मंजूरी देने वाला प्रत्येक प्रस्ताव किसी भी सदन द्वारा सामान्य बहुमत द्वारा पारित किया जा सकता है
- अर्थात् सदन में सदस्यों की उपस्थिति व मतदान का बहुमत।
- 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में संसद द्वारा राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष के बाद भी जारी रखने की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक प्रावधान जोड़ा गया।
- अतः इसमें प्रावधान किया गया कि एक वर्ष के पश्चात राष्ट्रपति शासन को छह माह के लिए केवल तब बढाया जा सकता है जब निम्नलिखित परिस्थतियां पूरी हों:
1. यदि पूरे भारत में अथवा पूरे राज्य या उसके किसी भाग में राष्ट्रीय आपात की घोषणा की गई हो, तथा
2. चुनाव आयोग यह प्रमाणित करे कि संबंधित राज्य में विधानसभा के चुनाव के लिए कठिनाइयां उपस्थित हैं।
- राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति शासन की घोषणा को, किसी भी समय परवर्ती घोषणा द्वारा वापस लिया जा सकता है।
- ऐसी घोषणा के लिए संसद की अनुमति आवश्यक नहीं होती।
राष्ट्रपति शासन के परिणाम
जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति को निम्नलिखित असाधारण शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं:
- वह राज्य सरकार के कार्य अपने हाथ में ले लेता है और उसे राज्यपाल तथा अन्य कार्यकारी अधिकारियों की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
- वह घोषणा कर सकता है कि संसद, राज्य विधायिका की शक्तियों का प्रयोग करेगी।
- वह वे सभी आवश्यक कदम उठा सकता है, जिसमें राज्य के किसी भी निकाय या प्राधिकरण से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को निलंबन करना शामिल है।
- जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद को भंग कर देता है।
- राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति के नाम पर राज्य सचिव की सहायता से अथवा राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किसी सलाहकार की सहायता से राज्य का प्रशासन चलाता है।
- यही कारण है कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत की गई घोषणा को राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ कहा जाता है।
- राष्ट्रपति, राज्य विधानसभा को विघटित अथवा निलंबित कर सकता है। संसद, राज्य के विधेयक और बजट प्रस्ताव को पारित करती है।
जब कोई राज्य विधानसभा इस प्रकार निलंबित हो अथवा विघटित होः
- संसद राज्य के लिए विधि बनाने की शक्ति राष्ट्रपति अथवा उनके द्वारा उल्लिखित किसी अधिकारी को दे सकती है।
- संसद या किसी प्रतिनिधि मंडल के मामले में, राष्ट्रपति या अन्य कोई प्राधिकारी, केंद्र अथवा इसके अधिकारियों व प्राधिकरण पर शक्तियों पर विचार करने और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए विधि बना सकते हैं।
- जब लोकसभा का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, संसद की अनुमति के लिए लंबित पड़े राज्य की संचित कि निधि के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकता है।
- जब संसद का सत्रावसान हो तो राष्ट्रपति, राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है।
- राष्ट्रपति अथवा संसद अथवा अन्य किसी विशेष प्राधिकारी द्वारा बनाया गया कानून, राष्ट्रपति शासन के पश्चात भी प्रभाव में रहेगा। यानि राष्ट्रपति शासन की घोषणा की समाप्ति पर अप्रभावी नहीं होगा। परंतु इसे राज्य विधायिका द्वारा वापस अथवा परिवर्तित अथवा पुनः लागू किया जा सकता है।
- राष्ट्रपति शासन की अवधि में संबंधित उच्च न्यायालय की स्थिति, स्तर, शक्तियां और कार्य प्रभावी रहती हैं।
अनुच्छेद 356 का प्रयोग
- वर्ष 1950 से अब तक, 100 से अधिक बार राष्ट्रपति शासन का प्रयोग किया जा चुका है
- सर्वप्रथम राष्ट्रपति शासन का प्रयोग 1951 में पंजाब में किया गया।
न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं
- 1978 के 44वें संविधान संशोधन से प्रावधान जोड़ा गया कि राष्ट्रपति की मंजूरी , न्याधिक समीक्षा से परे नहीं है।
- बोम्मई मामले (1994) में, उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित निर्णय दिए:
- राष्ट्रपति शासन लागू करने की राष्ट्रपति की घोषणा न्यायिक समीक्षा योग्य है।
- राष्ट्रपति की संतुष्टि तर्कसंगत संसाधनों पर आधारित होनी चाहिए।
- राष्ट्रपति के कार्य पर न्यायालय द्वारा रोक लगाई जा सकती है, यदि यह अतार्किक अथवा अन्यथा आधार पर आधारित है अथवा यह दुर्भावना या तर्क विरुद्ध पाया जाए।
- केंद्र पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह राष्ट्रपति शासन को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए तर्कसम्मत कारणों को प्रस्तुत करे।
- न्यायालय यह देख सकता कि कि कार्य तर्क सम्मत है अथवा नहीं।
- यदि न्यायालय राष्ट्रपति की घोषणा को असंवैधानिक और अवैध पाता है तो उसे विघटित राज्य सरकार को या पुनःस्थापित करने और निलंबित अथवा विघटित विधानसभा को पुनःबहाल करने का अधिकार है।
- राज्य विधानसभा को केवल तभी विघटित किया जा जा सकता है जब राष्ट्रपति की घोषणा को संसद की अनुमति मिल जाती है।
- जब तक ऐसी कोई घोषणा को मंजूरी नहीं प्राप्त होती है, राष्ट्रपति विधानसभा को केवल निलंबित कर सकता है।
- यदि संसद इसे मंजूरी देने में असमर्थ होती है तो विधानसभा पुनर्जीवित हो जाती है।
- राज्य सरकार का विधानसभा में विश्वास मत खोने का प्रश्न संसद में निश्चित किया जाना चाहिए जब तक यह न हो तब तक मंत्रिपरिषद बनी रहेगी।
वित्तीय आपातकाल
उद्घोषणा का आधार
- अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपात की घोषणा करने की शक्ति प्रदान करता है, यदि भारत अथवा उसके किसी क्षेत्र की वित्तीय स्थिति खतरे में हो।
- 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में कहा गया कि राष्ट्रपति की वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने की संतुष्टि न्यायालय में प्रश्नयोग्य/समीक्षा योग्य है।
संसदीय अनुमोदन एवं समयावधि
- वित्तीय आपात की घोषणा को, घोषित तिथि के दो माह के भीतर संसद की स्वीकृति मिलना अनिवार्य है।
- यदि वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने के दौरान यदि लोकसभा विघटित हो जाए अथवा दो माह के भीतर इसे मंजूर करने से पूर्व लोकसभा विद्यटित हो जाए तो यह घोषणा पुनर्गठित लोकसभा की प्रथम बैठक के बाद तीस दिनों तक प्रभावी रहेगी, परंतु इस अवधि में इसे राज्यसभा की मंजूरी मिलना आवश्यक है।
- एक बार यदि संसद के दोनों सदनों से इसे मंजूरी प्राप्त हो जाए तो वित्तीय आपात अनिश्चित काल के लिए तब तक प्रभाव में रहेगा जब तक इसे वापस न लिया जाए। यह दो बातों को इंगित करता है:
1. इसकी अधिकतम समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
2. इसे जारी रखने के लिए संसद की पुन:मंजूरी आवश्यक नहीं है।
- वित्तीय आपातकाल की घोषणा को मंजूरी देने वाला प्रस्ताव, संसद के किसी भी सदन द्वारा सामान्य बहमत द्वारा पारित किया जा सकता है.
- राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय वित्तीय आपात की घोषणा वापस ली जा सकती है। ऐसी घोषणा को किसी संसदीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।
वित्तीय आपातकाल के प्रभाव
वित्तीय आपात की परवर्ती घटनाएं निम्न प्रकार हैं:
1. केंद्र की आधिकारिक कार्यकारिणी का विस्तार
(i) किसी राज्य को वित्तीय औचित्य संबंधी सिद्धांतों के पालन का निर्देश देना और
(ii) राष्ट्रपति यदि चाहे तो इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त और आवश्यक निर्देश दे सकता है।
2. ऐसे किसी भी निर्देश में इन प्रावधानों का उल्लेख हो सकता है-
(i) राज्य की सेवा में किसी भी अथवा सभी वर्गों के सेवकों की वेतन एवं भत्तों में कटौती ।
(ii) राज्य विधायिका द्वारा पारित कर राष्ट्रपति के विचार हेतु लाए गए सभी धन विधेयकों अथवा अन्य वित्तीय विधेयकों को आरक्षित रखना।
3. राष्ट्रपति वेतन एवं भत्तों में कटौती हेतु निर्देश जारी कर सकता है-
(i) केंद्र की सेवा में लगे सभी अथवा किसी भी श्रेणी के व्यक्तियों को और
(ii) उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की।
- अत: वित्तीय आपातकाल की अवधि में राज्य के सभी वित्तीय मामलों में केंद्र का नियंत्रण हो जाता है।
- संविधान सभा के एक सदस्य एच.एन. कुंजरु ने कहा कि वित्तीय आपात राज्य की वित्तीय संप्रभुता के लिए एक गंभीर खतरा है।
- अब तक एक बार भी वित्तीय संकट घोषित नहीं हुआ है। यद्यपि 1991 में वित्तीय संकट आया था।