अपसंस्कृति कविता
तातल-हेमाल (कविता संग्रह ) का कवि – शिवनाथ प्रमाणिक
हमर देसेक लीला खेला केउ बुझला , केउ नाञ बुझला । जे देस दूर्गाक पूजा करे से देसे जनी पाहूर परे । माटिक देवी के हवे मान बेटिक संगे तिलक दान । जे देस लखी पूजा करे तावो लोक भूखें मोरे । सरोसती जहाँ जाही पूजल तावो मुलूक मुख्ख बनला होली अइली , होली अइली जुवान , बुढ़ा देवर प अलकतरा कादो गातें लेसा दारू – भंग पिया निसा
उत्तरें देखा रामेक अरचन तइसने दखिनें ‘ रावणेक ’ पूजन महामानव पइले शिवेक पद तावो काहे ‘ रावण वध ? सोहराई के ‘ दीवाली ‘ बनवउला निजेक जनी जूहें हरा करोड़ टाकाक फटका फूटे गरीबेक छउवा धूरा फांके । फिल्मी छिनाइर गीत बाजाइ मिरगी नाचें छौंड़ा माताइ बाह रे देसेक परब – तिहार । अपसंस्कृतिक हाड़पा निहार ।
भावार्थ-इस कविता में संस्कृति के नाम पर जो हमारे देश में हो रहा है, वह संस्कृति नहीं अपसंस्कृति है। अपने देश में सरस्वती की पूजा होती पर अशिक्षित हमारे देश में ही है। लक्ष्मी की पूजा होती है, गरीबी चरम पर है। होली के नाम पर नाशाखोरी, कादो-कीचड़, दिवाली में दिन जुआ खेल (कवि देश की दुर्दशा देख मर्माहत है)
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