सामान्य परिचय
जीव विज्ञान (Biology) विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत समस्त सजीवों अर्थात् जीवधारियों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है।
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बायोलॉजी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1801 में लैमार्क (फ्राँस) और ट्रेविरेनस (जर्मनी) ने किया था।
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जीव विज्ञान को विज्ञान की एक शाखा के रूप में स्थापित करने के कारण अरस्तू (Aristotle) को जीव विज्ञान का जनक (Father of Biology) कहा जाता है।
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अरस्तू को जंतु विज्ञान का जनक (Father of Zoology) भी कहा जाता है।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Historia Animalium’ में लगभग 500 जंतुओं का वर्णन किया है।
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थियोफ्रेस्टस (Theophrastus) को वनस्पति विज्ञान का जनक (Father of Botany) कहा जाता है, जिन्होंने ‘Historia Plantarum’ नामक पुस्तक लिखी।
सजीवों के गुण (Characteristics of Living Organisms)
निम्नलिखित गुणों के आधार पर सजीवों को निर्जीवों से अलग किया जाता है
कोशिकीय संगठन (Cellular Organisation)
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सभी सजीवों की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई कोशिका (Cell) है। यह जीवों का एक निर्धारित लक्षण भी है।
उपापचय (Metabolism)
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जीवन को पूर्ण करने के लिये सजीवों में होने वाली सभी जैव-रासायनिक क्रियाओं को सम्मिलित रूप से उपापचयी क्रियाएँ कहते हैं।
ये दो प्रकार की होती हैं
उपचयन (Anabolism):
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इस क्रिया द्वारा सजीवों के शरीर में सरल अणुओं से जटिल अणुओं का निर्माण होता है। जैसे-वृद्धि (Growth) क्रिया।
अपचयन (Catabolism):
इस क्रिया द्वारा सजीवों के शरीर में जटिल अणु टूटकर सरल अणुओं का निर्माण करते हैं तथा ऊर्जा को मुक्त करते हैं। जैसे-श्वसन (Respiration) क्रिया।
वृद्धि (Growth)
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इस प्रक्रिया के अंतर्गत भोजन का उपयोग कर सजीवों में नई कोशिकाओं का निर्माण होता है।
प्रजनन (Reproduction)
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सजीवों द्वारा अपने समान जीवों को जन्म देने की क्षमता प्रजनन कहलाती है। यह जीवों का मुख्य गुण है।
चेतना (Consciousness)
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यह सजीवों को निर्धारित करने वाला गुण है। इसके अंतर्गत संवेदनशीलता (Sensitivity) आती है अर्थात् सभी सजीवों में अनुभूति करने एवं प्रकाश, ताप, जल, गुरुत्व एवं रासायनिक पदार्थों आदि के प्रति प्रतिक्रिया करने की क्षमता (उद्दीपन शक्ति) होती है।
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उपर्युक्त के अलावा गति (Movement), पोषण (Nutrition) एवं उत्सर्जन (Excretion) भी सजीवों के लक्षणों के अंतर्गत आते है।
इन लक्षणों से स्पष्ट है कि पौधे तथा जंतु दोनों ही सजीव हैं। निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर पौधों तथा जंतुओं में विभेद किया जा सकता है
जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्धति
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जीवों के आधुनिक वर्गीकरण की शुरुआत कैरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) के द्विजगत-सिद्धांत (Two Kingdom Classification) से होती है। उन्होंने जीवों को जंतु जगत (KingdomAnimal) और पादप जगत (Kingdom-Plantae) में बाँटा।
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इसीलिये लीनियस को वर्गिकी का पिता (Father of Taxonomy) कहा जाता है।
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सन् 1753 में कैरोलस लीनियस ने जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्धति को प्रचलित किया।
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इसके अनुसार प्रत्येक जीवधारी का नाम लैटिन भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है।
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पहला शब्द वंश नाम (Generic Name) एवं दूसरा शब्द जाति नाम (Species Name) कहलाता है।
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उदाहरण- मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियंस (Homo sapiens) है जिसमें होमो उस वंश का नाम है, जिसकी एक जाति सेपियंस है।
जैव समुदाय के अध्ययन के लिये हमें जीवधारियों को कुछ समूहों में वर्गीकृत करना पड़ता है, ताकि समान गुणों एवं संरचना वाले जीवों का अध्ययन एक साथ किया जा सके।
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आधुनिक जीव विज्ञान में सर्वाधिक मान्यता व्हिटेकर (R.H.Whittaker) के ‘पाँच जगत वर्गीकरण’ को दी जाती है। उन्होंने जीवों को जगत (Kingdom) नामक पाँच बड़े वर्गों में बाँटा।
ये पाँच जगत हैं
1.मोनेरा (Monera)
2.प्रोटिस्टा (Protista)
3.कवक (Fungi)
4.पादप (Plantae)
5.जंतु (Animalia)
1.मोनेरा (Monera)
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यह एककोशिकीय प्रोकैरियोटिक जीवों का समूह है अर्थात् इनमें न तो संगठित केंद्रक होता है और न ही विकसित कोशिकांग होते हैं।
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इनमें केंद्रिका झिल्ली का अभाव होता है।
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इनमें से कुछ में कोशिका भित्ति पाई जाती है तथा कुछ में नहीं।
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पोषण के स्तर पर ये स्वपोषी रसायन संश्लेषी/प्रकाश संश्लेषी अथवा विषमपोषी मृत जीवी/परजीवी दोनों हो सकते हैं।
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उदाहरणार्थः जीवाणु, यथा-नील हरित शैवाल अथवा सायनो बैक्टीरिया, माइकोप्लाज्मा आदि।
प्रोटिस्टा(Protista)
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इनमें एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव आते हैं। हालाँकि कभी-कभी ये बहुकोशिकीय भी होते हैं, यथा-केल्प या समुद्री घास।
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प्रोटिस्टा जगत पादप, जंतु एवं कवक जगत के बीच कड़ी का कार्य करता है।
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इस वर्ग के कुछ जीवों में गमन के लिये सीलिया, फ्लैजेला नामक संरचनाएँ भी पाई जाती हैं।
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कुछ में कोशिका भित्ति पाई जाती है।
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इनमें केंद्रिका झिल्ली पाई जाती है तथा ये स्वपोषी और विषमपोषी दोनों तरह के होते हैं।
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उदाहरणार्थ-एककोशिकीय शैवाल, डायटम, प्रोटोजोआ, यूग्लीना, पैरामीशियम, क्लोरेला, अमीबा आदि इसी जगत के सदस्य हैं।
कवक (Fungi)
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ये बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक जीव हैं।
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ये विषमपोषी(heterotroph) होते हैं जो पोषण के लिये सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, अतः इन्हें मृतजीवी(saprophyte) भी कह दिया जाता है।
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कवकों में काइटिन (Chitin) नामक कोशिका भित्ति (सेल्युलोस अनुपस्थित) पाई जाती है।
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यीस्ट, पेंसीलियम, मशरूम आदि इसी जगत के सदस्य हैं।
सूक्ष्म जीव (Microorganism)
संरचना के आधार पर सूक्ष्म जीवों का वर्गीकरण
सबसेलुलर (Subcellular):
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इस प्रकार की संरचना में DNA या RNA एक प्रोटीन आवरण द्वारा घिरा हुआ होता है। जैसे-विषाणु (Virus)।
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विषाणु सूक्ष्म आकार के होते हैं परंतु ये अपना पोषण स्वयं नहीं करते।
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इसके लिये इन्हें मेज़बान (Host) की आवश्यकता होती है।
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ये जीवाणु पौधों तथा जीवों मे गुणन कर वृद्धि कर सकते हैं।
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इन्हें निर्जीव एवं सजीव के बीच की कड़ी भी कहा जाता है।
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वायरस की खोज रूसी वैज्ञानिक दमित्री इवानविस्की ने 1892 में तंबाकू में मौजेक रोग की खोज के दौरान की थी।
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कुछ सामान्य रोग, जैसे- जुकाम, फ्लू, खाँसी आदि विषाणुओं के द्वारा होते हैं। पोलियो और खसरा जैसी खतरनाक बीमारियाँ भी वायरस के कारण होती हैं।
प्रोकैरियोटिक (Prokaryotic):
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इनकी कोशिका संरचना साधारण होती है जिसमें केंद्रक एवं उपांग (Organelles) उपस्थित नहीं होते, जैसे- जीवाणु (Bacteria)।
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यह प्रोकैरियोटिक एक कोशिकीय सरल जीव है।
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ये मोनेरा जगत के अंतर्गत वगीकृत किये गए हैं। कुछ बैक्टीरिया, जैसे- नॉस्टॉक एवं एनाबिना पर्यावरण के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर सकते हैं।
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ये नाइट्रोजन, फास्फोरस, आयरन एवं सल्फर जैसे पोषकों के पुनर्चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यूकैरियोटिक (Eukaryotic):
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इनकी कोशिका संरचना जटिल होती है जिसमें केंद्रक एवं उपांग(ORGANELLES) उपस्थित होते हैं, जैसे- प्रोटोजोआ, कवक, शैवाल आदि।
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अधिकांश कवक परपोषित मृतजीवी होते हैं।
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इनमें जनन कायिक खंडन(vegetative fragmentation), विखंडन(fission) तथा मुकुलन(budding) द्वारा होता है।
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इनका उपयोग ब्रेड, बीयर इत्यादि बनाने में किया जाता है।
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कुछ कवक मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं।
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गंजापन, दमा एवं दाद-खाज का एक प्रमुख कारण कवक है।
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गेहूँ का रस्ट रोग (कवक द्वारा)। खमीर और मशरूम भी कवक हैं।
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सभी प्रोटोजोआ परपोषी होते हैं और प्रायः परजीवी के रूप में अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं।
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ट्रिपैनोसोमा नामक निद्रा रोग का कारण भी प्रोटोजोआ ही हैं।
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साथ ही मलेरिया, पेचिस जैसे रोग भी प्रोटोजोआ के कारण होते हैं।
नोटः सर्दी-जुकाम तथा फ्लू में एंटीबायोटिक दवाएँ प्रभावशाली नहीं होती क्योंकि ये रोग विषाणुओं द्वारा फैलते हैं।