पालकालीन बिहार
- हर्ष के साम्राज्य के विघटन के बाद आठवीं शताब्दी ई० के मध्य में पूर्वी भारत में पालवंश का अभ्युदय हुआ ।
- पालवंश का संस्थापक गोपाल (750-770 ई०) था, जिसने इस वंश का अधिकार शीघ्र ही बिहार के क्षेत्र में विस्तृत कर दिया। कुछ समय के लिए पाल शासकों ने कन्नौज पर अधिकार के संघर्ष में भी भाग लिया ।
- धर्मपाल (770-810 ई०) ने आठवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने चक्रयुद्ध को कन्नौज का शासक नियुक्त कर एक भव्य दरबार का आयोजन किया और उत्तरापथस्वामिन् की उपाधि धारण की ।
- धर्मपाल के पुत्र देवपाल ( 810-850 ई०) ने भी विस्तारवादी नीति अपनाई । उसने पूर्वोत्तर में प्रागज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल और पूर्वी सागरतट पर उड़ीसा में अपनी सत्ता का विस्तार कर लिया । कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने दक्कन के राज्यों के साथ भी संघर्ष किया ।
- उसके समय में दक्षिण-पूर्वी एशिया के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रहे । उसने जावा के शासक बलपुत्रदेव के अनुरोध पर नालंदा में एक विहार की देख-रेख के लिए पाँच गाँव दान में दिये । बौद्ध धर्म के प्रश्रयदाता के रूप में वह प्रसिद्ध है ।
- मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया ।
- ग्यारहवीं शताब्दी में महिपाल के अधीन पाल वंश का पुनरोदय हुआ । उसने समस्त बंगाल और मगध के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया ।
- उसके उत्तराधिकारी कमजोर थे, जिसका लाभ उठाकर बंगाल में कैवर्त शक्तिशाली हो गये और सेन शासकों ने उत्तरी बिहार और बंगाल के कुछ क्षेत्रों में अपना राज्य स्थापित कर लिया । पालों की शक्ति मगध के कुछ भागों में सिमटकर रह गयी ।
- रामपाल की मृत्योपरान्त, गहड़वालों ने भी बिहार में शाहाबाद और गया तक अपनी सत्ता का विस्तार कर लिया । सेन शासकों क्रमशः विजयसेन और बल्लालसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार करते हुए गया के पूर्व तक अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया ।
- अराजकता के इसी वातावरण में बिहार में बारहवीं शताब्दी के अंत तक तुर्कों के आक्रमण आरंभ हो गये थे ।
- तुरुष्कदंड नामक कर की चर्चा गहड़वाल वंश के शासक गोविंदचन्द्र के मुंगेर ताम्रपत्र में मिलती है । यह कर इस क्षेत्र के किसानों से प्राप्त किया जाता था और इससे तुर्कों के आक्रमण रोकने के साधन प्राप्त किये जाते थे ।
- पाल शासक बौद्ध धर्मावलम्बी थे । उन्होंने बौद्ध शैक्षिक संस्थाओं को प्रश्रय दिया ।
- विक्रमशिला महाविहार की स्थापना धर्मपाल ने की तथा उसी ने नालन्दा महाविहार को 200 गाँव दानस्वरूप दिये । ओदन्तपुरी और जगदल के विश्वविद्यालय भी पाल शासनकाल में संगठित हुए ।
- तिब्बत से पालों के घनिष्ठ संबंध थे । बौद्ध विद्वानों में शांतरक्षित एवं अतीश दिपांकर इस काल में तिब्बत गये थे ।
- बख्तियार खिलजी के अभियानों के बाद भी नालन्दा महाविहार में शिक्षा प्राप्ति के लिए बौद्ध भिक्षु धर्मस्वामिन् तिब्बत से बिहार आया ।
- दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों से भी व्यापारिक और मैत्रीपूर्ण संबंध बने रहे। उस क्षेत्र के शैलेन्द्र वंशीय शासक ने देवपाल से नालन्दा में एक बौद्ध मंदिर के निर्माण की अनुमति प्राप्त की । उस मंदिर की देख-रेख के लिए देवपाल ने आर्थिक अनुदान भी दिये ।
- पाल शासकों ने मूर्तिकला को भी विशेष प्रोत्साहन दिया । पाल काल में गौतम बुद्ध तथा ब्राह्मण धर्म के देवी-देवताओं की सुन्दर प्रतिमाएं चमकीले काले पत्थर में बनाई गई ।
A. पालवंश
- गोपाल (750-770 ई०)
- गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है। वह एक योग्य और कुशल शासक था ।
- उसने पालवंश का अधिकार बिहार के क्षेत्र में फैलाया ।
- गोपाल ने 750 से 770 ई० तक अर्थात् 20 वर्षों तक शासन किया ।
- उसने ओदंतपुरी अर्थात् वर्तमान बिहारशरीफ में एक मठ तथा विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया ।
- धर्मपाल ( 770-810 ई०)
- गोपाल के पश्चात् उसका पुत्र धर्मपाल 770 ई० में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह पालवंश
- का पहला ऐसा शासक था जो कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा ।
- धर्मपाल बौद्ध मतावलंबी था । उसने अनेक मठ व बौद्ध विहार बनवाये ।
- धर्मपाल ने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला में महाविहार व विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया तथा नालंदा विश्वविद्यालय के रख-रखाव हेतु 200 गाँव दान में दिया था ।
- प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया ।
- धर्मपाल ने 40 वर्षों तक शासन किया ।
- देवपाल ( 810-850 ई०)
- धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा । उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाया । देवपाल ने भी कन्नौज के संघर्ष में भाग लिया ।
- देवपाल बौद्ध धर्म के आश्रयदाता के रूप में प्रसिद्ध हुआ । जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर देवपाल ने नालंदा में एक विहार की देख-रेख हेतु पाँच गाँव अनुदान में दिये ।
- उसने 40 वर्षों तक शासन किया । देवपाल की मृत्यु के पश्चात् पालवंश की अवनति आरम्भ हो गई ।
- विग्रहपाल से महिपाल तक ( 850-1038 ई०)
- देवपाल के बाद विग्रहपाल ( 850-854 ई०), नारायण पाल (854-915 ई०), राज्यपाल (915-940 ई०), गोपाल द्वितीय (960 ई०) और विग्रहपाल द्वितीय (960 – 988 ई०) शासक बने ।
- तत्पश्चात् महिपाल प्रथम के समय (988 ई० से 1038 ई०) में पालवंश का दुबारा अभ्युदय हुआ ।
- महिपाल प्रथम को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक माना जाता है ।
- रामपाल (1097 1098 ई०) इस वंश का अंतिम शासक था ।
कर्नाट वंश ( 1098-1325 ई०)
- बिहार में जिस समय तुर्कों के सैनिक अभियानों की पृष्ठभूमि बन रही थी, उस समय इस क्षेत्र में राजनैतिक अस्थिरता थी ।
- ग्यारहवीं शताब्दी के अंत तक पालों की सत्ता बिहार में पतनशील थी ।
- रामपाल के शासनकाल ( 1097-1098) में, तिरहुत के कर्नाट राज्य का उदय हुआ, जिसका संस्थापक नान्यदेव एक महान् शासक ( 1098-1133 ई० ) था । उसका पुत्र गंगदेव एक प्रशासक (1133 – 1187 ई० ) था ।
- इसकी राजधानी सिमरावगढ़ थी, जो अब नेपाल की तराई के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित है ।
- गंगदेव के बाद उसका पुत्र नरसिंहदेव 1187 ई० में गद्दी पर बैठा और 38 वर्षों तक शासन किया । नरसिंहदेव का संघर्ष बंगाल के सेन शासकों के साथ होता रहा। इसी कारण नरसिंहदेव द्वारा तुर्कों के साथ सहयोग किया गया ।
- जब बख्तियार खिलजी के आक्रमण बिहार के क्षेत्र में हुए तो नरसिंहदेव ने भी उसे नज़राना या भेंट देकर संतुष्ट किया। उस समय नरसिंहदेव का अधिकार तिरहुत और दरभंगा क्षेत्रों पर फैला हुआ था ।
- तेरहवीं शताब्दी में बिहार के तुर्क प्रांतपतियों द्वारा तिरहुत क्षेत्र पर निरंतर सैनिक अभियान किये गये । समकालीन तिब्बती यात्री धर्मास्वामिन् ने इस क्षेत्र में तुर्क सेनापति तुग़रिल तुग़न के असफल अभियान की चर्चा की है । उस समय तिरहुत पर रामसिंहदेव (1225-1276 ई०) का शासन था ।
- रामसिंहदेव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी शक्तिसिंहदेव एक दुर्बल शासक था । परंतु उसके पुत्र हरिसिंहदेव को नान्यदेव से भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई ।
- कर्नाट शासकों के साथ दिल्ली के सुल्तानों का सम्पर्क निरंतर बना रहा था । सामान्यतः दिल्ली सल्तनत के प्रांतपति जो बिहार एवं बंगाल के क्षेत्र में नियुक्त थे, कर्नाट शासकों से नज़राना प्राप्त करते थे । इस क्षेत्र की विजय अंततः गयासुद्दीन तुगलक के बंगाल अभियान (1324-25) के क्रम में हुई ।
- उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंहदेव था । तुर्क सेना के आक्रमण का वह सामना न कर सका और नेपाल की तराई में पलायन कर गया तथा इसकी वजह से उत्तरी और मध्य बिहार के क्षेत्रों का विलय हो गया । परंतु हरिसिंहदेव ( 1279-1325) एक महान् समाज-सुधारक के रूप में सक्रिय रहा ।
- उसी के समय में पंजी- प्रबंध का विकास हुआ। फलस्वरूप पंजीकारों का एक नया वर्ग संगठित हुआ ।
- स्मृति और निबंध – संबंधी रचनाएँ भी इस काल में बड़ी संख्या में लिखी गयीं और मैथिल
- समाज का जो रूप वर्त्तमान काल तक बना हुआ है, इसकी विशेषताएँ इसी काल से जुड़ी हैं ।