गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में बिहार

  • गुप्त राजवंश की स्थापना महाराज गुप्त ने लगभग 275 ई० में की थी । महाराज गुप्त का वास्तविक नाम गुप्त या श्रीगुप्त था । 
  • गुप्तवंश का दूसरा शासक घटोत्कच हुआ, जो श्रीगुप्त का पुत्र था । 
  • प्रभावती गुप्त के पूजा तथा रिद्धपुर ताम्रपत्रों में उसे गुप्त वंश का प्रथम शासक ( आदिराज ) बताया गया है । 
  • स्कंदगुप्त के सुपिया ( रीवा) के लेख में गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से प्रारंभ होती है । 
  • परंतु गुप्त लेखों में इस वंश का प्रथम शासक श्रीगुप्त को ही कहा गया है। हालांकि गुप्तवंश की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी, किंतु घटोत्कच के समय में सबसे पहले गुप्तों ने गंगा घाटी में राजनैतिक महत्ता प्राप्त की । 
  • आरंभ में महाराज गुप्त तथा घटोत्कच कुषाण राजाओं के सामन्त और अत्यंत साधारण शासक थे, जिनका राज्य मगध के आसपास ही सीमित था । 
  • इन दोनों राजाओं ने 318-319 ई० के आसपास मगध पर शासन किया । 

चन्द्रगुप्त प्रथम (319-325 ई० ) 

  • घटोत्कच के पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित किया । उसका राज्यारोहण 319 ई० में हुआ । 
  • सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । 
  • चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसका लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध कायम करना था । चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया । 
  • चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के विविध प्रकार के सिक्के गाजीपुर, टांडा (फैजाबाद), मथुरावाराणसी, अयोध्या, सीतापुर व बयाना ( राजस्थान) से प्राप्त हुए हैं । 
  • इस काल के स्वर्ण और चांदी के काफी सिक्के मिले हैं। 
  • गुप्तवंश में सबसे पहले चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही चांदी के सिक्के चलवाये । 
  • वी. ए. स्मिथ के अनुसार कुमारदेवी के साथ विवाह करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त किया । 
  • हेमचंद रायचौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भांति चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की । 
  • उसने विवाह के उपरांत ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की तथा विवाह की स्मृति में ‘राजा-रानी प्रकार’ के सिक्कों का चलन करवाया । 
  • चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था । 
  • वायुपुराण में मगध और साकेत पर चन्द्रगुप्त द्वारा शासन करने का उल्लेख मिलता है ।
  • रायचौधरी के अनुसार कौशांबी तथा कोशल के महाराजाओं को हराकर चंद्रगुप्त ने उनके राज्यों पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया था । 
  • चन्द्रगुप्त प्रथम ने ‘गुप्त-संवत्’ का प्रचलन आरंभ किया। इस संवत् का प्रारंभ 320 ई० में किया गया था । 

समुद्रगुप्त (325-375 ई०) 

  • चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 325 ई० में उसका पुत्र समुद्रगुप्त ‘परक्रमांक’ सिंहासन पर बैठा । था। 
  • समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के गर्भ से हुआ था । 
  • उसका शासन काल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है । 
  • समुद्रगुप्त एक असाधारण सैन्य योग्यता वाला सम्राट और महान विजेता था । अपने विभिन्न युद्धों में समुद्रगुप्त ने भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया, जिससे उसकी कूटनीतिक एवं राजनैतिक सूझबूझ का परिचय मिलता है । 
  • इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है। 
  • समुद्रगुप्त उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक भी था । उसे ‘कविराज’ भी कहा गया है । 
  • वह महान संगीतज्ञ था, जिसे वीणावादन का बहुत शौक था । उसके कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। 
  • उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान ‘वसुबंधु’ को अपना मंत्री नियुक्त किया था । 
  • ‘काव्यालंकारसूत्र’ में समुद्रगुप्त का एक नाम ‘चन्द्र प्रकाश’ भी मिलता है । 
  • समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था, जिसने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया। उसे ‘धर्मवप्राचीरबंध’ यानी ‘धर्म का प्राचीर’ कहा गया है । 
  • उसके काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ । 

समुद्रगुप्त का साम्राज्य 

  • समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था ।
  • कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपुताना, सिंध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे । 
  • दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियां भी उसके अधीन थीं ।
  • वस्तुतः समुद्रगुप्त ने अपने पिता से प्राप्त राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया । 
  • समुद्रगुप्त के इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । 

रामगुप्त 

  • समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना या नहीं, इस बात को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
  • सर्वप्रथम रामगुप्त के इतिहास का पुनर्निर्माण करने वाले विद्वान राखालदास बनर्जी थे, जिन्होंने एक व्याख्यानमाला के दौरान 1924 में रामगुप्त के शासन काल को प्रमाणित करने का प्रयास किया । 
  • विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे, रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त । 
  • दोनों भाइयों में बड़ा होने के कारण रामगुप्त पिता की मृत्यु के बाद 375 ई० में गद्दी पर बैठा । परंतु वह निर्बल एवं कायर शासक था । 
  • उसके काल में शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया, जिसमें रामगुप्त पराजित हुआ और वह एक अत्यंत अपमानजनक संधि करने के लिए बाध्य हुआ । 
  • सन्धि की शर्तों के अनुसार उसने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी (ध्रुवस्वामिनी) को शकराज की भेंट में दे देना स्वीकार कर लिया । 
  • उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त स्वभाव से बड़ा वीर तथा स्वाभिमानी था। उसे यह शर्त अपने कुल की मर्यादा के विपरीत लगी । फलस्वरूप उसने छद्म वेष में जाकर शकपति की हत्या कर दी। इस कार्य से उसकी लोकप्रियता बढ़ी | अवसर का लाभ उठाते हुए उसने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी, उसकी पत्नी से विवाह कर लिया तथा मगध का शासक बन बैठा । 

चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ ( 375 -415 ई०) 

  • चन्द्रगुप्त द्वितीय 375 ई० में सिंहासन पर आसीन हुआ । 
  • वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषि दत्तदेवी से उत्पन्न हुआ था । 
  • वह गुप्त राजवंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक बना । 
  • देवी चन्द्रगुप्त एवं हर्षचरित में चन्द्रगुप्त द्वितीय को ‘शकारि’ (शकों पर विजय प्राप्त करने वाला) कहा गया है । 389 ई० में शकराज रुद्र सिंह पर विजय प्राप्त करने की खुशी में उसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की । 
  • विक्रमादित्य की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्त संवत् 61 अर्थात् 380 ई० है, जो उसके मथुरा स्तंभ से प्राप्त होती है । यह लेख उसके शासनकाल के पांचवें वर्ष का है । 
  • उसने 375 से 415 ई० तक ( कुल 40 वर्षों तक) शासन किया । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि थे। उसने विक्रमांक, परमभागवत आदि उपाधियाँ भी धारण की । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी सबसे पहले वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत किया । 
  • उसने अपने समय के तीन प्रमुख राजवंशों – नागवंश, वाकाटक वंश और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेरनाग के साथ विवाह किया। उससे एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम प्रभावती गुप्त था । 
  • वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया । 
  • 390 ई० रुद्रसेन का निधन हो जाने के कारण प्रभावती अपने दो अल्पवयस्क पुत्रों दिवाकर सेन तथा दामोदर सेन की संरक्षिका बनी । प्रभावती गुप्त के सहयोग से चन्द्रगुप्त ने गुजरात और काठियावाड़ पर विजय प्राप्त किया । 
  • वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्ति से शकों का उन्मूलन किया गया । 
  • अपने विजयों के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने काशी के नजदीक नगवा नामक स्थान पर अवश्मेध यज्ञ किया। 
  • कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था । चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ । 
  • शृंगार प्रकाश तथा क्षेमेंद्र कृत औचित्य विचार चर्चा के अनुसार चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय स्वयं विद्वान था व विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसके काल में पाटलिपुत्र एवं उज्जैन विद्या के प्रमुख केंद्र थे । उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मंडली निवास करती थी, जिसे ‘नवरत्न’ कहा गया है। इनमें महाकवि कालिदास अग्रगण्य थे । 
  • कालिदास के अलावा विक्रमादित्य के नवरत्नों में धन्वंतरि क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, भरुचि जैसे विद्वान शामिल थे । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय का संधिविग्रहिक वीरसेन व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का प्रकांड पंडित तथा एक कवि था । उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने हेतु एक विद्वत्परिषद् थी, जिसने कालिदास, भर्तृमेठ, अमरू, भारवी, हरिश्चंद्र, चंद्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी ।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल की एक प्रमुख घटना चीनी यात्री फाह्यान का भारत आगमन भी है । 
  • 399 से 414 ईस्वी तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। उसका भ्रमण – वृतांत ‘फो-वो की चंद्रगुप्तकालीन भारत की सांस्कृतिक दशा का सुन्दर निरूपण करता है । 
  • चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल रहा । फाह्यान के विवरण से चंद्रगुप्त के शासनकाल में शान्ति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की स्पष्ट सूचनाएँ प्राप्त होती हैं । 

मेहरौली लौह स्तंभलेख और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य 

  • दिल्ली स्थित मेहरौली में कुतुबमीनार के पास एक लौह स्तंभ है, जिसमें ‘चन्द्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है । 
  • इस लेख की लिपि गुप्त काल की है । इस लौह स्तंभ को लेकर विद्वानों के बीच हालांकि मतभेद है, किंतु इसमें वर्णित विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह लौह स्तंभ चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का है । 
  • शक राजा के समक्ष घुटने टेकने वाले रामगुप्त के दौर में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने कौशल एवं बाहुबल से शकपति की हत्या की और साम्राज्य को अपने अधिकार में कर लिया ।
  • पूर्वी प्रदेशों (बंगाल आदि ) पर चन्द्रगुप्त द्वितीय के विजयों की भी पुष्टि मेहरौली स्तंभ लेख से होती है। 
  • वह विष्णु का भक्त था और उसकी प्रिय उपाधि ‘परमभागवत’ थी । 
  • संभवतः मेहरौली का लौह स्तंभलेख चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम ने पिता की याद में उत्कीर्ण करवाया था । 

कुमारगुप्त प्रथम ‘महेन्द्रादित्य’ (415-455 ई0) 

  • चंद्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् 415 ई० में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा । वह चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका सबसे बड़ा पुत्र था । 
  • कुमारगुप्त का गोविंदगुप्त नामक एक छोटा भाई था जो कुमारगुप्त के समय बसाढ़ (वैशाली) का राज्यपाल था । 
  • कुमारगुप्त प्रथम का शासन शांति और सुव्यवस्था का काल था । उसके काल में गुप्त साम्राज्य उन्नति की पराकाष्ठा पर था । 
  • समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया उसे कुमारगुप्त ने संगठित एवं सुशासित बनाये रखा । 
  • कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल कीखाड़ी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था, की पूरी तरह रक्षा की । 
  • कुमारगुप्त ने 40 वर्षों ( 415-455 ई०) तक शासन किया । 

स्कंदगुप्त (455-467 ई०) 

  • कुमारगुप्त प्रथम के निधन के बाद उसका सुयोग्य पुत्र स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ 455 ई० में सिंहासन पर बैठा । 
  • जूनागढ़ अभिलेख में उसके शासन की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 136 यानी 455 ई० अंकित है।
  • गढ़वा अभिलेख तथा चांदी के सिक्कों में अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 यानी 467 ई० उत्कीर्ण है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उसने 12 वर्षों तक शासन किया । 
  • स्कंदगुप्त एक महान विजेता एवं कुशल प्रशासक था तथा कुमारगुप्त के पुत्रों में सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान था । 
  • बौद्ध ग्रंथ आर्यमंजु श्रीमूलकल्प में भी स्कन्दगुप्त को श्रेष्ठ, बुद्धिमान तथा धर्मवत्सल शासक कहा गया है । 
  • हूणों द्वारा इस देश के विनाश को लगभग आधी सदी तक रोक कर उसने महान सेवा की और अपने इस वीरोचित कृत्य के कारण वह ‘देश रक्षक’ के रूप में जाना गया। । 
  • कुछ विद्वानों का मत है कि कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र पुरुगुप्त 
  • गुप्तवंश का सम्राट बना, किंतु स्कंदगुप्त ने उसकी हत्या करके राजगद्दी पर अधिकार कर लिया ।
  • स्कन्दगुप्त के प्रारंभिक वर्ष अशांति व कठिनाइयों से भरे थे, किन्तु तलवार के बल पर उसने 
  • तत्कालीन परिस्थितियों से निबटकर अपना मार्ग प्रशस्त किया । 
  • उसने अपने पिता के शासनकाल में पुष्यमित्र को पराजित करके अपनी वीरता का परिचय दिया था । 
  • राजा बनने के पश्चात् उसके सामने दूसरी विपत्ति आयी, जो हूणों (मध्य एशिया के बर्बर योद्धा) का प्रथम भारतीय आक्रमण था, जिसने गुप्त साम्राज्य को झकझोर दिया था । परंतु उसने हूणों के गर्व को चूर कर उन्हें देश के बाहर भगा दिया । 
  • स्कंदगुप्त ने हूणों को बुरी तरह से परास्त किया तथा उन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया, जिसका प्रमाण स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में मिलता है । इस अभिलेख में हूणों को ‘मलेच्छ’ कहा गया है। 
  • स्कंदगुप्त से पराजित हूण गांधार तथा अफगानिस्तान में बस गये, जहाँ वे ईरान के ससानी राजाओं के साथ संघर्ष में उलझ गये । 
  • 484 ई० में ससानी नरेश फिरोज की मृत्यु के बाद हूण पुनः भारत की ओर बढ़े । 
  • स्कंदगुप्त ने हूणों को 460 ई० के पूर्व ही पराजित किया था, क्योंकि इसके बाद के अभिलेखों में सदैव शांति कायम रहने की बातों का उल्लेख है । 
  • स्कंदगुप्त ने उथल-पुथल मचा रहे वाकाटकों को भी नियंत्रित किया । वे गुप्त साम्राज्य के प्रदेशों पर आक्रमण करते रहे थे । 
  • उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में सुराष्ट्र तक के प्रदेशों पर शासन करने वाला स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य का अंतिम महान् सम्राट था । 

सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण एवं मरम्मत 

  • स्कंदगुप्त एक अत्यंत लोकोपकारी शासक था जिसे अपने प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी । 
  • जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कंदगुप्त के शासनकाल में भारी वर्षा के कारण ऐतिहासिक सुदर्शन झील का बांध टूट गया। इस कष्ट के निवारणार्थ सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित, जो गिरनार नगर का नगरपति था, ने दो माह के भीतर ही उस झील के बांध का पुनर्निर्माण (455-456 ई० में) करवा दिया । 
  • यह बांध 100 हाथ लम्बा तथा 68 हाथ चौड़ा था । 
  • सुदर्शन झील का निर्माण प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यमित्र वैश्य ने पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिए करवाया था। 
  • अशोक के समय में यवन जातीय तुषाष्प ने उस झील पर बांध का निर्माण करवाया था। पहली बार शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ( 130-150 ई०) के समय यह बांध टूट गया, जिसका पुनर्निर्माण उसने अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में करवाया था । 

 

  • स्कंदगुप्त भी एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था तथा उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ थी । 
  • उसने भितरी में भगवान शाङ्गिण (विष्णु) की प्रतिमा स्थापित करवाया था । 
  • स्कंदगुप्त धार्मिक मामलों में पूर्णरूपेण उदार एवं सहिष्णु था । उसने अपने साम्राज्य में अन्य धर्मों को विकसित होने का भी अवसर दिया । 
  • 467 ई० में उसका निधन हो गया। उसके बाद गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। गुप्तकालीन कला और संस्कृति 
  • बिहार के गौरव का पुनरोद्धार गुप्त वंश के अधीन चौथी शताब्दी ई० में हुआ । 
  • 320 ई० में चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र में महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसीने गुप्त संवत् का भी इसी समय प्रचलन आरंभ किया । 
  • चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध का शासक बना । 
  • वह एक महान् विजेता था जिसने गुप्त साम्राज्य का विस्तार लगभग समस्त उपमहाद्वीप 
  • में किया । उसके विजय अभियानों की चर्चा हरिसेन द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में मिलती है ।
  • उसके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ ने सौराष्ट्र और पश्चिमी मालवा के क्षेत्रों को जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया । 
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल गुप्त साम्राज्य के चरमोत्कर्ष का काल रहा ।  
  • गुप्त साम्राज्य के काल को विद्या, कला और सांस्कृतिक जीवन में उत्कृष्ट उपलब्धियों का काल माना जाता है । 
  • राजनैतिक शांति और सुदृढ़ता, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक विकास के कारण गुप्तकाल को ‘प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग’ भी कहा जाता है । 
  • इस काल के विख्यात विद्वानों में वराहमिहिर, आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । गणित, खगोलशास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में इनकी देन अविस्मरणीय है । 
  • गुप्तकाल में ही नालंदा महाविहार की स्थापना हुई। इसका संस्थापक कुमारगुप्त था । कालांतर में यह विद्या का प्रमुख केन्द्र बना जहाँ बड़ी संख्या में विदेशी विद्यार्थी भी विद्योपार्जन हेतु आते थे । 
  • गुप्तकाल में संस्कृत भाषा की अत्यधिक प्रगति हुई । हिन्दू धर्म में भागवत परम्परा का 
  • । उल्लेखनीय विकास हुआ और हिन्दू धर्म का जो वर्तमान रूप हम देखते हैं, वह इसी काल में विकसित हुआ । 
  • कला के क्षेत्र में, बिहार के संदर्भ में, इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में बोधगया का महाबोधी मंदिर और नालंदा महाविहार के अवशेष महत्वपूर्ण हैं । 
  • स्कंदगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख शासक हुए- 

पुरुगुप्त (467-473 ई०) 

  • स्कंदगुप्त को कोई संतान नहीं थी । अतः स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद सिंहासन पर पुरुगुप्त बैठा । 
  • पुरुगुप्त कुमारगुप्त का पुत्र तथा स्कंदगुप्त का सौतेला भाई था । 
  • वृद्धावस्था में सिंहासन पर बैठने के कारण वह शासन सुचारु रूप से नहीं चला पाया और साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया । 
  • पुरुगुप्त बौद्धमत को मानता था । 

कुमारगुप्त द्वितीय (473-477 ई०) 

  • पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ । 
  • सारनाथ लेख में कुमारगुप्त द्वितीय के संदर्भ में गुप्त संवत् 154 यानी 473 ई० अंकित है।

बुधगुप्त (477-485 ई०) 

  • कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना। 
  • नालंदा से प्राप्त मुहर के अनुसार बुधगुप्त पुरुगुप्त का पुत्र था । उसकी माता का नाम चंद्रदेवी था । 
  • बुधगुप्त के शासनकाल की प्रथम तिथि सारनाथ लेख में गुप्त संवत् 157 यानी 477 ई० है । > बुधगुप्त ने 477 ई० में शासन प्रारंभ किया तथा रजत मुद्राओं पर अंकित तिथि 485 ई० तक शासन किया । 
  • स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों में बुधगुप्त सबसे शक्तिशाली शासक था, जिसने एक बड़े प्रदेश पर शासन किया । 
  • ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्धमतानुयायी था । उसने नालंदा बौद्धमहाविहार को काफी धन दान में दिया था । 
  • वह आखिरी गुप्त सम्राट था जिसने हिमालय से लेकर नालंदा तक और मालवा से लेकर बंगाल के भू-भाग पर शासन किया । 

नरसिंहगुप्त बालादित्य 

  •  बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त बालादित्य शासक बना । 
  • इस काल में साम्राज्य तीन भागों— मगध, मालवा और बंगाल में बँट गया । 
  • मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा क्षेत्र में भानुगुप्त तथा बंगाल के क्षेत्र में वैन्युगुप्त ने अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया । 
  • नरसिंह गुप्त इन तीनों शासकों में शक्तिशाली था । उसने मगध साम्राज्य के केंद्रीय भाग में अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया । 
  • नरसिंहगुप्त की सबसे बड़ी सफलता हूणों को पराजित करना था । क्रूर तथा अत्याचारी हूण राजा मिहिरकुल, जिसने मगध पर आक्रमण किया था, को पराजित करके नरसिंह गुप्त की सेना ने बंदी बना लिया। किंतु, अपनी माता के आग्रह पर नरसिंह गुप्त ने मिहिरकुल को मुक्त कर दिया । इसे मूर्खतापूर्ण कार्य कहा गया । 
  • जनश्रुतियों के अनुसार मिहिरकुल अत्याचारी, मूर्तिभंजक और बौद्धों का हत्यारा था, परन्तु वह एक कट्टर शैव भी था जिसने मिहिरेश्वर मंदिर की स्थापना की थी । 
  • नरसिंह गुप्त की धनुर्धारी प्रकार की मुद्राएँ मिलती हैं । 
  • नरसिंह गुप्त बौद्धमतानुयायी था । उसने बौद्ध विद्वान वसुबंधु की शिष्यता ग्रहण की थी ।
  • उसने अपने राज्य को स्तूपों तथा विहारों से सुसज्जित करवाया था । उसी के काल में वसुबंधु का निधन हुआ था । 
  • नालंदा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को ‘परमभागवत’ कहा गया है। उसने बौद्ध धर्म अपना लेने के बावजूद पूर्वजों की तरह ‘परमभागवत’ की उपाधि ग्रहण की थी । 

कुमारगुप्त तृतीय 

  • नरसिंह गुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा । 
  • भितरी तथा नालंदा के मुद्रालेखों में उसकी माता का नाम ‘महादेवी मित्रदेवी’ मिलता है । 
  • कुमारगुप्त तृतीय गुप्तवंश का अंतिम महान् शासक था । 
  • इसके संदर्भ में ताम्रपत्र में गुप्त संवत् 224 यानी 543 ई० अंकित है। 

विष्णुगुप्त 

  • विष्णुगुप्त कुमारगुप्त तृतीय का पुत्र था । नालंदा से प्राप्त मुद्रालेख में विष्णुगुप्त का उल्लेख है ।
  • उसने 550 ई० तक मगध पर शासन किया। इसके बाद गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। गुप्त साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण  गुप्त साम्राज्य का पतन 467 ई० में स्कंदगुप्त के निधन के बाद से ही प्रारंभ हो गया था, क्योंकि स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों में कोई भी महत्वाकांक्षी, पराक्रमी, योग्य व कुशल साबित नहीं हुए। बल्कि वे अपने पूर्वजों की भांति वैष्णव व परमभागवत की जगह बौद्धमतानुयायी तथा अहिंसा के उपासक थे, जो दान-पुण्य में लिप्त हो गये । इस कारण वे साम्राज्य की रक्षा व विस्तार करने में असमर्थ साबित हुए । 
  • परिणामतः 550 ई० में विष्णुगुप्त के निधन के साथ ही मगध में स्थापित गुप्त राजवंश का शासन समाप्त हो गया । 

मगध के परवर्ती गुप्त शासक (480-725 ई०) 

  • पाँचवीं-छठी शताब्दी ई० में बिहार के कुछ भागों में परवर्ती गुप्त शासकों के शासन की जानकारी कुछ अभिलेखों से मिलती है जिनकी प्राप्ति गया और शाहाबाद जिलों के क्षेत्र में हुई है।
  • इस वंश का संस्थापक कृष्णगुप्त ( 480 – 502 ई०) था, परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि उसका संबंध महान गुप्त शासकों से क्या था । 
  • कृष्णगुप्त और उसके दो उत्तराधिकारी हर्षगुप्त (502-525 ई०) तथा जीवित गुप्त (525-545 ई०) को मुख्य गुप्त वंश के शासकों के सामंत के रूप में माना जा सकता है । 
  • इस वंश के एक शासक कुमारगुप्त तृतीय द्वारा प्रयाग तक सत्ता- विस्तार करने और मौखरी शासक को पराजित करने के संबंध में जानकारी मिलती है । 
  • उसके उत्तराधिकारी दामोदर गुप्त को मौखरी शासक ने पराजित कर मगध के अधिकांश भाग को हस्तगत कर लिया । इसी बीच इस क्षेत्र में गौड़ (बंगाल) के शासक शशांक के भी अभियान हुए। 
  • शशांक एक क्रूर और धर्मांध शासक था, जिसने बौद्धों के धार्मिक स्थलों को बुरी तरह नष्ट किया और बोधगया में महाबोधि वृक्ष को भी क्षति पहुँचाई । 
  • दामोदर गुप्त के पौत्र, देवगुप्त ने शशांक से गठबंधन कर कन्नौज के मौखरि शासक, ग्रहवर्मन के विरुद्ध कार्रवाई की। 
  • शशांक ने ग्रहवर्मण का वध भी कर दिया। इसके प्रतिशोध में राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित कर उसका वध कर दिया । 
  • गुप्त साम्राज्य के पतन से हर्ष के शासनकाल के पूर्व तक बिहार के क्षेत्र का इतिहास नितांत संघर्ष का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसमें मगध के परवर्ती गुप्त शासक, कन्नौज के मौखरी शासक और बंगाल के गौड़ शासक भाग लेते रहे । 
  • सातवीं शताब्दी ई० के आरंभ में जब हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में साम्राज्य विस्तार किया तो बिहार के कुछ भाग उसके नियंत्रण में आये। उसने परवर्ती गुप्त शासकों में माधवगुप्त को मगध के क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि बनाया ताकि शशांक द्वारा किसी आक्रमण का निदान आसानी से कर सके । 
  • हर्ष की मृत्यु के पश्चात बिहार में पुनः अराजकता फैल गयी । 
  • हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उत्तर भारत की राजनीतिक एकता का युग समाप्त हो गया । > माधव गुप्त, जो हर्ष का मित्र था और हर्ष के साथ कई युद्धों में भाग भी ले चुका था, ने हर्ष की मृत्यु के पश्चात् राजनैतिक अराजकता के युग में मगध में एक नये राजवंश की नींव डाली । यह राजवंश उत्तरकालीन गुप्त वंश के नाम से प्रसिद्ध है । 
  • इस नवीन राजवंश के शासक आदित्य सेन के अतिरिक्त शेष सभी राजाओं के नाम के 
  • अन्त में ‘गुप्त’ शब्द आता है, इसलिए इसे मगध का उत्तर गुप्त वंश भी कहते हैं। 
  • अपसद अभिलेख में आठ गुप्त राजाओं का उल्लेख हुआ है 
    • १.कृष्णगुप्त 2. हर्षगुप्त 3. जीवितगुप्त प्रथम 4. कुमारगुप्त 5. दामोदर गुप्त 6. महासेन गुप्त 7. माधव गुप्त 8. आदित्य सेन । 
  • देव वर्णाक अभिलेख में तीन अन्य राजाओं के नाम का उल्लेख हुआ है- 
    •  १ .देवगुप्त 2. विष्णुगुप्त और 3 जीवित गुप्त (द्वितीय) ।
  • बिहार के किसी स्थानीय शासक अर्जुन ने चीनी यात्रियों को क्षति पहुँचाई। प्रतिशोध में तिब्बत और नेपाल के राजाओं ने संयुक्त रूप से बिहार पर आक्रमण कर दिया। 
  • संभवतः कुछ समय के लिए तिब्बत की संप्रभुता भी बिहार के कुछ भागों में स्थापित हो गयी, जिसका अंत माधव गुप्त के पुत्र आदित्यसेन ने किया। उसका राज्य मगध, उत्तर एवं पूर्वी बिहार (मुंगेर तथा भागलपुर के क्षेत्र) तक विस्तृत था। संभवतः पूर्वी कमीज और बंगाल पर भी उसका नियंत्रण था । 
  • उसकी मृत्यु के कुछ ही समय बाद इस वंश का पतन हो गया। इस वंश का अंतिम शासक जीवितगुप्त द्वितीय था जिसका वध कर 725 ई० के लगभग कन्नौज के शासक यशोवर्मन ने इस वंश का अंत कर दिया । वाक्पतिराज कृत ‘गौडवाही’ से पता चलता है कि यशोवर्मन ने पूर्वी भारत पर आक्रमण कर मगध के शासक की हत्या की थी। इस मगधनरेश की पहचान प्रायः जीवितगुप्त द्वितीय के रूप में होती है । 
  • जीवितगुप्त द्वितीय के साथ ही उत्तरगुप्त वंश के शासन का अंत हुआ तथा इस क्षेत्र में पुनः अराजकता और अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गयी । 
  • मगध के देवबर्नाक से जीवितगुप्त का ही लेख मिलता है ।  
  • वह इस वंश का अंतिम महान शासक था । जीवितगुप्त द्वितीय का राज्यकाल 715 से 725 ई० माना जाता है । 

मौखरि वंश 

  • गया जिले के निवासी मौखरि लोग गुप्त राजवंश के समय सामंत थे । 
  • वे चक्रवर्ती गुप्त राजवंश के पतन के दौर में क्रमशः 510 ई० से शक्तिशाली होने लगे और लगभग 550 ई० में काफी शक्तिशाली हो गये । 
  • मौखरि वंश के लोग दोआब क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश के कन्नौज (राजधानी) में तथा राजस्थान के बड़वा क्षेत्र में तीसरी सदी में फैले थे । 
  • मौखरि वंश के शासकों को उत्तर गुप्तवंश के चौथे शासक कुमार गुप्त से युद्ध हुआ था, जिसमें कुमारगुप्त ने मगध को मौखरि वंश के इशानवर्मन (558-565 ई०) से छीन लिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि गुप्तवंश के काल में मगध में दो प्रकार के वंश – (a) उत्तर गुप्तवंश के शासक सामंत (कृष्णगुप्त, हर्षगुप्त, व जीवितगुप्त) एवं (b) मौखरि वंश के शासक सामंत प्रभावशाली एवं स्वतंत्र होने की दिशा में सक्रिय थे। 
  • मौखरि वंश के सामंत अपनी राजधानी कन्नौज ले गये थे और वहां गुप्त राजवंश के अधीन सामंत यानी महाराज थे। परन्तु उनकी नजर मगध पर थी। कन्नौज का पहला मौखरि शासक सामंत हरि वर्मन था । उसने 510 ई० में अपना शासन प्रारंभ किया था । 
  • हरिवर्मन का पुत्र आदित्य वर्मन था। इसका विवाह मगध के उत्तर गुप्तवंशीय राजकुमारी हर्षगुप्ता के साथ हुआ । 
  • फिर आदित्य वर्मन का पुत्र ईश्वर वर्मन उत्तराधिकारी बना। ईश्वर वर्मन का विवाह उत्तर गुप्तवंशीय राजकुमारी उपगुप्ता के साथ हुआ । 
  • मगध के उत्तर गुप्तवंशीय प्रारंभिक शासकों कृष्णगुप्त, हर्षगुप्त और जीवितगुप्त के संबंध मगध पर नजर रखने वाले कन्नौज के मौखरि सामंत हरि वर्मन, आदित्य वर्मन और ईश्वर वर्मन से (510-550 ई०) मित्रता के रहे । 
  • किंतु मगध के उत्तरगुप्तवंशीय चौथे शासक कुमारगुप्त और मौखरि (कन्नौज) शासक ईशान वर्मन ( ईश्वर वर्मन का पुत्र) के बीच भारी युद्ध हुआ, जिसमें ईशान वर्मन पराजित हुआ और तीन पीढ़ियों से चले आ रहे मित्रता के संबंध शत्रुता में परिणत हो गये । 

मौखरि-मगध संबंध 

  • मौखरि वंश का संस्थापक हरिवर्मन 510 ई० में कन्नौज में शासन व वंश प्रारंभ 
  • आदित्य वर्मन (हरिवर्मन का पुत्र) मगध से विवाह संबंध
  • ईश्वर वर्मन (आदित्य वर्मन का पुत्र) मगध से विवाह संबंध
  • ईशान वर्मन ( ईश्वर वर्मन का पुत्र) : मगध के कुमारगुप्त से युद्ध में पराजित हुआ ।
  • सर्ववर्मन ( ईशान वर्मन का पुत्र) – अपने पिता का बदला -मगध पर आक्रमण, विजयी रहा ।
  • सूर्यवर्मन, जिसका उल्लेख हरहा लेख में मिलता है और जो संभवतः ईशान वर्मन का भाई था, की मृत्यु ईशान वर्मन के काल में ही हो गयी । 
  • सर्ववर्मन द्वारा मगध के दामोदर गुप्त पर विजय एवं मगध पर अधिकार । 
  • सर्ववर्मन के समय मौखरि पुनः शक्तिशाली हो गये । मगध को मौखरि – आधिपत्य के अंतर्गत लाने वाला प्रथम शासक सर्ववर्मन ही था । 
  • सर्ववर्मन मौखरि वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था, जिसने एक बड़े भू-भाग पर 585 ई० तक शासन किया । 
  • अवंति वर्मन (सर्व वर्मन का पुत्र ) – शासनकाल 585 – 600 ई० – मगध का महासेन गुप्त अवंति वर्मन का सामंत था । 
  • अवंति वर्मन एक शक्तिशाली राजा था, जिसके राज्य में कन्नौज के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार का एक बड़ा भाग सम्मिलित था । 
  • नालंदा से प्राप्त मुद्रालेख में अवंति वर्मन को महाराजाधिराज कहा गया है । 
  • अवंति वर्मन ने अपने पुत्र का वैवाहिक संबंध थानेश्वर के पुष्यभूति वंश की राज्यश्री के साथ स्थापित किया, जो उस समय की बेहद महत्वपूर्ण घटना थी । 
  • ग्रह वर्मन (अवंति वर्मन का पुत्र व उत्तराधिकारी) शासक बना – 600-605 ई० । परंतु मगध पर ग्रह वर्मन का अधिकार समाप्त हो गया । वह केवल कन्नौज का शासक था । 
  • मगध में ग्रह वर्मन के छोटे भाई सुचंद्र वर्मन ने अपना स्वतंत्र राज्य कायम किया । 
  • नालंदा लेख में सुचंद्र वर्मन को अवंति वर्मन का उत्तराधिकारी तथा महाराजाधिराज कहा गया है । 

उत्तर गुप्तकाल में बिहार के अन्य प्रमुख राजवंश 

  • हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद मगध के अंतर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक आदित्य सेन था । 
  • बंगाल अभियान से लौटते हुए गयासुद्दीन तुगलक ने तिरहुत पर अधिकार कर लिया | तिरहुत पर अधिकार करके राजधानी लौटने के दौरान वह एक षड्यंत्र में मारा गया । 
  • चौदहवीं सदी में तिरहुत पर मुसलमानों के अधिकार जमा लेने के पश्चात् फिरोज तुगलक ने यहाँ एक नये राजवंश वैनवार वंश का शासन आरंभ किया । 
  • वैनवार वंश ने तिरहुत में दो-तीन सौ सालों तक शासन किया। वैनवार वंश के शासनकाल में अनेक प्रसिद्ध शासक हुए, जिनमें शिवसिंह का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । 
  • महाराज शिवसिंह की छत्रछाया में अमर कवि विद्यापति ने अपने काव्य की रचना की थी। > तुर्क अफगान साम्राज्य के पतन के काल में और भारत पर अधिकार जमाने हेतु मुगलों और 
  • अफगानों में युद्ध छिड़ा रहता था। उस समय मिथिला में राजनीतिक अंधकार छाया हुआ था। > मुगल सम्राट अकबर ने महेश ठाकुर की विद्वता के पुरस्कार स्वरूप उन्हें मिथिला का राज्य दे दिया। महेश ठाकुर के वंश के शासकों ने आधुनिक युग तक मिथिला की सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रगति का मार्गदर्शन किया । 
  • महेश ठाकुर द्वारा संस्थापित वंश को ‘दरभंगा राजवंश’ के नाम से जाना जाता है। 
  • दरभंगा राजवंश में चंद्रेश्वर का काल – 14वीं सदी माना जाता है। 
  • चंद्रेश्वर ने 14वीं सदी के प्रारंभ में ‘कृत्यरत्नाकर’ का संकलन किया था । ‘कृत्यरत्नाकर’ ग्रंथ के अनुसार 13वीं – 14वीं सदी में मिथिला के लोग विष्णु हरि तथा शिव के उपासक थे ।