सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
खलीफ़ा से संबंध
- सल्तनत काल में प्रशासनिक प्रणाली के तहत सबसे महत्त्वपूर्ण संबंध सुल्तान व ख़लीफ़ा के थे।
- वास्तव में हलाकू ने अंतिम अब्बासी खलीफ़ा का 1258 ई. ही वध कर दिया था, किंतु सैद्धांतिक रूप से इस्लामिक मान्यता को जीवंत बनाए रखने के लिये सल्तनत शासकों ने उनसे संबंध बनाए रखे और अपने सिक्कों पर खलीफ़ा के प्रतिनिधि ‘नासिर-ए-अमीर-उल-मोमिनिन’ का अंकन करवाया।
- इल्तुतमिश पहला सुल्तान था जिसने ख़लीफ़ा से मान्यता प्राप्त की, किंतु उसी समय ख़लीफ़ा ने बंगाल के विद्रोही गयासुद्दीन ऐबाज को भी मान्यता दे दी और इल्तुतमिश ने उस पर आक्रमण करने में कोई संकोच नहीं किया।
- अलाउद्दीन खिलजी ने शासकों की परंपरागत उपाधि के साथ ही अपने आप को खलीफ़ा का दायाँ हाथ अर्थात् ‘यामिनी-उल-ख़िलाफ़त‘ कहा। यहाँ उल्लेखनीय है कि अलाउद्दीन खिलजी ने खिल्लत प्राप्त करने की कोशिश तो नहीं की, किंतु सैद्धांतिक रूप से इस परंपरा को जीवित रखा।
- मुबारक ख़िलजी ने स्वयं को ही ‘ख़लीफ़ा’ कहकर सिद्धांत व व्यवहार दोनों में इस परंपरा का उल्लंघन कर दिया।
- प्रारंभ में मुहम्मद बिन तुगलक ने ख़लीफ़ा की स्वीकृति को महत्त्वपूर्ण नहीं माना किंतु बाद में न केवल उसने खिल्लत प्राप्त की वरन् सिक्कों पर से अपने नाम हटवाकर ख़लीफ़ा का नाम लिखवाया।
- फिरोजशाह तुगलक ने दो बार खिल्लत प्राप्त की और अपने आप को ‘ख़लीफ़ा का नायब’ घोषित किया।
उलेमा से संबंध
- प्रशासनिक व्यवस्था में शरीयत का पालन हो सके, इसलिये मुस्लिम साम्राज्यों में उलेमाओं की उपस्थिति सैद्धांतिक तौर पर उपस्थित रही, किंतु सल्तनत काल में ही अलाउद्दीन ख़िलजी व मुहम्मद बिन तुगलक जैसे शासकों ने उनके हस्तक्षेप पर अंकुश लगा दिया।
इक्ता व्यवस्था
- इक्ता का शब्दिक अर्थ है- ‘हस्तांतरणीय लगान अधिन्यास‘।
- इक्ता की सर्वप्रथम परिभाषा निज़ामुल-मुल्क-तूसी द्वारा रचित ‘सियासतनामा’ में दी गई।
- इक्ता एक ऐसा भू-क्षेत्र होता था जो सैनिक व असैनिक अधिकारियों (मुख्यतः सैनिक) को उस क्षेत्र के प्रशासनिक संचालन के लिये दिया जाता था।
- तत्कालीन परिस्थितियों में विद्रोह प्रवृत्ति को रोकने, सल्तनत के बड़े क्षेत्र में प्रशासनिक संचालन तथा राजस्व प्राप्त करने का यह एक अनोखा प्रयोग था, जो भारत के लिये तो नया था किंतु मध्य एशिया में यह प्रचलित हो चुका था।
- किसी भी अवस्था में इक्तेदार उस भू-खंड के स्वामी नहीं हो सकते थे। वे तो केवल पैदावार की लगान के उपभोग के स्वामी हो सकते थे।
- ‘सियासतनामा’ के अनुसार, इक्तेदार को किसी भी क्षेत्र में 3 वर्ष से अधिक नहीं रखना चाहिये।
- उस क्षेत्र के प्रशासनिक व सैनिक खर्च के बाद बचे राजस्व को केंद्रीय राजकोष में जमा कराना होता था। इस अतिरिक्त राजस्व (अधिशेष) को ‘फवाजिल‘ कहा जाता था।
- बड़े इक्तेदारों को मुक्ता, वलि या मलिक भी कहा जाता था।
प्रचलन व परिवर्तन
- भारत में सर्वप्रथम इक्ता मुहम्मद गौरी ने बाँटी।
- उसने कुतुबुद्दीन ऐबक को ‘हाँसी’ का इक्तेदार बनाया किंतु इक्ता को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय इल्तुतमिश को ही दिया जाता है।
- बलबन के समय से ही इसमें परिवर्तन आरंभ हो जाता है। बलबन ने वलि या मुक्ता के आचरण पर नियंत्रण रखने हेतु ‘ख्वाजा’ नामक लेखाधिकारी की नियुक्ति की और दूसरा परिवर्तन उसने तरकात के रूप में किया अर्थात् यदि किसी इक्तेदार की मृत्यु हो गई हो और उसका पुत्र सैन्य सेवा में नहीं है तो वह इक्ता वापस ले ली जाएगी।
- अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के समीप छोटी इक्ताओं को समाप्त कर उन्हें खालसा भूमि में शामिल कर लिया किंतु दिल्ली से दूर बड़ी इक्ताओं को जारी रखा।
इक्ता में सर्वाधिक परिवर्तन तुगलक काल में हुए
- गयासुद्दीन तुगलक ने मुक्ता की आय और उसके द्वारा नियुक्त सैनिकों की आय में स्पष्ट विभाजन कर दिया।
- मुहम्मद बिन तुगलक ने इक्तेदारों के अधिकारों पर और अंकुश लगाते हुए उन्हें केवल भू-राजस्व वसूली से संबंधित कर दिया तथा ‘वलि-उल-खराज’ नामक पद का सृजन किया तथा इन क्षेत्रों में प्रशासनिक संचालन के लिये ‘अमीन’ (अमीर) नामक नया पद भी सृजित किया।
- फिरोजशाह तुगलक ने इक्ता भूमि को वंशानुगत बना दिया और अब सैनिकों को भी भू-अनुदान दिया जाने लगा, जिस पर अलाउद्दीन खिलजी के समय से रोक लगा दी गई थी और उन्हें नकद वेतन दिया जाने लगा था। ऐसे आनुवांशिक भू-क्षेत्र ‘वजह’ कहलाए।
- सिकंदर लोदी के समय भूमि अब वस्तु की तरह हो गई और सबसे बढ़कर ‘फवाज़िल’ पर रोक लगाने से इक्ता का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो गया अतः यह पुनः सामंतवादी प्रक्रिया में विलीन हो गया। ध्यातव्य है कि सिकंदर लोदी ने इसे पूर्ण हस्तांतरणीय भी बना दिया था।
- इक्ता के पर्याय के रूप में ‘विलायत’ शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
सल्तनतकालीन सैन्य प्रणाली
- दिल्ली सल्तनत की सैन्य व्यवस्था तुर्की और मंगोल पद्धति पर आधारित थी। सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का शुभारंभ इल्तुतमिश के शासनकाल से होता है।
- उसके काल में सल्तनत की सेना को ‘हश्म-ए-क़ल्ब’ या ‘कल्ब-ए-सुल्तानी’ कहा जाता था।
- सल्तनतकालीन सुल्तानों में बलबन को सैन्य विभाग की स्थापना का तथा अलाउद्दीन खिलजी को केंद्र में एक स्थायी सेना के गठन का श्रेय दिया जाता है।
- मंगोल सेना का वर्गीकरण दशमलव पद्धति पर आधारित था
- अमीर-ए-दह – दस सैनिकों का सेनानायक
- अमीर-ए-सदा – दस अमीरों या सौ सैनिकों का सेनानायक
- अमीर-ए-तुमन – दस हज़ार सैनिकों का सेनानायक
- सैनिक सुधारों की दृष्टि से अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल को सबसे महत्त्वपूर्ण युग कहा जा सकता है। उसने एक स्थायी सेना का गठन किया, सैनिकों की सीधी भर्ती की और उन्हें सरकारी करके नियुक्त किये गए सैनिक को सरकारी भाषा में ‘मुर्रत्तब’ कहा जाता था। एक घोड़ा रखने वाले अश्वारोही सैनिक का वार्षिक वेतन 234 टंका निश्चित किया गया और दो-अस्पा सैनिकों को 78 टंका वार्षिक अतिरिक्त प्रदान किया जाता था।
- सेना में भ्रष्टाचार को रोकने के लिये और उनकी गतिशीलता बनाए रखने के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने ‘दाग’ व ‘हुलिया’ प्रथा की नींव डाली।
- गयासुद्दीन तुगलक ने अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रारंभ ‘दाग’ और ‘हुलिया’ प्रथा को अत्यंत कठोर ढंग से अपनाया और सैनिकों का स्वयं निरीक्षण करने की प्रक्रिया शुरू की।
- गयासुद्दीन तुगलक सैनिकों के वेतन रजिस्टर (वसिलात-ए-हश्म) की स्वयं जाँच करता था।
- मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में सैनिक अधिकारियों को उनका वेतन ‘इक्ता’ के रूप में और सैनिकों को नकद धनराशि क रूप में दिया जाता था। जो सैनिक सेनाध्यक्षों के अधीन होते थे उन्हें सीधे शाही खजाने से वेतन का भुगतान किया जाता था।
- फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में विविध कारणों से दिल्ली सल्तनत का आकार छोटा होता गया और इसी के साथ-साथ सेना की संख्या और संगठन में भी गिरावट आई। फिरोज़ ने हुलिया, दाग प्रथा, सैनिक जाँच जैसे कुछ पुराने सैनिक सुधारों को बनाए रखन का हरसंभव प्रयास किया पर उसकी अस्थिर नीति के कारण सैनिक अनुशासन बहुत कमज़ोर हो गया।
- फिरोजशाह तुगलक ने सेना को नकद वेतन देने के स्थान पर इक्ता के रूप में वेतन (वज़ह) प्रदान करने की प्रथा फिर से चलाई।
- अब सैनिक नकद वेतन के स्थान पर भूमि या गाँवों के लगान रूप में वेतन पाने लगे और वे ‘वज़हदार’ कहलाये जाने लगा फिरोजशाह तुगलक सेना में कठोर अनुशासन बनाए रखने में असमर्थ रहा। अतः सल्तनत की सैनिक स्थिति कमज़ोर पड़ी।
- लोदी शासकों के समय में सेना का सामंती रूप पुनः प्रकट हुआ। सैन्य व्यवस्था की यह त्रुटि बाबर के लिये सहायक सिद्ध हुई।
- सल्तनत काल में सेना का मुख्य वर्ग अश्वारोही दल के रूप में था। दूसरा वर्ग गज-सेना पर आधारित था, जबकि तीसरा वर्ग पैदल सैनिकों का था जिन्हें पायक कहा जाता था।
- सल्तनत काल में बारूद, गोले या तोपखाने का निर्माण नहीं किया गया था।
- मंजनीक, कुश्कंजीर और अरादा आदि यंत्रों का उपयोग पत्थर और धातु के गोले फेंकने के लिये किया जाता था।
- चर्ख (शिला प्रक्षेपास्त्र) और फलाखून (गुलेल) का भी प्रयोग किया जाता था।
सल्तनतकालीन अर्थव्यवस्था
कृषि
- सल्तनत काल में राजस्व की प्रमुख मद भू-राजस्व ही थी, जो सामान्यतः 1/5 मानी जाती है। किंतु, अलाउद्दीन ख़िलजी ने भू-राजस्व की दर को 1/2 कर दिया।
- भू-राजस्व के लिये ‘गल्ला-बक्शी’ या ‘बटाई’ परंपरा जो कि पिछले वर्ष के फसलों के उत्पादन के आधार पर निर्धारित होती थी।, जिसे गयासुद्दीन तुगलक ने पुनः अपनाया। विदित है कि अलाउद्दीन ख़िलजी ने इस हेतु पैमाइश (मसाहत) को अपनाया था और जिसमें प्रति बीघा उत्पादन को आधार बनाया गया था।
- ‘कनकुत’ या ‘नस्क’ प्रणाली भी प्रचलित थी, जिसमें अनुमान के आधार पर राजस्व निर्धारण किया जाता था।
- भू-राजस्व अनाज व नकद दोनों में लिया जाता था।
- अलाउद्दीन खिलजी और सिकंदर लोदी ने अनाज में वसूली को वरीयता दी तो अन्य शासकों ने नकद वसूली को। उल्लेखनीय है कि सिकंदर लोदी ने अनाज पर से कर (आय कर) हटा लिया।
- सिंचाई व्यवस्था में भी व्यापक परिवर्तन आया और 13वीं-14वीं सदी में इस व्यवस्था में ‘नोरिया’ तकनीक का विकास हुआ, जो कि गियर प्रणाली से संबंधित थी। इस तकनीक के कारण अत्यधिक मात्रा में आसानी से पानी उपलब्ध होने लगा। ध्यातव्य है कि हर्ष के समय ‘रहँट’ या ‘अरघट’ प्रणाली का उल्लेख मिलता है किंतु नोरिया उससे उन्नत प्रणाली थी। सल्तनत काल में सिंचाई के मुख्य साधन कुएँ ही थे।
- गयासुद्दीन तुगलक प्रथम सुल्तान था जिसने सिंचाई के लिये नहर प्रणाली को अपनाया
- इब्न बतूता भारत में एक वर्ष में तीन प्रकार के चावल की खेती की बात करता है, जबकि अन्य इतिहासकार दो प्रकार की। विदित है कि दक्षिणी चीन के अतिरिक्त ऐसा कहीं नहीं होता था।
- अच्छे किस्म के चावल के लिये सुरसति (पश्चिमोत्तर) अत्यधिक प्रसिद्ध था।
उद्योग व व्यापार
- तुर्क मुख्यतः नगर निवासी थे। अतः उनकी प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था ने नगरों के चरित्र में मात्रात्मक व गुणात्मक परिवर्तन किया।
- तुर्कों के आगमन के साथ ही नवीन प्रौद्योगिकी भी भारत आई जिनके कारण भारत की उत्पादन संरचना में परिवर्तन हुआ, जिसे मोहम्मद हबीब ‘नगरीय क्रांति’ की संज्ञा देते हैं।
- लगभग सभी प्रमुख सुल्तानों ने नए नगर बसाए, जिससे नगरों का विस्तार हुआ साथ ही रोजगार और सामाजिक भेदभाव से मुक्ति के लिये ग्रामीण जनता शहरों की ओर आकर्षित हुई।
- प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए
- धातु शिल्प में परिवर्तन, विशेषकर सैनिक उपयोग के लिये लौह-प्रौद्योगिकी का विकास हुआ।
- कागज़ निर्माण में तेजी आई। चूँकि, सल्तनत काल में कई संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद हुआ और नए ग्रंथों की रचना हुई। इसके साथ ही इन्हें सुरक्षित रखने के लिये ‘जिल्दसाजी’ भी एक उद्योग बन गया।
- सल्तनत के शासकों ने इतिहास लेखन में विशेष रुचि दिखाई और अपने कार्यों को सकारात्मक रूप से प्रदर्शित करवा कर वे इसके द्वारा महान बनना चाहते थे।
- चटखा व धुनकी का प्रवेश भी तुर्कों के साथ ही हुआ जिससे वस्त्र उत्पादन के लिये तकली का प्रयोग किया करते थे।
- रूई धुनने वाले या बुनकर के लिये ‘नद्दाफ’ शब्द का प्रयोग होता था।
- आसवन विधि का भी ज्ञान हुआ, जिसका मुख्य उपयोग मंदिरा व इत्र निर्माण में किया जाता था। इसके साथ ही धातुकला के अंतर्गत ‘कलई’ विधि का प्रयोग किया जाने लगा और इस हेतु जस्ते का प्रयोग किया जाने लगा।
- भारत की दमिश्की इस्पात पूरे भारत में प्रसिद्ध था, जो कश्मीर से प्राप्त होता था।
- सल्तनत शासकों की विशेष रुचि स्थापत्य के प्रति थी। गारे-चूने के ज्ञान के कारण नए भवन निर्माण संभव हुए।
- फिरोज़शाह तुगलक ने तो एक नया विभाग ‘दीवान-ए-इमारत-खाना’ ही स्थापित कर दिया।
- गैर-कृषि उत्पाद पर आधारित उद्योगों में चमड़ा, धातुएँ, पत्थर, नमक व तेल उद्योग प्रमुख था।
- शाही कारखाने भी विलासी वस्तुओं के उत्पादन के प्रमुख केंद्र थे। फिरोजशाह तुगलक ने ऐसे 36 शाहा कारखानों का निर्माण कराया और इन कारखानों का निरीक्षण ‘मुतसर्रिफ’ कहलाता था।
आयात
- अरब व खाड़ी देशों से- सोना, चांदी, केसर, अफीम, सिंदूर, घोड़े आदि।
- अफ्रीका से – हाथी दाँत व लाख।
- देवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रमुख बंदरगाह तथा दक्षिणी सिंध में लहरीबंदर व गुजरात में कैंबे व सूरत इस समय के प्रसिद्ध बंदरगाह था।
- अन्हिलवाड़ व्यापारियों के लिये ‘तीर्थ-स्थल’ कहा जाता था।
- इब्नबतूता के बाद आए चीनी यात्रियों ने बंगाल के बारे में कहा था कि “देवताओं ने पृथ्वी का संपूर्ण सोना इस प्रांत में बिखेर दिया है।”
कर प्रणाली
शरीयत के अनुसार चार कर मान्य थे
जज़िया
- गैर-मुसलमानों से संरक्षित प्रजा (ज़िम्मी) की हैसियत से लिया जाने वाला यह कर उनकी आय के अनुपात में होता था। (कुछ इतिहासकारों के अनुसार जज़िया एक प्रकार का धार्मिक कर था।)
जकात
- यह मुसलमानों से लिया जाने वाला स्वैच्छिक धार्मिक कर था।
नोटः धार्मिक कर को ‘सदका’ भी कहा जाता था।
- इस कर का उपयोग लोगों के कल्याण हेतु किया जाता था।
- वस्तुतः यह एक प्रकार का संपत्ति कर था, जिसकी दर सामान्यतः 2.5 प्रतिशत थी।
खुम्स
- लूट या युद्ध से प्राप्त धन। इसे ‘गनीमा’ भी कहा जाता था।
- नियमतः इस संपत्ति में सुल्तान को 1/5 भाग और सैनिकों का ⅘ भाग होत था।
- अलाउद्दीन ख़िलजी ने इस दर को उलट कर सुल्तान का भाग 4/5 और सैनिकों का 1/5 भाग कर दिया
खराज
- गैर-मुसलमानों से लिया जाने वाला भू-राजस्व सामान्यतः इसकी दर 1/5 से 1/3 थी, जिसे अलाउद्दीन खिलजी शरीयत द्वारा मान्य सबसे उच्च दरा कर लिया।
अन्य कर
उश्र
- तुर्की मुसलमानों से सिंचाई व्यवस्था पर आधारित भूमि कर जिसकी दर 1/10 होती थी।
- ध्यातव्य है कि प्राकृतिक साधनों से सिंचित भूमि की तुलना में कृत्रिम विधि से सिंचित भूमि से अधिक कर लिया जाता था।
हक-ए-शर्ब
- फिरोजशाह तुगलक द्वारा आयोजित सिंचाई कर
- माना जाता है कि फिरोजशाह तुगलक ने शरीयत के मान्य करों के अतिरिक्त एक कर लगाया।
लगान व्यवस्था
इसके अंतर्गत कई प्रकार की बँटाइयों का उल्लेख मिलता है
बँटाई: लगान निर्धारित करने की एक प्रणाली थी, जिसमें राज्य की ओर से प्रत्यक्ष रूप से ज़मीन की पैदावार से हिस्सा लिया जाता था। बँटाई प्रमुखतः तीन प्रकार की होती थी
1. खेत बँटाईः खड़ी फसल में ही कर का निर्धारण।
2. लंक बँटाईः अनाज से भूसा निकाले बिना ही कृषक एवं सरकार के बीच कर का बँटवारा हो जाना।
3. रास बँटाई: अनाज से भूसा निकालने के बाद सरकारी हिस्से का निर्धारण करना।
मुक्ताईःलगान निर्धारण की मिश्रित प्रणाली को ‘मुक्ताई’ कहा जाता था।
- अलाउद्दीन खिलजी ने भूमि के माप के आधार पर कर का निर्धारण किया, जिसे ‘मसाहत पद्धति’ कहा जाता था।
- गयासुद्दीन तुगलक एवं मुहम्मद बिन तुगलक के समय में भी यही व्यवस्था बनी रही। अलाउद्दीन खिलजी के समय इसका प्रचलन खालसा एवं दोआब क्षेत्र में था। विंध्य के दक्षिण में तथा बंगाल, मालवा एवं गुजरात में भी मसाहत प्रणाली का प्रचलन मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा हुआ।
सल्तनतकालीन स्थापत्य
- सल्तनत युग में विकसित होने वाली स्थापत्य कला को ‘इंडो-इस्लामिक’ शैली कहा जाता है क्योंकि ये दोनों कलाओं के समन्वय से विकसित हुई थी।
- इस्लामिक कला में सजीव चित्रण की इजाजत नहीं होती, इसलिये इसमें अरबस्क विधि (किसी पौधे की लताओं को अनवरत रूप से प्रदर्शित करना। इसका शाब्दिक अर्थ है- घेरेदार लेखन या चित्रण) व कूफी विधि (कुरान की आयतों का सीधा सुलेखन) का प्रयोग किया गया।
- हिन्दू स्थापत्य ‘शहतीर व स्तंभ’ पद्धति पर आधारित था, जिसे क्षैतिज विधि भी कहते हैं। जबकि इस्लामिक कला में ‘मेहराब पद्धति‘ महत्त्वपूर्ण थी और मज़बूती के लिये उन्होंने गोर व चूने का अत्यधिक प्रयोग किया। उल्लेखनीय है कि कुषाणों के समय भी अपवादस्वरूप मेहराब का प्रयोग हुआ है।
- हिंदू विधि में खनन की हुई वस्तुओं का प्रयोग नहीं होता था, जबकि इस्लामिक विधि में इसका अधिकतम प्रयोग किया गया।
संगीत व साहित्य
- कैकुबाद सर्वाधिक संगीत प्रेमी सुल्तान था। बरनी के अनुसार, “कैक के शासनकाल में सड़कें व गलियाँ गायकों से भरी हुईं थीं।”
- बलबन के पुत्र बुगरा खाँ ने गायकों एवं नर्तकों की एक संस्था निर्माण करवाया था।
- भारतीय शास्त्रीय संगीत पर लिखी पुस्तक ‘राग दर्पण’ का फारसी अनुवाद फिरोजशाह तुगलक के काल में ही किया गया।
- गयासुद्दीन तुगलक ने संगीत पर प्रतिबंध लगाया था।
- सिकंदर लोदी के शासनकाल में संगीत से संबंधित ‘लज्जत-ए-सिकंदरी नामक पुस्तक की रचना हुई थी।
- जौनपुर के शासक हुसैनशाह शर्की को संगीत के क्षेत्र में पारंगतता हासिल थी। ‘संगीत शिरोमणि’ नामक ग्रंथ उसे ही समर्पित है और ख्याल गायकी की उत्पत्ति का श्रेय इसे ही दिया जाता है।
तबकात-ए-नासिरी
- मिनहाज-उस-सिराज़ की रचना है।
- इस पुस्तक में मुहम्मद गौरी से लेकर नासिरुद्दीन महमूद तक के इतिहास का वर्णन है।
- मिनहाज ने अपनी कृति को प्रथम इल्बरी वंश के अंतिम शासक नासिरुद्दीन महमूद को समर्पित किया है।
- इस पुस्तक में नासिरुद्दीन महमूद को दिल्ली सल्तनत का आदर्श सुल्तान बताया गया है।
तारीख-ए-फिरोज़शाही
- यह ज़ियाउद्दीन बरनी की कृति है।
- इसमें बलबन के सिंहासनारोहण से लेकर फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल के छठे वर्ष तक का वर्णन है।
फुतूहात-ए-फिरोजशाही
- फिरोजशाह तुगलक की आत्मकथा जो उसकी नीतियों पर प्रकाश डालती है।
फुतूह-उस-सलातीन
- यह इसामी की कृति है।
- इसमें मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा गठित विभाग ‘दीवान-ए-रियासतका उल्लेख है, जिसे मुहम्मद बिन तुगलक ने विद्रोहियों का पता लगाने के लिये बनाया था।
- चरखे का प्रथम उल्लेख।
- यह दक्कन में लिखी गई और बहमनी साम्राज्य के संस्थापक अलाउद्दीन हसन बहमन शाह को समर्पित है।
तारीख-ए-मुबारकशाही
- याहिया बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह सरहिंदी की रचना है।
- सैय्यद वंश के बारे में जानने के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक
- फिरोजशाह तुगलक की नहर प्रणाली का वर्णन करती है।
द्रव्य परीक्षा
- ठक्कर पेरू की कृति है।
- ठक्कर पेरू अलाउद्दीन खिलज टकसाल प्रमुख था।
- अपभ्रंश में लिखी गई पुस्तक।
तूतीनामा
- जिया नक्शवी की कृति है।
- यह संस्कृत कहानियों का फारसी में अनुवाद है।
- मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में लिखी गई।