लउटन जुगुत भाभथ खोरठा-कोठ पइदेक खेड़ी
लउतन जुगुत भाभथ
रचनाकाल- 1967
जो नये नये विचार/बात सोचते हैं।
जे जगत के गुजुर-गुजर,
रइह चेठगर नलथ!
बाँवें-दइहनें, माटिक हुइलें
मन गब्वाइ भालथ!
नावाँ जुगुत भाभथ जेखिन
पारल पाटी ले दइहनाइ,
ओखनिक टोवल जिनगिक डहरें
जगत आगु गरगराइल जाइ!.
किलेना,
रेघइले रेघे गाड़ी चले
रेघे चले नंडूर ओइसने!
चनफन रेघा उखराइ चलथ
सिंघ-सपूत-समाज बिगियानी!
भावार्थ –
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कविता का मूलभाव जो व्यक्ति नकल न कर अपनी अकल से कुछ नया करता है। अनुकरण, अनुसरण न कर कुछ नया करना, लीक से हटकर करना ही श्रेष्ठ है।
1. ‘चेठगर’ कर माने की हे? सजग,चेतनशील ,जागरूक,सक्रिय
2. ‘मन गब्बाइ भालथ’ कर भाव मोन की हे?
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गहन नजहर से देखेक
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पूरा मन से देखेक
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मन से परखेक
3.रेघे (बनवल डहरे) कोन चले हे? नहर (बोका/मूर्ख)
4.रेघा ( बनल डहर) छोइड़ कोन-कोन चलो हथ सिंह,सपूत ,समाज विज्ञानी (साहितकार)