पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

पर्यावरण (Environment) 

  • पर्यावरण का आशय जैविक तथा अजैविक घटकों एवं उनके आस-पास के वातावरण के सम्मिलित रूप से है जो पृथ्वी पर जीवन के आधार को संभव बनाता है। इसके अंतर्गत मानव जनित पर्यावरण, यथा- सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण को भी सम्मिलित किया जाता है। 
  • पर्यावरण के चार तत्त्व हैं
    • स्थलमंडल (Lithosphere)
    • जलमंडल (Hydrosphere) 
    • वायुमंडल (Atmosphere)
    • जैवमंडल (Biosphere)

स्थलमंडल (Lithosphere)

  • यह पृथ्वी का सबसे बाहरी चट्टानी भाग है, जो भंगुर क्रस्ट एवं ऊपरी मैंटल के सबसे ऊपरी भाग से बना है।

जलमंडल (Hydrosphere) 

  • यह पृथ्वी पर पाए जाने वाले जल की कुल मात्रा है। इसके अंतर्गत पृथ्वी की सतह, धरातल के नीचे एवं हवा में पाए जाने वाले जल को सम्मिलित करते हैं। यह द्रव, वाष्प एवं हिम के रूप में हो सकता है।

अवस्थिति 

  • पृथ्वी की सतह पर – समुद्र, झील, नदियाँ 
  • धरातल के नीचे – भूमिगत जल, जलभृत या एक्वीफर 
  • हवा में – जलवाष्प, बादल, कुहासा 
  • पृथ्वी के जलमंडल का जमा हुआ भाग ग्लेशियर, आइसकेप एवं आइसबर्ग के रूप में जाना जाता है। इस जमे हुए भाग को क्रायोस्फेयर (Cryosphere) कहा जाता है।

वायुमंडल (Atmosphere)

  • वायुमंडल से आशय पृथ्वी के चारों ओर विस्तृत गैसीय आवरण से है। यह गैस, जलवाष्प तथा धूलकणों का मिश्रण है।
  • वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें पाई जाती हैं जिनमें ऑक्सीजन नाइट्रोजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड महत्त्वपूर्ण हैं। वायुमंडल की विभिन्न परतों में क्षोभमंडल, समतापमंडल, मध्यमंडल तथा बाह्यमंडल सम्मिलित हैं, जिनमें प्रथम दो परतें पर्यावरण को मुख्य रूप से प्रभावित करती हैं। 

जैवमंडल (Biosphere)

  • बायोम के समूह को जैवमंडल कहते हैं। 
  • यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ वायुमंडल, स्थलमंडल एवं जलमंडल आपस में मिलते हैं एवं वहाँ जीवन का कोई अंश ज़रूर मौजूद होता है।
  • वायु, पृथ्वी के द्रव्यमान का अभिन्न भाग है तथा इसके कुल द्रव्यमान का 99% पृथ्वी की सतह से 32 किमी. की ऊँचाई तक स्थित है। 
  •  120 किमी. की ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है। 
  • कार्बन डाइऑक्साइड एवं जलवाष्प पृथ्वी की सतह से 90 किमी. की ऊँचाई तक ही पाए जाते हैं। 
  • जलवाष्प वायुमंडल में उपस्थित ऐसी परिवर्तनीय गैस है जो ऊँचाई के साथ घटती जाती है।

पारिस्थितिकी (Ecology)

  • पारिस्थितिकी वह विज्ञान है जिसके अंतर्गत एक तरफ समस्त जीवों तथा भौतिक पर्यावरण के मध्य तथा दूसरी तरफ विभिन्न जीवों के मध्य पारस्परिक अंतर्संबंधों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। 
  • इस शब्द के प्रथम प्रयोगकर्ता ‘अर्नेस्ट हेकेल’ थे।

पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

  • पारिस्थितिकी तंत्र प्रकृति की एक आधारभूत इकाई है जिसमें इसके जैविक तथा अजैविक घटकों के बीच होने वाली जटिल क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। 
  • पारिस्थितिकी तंत्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ए. टांसले द्वारा वर्ष 1935 में किया गया था।

पारिस्थितिकी तंत्र के घटक 

पारिस्थितिकी तंत्र के मुख्य रूप से तीन घटक होते

अजैविक घटक (Abiotic Components)

  • ये रासायनिक एवं भौतिक कारकों को सम्मिलित किये हुए निर्जीव अवयव होते हैं जो जीवों की उत्तरजीविता एवं प्रजनन क्षमता को प्रभावित करते हैं। 
  • चार मुख्य अजैविक कारक- प्रकाश/तापमान, वायु, मृदा, जला आर्द्रता

जैविक घटक (Biotic Components)

  • ये जीवित अवयव होते हैं जिसके अंतर्गत उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक आते हैं। 
  • कार्यात्मक आधार पर जैविक संघटक तीन भागों में विभाजित होते हैं

स्वपोषित संघटक(Autotrophs)

  • ये आहार श्रृंखला में प्राथमिक उत्पादक (Primary Producers) होते हैं। 
  • हरे पौधे एवं कुछ बैक्टीरिया क्रमशः प्रकाश संश्लेषण एवं रसायन संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा अपना भोजन तैयार करते हैं। 
  • इन्हें पोषण स्तर-1 (First Trophic Level) के अंतर्गत रखा जाता है।

परपोषित संघटक (Heterotrophs)

  • इसके अंतर्गत वे जंतु आते हैं जो अपने भोजन के लिये पौधो, जंतुओं  या दोनों पर निर्भर होते हैं। 
  • आहार के स्रोत के आधार पर परपोषी तीन प्रकार के होते हैं

शाकाहारी (Herbivores)

  • ये अपना भोजन मुख्यतः पौधों से प्राप्त करते हैं, अतः ये प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers) कहलाते हैं। ये पोषण स्तर-2 के अंतर्गत आते हैं। 

मांसाहारी (Carnivores)

  • ये स्वयं के पोषण हेतु शाकभक्षी प्राणियों पर निर्भर करते है। इन्हें द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers) भी कहते हैं। ये पोषण स्तर-3 के अंतर्गत आते हैं। 

सर्वाहारी (Omnivores)

  • ये प्राथमिक एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं को आहार बनाते हैं। ये नीचे के तीनों पोषण स्तर से आहार प्राप्त करते हैं। 

जैविक पदार्थों की सुलभता के आधार पर परपोषी को तीन प्रकारों में बाँटा गया है

परजीवी (Parasites): 

  • वे जंतु जो अपने पोषण हेतु दूसरे जीवित जीवों पर निर्भर करते हैं। 

मृतजीवी (Saprophytes)

  • वे जंतु जो मृत पौधों तथा मृत जंतुओं से प्राप्त कार्बनिक यौगिकों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। 
  • इनमें बाह्यकोशिकी पाचन (Extracellular Digestion) होता है। उदाहरण-कवक (Fungi) एवं बैक्टीरिया। 

प्राणीसमभोजी (Holozoic)

  • इसमें वे जंतु आते हैं जो अपना आहार अपने मुख द्वारा ग्रहण करते हैं। सभी बड़े जंतु इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। यथा-हाथी, मनुष्य आदि। 

जैव अपघटक या वियोजक (Decomposers) 

  • ये जटिल जैविक पदार्थों (मृत पौधों तथा जंतुओं) का अपघटन कर उन्हें सरल रूप में परिवर्तित कर देते हैं। जिन्हें वे अपने आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। इन सरल रूपों को हरे पौधे ग्रहण करते हैं। ये हमेशा सूक्ष्म जीवी नहीं होते।

जैव अपघटक

कवक/बैक्टीरिया 

अपरदकारी (Dentrivores)

अपघटन की प्रक्रिया शरू करते हैं।

मृत जीवों के बड़े टुकड़ों के उपभोग हेतु ज़िम्मेदार होते हैं।

अपघटक हेतु एन्जाइम्स का प्रयोग करते हैं। 

अपघटित कार्बनिक पदार्थों का पाचन एवं अवशोषण शरीर के अंदर होता है।

 

  • जैव अपघटक भी सर्वाहारी होते हैं क्योंकि वे पौधों एवं जंतुओं के  अपघटन से आहार प्राप्त करते हैं। 
  • मृतजीवी मृत पौधों एवं मृत जीवों के कार्बनिक पदार्थों को विघटित करने हेतु प्रोटीएज तथा लाइपेज का स्राव करते हैं। 
  • पारितंत्र में कार्बनिक पदार्थों के पुनर्चक्रण हेतु वियोजक महत्त्वपूर्ण होते हैं। 
  • अपरदकारी मुख्यतः अकशेरूकी (Invertebrates) होते हैं, यथा केंचुआ, दीमक, सी-स्टारं, केकड़ा। ये मृतजीवियों को उनके कार्यों में मदद करते हैं।

ऊर्जा संघटक (Energy Components) 

  • इसके अंतर्गत सौर प्रकाश, सौर विकिरण तथा उसके विभिन्न पक्षों को शामिल किया जाता है। 
  • सूर्य से उत्सर्जित सौर ऊर्जा विद्युत चुंबकीय तरंग के रूप में होती है, अतः इसे विद्युत चुंबकीय विकिरण भी कहा जाता है। 
  • सूर्य की बाह्य सतह की अत्यंत तापदीप्त गैसें नीचे से गर्म होने पर  ऊर्जा का उत्सर्जन करती हैं, जिन्हें फोटॉन कहते है। 
  • पृथ्वी की सतह पर प्राप्त सौर ऊर्जा को सूर्यातप (Insolation) या सौर विकिरण (Solar Radiation) कहते हैं। 

पारिस्थितिकी तंत्र से संबंधित सार्वभौम नियम 

  • प्रत्येक निम्न पोषण स्तर से ऊपर के पोषण स्तर पर केवल 10 प्रतिशत ऊर्जा प्रवाहित होती है। इसे लिंडमैन के ऊर्जा स्थानांतरण का 10 प्रतिशत का नियम भी कहते हैं। 
  • उच्च पोषण स्तरों के जीवधारियों में श्वसन के द्वारा ऊष्मा ह्रास अपेक्षाकृत अधिक होता है। 
  • पारितंत्र की उत्पादकता को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपर्ण कारक सूर्यातप है। सूर्यातप में कमी पारितंत्र की उत्पादकता और जैव-विविधता दोनों में कमी लाती है। यही कारण है कि निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर सामान्यतः पारितंत्र की उत्पादकता एवं जैव-विविधता में कमी आती है। 
  • ecosystem stability समस्थिति क्रियाविधि (Homeostasis Mechanism) दारा बनी रहती है अर्थात् पारितंत्र में होने वाला कोई भी अवांछित परिवर्तन प्रकृति द्वारा स्वतः समायोजित कर लिया जाता है।
  •  पोषक तत्त्वों का पुनर्निमाण तथा ज़हरीले तत्त्वों को निष्क्रिय करने के कारण आर्द्रभूमियाँ प्रकृति की किडनी कही जाती हैं। 
  • भारत में प्रवाल भित्तियाँ अंडमान एवं निकोबार, लक्षद्वीप, मन्नार की खाडी तथा कच्छ की खाडी में पाई जाती हैं।

अनूप (swamp)

  • इन्हें ‘बाढ़ से डूबे वन’ (Flooded Forest) भी कहा जाता है। 
  • इन आद्रभूमियों में रुका हुआ जल पाया जाता है। 
  • यहाँ ऐसे ‘वृक्ष’ प्रमुखता से पाए जाते हैं जो रुके हुए जल में जीवित रहने हेतु अनुकूलित होते हैं।
  • ये आर्द्रभूमियाँ सामान्यतः नदियों के आस-पास की निम्न भूमियों  में पाई जाती हैं।  
  • यहाँ जल की गहराई कच्छ की अपेक्षा ज़्यादा होती है। 
  • मृदा में पोषक तत्त्व पाए जाते हैं। 

कच्छ (Marsh)

  • इन आर्द्रभूमियों को जल धरातलवाही (Runoff) एवं वर्षा द्वारा प्राप्त होता है। 
  • यहाँ का जल छिछला होता है जो बहुत धीमे बहता है। 
  • खर-पतवार एवं घास जैसे पौधे यहाँ प्रमुखता से पाए जाते हैं। 
  • ये सामान्यतः नदियों एवं डेल्टाओं के मुहाने पर पाए जाते हैं। 

दलदल (Bog)

  • यहाँ का जल रुका हुआ होता है जो न अंदर आता है न बाहर जाता है। 
  • झील आदि में दबे पादपों के अपघटन से कई वर्षों बाद पीट (Peat) का निर्माण होता है। 
  • पादपों में मॉसेज, छोटी झाड़ियाँ एवं निम्न पोषण स्तर का मुकाबला करने हेतु स्फैगनम मॉस तथा मांसाहारी पौधे, यथा-पिचर प्लांट, सनड्यू, आदि पाए जाते हैं। 
  •  इनमें पोषक तत्त्व काफी कम पाए जाते हैं क्योंकि पादपों के  अपघटन की दर काफी धीमी होती है। 
  • ये विशाल कार्बन सिंक के स्रोत हैं। 
  • मृत पदार्थों के धीमे अपघटन के कारण मृदा अम्लीय होती है। 
  •  इन आर्द्रभूमियों को वर्षा द्वारा जल प्राप्त होता है। 

फेन (Fen)

  • जब वाटर लेबल धरातल के काफी करीब होता है तो वह आद्रभूमि को संतृप्त करने का कार्य करता है जिससे फेन का निर्माण होता है। यहाँ भी अपघटित पदार्थ एवं पीट पाए जाते हैं। 
  • मृदा में पोषक तत्त्वों की मात्रा दलदल की अपेक्षा अधिक होती है। जिस कारण यहाँ कुछ पादप प्रजातियों का विकास संभव हो पाता है। 
  • pH प्रकृति के अनुसार ये क्षारीय होते हैं।
  •  इन्हें वाटर टेबल द्वारा जल प्राप्त होता है। 
  • अपघटन की दर तेज़ होने पर ये Bog में भी परिवर्तित हो सकते हैं।

पारितंत्र की समस्याएँ 

वनोन्मूलन (Deforestation) 

  • यह एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिसके अंतर्गत पेड़ों की कटाई पेड़ों का गिरना, जंगल की सफाई, मवेशियों का चरना और पौधों की वृद्धि में बाधा उत्पन्न करना आदि सम्मिलित हैं।

मरुस्थलीकरण (Desertification) 

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत नवीनतम परिभाषा के अनुसार, जलवायु परिवर्तन एवं मानवीय क्रियाकलापों के द्वारा ऊसर (Arid), अर्द्ध ऊसर (SemiArid) एवं शुष्क उपआर्द्र (Dry Subhumid) क्षेत्रों में भूमि अवनयन मरुस्थलीकरण है। 

सुपोषण (Eutrophication)

  • कृषि में प्रयुक्त होने वाले उर्वरक, सीवेज का गंदा पानी, औद्योगिक कचरा इत्यादि किसी जलीय पारितंत्र में पहुँचकर पोषकों की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि कर देते हैं। यह प्रक्रिया सुपोषण कहलाती है। 
  • जलीय पारितंत्र में पोषकों की मात्रा में अचानक हुई वृद्धि शैवालों की संख्या को अनियंत्रित रूप से बढ़ा देती है, जिससे जल सतह पर शैवालों की एक परत बन जाती है। इसे ही एल्गल ब्लूम (Algal Bloom) कहते हैं। ये स्वच्छ जल (Fresh Water) एवं समुद्री जल (Marine Water) दोनों में वृद्धि कर सकते हैं। ये जल का रंग परिवर्तित कर देते हैं (सामान्यतः ब्लू-ग्रीन, पीला-भूरा या लाल)। ये सूक्ष्म शैवाल, यथा डिनोफ्लैजिलेट्स एवं डायटम्स होते हैं। इनके अलावा सायनो बैक्टीरिया (नील हरित शैवाल) भी एल्गल ब्लूम हेतु ज़िम्मेदार होते हैं। 
  • कुछ एल्गल ब्लूम टॉक्सिक होते हैं एवं कुछ नॉन टॉक्सिक हानिकारक एल्गल ब्लूम लोगों के स्वास्थ्य, समुद्री पारितंत्र, वन्य जीवन, पक्षियों, समुद्री स्तनधारियों, मछलियों एवं स्थानीय तथा क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।
  • सभी प्रकार के ब्लूम चाहे वे हानिकारक हों या न हों, एवं उनका रंग कैसा भी हो, वे लाल ज्वार (Red Tide) कहलाते हैं। परंतु आजकल ‘एल्गल ब्लूम’ एवं ‘हानिकारक एल्गल ब्लूम’ शब्द ही प्रचलन में है। 
  • कुछ हानिकारक शैवाल- Karenia brevis, Pseudo-nitzschia

पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यविधि

  •  किसी क्षेत्र में स्वपोषित प्राथमिक उत्पादकों (हरे पेड़-पौधे) द्वारा प्रति इकाई सतह में प्रति इकाई समय में सकल संचित ऊर्जा की मात्रा को पारिस्थितिकीय उत्पादकता कहते हैं। 
  • स्वपोषित प्राथमिक उत्पादक द्वारा जैविक पदार्थों या ऊर्जा के उत्पादन को प्राथमिक उत्पादन कहते हैं। यथा- हरे पेड़ पौधे।

प्राथमिक उत्पादन

  • सकल प्राथमिक उत्पादन (GPP)(प्राथमिक उत्पादकों द्वारा आत्मसात् की गई ऊर्जा)
  • शुद्ध प्राथमिक उत्पादन (NPP) (पोषण स्तर 1 में श्वसन द्वारा खर्च के बाद संचित सकल ऊर्जा)

स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र की प्राथमिक उत्पादकता

  • उच्च पारिस्थितिकीय उत्पादकता 

[जलोढ़ मैदान, आर्द्र वन प्रदेश (उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंध), छिछले स्थल स्थित जलीय भाग, गहन कृषि क्षेत्र]

  • मध्यम पारिस्थितिकीय उत्पादकता

घास क्षेत्र, छिछली झीलें, गहन कृषि के अलावा कृषित भाग]

  • निम्न पारिस्थितिकीय उत्पादकता 

[आर्कटिक क्षेत्रों की हिमाच्छादित बंजर भूमि, मरुस्थल तथा गहरे सागरीय भाग]

  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में प्रति इकाई समय एवं प्रति इकाई क्षेत्र में जीवित पदार्थों के सकल शुष्क भार को जैवभार या बायोमास कहते हैं। 
  • किसी भी क्षेत्र में बायोमास की वृद्धि दर को उत्पादकता कहते हैं। 
  • जबकि किसी भी इकाई क्षेत्र के समय विशेष में सकल बायोमास की मात्रा को उत्पादन कहते हैं। 
  • शुद्ध प्राथमिक उत्पादन पौधों में जैवभार के रूप में संचित होता है। 

पोषण स्तर (Trophic Level).

  • आहार श्रृंखला या पारिस्थितिकीय पिरामिड में समान आहार प्रणाली वाले जीवों के समूह द्वारा एक स्थान ग्रहण करना, पोषण स्तर कहलाता है। 
  • एक पारिस्थितिकीय पिरामिड के आधार में पोषण स्तर-1 होता है। 

खाद्य श्रृंखला (Food Chain)

  • यह किसी पारिस्थितिकीय समुदाय में शिकार करने के क्रमानुसार जीवों की एक व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक जीव अगले जीव को (सामान्यतः निम्न सदस्य को) एक आहार स्रोत के रूप में प्रयोग करता है। 
  • खाद्य श्रृंखला जीवों का एक रेखीय समीकरण है जिसमें एक जीव द्वारा दूसरे को खाए जाने पर, पोषक तत्त्वों एवं ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। 
  • चारण (Grazing) खाद्य शृंखलाः यह शृंखला स्वपोषियों से शुरू होती है। 
    • जैसेः घास → टिड्डा → पक्षी 
  • अपरद (Detritus) खाद्य श्रृंखलाः यह श्रृंखला मृत कार्बनिक पदार्थों से शुरू होती है। जैसे: मृत कार्बनिक पदार्थ → वुडलाउज → ब्लैकबर्ड 

खाद्य जाल (Food Web)

  • यह कई विभिन्न प्रकार की खाद्य शृंखलाओं एवं कई अलग-अलग पोषण स्तरों को जोड़ता है। खाद्य जाल जितना जटिल और वैविध्यपूर्ण होगा, पारिस्थितिकी तंत्र उतना ही स्थायी और संतुलित होगा। 

पारिस्थितिकी पिरामिड (Ecological Pyramid)

  • खाद्य श्रृंखला में क्रमिक उच्च पोषण स्तरों में प्रजातियों की संख्या, सकल बायोमास तथा ऊर्जा की सुलभता एवं प्राप्यता में इस प्रकार ह्रास एवं कभी-कभी वृद्धि होती है कि उनका आकार क्रमशः एक सीधे या उल्टे पिरामिड के जैसा हो जाता है। 
  • इसके तीन मुख्य प्रकार हैं

संख्या पिरामिड(Number Pyramid) – इसमें प्राथमिक उत्पादकों और विभिन्न पोषण स्तरों के उपभोक्ताओं की संख्याओं के बीच संबंध दर्शाया जाता है। सामान्यतः यह पिरामिड सीधा होता है. यथा-घास का मैदान व तालाब आदि। परतु कुछ अपवादों, यथा-वृक्ष के पारिस्थितिकी तंत्र में यह उल्टा होता है। 

  • किसी जीवित प्राणी में उपलब्ध कार्बनिक पदार्थों का कुल शुष्क भार(Dry Weight) ही उसका जैवभार कहलाता है।

जैवभार पिरामिड (Biomass Pyramid) 

  • पारिस्थितिकी तंत्र में खाद्य शृंखला तथा खाद्य जाल के प्रत्येक पोषण स्तरों पर संगृहीत समस्त जीवों के सकल भार के संबंध को जैवभार पिरामिड द्वारा दर्शाया जाता है।
  • इसमें संख्या के स्थान पर सकल भार को सम्मिलित किया जाता है जिससे जीवों के आकार के अंतर की समस्या दूर हो जाती है। यथा स्थलीय पारितंत्र (सीधा पिरामिड), जलीय पारितंत्र (उल्टा पिरामिड)। 

ऊर्जा पिरामिड (Energy Pyramid) 

  • किसी पारितंत्र के विभिन्न पोषण स्तरों की कार्यात्मक भूमिका की तुलना करने हेतु इसका प्रदर्शन किया जाता है। ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है एवं प्रत्येक पोषण स्तर पर ऊर्जा का कुछ-न-कुछ क्षय अवश्य होता है, अतः ऊर्जा पिरामिड सदैव सीधा होता है।
  • जैविक पदार्थों के विघटन एवं वियोजन की प्रक्रिया को जैव अवनयन  (Biodegradation) कहते हैं। 

जैवसंचयन (Bioaccumulation)

  • जैवसंचयन यह दर्शाता है कि किस प्रकार पर्यावरण से प्रदूषक, विशेषकर अनिम्नीकृत (Non-degradable) प्रदूषक, खाद्य श्रृंखला के अंदर प्रवेश करते हैं। इसमें पर्यावरण से आए किसी प्रदूषक का, खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक पोषण स्तर पर अवस्थित प्रथम जीव में सांद्रण बढ़ता है। 

जैव आवर्द्धन (Biomagnification) 

  • जैवसंचयन में संगृहीत प्रदूषक जैसे-जैसे एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में स्थानांतरित होते हैं, वैसे-वैसे उनकी मात्रा एवं सांद्रता बढ़ती जाती है। स्वभाविक रूप से सर्वोच्च पोषण स्तर के जीवधारियों में इन प्रदूषकों की सांद्रता सर्वाधिक होगी। यथा-डीडीटी। 

पारिस्थितिकी दक्षता (Ecological Efficiency)

  • जैवभार के रूप में उपलब्ध ऊर्जा प्रतिशत का एक पोषण स्तर से पोषण स्तर में स्थानांतरण, पारिस्थितिकी दक्षता कहलाता है। 
  • 10 %पारिस्थितिकी दक्षता को आदर्श रूप माना जाता है।

पारिस्थितिकीय अनुक्रमण (Ecological Succession)

  • वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पति और जंतु प्रजातियों के समुदाय समय के साथ दूसरे समुदाय में परिवर्तित हो जाते हैं या दूसरे समदाय उनका स्थान ले लेते हैं. पारिस्थितिकीय अनक्रमण कहलाता है। 
    • पारिस्थितिकीय अनुक्रमण में किसी क्षेत्र में उपस्थित होने वाला प्रथम जीव या समुदाय अग्रज समुदाय (Pioneer Community) कहलाता है। 
    •  इस अनुक्रमण में भाग लेने वाले प्रत्येक परिवर्तनशील समुदाय को क्रमक (Sere) कहते हैं। 
    • प्रक्रिया के अंत में जो समुदाय स्वयं को स्थापित करने में सफल हो जाते हैं, उन्हें चरम समुदाय (Climax Community) कहते हैं। 

जैविक अन्योन्यक्रिया (Biotic Interaction)

  • प्रकृति में पौधे, जंतु या सूक्ष्म जीव सभी किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर हैं। पारितंत्र के समुचित संचालन के लिये विभिन्न प्रजातियों के बीच परस्पर क्रियाओं का होना अनिवार्य हैं। ये क्रियाएँ एक जाति या दोनों जातियों के लिये लाभकारी, हानिकारक अथवा उदासीन (न लाभकारी, न हानिकारक) हो सकती हैं। 

अन्योन्यक्रिया के प्रकार(type of interaction)

असहभोजिता (Amensalism)

  • एक प्रजाति नुकसान में रहती है, जबकि दूसरी  प्रजाति अप्रभावी रहती है। उदाहरण- पेनिसिलियम कवक व बैक्टीरिया।

परजीविता(Parasitism)

  • एक प्रजाति को लाभ मिलता है और दूसरी  प्रजाति को हानि होती है। उदाहरण- अमरबेल  का दूसरे पौधे पर उगना।

सहभोजिता (Commensalism)

  • एक प्रजाति को लाभ होता है तथा दूसरी प्रजाति अप्रभावित रहती है। उदाहरण- चूषक मछली (रिमोरा) शार्क के बाह्य शरीर से जुड़ी रहती है। (सुरक्षा व भोजन प्राप्ति)

सहजीविता(Mutualism)

  • दोनों प्रजातियाँ लाभान्वित होती हैं। उदाहरण -लाइकेन, जहाँ कवक शैवाल को सुरक्षा तथा शैवाल कवक को भोजन प्रदान करता है। 

विभिन्न प्रजातियों के जीवों के मध्य होने वाली अंतक्रियाएँ, अंतर-प्रजातीय अंतक्रियाएँ (Interspecific Competition) एवं किसी एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के बीच की अंतक्रियाएँ, अंतरा-प्रजातीय अंतक्रियाएँ (Intraspecific Competition) कहलाती हैं। 

की-स्टोन प्रजाति (Keystone Species)

  • ये प्रजातियाँ अन्य प्रजातियों की आनुपातिक प्रचुरता को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। केवल कुछ ही प्रजातियाँ की-स्टोन प्रजाति की तरह कार्य करती हैं तथा अन्य प्रजातियाँ क्रांतिक कड़ी प्रजातियों (Critical Link Species) के रूप में कार्य करती हैं। 
  • अत्यधिक स्पष्ट की-स्टोन प्रजातियाँ शीर्ष मांसाहारी होती हैं।

अंब्रेला प्रजाति (Umbrella Species)

  • ये प्रजातियाँ अन्य प्रजातियों की अपेक्षा विस्तृत क्षेत्र में निवास करती  हैं। इनके संरक्षण के लिये इनके आवासीय क्षेत्र का संरक्षण आवश्यक होता है। क्योंकि इनका विस्तृत आवासीय क्षेत्र अन्य प्रजातियों का भी निवास स्थल होता है, इसलिये इन प्रजातियों का संरक्षण प्रत्यक्ष रूप से अन्य प्रजातियों के संरक्षण में भी योगदान देता है। सामान्यतः ये उच्च कशेरूकी एवं विशाल काया वाले जीव होते हैं। जैसे- बाघ, हाथी इत्यादि। 

संक्रमिका/इकोटोन (Ecotone)

  • दो या दो से अधिक भिन्न पारितंत्रों के बीच का संक्रमण क्षेत्र जहाँ जैव-विविधता अपेक्षाकृत अधिक होती है, इकोटोन कहलाता है। उदाहरण मैंग्रोव वन, एश्चुअरी। 

कोर प्रभाव (Edge Effect)

  • कोर प्रभाव एक पारिस्थितिकीय अवधारणा है।, जहाँ दो पारितंत्र आपस में मिलते हैं, वहाँ दोनों पारितंत्रों के संसाधन एक ही जगह पाए जाते हैं। इसलिये यहाँ विविधता एवं उत्पादकता अधिक पाई जाती है।

जैवमंडल (Biosphere)

  • स्थल, जल तथा वायुमंडल का मिलन स्थल जहाँ जीवन पाया जाता है, जैवमंडल कहलाता है।

बायोम (Biome)

  • पृथ्वी पर पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं सहित सभी प्रमुख पारिस्थितिकी क्षेत्र बायोम कहलाता है। 

जैव भू-रसायन चक्र (Biogeochemical Cycle)

  • ऐसी प्रक्रिया जिसमें प्राकृतिक रूप से जैविक और अजैविक घटकों के बीच जीवन के लिये आवश्यक तत्त्वों का विभिन्न रासायनिक अभिक्रियाओं एवं रूपांतरण के माध्यम से चक्रीय प्रवाह होता रहता है, जैव भू-रसायन चक्र कहलाता है। 

गैसीय चक्र (Gaseous Cycle) 

कार्बन चक्र 

  • प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर उसे कार्बनिक पदार्थों के रूप में संचित करते हैं। इस तरह कार्बन, खाद्य श्रृंखला के विभिन्न स्तरों से जीवों में संचित और श्वसन द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में वायुमंडल में मुक्त होता रहता है। साथ ही कार्बन मृत जीव-जंतुओं व पादपों के अपघटन से जीवाश्म ईंधन के रूप में व इन जीवाश्म ईंधन को जलाने से मुक्त होता रहता है। 

नाइट्रोजन चक्र 

वायुमंडलीय गैसों में नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक (लगभग 78 प्रतिशत) है। इस वायुमंडलीय नाइट्रोजन का विभिन्न प्रक्रियाओं (नाइट्रोजन स्थिरीकरण, नाइट्रीकरण, अमोनीकरण, विनाइट्रीकरण) द्वारा मिट्टी, जल और जीवों के बीच निरंतर प्रवाह तथा पुनः वायुमंडल में इसको वापस  को नाइट्रोजन चक्र के रूप में जाना जाता है। 

  • राइजोबियम, नीले हरे शैवाल (एनाबीना, रूपाइरूलाइना) नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन को कार्बनिक नाइट्रोजन में परिवर्तित कर देते हैं। 

ऑक्सीजन चक्र

इसके अंतर्गत स्थलीय तथा सागरीय जीवों द्वारा प्रकाश संश्लेषण के समय जनित ऑक्सीजन तथा ज्वालामुखी उद्भेदन के समय कार्बन डाइऑक्साइड एवं जल के रूप में निकली ऑक्सीजन का वायुमंडलीय ऑक्सीजन भंडार में प्रवेश होता है तथा सागरीय एवं स्थलीय जंतुओं द्वारा श्वसन, खनिजों के ऑक्सीकरण तथा लकड़ियों और जीवाश्म खनिजों के जलने पर वायुमंडलीय ऑक्सीजन भंडार से ऑक्सीजन खर्च होती है और इस तरह ऑक्सीजन चक्र चलता रहता है। 

अवसादी चक्र (Sedimentary Cycle)

  • सल्फर, फास्फोरस, कैल्शियम तथा मैग्नीशियम का चक्रण अवसादी चक्र के द्वारा होता है। ये सामान्यतः वायुमंडल में चक्रण नहीं करते बल्कि अपक्षय एवं अवसादन आदि प्रतिरूपों का पालन करते हैं। 

फॉस्फोरस चक्र

कार्बन और नाइट्रोजन की तरह फास्फोरस गैसीय रूप में वायुमंडल  में नहीं वरन् फास्फेट के रूप में चट्टानों में पाया जाता है। इन चटटानों से अपक्षय एवं अपरदन द्वारा फास्फोरस का समद्र में  प्रवेश होता है। फिर पक्षियों एवं मछलियों के द्वारा पुनः स्थल में प्रवेश

होता है। फास्फोरस के कुछ भाग आयन में टूटकर भूमि में मिल जाते हैं जहाँ से पौधों द्वारा अवशोषित होकर ये पोषण स्तरों तक पहुँचते हैं। इसके बाद ये जीवों द्वारा उत्सर्जित एवं सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित होकर पुनः मिट्टी में प्रवेश करते हैं। फास्फोरस चक्र सबसे धीमी गति से संपन्न होता है। जीव एवं पर्यावरण के बीच फास्फोरस का गैसीय विनिमय नगण्य होता है।

सल्फर चक्र

सल्फर विभिन्न रूपों में मिट्टी तथा अवसादों के भीतर संगृहीत रहता है। यह चट्टानों के अपक्षय, अपरदन तथा जैविक पदार्थों के जीवाणुओं एवं कवकों द्वारा विघटन से बाहर निकलता है एवं लवण घोल के रूप में स्थलीय एवं जलीय पारितंत्रों में पहुँचता है। ज्वालामुखी विस्फोटों, जीवाश्म ईंधनों के दहन एवं महासागर की सतहों से यह गैस रूप में निकलकर वायुमंडल में पहुँचता है। पौधे सल्फर को सल्फेट रूप में ग्रहण कर, उससे सल्फरधारी अमीनो अम्ल का निर्माण करते है। वहाँ से यह चारण खाद्य शृंखलाओं में प्रवेश करता है फिर जीवधारियों के उत्सर्जन तथा मृत जैविक पदार्थों के विघटन से पुनः जलीय पारितंत्रों में पहुँच जाता है।

  • सल्फर कार्बनिक रूप में कोयले, तेल और पीट में तथा कार्बनिक निक्षेपों (पाइराइट, सल्फर चट्टान) में सल्फेट, सल्फाइड एवं कार्बनिक सल्फर के रूप में पाया जाता है।
  • सल्फर का उसके स्रोतों से विघटन वायवीय दशाओं में ऐस्परजिलस और न्यूरोस्पोरा जैसे कवकों द्वारा तथा अवायवीय दशाओं में एस्केरिशिया और प्रोटीयस जैसे जीवाणुओं द्वारा होता है।

पर्यावरणीय अनुकूलन (Environmental Adaptation)

किसी जीव तथा पौधे की बनावट या व्यवहार या जीने की पद्धति जिसकी सहायता से वह किसी विशेष पर्यावरण में जीवित रहता है, अनुकूलन कहलाता है।

पौधों में अनुकूलन

  • प्रकाश के साथ अनुकूलन
    •  छाया सहनशील पौधे (Sciophytes): प्रकाश संश्लेषण, श्वसन तथा उपापचयी क्रियाओं की दर धीमी। उदाहरण- फर्न, आर्किड 
    • प्रकाश अनुकूलित पौधे (Heliophytes): उच्च तापमान में भी प्रकाश संलेषण की क्षमता, उच्च श्वसन दर। उदाहरण- आम, गन्ना, नारियल
  •  जलाभाव तथा ताप के प्रति अनुकूलन (मरुद्भिद/ Xerophytes) 
    • इफिमीरल (Ephemeral) पौधेः कुछ पौधों में शुष्क स्थितियों के प्रति अनुकूलन एवं लघु जीवन अवधि। उदाहरण- मरुस्थलीय पौधे, यथा- एकेसिया। 
  • जलीय पर्यावरण में अनुकूलन (जलोद्भिद/Hydrophytes) 
    • पूर्णतः डूबे हुए जलोद्भिद (Submerged Hydrophytes): ऐसे पौधे वायु के सीधे संपर्क में नहीं होते। उदाहरण- हाइड्रिला 
    •  तैरने वाले जलोद्भिद (Floating Hydrophytes): ऐसे पौधे जल की सतह पर तैरते रहते हैं। उदाहरण- डक वीड्स, जलकुंभी 
  •  उभयचर जलोद्भिद (Emergent Hydrophytes): इन पौधों की वृद्धि वायु में होती है परंतु जड़ें मिट्टी में रहती हैं। उदाहरण- टाइफा
  • लवणयुक्त पर्यावरण में अनुकूलनः ऐसे पौधे लवण मृदोद्भिद (Halophytes) कहलाते हैं। उदाहरण- राइजोफोरा (लाल मैंग्रोव) 
  •  मितपोषणी मृदा के प्रति अनुकूलन (Adaptations to olivotrophic Soil): ऐसे पौधे कवकमूल (माइकोराइजा) संबंध दर्शाते हैं। उदाहरण- पाइनस, साइकस  

जंतओं में अनुकूलन

  • प्रवास (Migration): जीवों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में संचालन। उदाहरण- टिड्डा, व्हेल, कैरीबूर – 
  • छदमावरण (Camouflage): परिवेश के साथ कुछ प्राणियों की घुल-मिल जाने की क्षमता। उदाहरण- तितली, गिरगिट 
  • भीत निष्क्रयता एवं ग्रीष्म निष्क्रियता (Hibernation and Aestivation): प्राणियों द्वारा शीतकाल एवं ग्रीष्मकाल को निष्क्रिय अवस्था में बिताना। 
  • यह अवस्था मुख्यतः असमतापी (Cold Blooded Organisms) प्राणियों में एवं कभी-कभी समतापी (Warm Blooded Organisms) प्राणियों में भी देखी जाती है। उदाहरण
    • शीत निष्क्रियताः चमगादड़, काला भालू, ध्रुवीय भालू, गिलहरी। 
    • ग्रीष्म निष्क्रियताः साँप, मगरमच्छ, मेढक, छिपकली, स्थलीय घोंघा। 

अनुहरण (Mimicry): 

  • वह बाहरी समानता जिसमें दो जातियाँ एक-दूसरे जैसी दिखती हैं। इससे अनुहारक जाति को सुरक्षा संबंधी लाभ मिल जाते हैं। उदाहरण- मोनार्क तितली। 

जलाभाव के प्रति अनुकूलन (Adaptations to Water Scarcity): 

  • यह अनुकूलता मरुस्थलीय प्रदेशों में रहने वाले प्राणियों में पाई जाती है।
  • उदाहरण- कंगारू, चूहा, ऊँट 

शीत के प्रति अनुकूलन (Adaptations to Cold)