वैदिक संस्कृति के भाग
- सैंधव सभ्यता के पश्चात् भारत में जिस सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ ,उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
- आर्य सभ्यता का ज्ञान वेदों से होता है, जिसमें ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
- आर्यों ने ही सैंधव सभ्यता के नगरों को ध्वस्त कर एक नई सभ्यता की नींव रखी थी, लेकिन अभी भी इसके कोई ठोस साक्ष्य न होने के कारण इसे कल्पना ही माना जाता है।
- वैदिक सभ्यता भारत की प्राचीन सभ्यता है जिसमें वेदों की रचना हुई।
- वैदिक शब्द ‘वेद‘ से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘ज्ञान‘।
- वैदिक संस्कृति के निर्माता आर्य थे।
- वैदिक संस्कृति में आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ, उत्तम, अभिजात, कुलीन तथा उत्कृष्ट होता है।
- सर्वप्रथम मैक्समूलर ने 1853 ई. में आर्य शब्द का प्रयोग एक श्रेष्ठ जाति के आशय से किया था।
- आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
अध्ययन की सुविधा से वैदिक संस्कृति को दो भागों में बाँटा गया है
- (i) ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई. पू.)
- (ii) उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई. पू.)
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
- इस काल का तिथि निर्धारण जितना विवादास्पद रहा है, उतना ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करना।
- ‘ऋग्वेद संहिता’ की रचना इस काल में हुई थी। अतः यह इस काल की जानकारी का एकमात्र साहित्यिक स्रोत है।
- सिंधु सभ्यता के विपरीत वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी। आर्यों का आरंभिक जीवन पशु चारण पर आधारित था। कृषि उनके लिये गौण कार्य था।
- 1400 ई. पू. के बोगजकोई (एशिया माइनर) के अभिलेख में ऋग्वैदिक काल के देवताओं- इंद्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वैदिक आर्य ईरान से होकर भारत में आए होंगे।
- ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता से मिलती हैं।
- आर्यों के मूल निवास के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विचार अलग-अलग हैं
आर्यों का मूल निवास स्थल
नोटः अधिकांश विद्वान प्रो. मैक्समूलर के विचारों से सहमत हैं कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे।
भौगोलिक विस्तार
- आर्यों की आरंभिक इतिहास की जानकारी का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है।
- ऋग्वेद में आर्य-निवास स्थल के लिये सप्त सैंधव क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है- सात नदियों का क्षेत्र।
- ये नदियाँ हैं- सिंधु, वितस्ता (झेलम) और अस्किनी (चिनाब) ,परुष्णी (रावी), विपासा (व्यास),शतुद्रि (सतलज),सरस्वती,।
- ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार, आर्यों का विस्तार अफगानिस्तान, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था।
- सतलज से यमुना तक का क्षेत्र ‘ब्रह्मवर्त’ कहलाता था।
- मनुस्मृति में सरस्वती और दृशद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ‘ब्रह्मवर्त’ पुकारा गया है। इसे ऋग्वैदिक सभ्यता का केंद्र माना जाता है।
- गंगा व यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके सीमावर्ती क्षेत्रों पर भी आर्यों ने कब्जा कर लिया, जिसे ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा गया।
- कालांतर में संपूर्ण उत्तर भारत में आर्यों ने विस्तार कर लिया जिसे ‘आर्यावर्त’ कहा जाता है।
- वैदिक संहिताओं में 31 नदियों का उल्लेख मिलता है जिसमें से ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख किया गया है।
- ऋग्वेद के नदी सूक्त में केवल 21 नदियों का वर्णन किया गया है।
- इस काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी सिंधु को बताया गया है, जबकि सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती को माना गया है, जिसे ‘देवीतमा’, ‘मातेतमा’ एवं ‘नदीतमा’ भी कहा गया है।
- ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार, जबकि यमुना नदी का तीन बार नाम लिया गया है।
- ऋग्वेद में हिमालय पर्वत एवं इसकी एक चोटी ‘मुजवंत’ का भी उल्लेख किया गया है।
सामाजिक स्थिति
- ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था।
- सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक था।
- समाज की सबसे छोटी एवं आधारभूत इकाई परिवार या कुल थी, जिसका मुखिया पिता होता था, जिसे ‘कुलप’ कहा जाता था। पितृसत्तात्मक समाज के होते हुए भी महिलाओं को यथोचित सम्मान प्राप्त था।
- ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। दादा, नानी, नाती, पोते आदि के लिये एक ही शब्द ‘नप्तृ’ का प्रयोग होता था।
- ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिह्न दिखाई देते है। ‘ऋग्वेद’ के 10वें मंडल में वर्णित पुरुषसूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
- इसके अनुसार विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जाँघों से एवं शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं।
- इस काल में स्त्रियाँ अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं।
- बाल-विवाह, सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
- पुत्रियों का ‘उपनयन संस्कार‘ किया जाता था।
- विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन में थी।
- सामान्यतः एक पत्नीत्व विवाह ही प्रचलित था।
- विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा का प्रचलन नहीं था किंतु ‘वहतु‘ शब्द कन्या को दिये जाने वाले उपहार का द्योतक था।
- शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिये भी खुले थे। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्ववारा जैसी विदुषी स्त्रियों का वर्णन है।
- आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्या ‘अमाजू’ कहलाती थी।
- पुत्र प्राप्ति के लिये नियोग की प्रथा स्वीकार की गई थी। इसके ‘अंतर्गत महिला को अपने देवर से साहचर्य स्थापित करना पड़ता था।
- ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था, किंतु यह प्राचीन यूनान और रोम की भाँति नहीं थी।
- आर्य मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे।
- ऋग्वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था।
- आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन व चर्म के बने होते थे।
- आर्य समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था।
- समाज में दो प्रकार के विवाह प्रचलित थे-
- अनुलोम विवाह- उच्च वर्ण का पुरुष और निम्न वर्ण की स्त्री।
- प्रतिलोम विवाह– उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण का पुरुष।
- नर्तकियों द्वारा विशिष्ट परिधान ‘पेशस‘ धारण करने का विवेचन मिलता है।
- कान में कर्णशोभन एवं शीश पर कुम्ब नामक आभूषण के पहनने की प्रथा थी। इनके अतिरिक्त खादि, रूक्म, भुजबंद, केयूर, नूपुर, कंकण एवं मुद्रिका आदि आभूषण भी धारण किये जाते थे।
- “भिषज’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में वैद्य के लिए होता था।
- ‘भिषज’ अश्विन देवता को कहा जाता था।
- यक्ष्मा (तपेदिक) का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है।
- मृतकों को प्रायः अग्नि में जलाया जाता था, लेकिन कभी-कभी दफनाया भी जाता था।
राजनीतिक स्थिति
- ऋग्वैदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था। ऋग्वैदिक लोग जनों व कबीलों में विभाजित थे। कबीले का एक राजा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा जाता था।
- आर्यों को पंचजन भी कहा गया है, क्योंकि इनके पाँच कबीले (कुल) थे- अनु, द्रुहु, पुरु, तुर्वस तथा यदु।
- ऋग्वैदिक काल में राज्य का मूल आधार कुल (परिवार) था।
- परिवार का मुखिया ‘कुलप’ अथवा ‘गृहपति’ कहलाता था।
- कुलों के आधार पर ‘ग्राम’ का निर्माण होता था, जिसका प्रमुख ‘ग्रामणी‘ होता था।
- अनेक ग्राम मिलकर ‘विश‘ बनाते थे, जिसका प्रधान ‘विशपति’ होता था।
- विश से ‘जन‘ बनता था जो कबीलाई संगठन था। इसका प्रधान प्रमुख जनपति होता था।
राजा → पुरोहित → विशपति → ग्रामणी → कुलप
- दश राज्ञ युद्धः दस राजाओं के साथ युद्ध दश राज्ञ युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर भरत वंश के राजा सुदास तथा दस जनों-पाँच आर्य एवं पाँच अनार्य के बीच हुआ था। अंत में इस युद्ध में भरत राजा सुदास की विजय हुई। इस युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में विस्तार से किया गया है।
- इस प्रकार आर्यों की प्रशासनिक इकाइयाँ पाँच हिस्सों में बँटी थी
- राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली मौजूद थी और साथ ही गणतंत्र भी।
- राजा का प्रमुख कार्य/कर्तव्य कबीले की रक्षा करना था।
- इस काल में अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं का विकास हुआ जिनमें सभा, समिति तथा विदथ प्रमुख हैं।
- इन संस्थानों में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक प्रश्नों पर चर्चाएँ होती थीं। ऋग्वैदिक काल में महिलाएँ भी राजनीति में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।
- सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी।
- सभा श्रेष्ठ एवं संभ्रांत लोगों की संस्था थी जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी। समिति केंद्रीय राजनीतिक संस्था भी कहलाती थी जो राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी।
- विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी। स्त्रियाँ सभा एवं समितियों में भाग ले सकती थीं।
- राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, जबकि भूमि का स्वामित्त्व जनता में निहित था।
- ‘बलि’ एक प्रकार का कर था जो प्रजा द्वारा स्वेच्छा से राजा को दिया जाता था। राजा इसके बदले उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था।
- राजा नियमित या स्थायी सेना नहीं रखता था, लेकिन युद्ध के समय वह नागरिक सेना संगठित कर लेता था, जिसका कार्य संचालन व्रात गण, ग्राम और सर्ध नाम से विविध टोलियाँ करती थीं।
- ऋग्वेद में राजा को ‘गोप्ता जनस्य’ अर्थात् कबीले का संरक्षक तथा ‘पुराभेत्ता’ अर्थात् नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है।
आर्थिक स्थिति
- ऋग्वैदिक काल में आर्यों की संस्कृति ग्रामीण एवं कबीलाई थी।
- पशुपालन प्राथमिक पेशा था और कृषि द्वितीयक।
- इस काल में ‘गाय’ को पवित्र पशु माना जाता था और यह विनिमय के साधन के रूप में थी।
- आर्यों की अधिकांश लड़ाइयाँ गायों को लेकर होती थीं। गाय को ‘अष्टकर्णी’ भी कहा गया है जो उसके ऊपर स्वामित्व का सूचक है। ‘गविष्टि’-गाय की महत्ता बताने वाला शब्द है।
- गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य पशु) माना जाता था।
- गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले के लिये वेदों में मृत्युदंड अथवा देश निकाले जाने की व्यवस्था थी।
- पणि नामक व्यापारी पशुओं की चोरी के लिये कुख्यात थे।
- पुत्री को ‘दुहिता’ इसलिये कहा गया क्योंकि वही गाय का दूध दुहती थी।
- घोड़ा आर्य समाज का अति उपयोगी पशु था। इसके अलावा- गाय, बैल, भैंस, बकरी, ऊँट आदि पशु भी थे।
- ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल में कृषि संबंधी कार्य का वर्णन मिलता है।
- एक ही अनाज यव (जौ) का उल्लेख है।
- कृषि के महत्त्व से संबंधित केवल तीन ही शब्द हैं – उर्दर, धान्य और संपत्ति; जहाँ ‘उर्दर’ का अर्थ अन्न मापक बर्तन जबकि ‘धान्य‘ का अर्थ अनाज है।
- व्यापार पर पणि लोगों का अधिकार था।
- व्यापार मुख्यतः वस्तु विनिमय द्वारा होता था। परंतु विनिमय माध्यम के रूप में गायों व घोड़ों सहित “निष्क‘ का भी उल्लेख मिलता है जो संभवतः स्वर्ण आभूषण या सोने का टुकड़ा होता था।
- वेकनाट सूदखोर थे, जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे।
- ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं।
- सोना के लिये हिरण्य शब्द मिलता है।
- कपास का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है।
- अष्टकर्णी नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आर्यों को संभवतः अंकों की जानकारी थी।
- ‘अयस’ शब्द का भी इस काल में प्रयोग हुआ है, जिसकी पहचान संभवतः तांबे (Copper) या काँसे (Bronze) के रूप में की गई है।
- इस काल के लोग लोहे से परिचित नहीं थे।
धार्मिक स्थिति
- ऋग्वैदिक काल में धार्मिक कर्मकांड का उद्देश्य भौतिक सुखों (पुत्र एवं पशु) की प्राप्ति करना था।
- आर्य बहुदेववादी होते हुए भी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे।
- ऋग्वेद अनेक देवताओं का अस्तित्व मानता है, परंतु इसमें देवियों के अस्तित्व का अभाव मिलता है। सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे।
- प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में आर्यों के देवताओं की तीन श्रेणियाँ थीं
- आकाश के देवताः सूर्य, धौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सविता, आदित्य, उषा, अश्विन आदि।।
- अंतरिक्ष के देवताः इंद्र, रुद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति आदि।
- पृथ्वी के देवताः अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।
- ऋग्वेद में इंद्र को ‘पुरंदर’ भी कहा गया है, ऋग्वेद के 250 सूक्त इंद्र को समर्पित हैं।
- इंद्र को आर्यों का युद्ध नेता तथा वर्षा, आंधी, तूफान का देवता माना गया है।
- ‘इंद्र’ आर्यों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता थे।
- दूसरे महत्त्वपूर्ण देवता ‘अग्नि’ थे, जिन्हें 200 सूक्त समर्पित हैं। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवताओं के बीच मध्यस्थता स्थापित करने का था।
- तीसरे प्रमुख देवता वरुण थे, जिन्हें 30 सूक्त समर्पित हैं और जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। वरुण को ‘ऋतस्यगोपा’ कहा जाता है।
- ‘गायत्री मंत्र’ सविता (सवितृ) देवता को समर्पित है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं।
- ‘सोम‘ को पेय पदार्थ का देवता माना जाता है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के ‘9वें मंडल‘ में है।
- धौस को ऋग्वैदिककालीन देवताओं में सबसे प्राचीन माना जाता है।
- सरस्वती,नदी की देवी थीं जो बाद में विद्या की देवी हो गई।
- ऋग्वैदिक काल में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है।
- पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए।
- रुद्र अनैतिक आचरण से संबद्ध माने जाते हैं। ये चिकित्सा के संरक्षक थे। हॉलर ने इन्हें यूनानी देवता अपोलो के समान माना है। रुद्र को कभी-कभी ‘शिव‘ और कल्याणकर’ कहा जाता था।
- उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था। उपासना की विधि प्रार्थना एवं यज्ञं थी।
- अरण्यानी ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी थी।
- ऋग्वेद के प्रथम तथा दसवें मंडल की रचना संभवतः सबसे बाद में की गई।
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
- उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद एवं आरण्यक प्रमुख हैं।
- सामान्यतः लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरुआत को उत्तर-वैदिक काल से जोड़ा जाता है, इसके पर्याप्त साक्ष्य भी उपलब्ध हैं।
- इस काल के अध्ययन के लिये चित्रित धूसर मृद्भाड (Printed Grey ware) एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है।
- इस संस्कृति के लोगों का मुख्य केंद्र मध्य देश था, जिसका प्रसार सरस्वती नदी से लेकर गंगा के दोआब तक था।
भौगोलिक विस्तार
- शतपथ ब्राह्मण के विदेह माधव की कथा में उत्तर वैदिक काल में आर्यों के सदानीरा (गंडक) के पूर्व की ओर प्रसार का वर्णन मिलता है।
- इस काल की सभ्यता का केंद्र पंजाब से बढ़कर कुरुक्षेत्र (दिल्ली और गंगा-यमुना दोआब का उत्तरी भाग) तक आ गया था।
- 600 ई.पू. के आस पास (उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में) आर्य लोग कोशल, विदेह एवं अंग राज्य से परिचित थे।
- शतपथ ब्राह्मण, में उत्तर वैदिककालीन रेवा (नर्मदा) और सदानीरा (गंडक) नदियों का उल्लेख मिलता है।
- उत्तर वैदिक साहित्य में त्रिककुद, क्रौंच, मैनाक आदि पर्वतों का उल्लेख है, जो पूर्वी हिमालय में पड़ते हैं।
सामाजिक स्थिति
- उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था । था, लेकिन वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी थी।
- वर्णों का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित होने लगा था।
- समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों का उदय हुआ, जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगीं। इस काल में व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे।
- इस समय समाज में चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे।
- ब्राह्मण के लिये ‘ऐहि’ (आइये), क्षत्रिय के लिये ‘आगहि’ (आओ), वैश्य के लिये ‘आद्रव’ (जल्दी आओ) तथा शूद्र के लिये ‘आधाव’ (दौड़कर आओ) शब्द प्रयुक्त होते थे।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों को ‘द्विज’ कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे।
- चौथा वर्ण शूद्र था, जो उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था, यहीं से शूद्रों को अपात्र या आधारहीन मानने की प्रक्रिया शुरू हुई।
- इस काल में यज्ञ का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई।
- ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में चारों वर्गों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। इस काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे, जबकि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले गए राजस्व पर जीते थे। क्रम में सबसे निचला वर्ण शूद्र था जिसका कार्य अन्य तीनों वर्गों की सेवा करना था।
- इस काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। स्त्रियों के लिये उपनयन संस्कार प्रतिबंधित हो गया।
- ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ‘कृपण‘ कहा गया है।
- शतपथ ब्राह्मण में कुछ विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, ये हैं- गार्गी, गंधर्व, गृहीता, मैत्रेयी, वेदवती, काश्कृत्सनी आदि।
- स्त्रियों का पैतृक संपत्ति से अधिकार छिन गया तथा सभा में प्रवेश वर्जित हो गया।
- पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पितृसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में स्त्रियों को पैतृक संबंधी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे।
- उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई।
- ‘गोत्र’ शब्द का अर्थ है-वह स्थान जहाँ समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परंतु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरुष का वंशज हो गया।
- सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का विवरण मिलता है। इस काल में आर्यों को चावल, नमक, मछली, हाथी तथा बाघ आदि का ज्ञान हो गया था।
- सोलह संस्कार
- 1. गर्भाधान 2. पुंसवन 3. सीमान्तोन्नयन 4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण 7. अन्नप्राशन 8. चूडाकर्म 9. कर्ण बेध. 10. विद्यारंभ 11. उपनयन 12. वेदारंभ 13. केशांत अथवा गोदान 14. समावर्तन 15. विवाह 16. अन्त्येष्टि
विवाह के आठ प्रकार
- ‘मनुस्मृति‘ में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार विवाह प्रशंसनीय तथा शेष चार निंदनीय माने जाते हैं
- प्रशंसनीय विवाह
- 1. ब्रह्मः कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना।
- 2. दैवः यज्ञ करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
- 3. आर्षः कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
- 4. प्रजापत्यः वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या मांगकर विवाह करता था।
- निंदनीय विवाह
- 5. आसुरः कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय।
- 6. गंधर्वः कन्या तथा पुरुष प्रेम अथवा कामुकता के वशीभुत होकर करते थे।
- 7. पैशाचः सोई हुई अथवा विक्षिप्त कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना।
- 8. राक्षस: बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना।
राजनीतिक स्थिति
- इस काल में पहली बार क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ तथा कबीले पर शासन करने वाला राजा अब उस प्रदेश पर शासन करने लगा।
- राष्ट्र शब्द जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इस काल में प्रकट हुआ।
- राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है।
- उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई।
- इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था।
- इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्त्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ।
- अब राजा को ‘सम्राट’, ‘एकराट’ और ‘अधिराज’ आदि नामों से जाना जाने लगा।
- इस काल में सभा, समिति आदि प्रतिनिधि संस्थाओं का प्रभाव क्षीण हुआ। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा, जबकि सभा और समिति अपनी जगह बनी रही, परंतु उनका स्वरूप बदल गया। अब उनमें समाज के प्रभावशाली वर्ग का वर्चस्व हो गया। सभा नामक संस्था में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया।
- आरंभ में पांचाल एक कबीले का नाम था, परंतु बाद में वह प्रदेश का नाम हो गया। इस काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था।
- राजा का राज्याभिषेक राजसूय यज्ञ के द्वारा संपन्न होता था, जिसका विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
- यजुर्वेद में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को ‘रत्नी’ कहा जाता था। रत्नियों’ की सूची में राजा के संबंधी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी गण आते थे।
- शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्नियों का विवरण मिलता है।
- राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
- ब्राह्मण को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था।
- ‘बलि‘ ऋग्वैदिक काल में राजा को दिया जाने वाला स्वेच्छाकारी कर था, जो उत्तर वैदिक काल तक आते-आते एक नियमित कर हो गया। इसकी मात्रा 1/16वाँ भाग होती थी।
आर्थिक स्थिति
- इस काल में पशुपालन की जगह कृषि प्रथम पेशा बन गया।
- ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कृषि से संबंधित चारों क्रियाओं- जुताई, बुआई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख किया गया है।
- ‘शतपथ ब्राह्मण’ में ‘विदेह माधव’ की कथा का भी उल्लेख मिलता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि आर्य संपूर्ण गंगाघाटी में कृषि करने लगे थे।
- इस काल में लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र में क्रांति आ गई।
- यजुर्वेद में लोहे के लिये ‘श्याम अयस’ एवं ‘कृष्ण अयस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग से कृषि विस्तार में वृद्धि हुई और धान प्रमुख फसल बन गई।
- अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से संबंधित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- इस काल के लोग चार प्रकार के बर्तनों (मृद्भांडों) से परिचित थे –
- काले व लाल रंग मिश्रित मृद्भांड,
- काले रंग के मृद्भांड,
- चित्रित धूसर मृद्भांड
- लाल मृद्भांड
- ब्राह्मण ग्रंथों में ‘श्रेष्ठिन‘ का भी उल्लेख मिलता है। ‘श्रेष्ठिन’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था।
- निष्क. शतमान, पाद, कृष्णल, रत्तिका तथा गुंजा आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयाँ थीं।
- निष्क जो ऋग्वैदिक काल में स्वर्ण आभूषण था, अब एक मुद्रा माना जाने लगा।
- व्यापार पण द्वारा संपन्न होता था,
- अतः उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था परंतु सामान्य लेन-देन में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था।
- निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
- उत्तर वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल के साहित्य में पश्चिमी और पूर्वी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन है। वैदिक ग्रंथों में समुद्र यात्रा की भी चर्चा है, जिससे वाणिज्य एवं व्यापार का संकेत मिलता है।
- स्वर्ण एवं लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।
- धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलाने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण एवं वस्तुएँ बनाई जाती थीं। ‘
- उत्तर वैदिक काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था।
- कपास का उल्लेख नहीं मिलता है।
- उर्ण (ऊन), शज (सन) का उल्लेख इस काल में मिलता है।
- सिक्के का अभी नियमित प्रचलन आरंभ नहीं हुआ था।
ऋण
- इनकी संख्या तीन थीं- (i) पितृ ऋण, (ii) ऋषि ऋण, (iii) देव ऋण
- प्रत्येक व्यक्ति को तीन ऋणों से छुटकारा पाना होता था। इन ऋणों से छुटकारा पाने पर ही व्यक्ति का जीवन सफल माना जाता था।
- पितृ ऋणः संतान उत्पन्न कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- ऋषि ऋण: अपने पुत्र को शिक्षित कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
- देव ऋणः धार्मिक अनुष्ठान एवं यज्ञ आदि कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
धार्मिक स्थिति
- यज्ञ इस संस्कृति का मूल था। यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक अनुष्ठान व मंत्रविधियाँ भी प्रचलित हुईं।
- ऋग्वैदिक काल के दो सबसे बड़े देवता इंद्र एवं अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे।
- इंद्र के स्थान पर प्रजापति (सृजन के देवता) को सर्वोच्च स्थान मिला।
- इस काल के दो अन्य प्रमुख देवता रुद्र (पशुओं के देवता) व विष्णु (लोगों के पालक) माने जाते हैं।
- इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर रूप धारण कर चुकी थी। अत: कुछ वर्णों के अपने अलग से देवता हो गए। पूषन जो पहले पशुओं के देवता थे अब शूद्रों के देवता हो गए।
- सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में पुनर्जन्म के सिद्धांत का उल्लेख है।
- आरण्यकों में वैदिक कर्मकांडों की निंदा की गई है। इसमें यज्ञ एवं बलि की अपेक्षा तप पर बल दिया गया है।
- इस काल में दो महाकाव्य थे- महाभारत, जिसका पुराना नाम जयसंहिता था। यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है तथा दूसरा महाकाव्य रामायण है।
- रामायण हमारा आदिकाव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी। इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों और शकों के संघर्ष का वर्णन मिलता है।
- महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी। इससे प्राचीन भारतवर्ष की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का वर्णन मिलता है।
वैदिक आर्यों और सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की संस्कृति के बीच अंतर
- इस काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने का आभास मिलता है। इस काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए
- उत्तर वैदिक काल में ही बहुदेववाद, वासुदेव संप्रदाय एवं षड्दर्शनों (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) का बीजारोपण हुआ।
- मीमांसा को ‘पूर्व मीमांसा’ एवं वेदांत को ‘उत्तर मीमांसा’ के नाम से भी जाना जाता है।
- मृत्यु की चर्चा सर्वप्रथम ‘शतपथ ब्राह्मण‘ तथा मोक्ष की चर्चा सर्वप्रथम उपनिषद में मिलती है।
- परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया। पुनर्जन्म की अवधारणा बृहदारण्यक उपनिषद में मिलती है।
- शतपथ ब्राह्मण में ही सर्वप्रथम स्त्रियों को अर्धांगिनी कहा गया है।
- उपनिषदों में यज्ञों तथा कर्मकांडों की निंदा की गई है तथा ब्रह्म की एक मात्र सत्ता स्वीकार की गई है।
- छांदोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ।
- बाद में जाबालोपनिषद में सर्वप्रथम चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) का उल्लेख मिलता है।
- प्रमुख यज्ञ
- अश्वमेध यज्ञ – सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यज्ञ, राजा द्वारा साम्राज्य की सीमा में वृद्धि के लिये, घोड़े को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता था।
- राजसय यज्ञ – राजा के राज्याभिषेक से संबंधित।
- वाजपेय यज्ञ – राजा द्वारा अपनी शक्ति के प्रदर्शन रथदौड का आयोजन।
- अनिष्टोम यज्ञ – पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाली नाव के रूप में वर्णित।
- सौत्रामणि यज्ञ – यज्ञ में पशु एवं सुरा की आहति।
- परुषमेध यज्ञ – राजनैतिक वर्चस्व के लिये स्वस्थ्य तथा विद्वान पुरुष की बलि का प्रावधान