तुगलक वंश(1320 ई.-1414 ई.)
- 1320 ई. में गयासुद्दीन तुगलक ने ख़िलजी वंश के अंतिम शासक नासिरुद्दीन खुसरो शाह की हत्या कर दिल्ली सल्तनत में एक नए वंश-तुगलक वंश की स्थापना की। इस वंश ने 1414 ई. तक दिल्ली की सत्ता पर राज किया।
प्रमुख शासक
गयासुद्दीन तुगलक शाह ( 1320-1325 ई.)
- गयासुद्दीन तुगलक या गाज़ी मलिक ‘तुगलक वंश’ का संस्थापक था।
- यह वंश ‘कराना तुर्क’ के वंश के नाम से भी प्रसिद्ध था, क्योंकि गयासुद्दीन तुगलक का पिता कराना तुर्क था।
गयासुद्दीन का उत्कर्ष
- गाज़ी मलिक का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। उसकी माता पंजाब की एक जाट महिला थी और पिता बलबन का तुर्की दास था।
- गाज़ी मलिक अपनी योग्यता व कठिन परिश्रम के कारण अलाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल में होने वाले सैन्य अभियानों का अध्यक्ष तथा दीपालपुर का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
- मंगोलों को पराजित करने के कारण गयासुद्दीन तुगलक ‘मलिक-उल-गाज़ी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
- 3 सिंतबर, 1320 ई. को गयासुद्दीन तुगलक गद्दी पर बैठा।
- दिल्ली का वह प्रथम सुल्तान था, जिसने ‘गाज़ी’ (काफिरों का घातक) की उपाधि धारण की।
- गयासुद्दीन तुगलक ने ‘तुगलकाबाद’ नामक नगर बसाया वास्तुकला की तुगलक शैली का प्रारंभ इसके मकबरे के निर्माण से हुआ।
गयासुद्दीन तुगलक के प्रमुख सैन्य अभियान
- 1321 ई. में गयासुद्दीन तुगलक ने अपने पुत्र जौना खाँ को तेलंगाना (वारंगल) के शासक प्रतापरुद्र देव के विरुद्ध अभियान के लिये भेजा। जौना खाँ अपने प्रथम वारंगल अभियान में असफल रहा।
- 1322-23 ई. में जौना खाँ ने वारंगल पर पुनः अभियान किया। इसमें वह सफल रहा। वारंगल को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।
- तेलंगाना (वारंगल) पर तुर्कों का अधिकार हो गया और इसका नाम बदलकर ‘सुल्तानपुर‘ रखा गया, साथ ही इसे कई प्रशासनिक भागों में बाँट दिया गया।
- 1324 ई. में स्वयं गयासुद्दीन तुगलक ने बंगाल पर चढ़ाई की और उसे जीतकर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।
- बंगाल विजय से लौटते वक्त उसने उत्तरी बिहार के क्षेत्र मिथिला के हरिसिंह देव को पराजित किया एवं तिरहुत के क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यह प्रथम अवसर था, जब तुर्कों का साम्राज्य विस्तार उत्तरी बिहार तक विस्तृत हो गया।
- जौना खाँ ने अपना दूसरा अभियान 1324 ई. में जाजनगर (उड़ीसा) पर किया, वहाँ का शासक भानुदेव द्वितीय था। इस युद्ध में जाजनगर का शासक पराजित हुआ और जौना खाँ को प्रचुर मात्रा में धन प्राप्त हुआ।
गयासुद्दीन तुगलक के सुधार
- गयासुद्दीन के काल में राज्य की वित्तीय स्थिति काफी दयनीय हो गई थी। अतः राज्य की वित्तीय स्थिति ठीक करने के लिये गयासुद्दीन ने लगान व्यवस्था की ओर ध्यान दिया।
- गयासुद्दीन ने अपने शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के समय से चली आ रही कठोरता को कम किया।
- उसने मध्यस्थ भूमिपतियों (खुत, मुकद्दम, चौधरी आदि) के अधिकार पुनः वापस कर दिये। लगान की दर में परिवर्तन किया।
- रैय्यतों से पहले की तरह पैदावार का 1/5 से 1/3 भाग लगान के रूप में वसूल किया जाने लगा। इसके अलावा उसने आदेश दिया कि एक वर्ष में इक्ता (प्रांत या सूबा) के राजस्व में 1/10 से 1/11 प्रतिशत से अधिक वृद्धि नहीं हो सकती तथा अकाल की स्थिति में भूमि कर को माफ कर दिया जाए।
- गयासुद्दीन ने मध्यस्थ वर्ग (भूमिपतियों) को किसानों से लगान के अलावा सभी प्रकार के कर (Tax) वसूलने से रोक दिया तथा अमीरों या इक्तादारों द्वारा लगान वसूली में ठेकेदारों की कुरीति पर पूर्णतः रोक लगा दी और उनके द्वारा लगान वसूली में प्राप्त लाभ का वितरण नियमित रूप से लिया जाने लगा।
- कर सुधारों के अंतर्गत इक्तादारों द्वारा फवाज़िल या अतिरिक्त कर केंद्रीय कोष में जमा करने के उपाय किये गए।
- गयासुद्दीन तुगलक ने सैन्य संगठन की कार्यकुशलता को भी बनाए रखा, क्योंकि उसने ‘दाग’ (घोड़ों पर मुहर) एवं ‘हुलिया’ (सैनिकों का चेहरा) की पद्धति को और व्यवस्थित ढंग से लागू किया।
- गयासुद्दीन तुगलक ने पुरानी सड़कों की मरम्मत कराई तथा पुलों एवं नई सड़कों का निर्माण कराया।
- यह प्रशासन में नैतिक नियमों का समर्थक था और शराब उत्पादन एवं उसकी बिक्री पर इसने पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
- साथ ही ‘मुहतसिब‘ नामक अधिकारी को नैतिक शिष्टाचार के अनुपालन का दायित्व दे दिया।
- गयासुद्दीन की डाक व्यवस्था उत्कृष्ट थी और शीघ्र डाक पहुँचाने के लिये प्रत्येक 3/4 मील पर डाक पहुँचाने वाले कर्मचारी या घुड़सवार नियुक्त किये गए। डाक विभाग का मुखिया ‘बरीद-ए-मुमालिक’ नामक अधिकारी होता था।
हिंदुओं के प्रति नीति
- हिंदुओं के प्रति गयासुद्दीन की नीति कठोर थी। उसने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि हिंदू न तो इतने धनवान बन सके कि विद्रोह करने को तैयार हो जाएँ और न ही इतने निर्धन हो जाए कि कृषि छोड़कर भाग जाएँ।
- हिंदुओं के प्रति गयासुद्दीन ने अलाउद्दीन ख़िलजी की नीतियों का अनुसरण किया।
गयासुद्दीन की मृत्यु
- 1325 ई. में बंगाल अभियान से वापस लौटते समय गयासुद्दीन की आगवानी के लिये दिल्ली के समीप अफगानपुर में उसके पुत्र जौना खाँ द्वारा स्वागत के लिये लकड़ी का भवन निर्मित किया गया था। जब मंडप के नीचे सुल्तान के स्वागत का जश्न मनाया जा रहा था तभी अचानक हाथियों के आ जाने से वह मंडप गिर गया और मलबे के नीचे सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक, राजकुमार महमूद खान व अन्य व्यक्ति दबकर मर गए।
- सुल्तान की इस तरह मृत्यु से एक मिथक प्रचलित है कि जौना खाँ ने सत्ता अधिकार के लिये स्वयं इस षड्यंत्र को रचा था।
- एक अन्य मिथक के अनुसार, प्रसिद्ध सूफी संत निज़ामुद्दीन औलिया से सुल्तान के संबंध अच्छे नहीं थे। बंगाल विजय से वापस लौटते समय संभवतः सुल्तान ने निज़ामुद्दीन औलिया के पास संदेश भिजवाया था कि वे सुल्तान के आने के पूर्व सल्तनत छोड़कर कहीं और चले जाएँ। इस पर औलिया ने कहा था- “दिल्ली अभी दूर है” (हुनूज दिल्ली दूरस्थ) और वास्तव में सुल्तान का दिल्ली प्रवेश के पूर्व ही देहांत हो गया।
गयासुद्दीन तुगलक का मूल्यांकन
- गयासुद्दीन ने अपने राज्य में सुव्यवस्था स्थापित की और ऐसे विभिन्न कार्य किये, जिनका उद्देश्य जनता की सुख एवं समृद्धि को बढ़ाना था। हालाँकि हिंदुओं के प्रति उसकी नीति कठोर थी।
- गयासुद्दीन तुगलक ने ऐसी अनेक कठोर नीति का अनुसरण किया, जो तुलनात्मक रूप से बहुत कुछ बलबन के समान थी।
- गयासुद्दीन ने राजस्व की उस शक्ति और मर्यादा को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया, जो ख़िलजी शासक नासिरुद्दीन खुसरो शाह के समय में लगभग समाप्त हो चुकी थी।
मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.)
- गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जौना खाँ, मुहम्मद बिन तुगलक की उपाधि धारण कर 1325 ई. में सुल्तान बना।
- ऐसा माना जाता है कि अपने पिता की मृत्यु का शोक उसने 40 दिन तक तुगलकाबाद में रहकर मनाया।
- 40 दिन के बाद उसने अपने राज्याभिषेक के लिये दिल्ली प्रस्थान किया। मुहम्मद बिन तुगलक के समय में जियाउद्दीन बरनी द्वारा लिखी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोज़शाही’ और मोरक्को यात्री इब्न बतूता के यात्रा वृत्तांतों से हमें मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के रोचक तथ्यों की जानकारी मिलती है।
प्रारंभिक जीवन
- राजकुमार जौना खाँ, गयासुद्दीन तुगलक का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका पालन-पोषण एक सैनिक की भाँति हुआ था।
- खुसरो शाह द्वारा उसे ‘शाही घोड़े का मुख्य पदाधिकारी‘ नियुक्त किया गया था, परंतु जौना खाँ ने अपने संरक्षक खुसरो शाह के विरुद्ध एक आंदोलन शुरू कर दिया और उसने खुसरो शाह को अपदस्त करने में अपने पिता की सहायता की।
- 1320 ई. में पिता गयासुद्दीन तुगलक के सम्राट बन जाने के बाद राजकुमार जौना खाँ की उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्ति हो गई और उसे ‘उलूग खाँ’ की उपाधि दी गई।
- जौना खाँ ने 1321 और 1322-23 ई. में वारंगल में दो अभियानों का नेतृत्व किया। यद्यपि अपने प्रथम अभियान में असफल रहने के बाद वह दूसरे अभियान में सफल रहा।
- इन बतूता के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक के राज्यारोहण के समय तुगलक साम्राज्य 23 प्रांतों में बँटा हुआ था।
- कश्मीर एवं आधुनिक बलूचिस्तान को छोड़कर लगभग सारा हिंदुस्तान दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में था।
नोटः इब्न बतूता मोरक्को (अफ्रीका) का रहने वाला था, जो लगभग 1333 ई. में भारत आया। उसे सुल्तान द्वारा दिल्ली का काजी नियुक्त किया गया।
- 1342 ई. में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा इब्न बतूता को राजदूत के रूप में चीन भेजा गया।
- इब्न बतूता ने मुहम्मद बिन तुगलक के समय की घटनाओं को अपनी पुस्तक ‘किताब-उल-रेहला‘ में उल्लिखित किया।
मुहम्मद बिन तुगलक की शासन संबंधी योजनाएँ
बरनी ने सुल्तान की पाँच प्रमुख शासन संबंधी योजनाओं का उल्लेख किया है
दोआब में कर वृद्धि (1325 ई.)
- सिंहासन पर बैठने के कुछ समय पश्चात् सुल्तान ने दोआब में कर वृद्धि की।
- बरनी के अनुसार सुल्तान ने दोआब क्षेत्र में 10 गुना कर वृद्धि की जबकि बदायूँनी ने 10 से 20 गुना कर वृद्धि की बात की है।
कर वृद्धि के संबंध में विभिन्न मत
- बरनी ने लिखा है कि “सुल्तान का खज़ाना खाली हो गया था, जिसकी पूर्ति के लिये कर वृद्धि की गई।”
- गार्डनर ब्राउन के अनुसार, “दोआब,. साम्राज्य का सबसे अधिक धनाढ्य तथा समृद्धशाली भाग था। अतएव इस भाग से साधारण दर से अधिक कर वसूल किया जा सकता था।”
- बदायूँनी और सर हेग के अनुसार, “दोआब की विद्रोही प्रजा को दंड देने तथा उस पर नियंत्रण रखने के लिये कर लगाया गया था।”
योजना की असफलता के कारण
- जिस समय कर-वृद्धि की गई, उसी दौरान अकाल पड़ने के कारण जनता में कर अदा करने की क्षमता नहीं रही।
- दोआब के लोग बढ़ी हुई दर पर कर देने के लिये तैयार नहीं थे।
- कर की वसूली इतनी कठोरता से की गई कि जनता आक्रोशित हो उठी और सुल्तान के प्रति भयंकर असंतोष फैल गया।
राजधानी परिवर्तन
- मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली से लगभग 700 मील दूर देवगिरी को राजधानी बनाना चाहा और उसने देवगिरी का नाम बदलकर दौलताबाद रख दिया।
- 1335 ई. में राजधानी पुनः दिल्ली स्थानांतरित कर ली।
- (ध्यातव्य है कि कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरी का नाम बदलकर कुतबाबाद रखा था।)
राजधानी परिवर्तन का कारण
देवगिरी का केंद्र में स्थित होना
- इसका सबसे पहला कारण देवगिरी का साम्राज्य के केंद्र में स्थित होना था। सुल्तान ऐसे स्थान को राजधानी बनाना चाहता था, जो सामरिक महत्त्व का होने के साथ-साथ राज्य के केंद्र में स्थित हो।
- इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि “देवगिरी को भौगोलिक महत्त्व के कारण राजधानी चुना गया था।”
दिल्ली के लोगों को सजा देना
- इब्न बतूता ने लिखा है कि “दिल्ली निवासियों ने सुल्तान के विरुद्ध निंदनीय पत्र लिखे थे, इसलिये उनको सजा देने के उद्देश्य से आज्ञा दा गई कि सभी दिल्ली निवासी शहर छोड़कर दूर देवगिरी को प्रस्थान करें।”
मंगोल आक्रमण से दिल्ली की असुरक्षा
- इतिहासकार गार्डनर ब्राउन का मत है कि मंगोलों के आक्रमण क भय से राजधानी परिवर्तन किया गया। किंतु इस तर्क को भी नही माना जा सकता, क्योंकि मुहम्मद बिन तुगलक के राजगद्दी प्राप्त करने के समय तक मंगोलों के आक्रमण प्रायः समाप्त हो गए थे।
योजना की असफलता के कारण
- सुल्तान की राजधानी परिवर्तन की योजना गलत नहीं थी, किंतु उसने इस योजना को जिस तरीके से व्यावहारिक रूप दिया, वह अवांछनीय तथा अबौद्धिक था। उसे सारी जनता को एक साथ ले जाने की आवश्यकता नहीं थी। सर्वप्रथम उसे दरबारी, पदाधिकारी, व्यापारी तथा दुकानदारों को ले जाना चाहिये था।
- सुल्तान को शायद यह आभास नहीं था कि लोग अपने पैतृक निवास को छोड़ने में कितना कष्ट अनुभव करेंगे। दौलताबाद पहुँचकर दिल्लीवासियों का मन न लगा और वे दिल्ली लौटने को आतुर हो उठे।
- दौलताबाद से दिल्ली पर मंगोलों या अन्य विदेशी आक्रमणों को रोकना संभव नहीं था। इसलिये उसने अपनी भूल स्वीकार कर ली और 1335 ई. में राजधानी पुनः दिल्ली स्थानांतरित कर ली।
सांकेतिक मुद्रा का चलन
- मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने शासन के प्रारंभ में मुद्रा में कई सुधार किये, किंतु उसका सबसे साहसिक कार्य तांबे या काँसे का सिक्का चलाना था।
- उसने यह आदेश दिया कि क्रय-विक्रय में सांकेतिक मुद्रा को सोने तथा चांदी की मुद्रा के समान प्रचलित किया जाए।
- मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने सिक्कों पर ‘अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह’ (सुल्तान ईश्वर की छाया वाक्यों को अंकित कराया।
सांकेतिक मुद्रा जारी करने के कारण
- सुल्तान अपनी विजय योजनाओं को पूरा करने के लिये राज्य की आय अधिक-से-अधिक बढ़ाना चाहता था, जिससे एक विशाल सेना का निर्माण किया जा सके।
- सुल्तान को नए प्रयोग करने में रुचि थी तथा उस समय परिस्थितियाँ भी इसके अनुकूल थीं।
योजना की असफलता के कारण
मुद्रा के प्रचलन पर नियंत्रण का अभाव
- यद्यपि सुल्तान की यह योजना उचित थी, किंतु वह सांकेतिक मुद्रा के प्रचलन पर नियंत्रण न रख सका। सुल्तान सिक्कों की ढलाई को न रोक सका। सिक्कों पर कोई सरकारी मोहर आदि का चिह्न नहीं था, इसलिये लोग आसानी से सिक्कों की ढलाई करके सरकारी सिक्कों के साथ चलाने लगे। एडवर्ड थॉमस ने लिखा है- “सुल्तान ने ऐसी कोई विशेष व्यवस्था नहीं की, जिससे राजकीय टकसाल के सिक्कों तथा साधारणतया कुशल कारीगरों द्वारा बनाए हुए निजी सिक्कों का अंतर मालूम किया जा सके।” अतः अनेक जाली टकसाल बनने लगी और भू-राजस्व का भुगतान भी जाली सिक्कों से किया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवस्था कमज़ोर हुई।
समय की परिस्थितियों को न समझना
- सुल्तान की सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह अपने समय की परिस्थितियों को न समझ सका और न ही वह अपनी सांकेतिक मुद्रा में जनता का विश्वास पैदा कर सका।
खुरासान पर आक्रमण
- सुल्तान का खुरासान अभियान तरमाशरीन और मिस्र के सुल्तान के साथ मैत्री का परिणाम था।
- यह त्रिमैत्री संगठन (मुहम्मद बिन तुगलक, तरमाशरीन तथा मिस्र के सुल्तान) खुरासान के सुल्तान अबू सैयद के विरुद्ध बनाया गया था।
- बरनी के अनुसार, इस सैनिक अभियान के लिये एक बड़ी सेना (लगभग 3 लाख 70 हज़ार) खड़ी की गई और सैनिकों को पूरे एक वर्ष का अग्रिम वेतन प्रदान किया गया।
- कालांतर मे मध्य एशिया की राजनीति में परिवर्तन आ जाने से सुल्तान को खुरासान अभियान टालना पड़ा। परिणामतः सुल्तान अपनी इस योजना में भी असफल रहा।
कराचिल का सैनिक अभियान
- सुल्तान की अगली विजय योजना कराचिल (सल्तनत और चीनी साम्राज्य के बीच का क्षेत्र) का अभियान थी, किंतु इसका भी विनाशकारी अंत हुआ। प्रारंभिक विजय के बाद ठंड के मौसम में सैनिकों को काफी क्षति हुई।
- इब्न बतूता केवल तीन सैनिकों के बचे रहने की बात करता है तो बरनी सिर्फ दस।
दोनों अभियानों की असफलता का कारण
- सुल्तान का विश्व विजेता बनने का विचार महत्त्वाकांक्षी हो सकता है, लेकिन अभियान से पूर्व परिस्थितियों का गलत आकलन इन अभियानों के असफल होने का मुख्य कारण था।
- अभियानों से पूर्व भौगोलिक कठिनाइयों के प्रति उदासीनता बरती गई। यह बात पूर्णतः भुला दी गई कि हिमालय व हिंदूकुश के पहाड़ी मार्गों से होकर ऐसी विशाल सेना का निकलना भी एक कठिन कार्य था और उस सेना के भोजन व ऐसे दूरस्थ देश में जीवन की अन्य आवश्यकताओं का प्रबंध करना भी कोई सरल कार्य नहीं था।
नोटः इन असफल अभियानों के संदर्भ में बरनी लिखता है कि “वे देश प्राप्त न किये जा सके, जिनका मोह सुल्तान को था और उसका कोष जो राजनीतिक शक्ति का सच्चा स्रोत था, व्यय कर दिया गया।”..
- सुल्तान के संबंध में एलफिंस्टन ने मत व्यक्त किया कि “मुहम्मद बिन तुगलक में पागलपन का कुछ अंश था।”
मुहम्मद बिन तुगलक के अन्य कार्य
- संकट के समय कृषकों को सहायता प्रदान करने के लिये सुल्तान ने केंद्र में ‘दीवान-ए-कोही’ नाम से कृषि विभाग की स्थापना की।
- उसने अकाल राहत संहिता तैयार करवाई।
- सिंचाई के लिये सैकड़ों कुएँ खुदवाए तथा अकालग्रस्त कृषकों को कृषि ऋण (तकावी) प्रदान किये।
- मुहम्मद बिन तुगलक ने कुएँ खोदने के लिये एवं बीज व हल खरीदने के लिये कृषिऋण (सोनधर) प्रदान किया।
- मुहम्मद बिन तुगलक ने मिस्र के अब्बासी ख़लीफ़ा से स्वीकृति-पत्र प्राप्त किया तथा खुब्बा एवं सिक्कों पर अपने नाम के बदले ख़लीफ़ाओं का नाम अंकित करवाया।
- “उश्र’ तथा ‘जकात’ को छोड़कर उसने शेष कर समाप्त कर दिये।
नोट: सल्तनत का सबसे पढ़ा-लिखा विद्वानशासक, जो धार्मिक दृष्टि से उदार व सहिष्णु था।
- ऐसा माना जाता है कि सुल्तान ने अपने दरबार में जैन विद्वान जिनप्रभु सूरी और राजशेखर का स्वागत किया।
- दिल्ली सुल्तानों में वह पहला सुल्तान था, जो हिंदुओं के त्योहारों, मुख्यतः होली में भाग लेता था।
- दिल्ली सल्तनत में मुहम्मद बिन तुगलक के समय सर्वाधिक विद्रोह हुए, जिसमें 22 (कुछ स्रोतों में 27) विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में हुए।
मृत्यु
- 1351 ई. में एक विद्रोह को दबाने हेतु थट्टा (सिंध) जाते समय सुल्तान रास्ते में बीमार पड़ गया। अंततः मार्च 1351 ई. में सुल्तान की मृत्यु हो गई।
- सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु पर टिप्पणी करते हुए बदायूँनी ने लिखा है कि “सुल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को सुल्तान से मुक्ति मिल गई।”
चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन
- मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र के संबंध में इतिहासकारों में विरोधाभास है। इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना है कि वह बड़ा धर्मपरायण था, जबकि दूसरी ओर उसे निर्दयी, रक्त पिपासु तथा धर्म-भ्रष्ट कहा गया है।
- शासक के रूप में मुहम्मद बिन तुगलक पूर्णतः असफल रहा। जिस समय वह गद्दी पर बैठा, उस समय उसके साम्राज्य में लगभग समस्त उत्तर तथा दक्षिण भारत सम्मिलित था, किंतु उसने अपने को दिल्ली तक समेट कर रखा।
- कुछ विद्वानों ने उसे ‘भाग्यहीन आदर्शवादी’ कहा है। इस दृष्टि से उसे महान् व्यक्ति भी नहीं कहा जा सकता।
फिरोजशाह तुगलक (1351-1388 ई.)
- मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के पश्चात् 1351 ई. में उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक सिंहासन पर बैठा। फिरोज़ की माता एक राजपूत सरदार की पुत्री थी।
- बरनी के मतानुसार, मुहम्मद बिन तुगलक ने फिरोज़ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
- राजधानी से दूर थट्टा के निकट सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के पश्चात् अमीरों, मलिकों, उलेमाओं आदि ने फिरोज़ को एक मत से सुल्तान घोषित किया।
- फिरोज़ तुगलक का दो बार राज्याभिषेक हुआ। पहले 22 मार्च, 1351 को थट्टा (सिंध) में तत्पश्चात् अगस्त 1351 ई. में दिल्ली में।
फिरोजशाह तुगलक की राजस्व एवं ग्रामीण कृषि-व्यवस्था
- रिक्त राजकोष की पूर्ति, व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति तथा जनता की आर्थिक कठिनाइयों को दूर करने के लिये फिरोजशाह तुगलक ने राजस्व एवं ग्रामीण व्यवस्था में सुधार किये।
- किसानों द्वारा अकाल के समय, पूर्व सुल्तान से जो ऋण लिये गए थे, फिरोज़ ने वे ऋण माफ कर दिये। पदाधिकारियों के वेतन में वृद्धि की। किसानों के कर-भार को हल्का करने के लिये उसने सूबेदारों द्वारा दी जाने वाली भेंट की प्रथा को समाप्त कर दिया।
कर व्यवस्था
- फिरोजशाह तुगलक ने सर्वप्रथम लगान व्यवस्था को सही किया. क्योंकि राज्य की आय का मुख्य स्रोत लगान ही था।
- सर्वप्रथम राज्य की आमदनी का प्रामाणिक विवरण तैयार करने के लिये ख्वाजा हिसामुद्दीन को नियुक्त किया, जिसने लगान की आमदनी को 6 करोड़, 78 लाख टंका निर्धारित किया।
- भू-राजस्व की दर 1/3 से 1/5 कर दी गई।
- फिरोजशाह तुगलक ब्राह्मणों पर जज़िया कर लगाने वाला प्रथम मुसलमान शासक था।
- 24 प्रकार के अतिरिक्त करों ‘अबवाब’ को समाप्त कर दिया गया, जिसमें अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रारंभ ‘घरई’ व ‘चरई’ भी शामिल थी।
- चार महत्त्वपूर्ण कर जारी रखे, जिसकी अनुमति शरीयत में दी गई थी। ये चार कर थे- ख़राज़ (भूमिकर), जज़िया (ब्राह्मणों पर), जकात (दान संबंधी) और खुम्स (युद्ध संबंधी)।
- किंतु, इसके अतिरिक्त ‘हक-ए-शर्ब’ नामक सिंचाई कर भी लगाया, जिसकी दर 1/10 या 10 प्रतिशत था।
- कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिये फिरोजशाह तुगलक ने सिंचाई साधनों को भी सुदृढ़ किया। उसने लगभग ग्यारह नहरों का निर्माण दिल्ली एवं आसपास (हरियाणा) के क्षेत्रों में करवाया, जिससे लगभग 160 वर्गमील के क्षेत्र में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध हुआ।
- कुएँ एवं जलाशयों के निर्माण से अन्य भागों में सिंचाई के लिये जल उपलब्ध हुआ। फिरोजशाह तुगलक द्वारा बनवाई गई नहरों में ‘उलुगखानी’ तथा ‘रजवाही‘ सर्वाधिक प्रसिद्ध थी।
- सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के कृषि एवं राजस्व सुधारों के फलस्वरूप प्रजा समृद्ध हो गई। अफीफ लिखता है कि “सामग्री बहुत सस्ती हो गई, उसके पूरे 40 वर्षों के शासनकाल में लोगों ने अकाल नहीं देखा।
उद्यान एवं कारखाने
- फिरोजशाह तुगलक ने राज्य की आय में वृद्धि के लिये नई नीति बनाई।
- उसने लगभग 1200 फलों के बाग लगवाए, जिससे राज्य को 1,80,000 टंका प्रतिवर्ष अतिरिक्त आय प्राप्त हुई।
- राजपरिवार के उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं तथा विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन के लिये 36 शाही कारखानों की स्थापना करवाई, जो राज्य के द्वारा संचालित होते थे।
फिरोजशाह तुगलक के सैनिक अभियान
- फिरोजशाह तुगलक का शासनकाल अमीरों, सेना और उलेमाओं के प्रति तुष्टीकरण का था। उसने यह निश्चित किया कि वह अपना सत्ता उन्हीं प्रदेशों पर बरकरार रखने की कोशिश करेगा, जिस पर नियंत्रण केंद्र से आसानी से किया जा सके। अतः उसने दक्षिण भारत और दक्कन पर फिर से अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास नहीं किया।
- फिरोज़शाह के समय बंगाल दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण से बाहर हो गया, हालाँकि फिरोजशाह तुगलक ने बंगाल पर दो बार अभियान किया, किंतु दोनों बार असफल रहा।
- 1360 ई. में फिरोज़शाह ने जाजनगर के शासक पर चढ़ाई की। वहाँ पर उसने मंदिरों (जगन्नाथ मंदिर आदि) को नष्ट कर दिया और काफी धन लूटा, किंतु उड़ीसा को सल्तनत में मिलाने की कोई कोशिश नहीं की।
- 1365 ई. में फिरोज़शाह ने कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) का सफल अभियान किया। इस अभियान में ज्वालामुखी मंदिर से अनेक संस्कृत रचनाएँ पांडुलिपियों के रूप में प्राप्त हुईं।
- फिरोजशाह तुगलक का अंतिम सैनिक अभियान थट्टा में हुआ, जहाँ 1362-64 ई. (कुछ स्रोतों में 1365-67 ई.) के दो वर्षों के अभियान के बावजूद उसे कोई सफलता नहीं मिली।
फिरोजशाह तुगलक के अन्य कार्य
- फिरोजशाह ने अपनी आत्मकथा ‘फुतूहात-ए-फिरोजशाही‘ लिखी थी।
- किसानों पर लगे तकावी ऋणों को माफ कर दिया।
- उसने कुछ विभागों की स्थापना की, जैसे-दार-उल-शफा (राजकीय अस्पताल), दीवान-ए-खैरात (गरीबों के लिये दान विभाग)लोकनिर्माण विभाग (नवीन नगरों की स्थापना हेतु) तथा दफ्तर-ए-रोज़गार (बेरोजगारों के लिये) आदि।
- फिरोज़शाह तुगलक ने ‘अनुवाद विभाग’ की स्थापना की, ताकि हिंदू एवं मुस्लिम दोनों संप्रदायों के लोगों में एक-दूसरे के विचारों , की समझ बेहतर हो सके।
- दासों के लिये एक पृथक् विभाग ‘दीवान-ए-बंदगान’ की स्थापना की गई। इसके दरबार में दासों की संख्या सबसे अधिक थी।
- फिरोजशाह तुगलक द्वारा फतेहाबाद, हिसार, फिरोज़पुर, जौनपुर और फिरोजाबाद नगर बसाए गए थे।
- फिरोजशाह तुगलक ने कुतुबमीनार की मरम्मत करवाई।
- फिरोजशाह तुगलक ने ‘अधा’ एवं ‘बिख‘ नामक क्रमशः आधे एवं चौथाई पीतल में तांबा-चांदी मिश्रित दो सिक्के चलाए।
- सैनिकों के प्रति फिरोजशाह ने उदारता की नीति अपनाई। उसने ‘खुम्स ‘ (युद्ध संबंधी कर) की प्रचलित दर में परिवर्तन करके सैनिकों को 80 प्रतिशत भाग देना आरंभ किया और राज्य द्वारा 20 फीसदी हिस्सा ही लिया गया।
- फिरोजशाह तुगलक द्वारा अशोक के दो स्तंभों को मेरठ एवं टोपरा से दिल्ली लाया गया।
- टोपरा वाले स्तंभ को फिरोजाबाद की मस्जिद के निकट पुनः स्थापित कराया गया और मेरठ वाले स्तंभ को दिल्ली में, जो कुश्क-ए-शिकार महल के सामने गड़ा है।
फिरोजशाह तुगलक के उत्तराधिकारी
- फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु (1388 ई.) के बाद उसके उत्तराधिकारी अयोग्य साबित हुए।
- फिरोज़शाह के उत्तराधिकारियों में तुगलकशाह द्वितीय, अबुबक्र, मुहम्मदशाह, और नासिरुद्दीन महमूदशाह थे।
- नासिरुद्दीन महमूदशाह के शासनकाल में 1398-99 ई. में समरकंद के शासक तैमूर लंग ने दिल्ली पर आक्रमण करके तुगलक साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया।
- तैमूर के आक्रमण के समय महमूदशाह दिल्ली छोड़कर भाग गया।
- 1405 ई. में तैमूर की मृत्यु के बाद वह दिल्ली लौटा।
- नासिरुद्दीन महमूदशाह के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत से जौनपुर, गुजरात और मालवा पूर्णतः स्वतंत्र हो गए।
फिरोजशाह तुगलक का मूल्यांकन
- समकालीन इतिहासकारों द्वारा फिरोजशाह तुगलक को मध्यकालीन भारत का पहला ‘कल्याणकारी निरंकुश शासक’ कहा गया।
- उसके आर्थिक सुधारों से राज्य की स्थिति मज़बूत हुई तथा कल्याणपरक कार्यों से सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ी।
- फिरोजशाह तुगलक की अत्यधिक तुष्टीकरण की नीति ने साम्राज्य का पतन अवश्यंभावी बना दिया।
- एलफिंस्टन ने फिरोज़ को “सल्तनत युग का अकबर” कहा है।
तुगलक वंश के पतन के कारण
- दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1206 ई.)से लेकर तुगलक वंश (1320-1414 ई.) तक जितने भी राजवंशों ने दिल्ली पर शासन किया, उनमें तुगलक वंश का शासनकाल सबसे दीर्घकालिक रहा। हालाँकि अपने अंतिम दिनों में अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण इस वंश का पतन हो गया।
तुगलक वंश के पतन के निम्न कारण थे
मुहम्मद बिन तुगलक की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की असफलता के कारण राजस्व घट गया। सुल्तान ने अपनी इन योजनाओं की असफलता का कारण अमीरों एवं जनता की उदासीनता को मानकर उन्हें कठोर दंड दिये, जिससे अमीर एवं जनता ने सुल्तान के विरुद्ध बगावत की। उसके शासनकाल में विद्रोह हुए, जिससे साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई।
फिरोजशाह तुगलक ने दया एवं क्षमाशीलता की नीति अपनाकर मुसलमानों का विश्वास तो प्राप्त किया, किंतु सल्तनत की नींव कमज़ोर कर दी। फिरोजशाह द्वारा जारी की गई जागीर प्रथा, भ्रष्ट सरकारी तंत्र एवं वंशानुगत पदों की घोषणा और दास प्रथा का प्रारंभ, इन कार्यों से विघटनकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला।।
फिरोजशाह तुगलक के दुर्बल एवं विलासी उत्तराधिकारी, शासन चलाने में अयोग्य साबित हुए, जिससे अमीरों को षड्यंत्र रचने का अवसर मिला। परिणामस्वरूप सल्तनत की शक्ति क्षीण होती चली गई। केंद्रीय शक्ति के अभाव के कारण मंगोलों को भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला।
अमीरों के बढ़ते प्रभाव, षड्यंत्र एवं विलासितापूर्ण जीवन ने दरबार में गुटबंदी का पूर्ण वातावरण स्थापित कर दिया, जिससे सल्तनत की सत्ता कमज़ोर हो गई।
कमज़ोर राजनैतिक अवसर का लाभ उठाकर तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया, जिसका सामना दिल्ली का सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह नहीं कर पाया। अंतत: तुगलक वंश का पतन हो गया।