- बौद्ध धर्म
- बौद्ध धर्म के संस्थापक – महात्मा बुद्ध
- बुद्ध का अर्थ ‘प्रकाशमान’ अथवा ‘जाग्रत’ होता है।
- उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यों के गणराजा थे।
- बुद्ध का जन्म शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी में 563 ई.पू. में हुआ था।
- इनकी माता महामाया देवी, कोलिय गणराज्य की राजकुमारी थीं।
- इनके जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता की मृत्यु हो गई।
- इनका पालन-पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।
- गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था।
- गौतम बुद्धः जीवन परिचय
- जन्मः 563 ई. पू.
- जन्म स्थानः लुंबिनी (नेपाल)
- बचपन का नामः सिद्धार्थ (गोत्रीय अभिधान-गौतम)
- पिता का नामः शुद्धोधन (कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान)
- माता का नामः मायादेवी अथवा महामाया (कोलिय गणराज्य की कन्या)
- पालन-पोषणः मौसी प्रजापति गौतमी द्वारा…
- पत्नी का नाम: यशोधरा (अन्य नाम-गोपा, बिंबा, भद्रकच्छा)
- पुत्र का नामः राहुल
- घोड़े का नामः कथक
- सारथी का नामः चाण
- मुत्युः 483 ई.पू. (मल्लों की राजधानी कुशीनगर में)
- 16 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से हुआ। सिद्धार्थ से यशोधरा को एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल था।
- गौतम बुद्ध के जीवन संबंधी चार दृश्य अत्यंत प्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखकर उनके मन में वैराग्य की भावना उठी
- 1. वृद्ध व्यक्ति
- 2. बीमार व्यक्ति
- 3. मृत व्यक्ति
- 4. संन्यासी (प्रसन्न मुद्रा में) में
- बुद्ध के जीवन से संबंधित बौद्ध धर्म के प्रतीक
- जन्म – कमल व साँड
- गृहत्याग (महाभिनिष्क्रमण)- घोड़े
- ज्ञान – पीपल (बोधि) वृक्ष
- उपदेश (धर्म चक्र प्रवर्तन)
- निर्वाण– पद चिह्न
- मृत्यु (महापरिनिर्वाण) – स्तूप
- सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। इसको बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण कहा गया है।
- बुद्ध सर्वप्रथम अनुपिय नामक आम्र उद्यान में कुछ दिन रुके।
- वैशाली के समीप उनकी मुलाकात सांख्य दर्शन के दार्शनिक आचार्य अलार कलाम तथा राजगृह के समीप धर्माचार्य रुद्रक रामपुत्र से हुई। ये दोनों बुद्ध के प्रारंभिक गुरु थे।
- 6 वर्ष तक अथक परिश्रम एवं घोर तपस्या के बाद 35 वर्ष की आयु मेंवैशाख पूर्णिमा की एक रात पीपल (बोधि वृक्ष) वृक्ष के नीचे निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी दिन से वे ‘तथागत‘ हो गए।
- ज्ञान की प्राप्ति के बाद गौतम ‘बुद्ध‘ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
- बुद्ध और मार
- गौतम ज्ञान प्राप्ति के लिये गया (बिहार) में ‘निरंजना नदी’ के तट पर ‘पीपल वृक्ष’ (बोधि वृक्ष) के नीचे दृढ़ निश्चय के साथ अपनी समाधि लगाई कि ज्ञान प्राप्ति न होने तक समाधि भंग न करेंगे।
- तभी मार (कामदेव) के नेतृत्व में अनेक पैशाचिक तृष्णाओं ने उनकी समाधि भंग करने की चेष्टा की। किंतु गौतम निश्चल और अडिग रहे।
- आठवें दिन उन्हें ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ और वे ‘बुद्ध’ कहलाये।
- धर्म चक्र प्रवर्तन
- उरुवेला (वर्तमान बोधगया) से बुद्ध सारनाथ (ऋषिपत्तनम या मृगदाव) आए।
- यहाँ पर सारनाथ में पाँच ब्राह्मण संन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे बौद्ध ग्रंथों में धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है।
- बुद्ध ने सर्वप्रथम ‘तपस्सु’ एवं ‘भल्लिक’ नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया।
- बुद्ध के राजगृह पहुँचने पर बिम्बिसार ने उनका स्वागत किया और वेणुवन विहार दान में दिया।
- राजगृह में ही सारिपुत्र, महामोद्गलायन, उपालि, अभय आदि इनके शिष्य बने।
- ज्ञान प्राप्ति के 8वें वर्ष वैशाली के लिच्छवियों ने बुद्ध को वैशाली आमंत्रित किया तथा ‘कूटाग्रशाला’ नामक विहार दान में दिया। अपने शिष्य आनंद के कहने पर बुद्ध ने वैशाली में महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी।
- प्रजापति गौतमी पहली भिक्षुणी थीं।
- कौशांबी का शासक उदायिन, बौद्ध भिक्षु पिंडोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया तथा घोषिताराम विहार भिक्षु संघ को प्रदान किया।
- ज्ञान प्राप्ति के 20वें वर्ष बुद्ध श्रावस्ती पहुँचे तथा वहाँ अंगुलिमाल नामक डाकू को अपना शिष्य बनाया।
- नोटः बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश कोशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती में दिये। उन्होंने अंतिम उपदेश कुशीनगर में सुभद्द, को दिया था। मगध को उन्होंने अपना प्रचार केंद्र बनाया।
- महापरिनिर्वाण
- महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में हिरण्यवती नदी के तट पर अपने शिष्य चुंद के यहाँ सूकरमाद्दव भोज्य सामग्री खाई और अतिसार रोग से पीड़ित हो गए।
- यहीं पर 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हो गई।
- इसे बौद्ध परंपरा में ‘महापरिनिर्वाण‘ के नाम से जाना जाता है।
- मृत्यु के पूर्व कुशीनारा के परिव्राजक सुभद्द को उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया।
- महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के अस्थि अवशेष को 8 जगह भेजा गया। इन्हीं आठ क्षेत्रों में स्तूप बनाये गए।
- मगध,
- वैशाली,
- कपिलवस्तु,
- अल्लकप्प,
- रामग्राम,
- पावा,
- कुशीनारा और
- वेथादीप
- बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ एवं सिद्धांत
- बुद्ध ने आम जनता की भाषा ‘पालि’ में उपदेश दिये।
- उनके अनुसार सृष्टि दुःखमय, क्षणिक एवं आत्मविहीन है।
- वे ईश्वर एवं अपौरुषेय वेद की सत्ता को अस्वीकार करते हैं।
- बुद्ध ने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार किया।
- बुद्ध ने ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ को संपूर्ण जगत पर लागू किया। महात्मा बुद्ध के अनुसार, एक वस्तु के विनाश के पश्चात् दूसरे की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक घटना के पीछे कार्य-कारण का संबंध है। कार्य-कारण का यही सिद्धांत ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के नाम से जाना जाता है।
- बौद्ध ने निर्वाण प्राप्त करने को कहा अर्थात् इच्छाओं और तृष्णाओं से छुटकारा, जिससे जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिले। निर्वाण का अर्थ है ‘दीपक का बुझ जाना’ अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना।
- बुद्ध ने मध्यम मार्ग (मध्यमा प्रतिपदा) का उपदेश दिया।
- बौद्ध धर्म के त्रिरत्न
- बुद्ध
- धम्म
- संघ
- बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य
- दुःख
- दुःख समुदाय
- दु:ख निरोध
- दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा
- आष्टांगिक मार्ग/मध्यमा प्रतिपदा’ या ‘मध्यम मार्ग
- गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य में दुःख निरोध का उपाय बताया। इसे ‘दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा‘ कहा जाता है।
- इसे ‘मध्यमा प्रतिपदा’ या ‘मध्यम मार्ग‘ भी कहते हैं। उनके इस मध्यम प्रतिपदा में आठ सोपान हैं, इसलिये इसे आष्टांगिक मार्ग भी कहते हैं।
- इसके आठ सोपान निम्न हैं
- 1. सम्यक् दृष्टि – वस्तु के वास्तविक स्वरूप की समझ
- 2. सम्यक् संकल्प – लोभ, द्वेष व हिंसा से मुक्त विचार
- 3. सम्यक् वाक् – अप्रिय वचनों का त्याग
- 4. सम्यक् कर्मांत – सत्कर्मों का अनुसरण
- 5. सम्यक् आजीव – सदाचार युक्त आजीविका
- 6. सम्यक् व्यायाम – मानसिक/शारीरिक स्वास्थ्य
- 7. सम्यक् स्मृति – सात्विक भाव
- 8. सम्यक् समाधि – एकाग्रता
- बुद्ध के अनुसार आष्टांगिक मार्गों का पालन करने के उपरांत मनुष्य की भवतृष्णा नष्ट हो जाती है और उसे निर्वाण प्राप्त हो जाता है।
- दस शील
- बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिये सदाचार तथा नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया गया है। दस शीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार है। इन दस शीलों को शिक्षापद भी कहा गया है, ये हैं
- 1.अहिंसा
- 2. सत्य
- 3.अस्तेय (चोरी न करना)
- 4.अपरिग्रह (किसी प्रकार की संपत्ति न रखना)
- 5.मद्य सेवन न करना
- 6.असमय भोजन न करना
- 7.सुखप्रद बिस्तर पर न सोना
- 8.आभूषणों का त्याग
- 9.स्त्रियों से दूर रहना (ब्रह्मचर्य)
- 10.व्यभिचार आदि से दूर रहना।
- गृहस्थों के लिये केवल 5 शील तथा भिक्षुओं के लिये 10 शील । मानना अनिवार्य था।
- दर्शन
- अनीश्वरवाद – ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं।
- शून्यतावाद – संसार की समस्त वस्तुएँ या पदार्थ सत्ताहीन हैं।
- अनात्मवाद – आत्मचेतना पर सर्वाधिक बल।
- क्षणिकवाद – संसार में कोई भी चीज स्थिर नहीं।
- बुद्ध के जन्म के पूर्व अन्य धार्मिक आंदोलन (संप्रदाय – संस्थापक)
- आजीवक संप्रदाय (भाग्यवादी) – मक्खलि गोशाल
- घोर अक्रियावादी – पूरन कस्सप
- उच्छेदवादी (भौतिकवादी)- अजित केस कंबलि
- नित्यवादी – पकुध कच्चायन
- संदेहवादी (अज्ञेयवादी, अनिश्चयवादी) – संजय वेलदुपुत्त
- बौद्ध संघ एवं कार्यप्रणाली
- संघ में प्रविष्ट होने को ‘उपसंपदा’ कहा जाता था।
- संघ की सदस्यता लेने वालों को पहले ‘श्रमण’ का दर्जा मिलता था और 10 वर्षों बाद जब उसकी योग्यता स्वीकृत हो जाती थी, तब उसे ‘भिक्षु‘ का दर्जा मिलता था।
- संघ में अल्पवयस्क, चोर, हत्यारा, ऋणी व्यक्ति, दास तथा रोगी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था।
- बौद्ध संघ की संरचना गणतंत्र प्रणाली पर आधारित थी।
- बौद्ध संघ का दरवाजा हर जातियों के लिये खुला था। अतः बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा का विरोध किया।
- संघ की सभा में प्रस्ताव (नत्ति) का पाठ होता था। प्रस्ताव पाठ को ‘अनुसावन’ कहा जाता था। सभा की वैध कार्रवाई के लिये न्यूनतम संख्या (कोरम) 20 थी।
- प्रत्येक 15वें दिन पूर्णिमा या अमावस्या को ‘सायम उपोसथ’ नामक सभा होती थी, जिसमें ‘पातिमोक्ख’ का पाठ किया जाता था।
- (पातिमोक्ख विनयपिटक की मठ संबंधी सूची है, जिसमें 226 प्रकार के अपराधों और उनके प्रायश्चित करने की सूची दी गई है।)
- इस सभा में प्रत्येक सदस्य इसके माध्यम से स्वयं नियमों के उल्लंघन को स्वीकार करता था। गंभीर अपराध पर वयस्कों एवं वृद्धों की समिति विचार करती थी और सदस्यों को प्रायश्चित करने या संघ से निकालने की आज्ञा देती थी।
- वर्षा ऋतु के दौरान मठों में प्रवास के समय भिक्षुओं द्वारा अपराध स्वीकारोक्ति समारोह ‘पवरन’ कहलाता था।
- बौद्धों के लिये महीने के चार दिन-अमावस्या, पूर्णिमा और दो चतुर्थी दिवस उपवास के दिन होते थे।
- बौद्धों का सबसे पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण दिन या त्योहार वैशाख की पूर्णिमा है, जिसे ‘बुद्ध पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। इस दिन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इसी दिन बुद्ध का जन्म, ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई।
- बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में विभाजित थे-
- भिक्षु एवं भिक्षुणी तथा
- उपासक एवं उपासिकाएँ।
- गृहस्थ जीवन में रहकर बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों को ‘उपासक’ कहा जाता था।
- स्तूप
- स्तूप का शाब्दिक अर्थ है-‘किसी वस्तु का ढेर।’
- स्तूप का विकास संभवतः मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ है, जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों को रखने के लिये किया जाता था। स्तूपों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है
- शारीरिक स्तूपः इसमें बुद्ध के शरीर, धातु, केश और दंत आदि को रखा जाता था।
- पारिभोगिक स्तूपः इसमें महात्मा बुद्ध के द्वारा उपयोग की हुई वस्तुएँ, जैसे-भिक्षापात्र, चीवर, संघाटी, पादुका आदि को रखा जाता था।
- उद्देशिका स्तूपः इनका संबंध बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं * की स्मृति से जुड़े स्थानों से था।
- पूजार्थक स्तूपः इसका निर्माण बुद्ध की श्रद्धा से वशीभूत धनवान व्यक्तियों द्वारा तीर्थ स्थानों पर होता था।
- स्तूप के महत्त्वपूर्ण हिस्से
- वेदिका (रेलिंग): इसका निर्माण स्तूप की सुरक्षा के लिये होता था।
- मेधि (कुर्सी)– वह चबूतरा था, जिसपर स्तूप का मुख्य हिस्सा आधारित होता था।
- अंड- स्तूप का अर्द्धगोलाकार हिस्सा होता था।
- हर्मिका- स्तूप के शिखर पर अस्थि की रक्षा के लिये।
- छत्र- धार्मिक चिह्न का प्रतीक।
- सोपान- मेधि पर चढ़ने-उतरने हेतु सीढ़ी।
- चैत्यः चैत्य का शाब्दिक अर्थ होता है-चिता संबंधी। एक चैत्य एक बौद्ध मंदिर है जिसमें एक स्तूप समाहित होता है। पूजार्थक स्तूप को चैत्य कहा जाता है।
- विहार:बौद्ध चैत्यों के पास भिक्षुओं के रहने के लिये आवास बनाया जाता था, जिसे ‘विहार’ कहा जाता था। चैत्यों के उपासना स्थल में परिवर्तित हो जाने के कारण उसके समीप ही विहार का निर्माण होने लगा।
- प्रसिद्ध बौद्ध स्थल
- महाबोधि मंदिर (बिहार),
- द वाट थाई मंदिर,
- महापरिनिर्वाण मंदिर (उत्तर प्रदेश),
- चौखंडी स्तूप,
- धर्मराजिका स्तूप,
- धमेख स्तूप (उत्तर प्रदेश),
- नामड्रोलिंग न्यिंगमापा मॉनेस्ट्री (कर्नाटक) इत्यादि।
- बौद्ध धर्म की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही। साँची, भरहुत, अमरावती के स्तूप तथा अशोक के शिला स्तम्भों, कार्ले की बौद्ध गुफाएँ, अजंता, एलोरा, बाघ व बराबर की गुफाएँ इसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है।
- बुद्ध की प्रथम मूर्ति संभवतः मथुरा कला में बनी थी। सर्वाधिक | बुद्ध मूर्तियों का निर्माण गांधार शैली में हुआ है।
- बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिये चार बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया।
- बौद्ध संगीतियाँ
- प्रथम संगीति – राजगृह , सप्तपर्णिगुफा में – 483 ई.पू.
- शासनकाल – अजातशत्रु
- अध्यक्ष – महाकस्सप
- बुद्ध के उपदेशों को सुत्तपिटक तथा विनयपिटक में अलग- अलग संकलित किया
- द्वितीय संगीति – वैशाली – 383 ई.पू.
- शासनकाल – कालाशोक
- अध्यक्ष – साबकमीर(सुबुकामी)
- भिक्षुओं में मतभेद के कारण बौद्ध संघ (स्थविर एवं महासधिक में विभाजित
- तृतीय संगीति – पाटलिपुत्र – 250 ई.पू.
- शासनकाल – अशोक
- अध्यक्ष – मोगलिपुत्ततिस्स
- अभिधम्मपिटक (तीसरा पिटक) का संकलन
- चतुर्थ संगीति – कुंडलवन (कश्मीर) – लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी
- शासनकाल – कनिष्क
- अध्यक्ष – वसुमित्र
- बौद्ध धर्म का हीनयान एवं महायान संप्रदायों में विभाजन हीनयान में वस्तुतःस्थविरवादी तथा महायान महासंधिक थे।
- प्रथम संगीति – राजगृह , सप्तपर्णिगुफा में – 483 ई.पू.
- हीनयान-महायान में अंतर
- हीनयान के प्रमुख संप्रदाय हैं-वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक।
- स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी तथा सम्मितीय हीनयान के अन्य उपसंप्रदाय हैं।
- बौद्ध धर्म के अंतर्गत सर्वास्तिवादियों की मान्यता थी कि फिनोमिना के अवयव पूर्णतः क्षणिक नहीं हैं, अपितु अव्यक्त रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं।
- महायान बौद्ध संप्रदाय के दो मुख्य भाग हैं-
- शून्यवाद या माध्यमिका एवं
- विज्ञानवाद या योगाचार।
- हीनयान में बुद्ध महापुरुष के रूप में हैं, जबकि महायान में देवता के रूप में स्थापित हो गए।
- हीनयान में बुद्ध को प्रतीकों के रूप में दर्शाया गया है, जबकि महायान में मूर्तिपूजा शुरू हो गई।
- हीनयान स्वयं के प्रयत्नों पर बल देता है, जबकि महायान गुणों के स्थानांतरण पर बल देता है।
- हीनयान का आदर्श है- ‘अर्हत पद की प्राप्ति‘ जबकि महायान में ‘बोधिसत्व‘ की परिकल्पना मौजूद है।
- बोधिसत्व
- महायान का आदर्श बोधिसत्व है। बोधिसत्व करुणामय माने गए हैंजो समस्त प्राणियों को प्रबोध के मार्ग पर चलने में सहायता करने के लिये स्वयं की निर्वाण प्राप्ति विलंबित करते हैं।
- ये मानव अथवा पशु किसी रूप में भी हो सकते हैं।
- महायान का आदर्श बोधिसत्व ‘अवलोकितेश्वर‘ था जिसे ‘पदमपाणि’,’अमिताभ’, ‘मंजूनाथ’,’मैत्रेय’ (भावी) आदि नामों से भी जाना जाता है।
- नोट: कन्हेरी शैलकृत गुफा में ग्यारह सिरों के बोधिसत्व का अंकन मिलता है।
- वज्रयान संप्रदाय
- 7वीं-8वीं शताब्दी के आते-आते बौद्ध धर्म के नियमों में और परिवर्तन आया, परिणामस्वरूप वज्रयान संप्रदाय का उदय हुआ।
- इस संप्रदाय के अनुयायी बुद्ध को अलौकिक शक्तियों वाला पुरुष मानते थे।
- इस संप्रदाय के सिद्धांत मंजुश्री मूल कल्प’ तथा ‘गुह्य समाज’ नामक ग्रंथों में मिलते हैं।
- इसमें तंत्र-मंत्र पर बल दिया गया और बुद्ध को देवी तारा से जोड़ दिया गया।
- वज्रयान साधु, गुह्य साधना का प्रयोग करने लगे और पंचमकार (मद्य, माँस, मैथुन, मत्स्य, मुद्रा) की साधना करने लगे।
- वज्रयान संप्रदाय के अंतर्गत 10वीं शताब्दी में एक अन्य संप्रदाय कालचक्रयान अस्तित्व में आया, इसमें सर्वोच्च देवता श्री कालचक्र को माना गया।
- यह संप्रदाय तिब्बत एवं चीन में विशेष रूप से प्रचलित हुआ।
- बौद्ध साहित्य
- महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरांत आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गए त्रिपिटक संभवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्म ग्रंथ हैं।
- ये त्रिपिटक सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक के नाम से जाने जाते हैं।
- सुत्तपिटक
- ‘सुत्त’ का शाब्दिक अर्थ है-धर्मोपदेश।
- सुत्तपिटक में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख है।
- यह पिटक पाँच निकायों में विभाजित है
- 1. दीर्घ निकायः इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन के आखिरी समय, अंतिम उपदेशों, मृत्यु तथा अंत्येष्टि का वर्णन किया गया है। .
- 2. मज्झिम निकायः इसमें महात्मा बुद्ध को कहीं साधारण मनुष्य तो कहीं अलौकिक शक्ति वाले देव के रूप में वर्णित किया गया है।
- 3. संयुक्त निकायः गद्य एवं पद्य दोनों शैलियों के प्रयोग वाला यह निकाय अनेक संयुक्तों का संकलन मात्र है। इसमें मज्झिम प्रतिपदा एवं आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख मिलता है।
- 4. अंगुत्तर निकायः इसमें महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में कही जाने वाली बातों का वर्णन है। इसमें छठी शताब्दी ई.पू . के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
- 5. खहक निकायः भाषा व विषय-शैली की दृष्टि से सभी निकाय से अलग, लघु ग्रंथों के संकलन वाला यह निकाय अपने भाग में स्वतंत्र एवं पूर्ण है।
- सुत्तपिटक की रचना आनंद ने की थी।
- विनयपिटक
- इसमें बौद्ध मठों में रहने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों के अनुशासन संबंधी नियम दिये गए हैं।
- बौद्ध संघ की कार्यप्रणाली की व्यवस्था भी इसी ग्रंथ में उल्लिखित है। यह सुत्तविभंग, खंदक तथा परिवार में विभक्त है।
- इसकी रचना उपालि ने की थी।
- अभिधम्मपिटक
- इसमें महात्मा बुद्ध के उपदेशों एवं सिद्धांतों तथा बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या की गई है।
- एक मान्यता के अनुसार इस पिटक का संकलन अशोक के समय में संपन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोगलिपुत्ततिस्स ने किया।
- त्रिपिटक के अतिरिक्त कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी पालि भाषा में लिखे गए हैं। ये हैं
- मिलिंदपन्होः इससे ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के भारतीय जनजीवन के विषय में जानकारी मिलती है। इसमें यूनानी शासक मिनाण्डर एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच बौद्ध मत पर वार्ता का वर्णन मिलता है।
- दीपवंशः सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला चतुर्थ शताब्दी ई. में रचित यह पहला ग्रंथ है।
- महावंशः इस ग्रंथ में मगध के राजाओं की क्रमबद्ध सूची मिलती है। इसके रचयिता मदंत महानाम (5वीं-6ठी शताब्दी ई. में) हैं।
- जातक कथाएँ: इसमें बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ हैं। यह पालि भाषा में रचित है।
- महावस्तुः यह ‘विनयपिटक’ से संबंधित ग्रंथ है।
- बुद्ध की प्रमुख मुद्राएँ
- धर्मचक्र मुद्रा – बुद्ध की यह मुद्रा उनके जीवनकाल के उन महत्त्वपूर्ण क्षणों के ऊपर केंद्रित है, जब वे प्रबोधन के पश्चात् सारनाथ के कुरंग उपवन में पहली बार धर्मोपदेश दे रहे थे।
- अभय मुद्रा – महात्मा बुद्ध की यह मुद्रा शांति, सुरक्षा, दयालुता एवं भयमुक्तता का प्रतीक है।
- भूमिस्पर्श मुद्रा – बुद्ध की यह भाव-भंगिमा बोधगया में उनके ज्ञान प्राप्ति (प्रबोधन) की संकेतक है।
- ज्ञान मुद्रा – बुद्ध के अंगूठे के स्पर्श से चक्र के निर्माण और हथेली से सीने को स्पर्श, ज्ञान मुद्रा को प्रदर्शित करती है।
- वरद मुद्रा – यह मुद्रा ऊर्जा की प्राप्ति के लिये पूर्णतः समर्पित होने का गुण सिखाती है।
- बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का कारण
- जटिल दार्शनिक वाद-विवाद का न होना।
- लोकभाषा ‘पालि’ में उपदेश देना।
- बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त होना।
- सामाजिक समानता का सिद्धांत।
- (बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था को अस्वीकृत किया गया)।
- बौद्ध धर्म का लचीलापन; इसमें मध्यम मार्ग का रास्ता बताया गया था।
- समय-समय पर बौद्ध संगीतियों का आयोजन।
- बौद्ध भिक्षु
- बुद्ध के अनुयायियों के दो वर्ग थे- उपासक, जो परिवार के साथ रहते थे और भिक्षु, जिन्होंने गृह जीवन त्यागकर संन्यासी जीवन अपना लिया।
- वे एक संगठन के रूप में इकट्ठा रहते थे जिसे बुद्ध ने संघ कहा।
- स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दी गई।
- बौद्ध संघ के सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त थे।
बौद्ध धर्म की उपादेयता और प्रभाव
- आर्थिक क्षेत्र में – लोहे के फाल वाले हल से खेती करने से अनाजों के पैदावार में वृद्धि हुई तथा व्यापार और सिक्कों के प्रचलन से व्यापारियों और अमीरों को धन संचित करने का मौका मिला। किंतु, बौद्ध धर्म ने घोषणा की कि धन संचित नहीं करना चाहिये, क्योंकि धन दरिद्रता, घृणा, क्रूरता और हिंसा की जननी है। परिणामतः ‘धन लोलुपता में कमी आई।
- सामाजिक क्षेत्र में – बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिये अपने द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया और जिसने भी बौद्ध धर्म अपनाया, उसे हीनता से मुक्ति मिली।
- राजनीतिक क्षेत्र में – जिस शासक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, चाहे वह समकालीन हो या परवर्ती, अपनी नीति में अहिंसां को एक नीति के रूप में लागू किया, जैसे-अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर ‘धम्म नीति’ का अनुसरण किया तथा लंबे समय तक शांति के साथ अपने साम्राज्य पर शासन किया।
- सांस्कृतिक क्षेत्र में – प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का प्रभाव परिलक्षित हुआ। श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थर पर उकेरा है, उदाहरण के लिये-साँची, भरहुत, सारनाथ, कौशांबी आदि स्थानों पर।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण
- बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे
- बुद्ध को ब्राह्मणों ने विष्णु का अवतार मानकर वैष्णव धर्म में समाहित कर लिया। अतः बौद्ध धर्म ने अपनी विशिष्ट पहचान खो दी।
- बौद्ध धर्म में कर्मकांडों का प्रारंभ (अनुष्ठान, विधान)।
- बौद्ध भिक्षुओं का आम लोगों से दूर जाना।
- पालि भाषा त्यागकर संस्कृत को अपनाना।
- बौद्ध मठ एवं विहार कुरीतियों के केंद्र बन गए।
- बौद्ध मठों में अत्यधिक धन संचय होने के कारण यह आक्रमणकारियों का भी शिकार हुआ।
- राजकीय संरक्षण का अंत (शुंग, कण्व, आंध्र-सातवाहन तथा गुप्त वंशीय शासकों ने ब्राह्मण धर्म को संरक्षण प्रदान किया, बौद्ध धर्म को नहीं। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म एक राष्ट्रीय धर्म न रहा और इस धर्म का पतन होने लगा।)
- शैव धर्म से बौद्ध धर्म की प्रतिद्वंद्विता हुई। बंगाल के शैव शासक शशांक ने बोधगया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया।
बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म में समानता व असमानता के बिंदु
- समानता
- दोनों धर्मों के संस्थापक क्षत्रिय कुल के थे।
- दोनों धर्मों में वेदों की प्रमाण्यता के प्रति अनास्था है।
- कर्मकांडों के फलीभूत होने का निषेध किया गया है।
- कर्म व पुनर्जन्म दोनों मानते हैं।
- शूद्रों व महिलाओं के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की संभावना का विरोध किया गया।
- असमानता
- बौद्ध निर्वाण इसी जीवन में संभव मानते हैं, जबकि जैन शरीर से मुक्ति के पश्चात् इसे संभव, मानते हैं।
- बौद्ध मत मुक्ति हेतु मध्यम मार्ग का उपदेश देता है, जबकि जैन कठोर साधना पर बल देता है।
- बुद्ध ने जाति प्रथा की कठोर निंदा की है, जबकि महावीर ने नहीं।
- महावीर ने बुद्ध की अपेक्षा अहिंसा व अपरिग्रह पर अधिक बल दिया है।
- मुख्यतः बौद्ध धर्म में ‘पालि’ तथा जैन धर्म में ‘प्राकृत’ भाषा का प्रयोग किया गया है।