गुप्तोत्तर काल/पूर्व मध्यकाल (Gupta Period)

थानेश्वर का पूष्यभूति (वर्धन) वंश 

  •  छठी शताब्दी के मध्य तक लगभग गुप्त साम्राज्य विखंडित हो गया। गुप्त वंश के पतन के बाद जिन नए वंशों का उदय हुआ, उनका विवरण निम्नलिखित है

राजवंश 

स्थान

मैत्रक

वल्लभी

मौखरि

कन्नौज

पुष्यभूति

थानेश्वर 

परवर्ती गुप्त

मगध 

चंद्र (गौड़)

शशांक 

थानेश्वर का पूष्यभूति (वर्धन) वंश 

  • गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् उत्तर भारत के राजवंशों में थानेश्वर का पुष्यभूति वंश सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली सिद्ध हुआ। 
  • यही राजवंश वर्धन वंश के नाम से प्रसिद्ध है। 
  •  पुष्यभूति वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। इस वंश को वैश्य जाति से संबंधित माना जाता है।
  •  पुष्यभूति गुप्तों के सामंत थे, किंतु हूणों के आक्रमण के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। 
  • यह राजवंश हूणों के साथ हुए अपने संघर्ष के कारण प्रसिद्ध हुआ। 
  • इस वंश में नरवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकरवर्धन जैसे शासक हुए। 
  •  प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन एवं हर्षवर्धन तथा पुत्री राज्यश्री थी। 
  • राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि वंश के शासक गृहवर्मन के साथ हुआ था। 
  • गाड़ शासक शशांक द्वारा राज्यवर्धन को मार दिये जाने के बाद हर्षवर्धन शासक बना।

ह्वेनसांग का विवरण 

  • हर्षवर्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग स्थल मार्ग से भारत आया। 
  • वह चीन से 629 ई. में चला और सारे रास्ते घूमते हुए भारत पहुँचा। भारत में लंबे अरसे तक ठहर कर 645 ई. में चीन लौट गया। 
  • वह नालंदा (बिहार) के बौद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ने और भारत से बौद्ध ग्रंथ संग्रह करने के उद्देश्य से आया था। 
  • उसने अपना ग्रंथ ‘सी-यू-की’ के नाम से लिखा। 
  • ह्वेनसांग को ‘यात्रियों का राजकुमार‘ तथा ‘वर्तमान शाक्यमुनि‘ कहा गया। 
  • हवेनसांग के अनुसार, भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त था, जिसमें ब्राह्मण सर्वोच्च थे। उसने शूद्रों को किसान कहा था। उसके अनुसार, भारतीय लोग दाँतों पर काला निशान लगाते थे| और कान में कुंडल पहनते थे। 

हर्षवर्धन (606-647 ई)

  • राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में हर्षवर्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा। 
  • ह्वेनसांग हर्ष को “शिलादित्य‘ के नाम से संबोधित करता है। 
  • हर्ष का साम्राज्य सामंती संगठन पर आधारित था.
  • हर्ष की उपाधियोंपरमभट्टारक, महाराजाधिराज, सकलोत्तरापथेश्वर, चक्रवर्ती, सार्वभौम, परमेश्वर, परममाहेश्वर आदि है। 
  • गुप्तों के विघटन के बाद उत्तर भारत में जिस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के युग का प्रारंभ हुआ, हर्षवर्धन के राज्यारोहण के साथ ही उसकी समाप्ति हुई। वर्धन वंश के इस यशस्वी सम्राट ने अपने यश के द्वारा उत्तर भारत के विशाल भू-भाग को अपने साम्राज्य के अंतर्गत संगठित किया। 

हर्ष का शासनकाल 

  • हर्ष ने शशांक (गौड़ शासक) को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने उत्तरी भारत के अन्य राजाओं को भी अपने अधीन कर लिया। 
  • ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार, हर्ष ने उत्तरी भारत के पाँच राज्यों को अपने अधीन किया; संभवतः ये पाँच राज्य-पंजाब, कन्नौज, गौड़ या बंगाल, मिथिला और उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) थे। 
  • पश्चिम में उसने वल्लभी के शासक ‘ध्रुवसेन द्वितीय‘ से अपनी पुत्री का विवाह कर शत्रुता समाप्त की और मैत्री संबंध स्थापित किया। 
  • हर्ष एवं पुलकेशिनं द्वितीय के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई। ऐहोल प्रशस्ति में इसका उल्लेख मिलता है। पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का प्रतापी शासक था।
  •  हर्ष ने कश्मीर पर आक्रमण कर वहाँ से भगवान बुद्ध का दाँत कन्नौज के निकट संघाराम में स्थापित किया। 
  • कश्मीर अभियान के पश्चात् हर्ष ने दक्षिण अभियान किया। हर्ष ने नर्मदा नदी के दक्षिण में सैनिक अभियान. कर कुंतल, चोल और काँची की विजय की।
  • हर्ष के साम्राज्य में प्रायः संपूर्ण उत्तर भारत सम्मिलित था। यह उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तथा विंध्य पर्वत तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र से पश्चिम में सौराष्ट्र एवं काठियावाड़ तक विस्तृत था। 
  • हर्ष ने संभवतः 647 ई. तक शासन किया। 
  • चूँकि उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था, अतः उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज पर अर्जुन नामक किसी स्थानीय शासक ने अधिकार कर लिया। 

हर्षकालीन प्रशासन 

  • हर्ष के शासनकाल तथा समाज की जानकारी बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित‘ और चीनी यात्री ह्वेनसांग के संस्मरण द्वारा मिलती है। 
  • हर्षवर्धन ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, जिसकी सीमाएँ उत्तर में हिमाच्छादित पर्वतों तक, दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक, पूर्व में गंजाम तथा पश्चिम में वल्लभी तक विस्तृत थी। 
  • हर्ष का साम्राज्य सामंती संगठन पर आधारित था। 
  • राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए ग्राम, विषय, भुक्ति, राष्ट्र में विभाजित था। 

प्रधान

ग्राम 

शासन की सबसे छोटी इकाई

ग्रामाक्षपटलिक

विषय

जिले के समान

भुक्ति

प्रांत

राष्ट्र

  • ह्वेनसांग हर्ष की सेना को ‘चतुरंगिणी‘ कहता है, जिसमें पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथी की टुकड़ियाँ थीं। 
  • सम्राट को सहायता देने के लिये एक मंत्रिपरिषद् होती थी।
  •  मंत्री को सचिव या अमात्य कहा जाता था। 
  • भंडि हर्षवर्धन का प्रधान सचिव था। 
  • अवंती विदेश सचिव था जिसका संज्ञा महासंधिविग्रहक थी। 
  • सिंहनाद उनका प्रधान सेनापति था। 
  • कुंतल अश्वारोही सेना का सर्वोच्च अधिकारी था तथा स्कंदगुप्त गज़ सेना का प्रधान था। 
  • राजस्थानीय संभवतः वायसराय या गवर्नर होता था। 
  • न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष के राज्य में कानून व्यवस्था अच्छी नहीं थी। राज्य में अपराध के लिये कठोर दंड का प्रावधान था। 
  • इस काल में राज्य को सर्वाधिक आय भूमि से होती थी। 
  • ‘भोगिक‘ कर वसूलने वाला तथा ‘पुस्तपाल‘ ज़मीन का हिसाब रखने वाला पदाधिकारी था। 
  • उपज का छठा भाग राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था। 

हर्ष और बौद्ध धर्म 

  • हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के उपासक थे। शुरू में हर्ष भी अपने कुलदेवता शिव का परम भक्त था। 
  • परंतु चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राजाश्रय दिया तथा वह पूर्णतः बौद्ध बन गया। 
  •  हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का मुख्य केंद्र था।  
  • हर्ष ने कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का  आयोजन किया था। 
  • कुंभ मेले को प्रारंभ करने का श्रेय हर्षवर्धन को ही दिया जाता है। 

 हर्षकालीन साहित्य

  •  हर्षवर्धन के दरबार के प्रमुख विद्वान एवं उनकी रचनाएँ
    • बाणभट्ट-हर्षचरित, कादंबरी
    • मयूर-सूर्यशतक 
  • हर्षवर्धन ने स्वयं तीन नाटकों- ‘प्रियदर्शिका’, ‘रत्नावली’, ‘नागानंद‘ की रचना की। (हालाँकि, इन रचनाओं को ‘धावक‘ नामक एक कवि को लिखने का श्रेय भी दिया जाता है।) 
  • इस काल में जयसेन नामक विद्वान था, जो स्वयं को कालिदास एवं भास के समान बताता था। 

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य 

  • हर्ष के अधीनस्थ शासक ‘महाराज’ अथवा ‘महासामंत‘ कहे जाते थे। 
  •  प्रशासन की सुविधा के लिये हर्ष का साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था। 
  • प्रांत को ‘भुक्ति‘ कहा जाता था। 
  • ग्राम, शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम शासन का प्रधान ग्रामाक्षपटलिक कहा जाता था। 
  • ‘हर्षचरित’ में सिंचाई के साधन के रूप में तुलायंत्र (जलपंप) का उल्लेख मिलता है। 
  •  हर्ष के समय में मथुरा सूती वस्त्रों के निर्माण के लिये प्रसिद्ध था। हर्ष का शासन उत्तर में कश्मीर को छोड़कर सभी प्रांतों में था।

कन्नौज के लिये त्रिपक्षीय संघर्ष 

  • हर्ष के पश्चात् कन्नौज विभिन्न शक्तियों का केंद्र बन गया। 
  • आठवीं शताब्दी में कन्नौज पर अधिकार करने के लिये तीन बड़ी शक्तियों-पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट के बीच संघर्ष आरंभ हो गया। । यह संघर्ष लगभग 200 वर्षों तक चला। 
  • कन्नौज पर स्वामित्व के लिये संघर्ष का आरंभ पाल शासक धर्मपाल ने किया था। इस त्रिपक्षीय संघर्ष का कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला। यह संघर्ष अनेक चरणों में संपन्न हुआ। 
  • प्रथम चरण में पाल शासक धर्मपाल, प्रतिहार शासक वत्सराज तथा राष्ट्रकूट शासक ध्रुव सम्मिलित हुए। 
  • त्रिपक्षीय संघर्ष के फलस्वरूप कन्नौज पर अंतिम रूप से गुर्जर प्रतिहार शासकों का अधिकार हो गया।

बंगाल का पाल वश

  • ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि 8वीं शताब्दी के मध्य में बंगाल में चार राज्य थे- 
    • 1. पुंड्रवर्धन 2. कर्णसुवर्ण 3. समतट 4. ताम्रलिप्ति। 
  • पाल शासकों के साम्राज्य का विस्तारं संपूर्ण बंगाल, बिहार तथा कन्नौज तक था। उनका शासन खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था।

प्रमुख शासक 

गोपाल (750-770 ई.) 

  • आठवीं शताब्दी के मध्य बंगाल में अशांति एवं अव्यवस्था फैली हुई थी। बताया जाता है कि बंगाल में फैली अशांति को दबाने के लिये कुछ प्रमुख लोगों ने गोपाल को राजा बनाया। 
  • उसने 750 ई. में पाल वंश की स्थापना की। 
  • गोपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था।
  •  उसने ‘ओदंतपुरी’ में एक मठ का निर्माण करवाया था। 

धर्मपाल (770-810 ई.) 

  •  गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल 770 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने बंगाल को उत्तरी भारत के प्रमुख राज्यों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। 
  • धर्मपाल कन्नौज के लिये त्रिकोणात्मक संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्नौज के शासक इंद्रायुध को परास्त कर चक्रायुध को अपने सरक्षण में कन्नौज की गद्दी पर बैठाया। 
  •  धर्मपाल ने चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद भव्य दरबार का आयोजन किया। 
  • गुजराती कवि सोड्ढल ने उसे ‘उत्तरापथ स्वामी‘ की उपाधि से संबोधित किया। धर्मपाल के लेखों में उसे ‘परम सौगात‘ कहा गया है। 
  • धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने अनेक मठ एवं बौद्ध विहार बनवाए। 
  • उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय (भागलपुर, बिहार) तथा सोमपुर महाविहार (वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित है) की स्थापना की। 

देवपाल (810-850 ई.) 

  • धर्मपाल के बाद देवपाल (धर्मपाल का पुत्र) गद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया तथा मुंगेर को अपनी राजधानी बनाया। 
  • देवपाल के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली बताया। 
  • देवपाल के पश्चात् कुछ समय के लिये पाल शासकों का साम्राज्य बंगाल एवं बिहार तक ही सीमित रह गया। देवपाल के बाद विग्रहपाल, नारायणपाल, राज्यपाल, गोपाल द्वितीय, विग्रहपाल द्वितीय शासक हुए। 
  • पाल शासक महिपाल प्रथम के समय पालों की शक्ति पुनर्स्थापित हुई। 
  • वह बौद्ध धर्म का संरक्षक था।
  •  ‘लोकेश्वर शतक’ के रचयिता ‘वज्रदत्त’ को उसने संरक्षण दिया। 

नोटः शैलेंद्र शासक बौद्ध थे। उन्होंने अपने कई दूत पाल दरबार में भेजे और पाल शासक से नालंदा में एक विहार बनाने की अनुमति मांगी। उन्होंने पाल राजा देवपाल से इस विहार के खर्च के लिये पाँच गाँवों की आमदनी  देने का अनुरोध किया। यह अनुरोध स्वीकार कर लिया गया। 

महिपाल प्रथम (978-1038 ई.)

  •  महिपाल को पाल वंश का दूसरा संस्थापक माना जाता है। 
  • उसके काल में राजेंद्र चोल ने बंगाल पर आक्रमण किया तथा पाल शासक को पराजित किया। 
  • उसने बौद्ध भिक्षु अतिशा के नेतत्व में एक धर्म प्रचारक मंडल तिब्बत भेजा था।

 रामपाल (1075-1120 ई.) 

  • पाल वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक रामपाल को माना जाता है। 
  • उसके शासनकाल में कैवर्तों का विद्रोह हुआ था, जिसका उल्लेख ‘संध्याकरनंदी‘ द्वारा रचित ‘रामचरित‘ पुस्तक में मिलता है।
  •  रामपाल के बाद कुमारपाल, गोपाल तृतीय तथा मदनपाल ने लगभग 30 वर्षों तक शासन किया। 
  • रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक राज्य विस्तार किया था।

पालकालीन संस्कृति

  • पाल शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।
  •  उस काल में संतरक्षित, कमलशील और दीपंकर नामक विद्वानों ने तिब्बत की यात्रा की। 
  • पाल कलाकारों को कांस्य मूर्तियाँ बनाने में महारत हासिल थी।
  •  बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान संप्रदायों के प्रभावों से पाल शासनकाल में मूर्तिकला का विकास हुआ।
  • इस कला के प्रमुख केंद्र थे-नालंदा, बोधगया एवं कुर्किहार। 
  • संस्कृत के अतिरिक्त बांग्ला लिपि एवं भाषा तथा जनभाषा की प्रगति पालों के अधीन हुई। 
  • हिंदू काव्य ‘दायभाग‘ के जन्मदाता जीमूतवाहन को पाल शासकों का संरक्षण प्राप्त था। 

बंगाल का सेन वंश 

  • पाल वंश के पतन के पश्चात् बंगाल के शासन की बागडोर सेन राजवंश के हाथों में आ गई। 
  • सेन वंश की स्थापना सामंतसेन ने ‘राढ़’ नामक स्थान पर की।

प्रमुख शासक 

विजयसेन (1095-1158 ई.)

  • विजयसेन, सामंतसेन का उत्तराधिकारी था। 
  • वह सेन वंश का प्रथम महान शासक था। 
  • देवपाड़ा प्रशस्ति (कवि धोयी द्वारा रचित) में विजयसेन की यशस्वी विजयों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि उसने नव्य/नान्य एवं वीर (नेपाल एवं मिथिला) को पराजित किया। 
  • विजयसेन ने विजयपुरी और विक्रमपुर नामक दो राजधानियों की स्थापना की। 
  • उसकी उपलब्धियों से प्रभावित होकर श्री हर्ष नामक कवि ने उसकी प्रशंसा में विजयप्रशस्ति काव्य की रचना की। 
  • विजयसेन शैव धर्म का अनुयायी था, जिसकी पुष्टि उसकी ‘अरिराजवृषभशंकर’ की उपाधि से स्पष्ट होती है। 
  • उसकी अन्य उपाधियाँ परमेश्वर, परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज थीं। 

बल्लालसेन (1158-1178 ई.) 

  • बल्लालसेन विजयसेन का उत्तराधिकारी था।
  •  ‘लघुभारत’ एवं ‘बल्लालचरित’ ग्रंथ से यह प्रमाणित होता है कि बल्लाल का अधिकार मिथिला और उत्तरी बिहार पर था। 
  • इसके अतिरिक्त राधा, वारेंद्र, बागडी एवं बंगाल बल्लाल सेन के अन्य चार प्रांत थे।
  •  बल्लालसेन स्वयं विद्वान तथा विद्वानों का संरक्षक था। 
  • उसने ‘दानसागर’ ग्रंथ की रचना की थी तथा एक अन्य ग्रंथ ‘अद्भुतसागर’ की रचना को प्रारंभ किया था, किंतु उसे पूर्ण नहीं कर पाया। 
  •  बल्लालसेन को बंगाल में जाति प्रथा तथा कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय प्राप्त है। 
  • उसे बंगाल के ब्राह्मणों और कायस्थों में कुलीन प्रथा का प्रवर्तक माना जाता है।
  • बल्लालसेन ने गौडेश्वर, परममाहेश्वर, निःशंकशंकर, परमभट्टारक, महाराजाधिराज जैसी उपाधियाँ धारण की। गौडेश्वर तथा निःशंकशंकर की उपाधि से उसके शैव मतावलंबी होने का आभास होता है। 
  • उसने जीवन के अंतिम समय में संन्यास ले लिया था। 

लक्ष्मण सेन (1179-1205 ई.) 

  • बल्लालसेन का उत्तराधिकारी लक्ष्मणसेन लगभग 1179 ई. में गद्दी पर बैठा। उसका शासन संपूर्ण बंगाल पर था। 
  • उसने बंगाल की प्राचीन राजधानी गौड़ के निकट ही एक अन्य राजधानी लक्ष्मणवती (लखनौती) की स्थापना की। 
  •  लक्ष्मणसेन ने गहड़वाल शासक जयचंद को पराजित किया था। 
  • 1202 ई. में बख्तियार खिलजी के द्वारा उसकी राजधानी लखनौती पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया गया। इस घटना का वर्णन मिनहाज ने ‘तबकात-ए-नासिरी‘ में किया है। 
  • लक्ष्मणसेन स्वयं एक विद्वान था। उसने अपने पिता बल्लालसेन द्वारा प्रारंभ किये गए ‘अद्भुतसागर’ नामक ग्रंथ की रचना को पूरा किया। 
  • श्रीधर उसका दरबारी कवि था। 
  • लक्ष्मणसेन की राजसभा में ‘गीत गोविंद के लेखक जयदेव, ‘पवनदूत’ के लेखक धोयी, ‘ब्राह्मणसर्वस्व’ के रचयिता हलायुध आदि निवास करते थे। 
  • हलायुध उसका प्रधान न्यायाधीश तथा मुख्यमंत्री था। 
  • लक्ष्मणसेन वैष्णव धर्म का अनुयायी था। लेखों में उसे ‘परमभागवत’ की उपाधि प्रदान की गई है।
  • लक्ष्मणसेन ने ‘लक्ष्मण संवत्’ का प्रचलन किया था। 

कश्मीर के राजवंश 

  • कश्मीर के हिंदू राज्य के विषय में हमें कल्हण की ‘राजतरंगिणी‘ से जानकारी मिलती है। 
  • कश्मीर पर शासन करने वाले शासक वंश इस प्रकार हैं – 1. कार्कोट वंश 2. उत्पल वंश 3. लोहार वंश

कार्कोट वंश 

  •  सातवीं शताब्दी ई. में दुर्लभवर्धन नामक व्यक्ति ने कश्मीर में कार्कोट वंश की स्थापना की थी। 
  • ह्वेनसांग (युवान चांग) उसके शासनकाल में कश्मीर की यात्रा पर आया था। 
  •  दुर्लभवर्धन के बाद उसका पुत्र दुर्लभक (632-682 ई.) अगला शासक हुआ। 
  • दुर्लभक के बाद चंद्रापीड राजा हुआ, जो एक न्यायप्रिय शासक था। तत्पश्चात् तारापीड शासक हुआ। कल्हण ने उसे क्रूर तथा निर्दयी बताया है। 
  • इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा ललितादित्य मुक्तापीड (724-760 ई.) था। उसने कश्मीर में मार्तण्ड मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • यह मंदिर कश्मीर की स्थापत्य तथा तक्षण कला का सुंदर उदाहरण है। 
  • मुक्तापीड की सबसे उल्लेखनीय सफलता कन्नौज नरेश यशोवर्मन को पराजित करना था। 
  • कार्कोट वंश का अंतिम शासक जयापीड था। 
  • 810 ई. में उसकी मृत्यु के साथ ही कार्कोट वंश के शासन की समाप्ति हो गई। 

उत्पल वंश 

  • कार्कोट वंश के बाद कश्मीर में उत्पल वंश का शासन हुआ। 
  • कश्मीर के उत्पल वंश की स्थापना अवंतिवर्मन (855-883 ई.) ने की थी। उसने अवंतिवर्मन नामक नगर की भी स्थापना की। 
  • उसके अभियंता सूय्य ने सिंचाई के लिये नहरों का निर्माण करवाया। 
  • 980 ई. में उत्पल वंश की रानी दिदा एक महत्त्वाकांक्षिणी शासिका
  •  1003 ई. में रानी की मृत्यु के बाद संग्रामराज शासक बना, जिसने कश्मीर में लोहार वंश की नींव रखी। 

लोहार वंश

  • उत्पल वंश के बाद कश्मीर पर लोहार वंश का शासन हुआ। 
  • इस वंश का संस्थापक संग्रामराज (1003-1028 ई.) था। 
  • संग्रामराज के बाद अनंत राजा हुआ। उसकी पत्नी सूर्यमती प्रशासन को सुधारने में उसकी सहायता करती थी। 
  • लोहार वंश का शासक हर्ष विद्वान, कवि तथा कई भाषाओं का ज्ञाता था। 
  • कल्हण हर्ष का आश्रित कवि था। 
  • हर्षः हर्ष को ‘कश्मीर का नीरो’ कहा जाता है। 
  • उसके शासनकाल में कश्मीर में भयानक अकाल पड़ा था। राज्य में आंतरिक अशांति के कारण उत्सल एवं सुस्सल नामक भाइयों ने विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह में लगभग 1101 ई. में हर्ष एवं उसके पुत्र भोज की हत्या कर दी गई।
  • कल्हणः कल्हण राजतरंगिणी का लेखक तथा हर्ष का आश्रित कवि था। 
  • उसने राजतरंगिणी की रचना लोहार वंश के अंतिम शासक जयसिंह के समय में की थी। 
  • लोहार वंश का अंतिम शासक जयसिंह (1128-1155 ई.) था। 
  • उसन अपने शासनकाल में यवनों को परास्त किया। 
  • कल्हण का ‘राजतरंगिणी’ का विवरण जयसिंह के शासन के साथ ही समाप्त हो जाता है।
  • 1339 ई. में कश्मीर तुर्कों के कब्जे में आ गया। कश्मीर पर शासन करने वाले तुर्क शासकों में सर्वाधिक लोकप्रिय शासक ‘जैन-उल-अबिदीन‘. था, जिसे ‘कश्मीर का अकबर’ कहा जाता है।

राजपूत राजवंश 

  • उत्तर भारत में छठी शताब्दी के पश्चात् अधिकांश राजवंश राजपूत थे, इसलिये आधुनिक ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार सातवीं से बारहवीं शताब्दी के उत्तर भारतीय इतिहास को ‘राजपूत काल‘ माना जाता है। 
  • राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ विद्वान इसे भारत में रहने वाली एक जाति मानते हैं तो कुछ अन्य इन्हें विदेशियों की संतान। 
  • कुछ विद्वान राजपूतों को आबू पर्वत पर वशिष्ठ के अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ मानते हैं। यह सिद्धांत चंदबरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’ पर आधारित है। 
  • इस काल के राजपूत वंशों में गुर्जर प्रतिहार, चालुक्य, चौहान, परमार, गहड़वाल आदि प्रमुख थे। 

 गुर्जर प्रतिहार वंश

  • गुर्जर प्रतिहार वंश की उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। 
  • प्रतिहारों के अभिलेखों में उन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है। 
  • पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में सर्वप्रथम गुर्जर जाति का उल्लेख हुआ है। इस वंश का संस्थापक हरिश्चंद्र था, परंतु प्रथम वास्तविक महत्त्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था। 
  • प्रतिहारों का राज्य उत्तर भारत के व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ था। यह गंगा-यमुना दोआब, पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा तथा पंजाब के क्षेत्रों तक फैला हुआ था। 

प्रमुख शासक 

नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.)

  • नागभट्ट ने अरबों से लोहा लिया और पश्चिमी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की।
  •  ग्वालियर प्रशस्ति में उसे ‘मलेच्छों (अरबों) का नाशक‘ बताया गया है। 

वत्सराज (775-800 ई.) 

  • वत्सराज एक शक्तिशाली शासक था, जिसे प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। 
  • उसने त्रिपक्षीय संघर्ष में सर्वप्रथम भाग लिया तथा पाल वंश के शासक धर्मपाल को पराजित किया, किंतु राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हो गया। 
  • वत्सराज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.) गद्दी पर बैठा। उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया।

मिहिरभोज प्रथम (836-885 ई.) 

  •  मिहिरभोज इस वंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक था। 
  • कल्हण तथा अरब यात्री सुलेमान के विवरणों से भी हमें उसके काल की घटनाओं की जानकारी मिलती है।
  •  मिहिरभोज को अपने समय की दो प्रबल शक्तियों-पाल नरेश देवपाल तथा राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से पराजित होना पड़ा। 
  • उसने अपनी राजधानी कन्नौज बनाई थी। वह विष्णुभक्त था, उसने विष्णु के सम्मान में ‘आदिवराह’ एवं ‘प्रभास’ जैसी उपाधि धारण की। 
  •  मिहिरभोज की उपलब्धियों की चर्चा उसके ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख में की गई है। 

महेंद्रपाल प्रथम (885-910 ई.)

  •  मिहिरभोज के पश्चात् उसके पुत्र महेंद्रपाल प्रथम ने शासन किया। 
  • उसने राष्ट्रकूट  शासक इंद्र तृतीय को पराजित किया, किंतु उसे कश्मीरी शासक से युद्ध में पराजित होना पड़ा। 
  • महेंद्रपाल की राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे,जो उसके राजगुरु थे। राजशेखर ने कर्पूरमंजरी, काव्य मीमांसा, विद्धशालभंजिका, बालरामायण, भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्ध जैन ग्रंथों की रचना की।

महिपाल प्रथम (912-944 ई

  • महिपाल एक कुशल एवं प्रतापी शासक था। 
  • उसके शासनकाल में बगदाद निवासी अल-मसूदी (915916 ई.) गुजरात आया था। अल-मसूदी गुर्जर प्रतिहार को अल गुर्जर और राजा को ‘बौरा‘ कहकर पुकारता था, जो संभवतः आदिवराह का अशुद्ध उच्चारण है। 
  • महिपाल का शासनकाल शांति एवं समृद्धि का काल रहा है। 
  • राजशेखर उसे आर्यवर्त का महाराजाधिराज कहता है। 
  • राजशेखर को महेंद्रपाल प्रथम तथा महिपाल दोनों ने संरक्षण प्रदान किया था। 
  • महिपाल के बाद महेंद्रपाल-II, देवपाल, विनायक पाल-II, महिपाल-II तथा विजयपाल जैसे कमज़ोर शासक हुए। अतः उनके समय में प्रतिहार साम्राज्य के टूटने की गति और भी तेज़ हो गई। 
  • 963 ई. में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने प्रतिहार राजा को पराजित किया। 
  • 1018 ई. में महमूद गज़नवी ने कमज़ोर गुर्जर शासक राज्यपाल को  पराजित किया। 
  • राज्यपाल का पुत्र त्रिलोचनपाल भी 1019 ई. में महमूद गज़नवी से  पराजित हुआ। 
  • इस वंश का अंतिम शासक यशपाल था। 
  • गहड़वालों ने कन्नौज पर अधिकार कर गुर्जर प्रतिहार वंश का अंत कर दिया। 

कन्नौज का गहड़वाल वंश 

  • गहड़वालों का मूल निवास स्थान विंध्याचल का पर्वतीय वन प्रांत माना जाता है। 
  • चंद्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना की। 
  • दिल्ली के तोमरों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की। 
  • उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।

प्रमुख शासक 

गोविंदचंद्र (1114-1155 ई.)

  •  गोविंदचंद्र गहड़वाल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने आधुनिक पश्चिमी बिहार से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक का समस्त भाग अपने अधीन करके कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया। 
  • वह स्वयं बड़ा विद्वान था।
  •  उसे उसके लेखों में विविधविद्याविचारवाचस्पति‘ कहा गया है। 
  • लक्ष्मीधर गोविंदचंद्र का शांति एवं युद्ध मंत्री था। 
  • वह भी शास्त्रों का प्रकांड पंडित था। उसने ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रंथ की रचना की, जिससे तत्कालीन राजनीति, समाज एवं संस्कृति पर सुंदर प्रकाश पड़ता है। 

जयचंद (1170-1194 ई.) 

  • इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक जयचंद था। भारतीय लोक साहित्य तथा कथाओं में वह ‘राजा जयचंद’ के नाम से विख्यात है। 
  • 1194 ई. में चंदावर के युद्ध में वह मुहम्मद गौरी से पराजित हुआ तथा मारा गया। 
  • पूर्व की ओर विस्तार के प्रयास में जयचंद को बंगाल के शासक लक्ष्मणसेन द्वारा भी पराजित होना पड़ा था। 
  • जयचंद ने संस्कृत के प्रख्यात कवि श्रीहर्ष को संरक्षण प्रदान किया, जिसने ‘नषेधचरित‘ एवं ‘खंडन-खंड-खाद्य‘ की रचना की। 
  • अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने राजसूय यज्ञ भी किया था। 
  • कालांतर में इल्तुतमिश ने कन्नौज पर अधिकार कर गहड़वाल वंश के शासन को समाप्त कर दिया

शाकंभरी का चौहान वंश 

  •  7वीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकंभरी (सांभर एवं अजमेर के निकट) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है। 
  • इस वंश के प्रारंभिक इतिहास का ज्ञान हमें विग्रहराज-II के हर्ष प्रस्तर अभिलेख तथा सोमेश्वर के समय में बिजौलिया प्रस्तर लेख से होता है। 
  • चौहान, प्रतिहार शासकों के सामंत थे। 
  • 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में वाक्पतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र कर लिया।

प्रमुख शासक 

अजयराज 

  • अजयराज 12वीं शताब्दी में चौहान वंश का शासक बना। वह पृथ्वीराज प्रथम का पुत्र था। 
  • उसने अजमेर नगर की स्थापना की थी तथा उसे अपनी राजधानी बनाया था। 
  • अजयराज का उत्तराधिकारी अर्णोराज एक महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया। 

विग्रहराज चतुर्थ अथवा  वीसलदेव ( 1153-1163 ई.).

  • वीसलदेव की सबसे बड़ी सफलता तोमरों अपना सामंत बनाना था। 
  • वीसलदेव विजेता होने के साथ-साथ यशस्वी कवि और लेखक भी था। उसने ‘हरिकेल’ नामक एक संस्कृत नाटक की रचना की। इस नाटक के कुछ अंश ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ नामक मस्जिद क दीवारों पर उत्कीर्ण किये गए हैं। 
  • वीसलदेव ने अजमेर में सरस्वती का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। 
  • उसके दरबार में कथासरित्सागर के रचयिता सोमदेव रहते थे, जिन्होंने वीसलदेव के सम्मान में ‘ललितविग्रहराज’ नामक ग्रंथ की रचना की। 

पृथ्वीराज चौहान/पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)

  • पृथ्वीराज चौहान अथवा पृथ्वीराज-तृतीय को ‘रायपिथौरा‘ भी कहा जाता है।
  •  वह चौहान वंश का प्रसिद्ध राजा था। 
  • उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भू-भाग था। 
  • उसने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया।

पृथ्वीराज चौहान का युद्ध संघर्ष 

  • 1186 ई. में पृथ्वीराज चौहान ने गुजरात के चालुक्य शासक भीम द्वितीय पर आक्रमण किया। संभवतः परमार राजकुमारी से विवाह के प्रश्न पर भीम द्वितीय से उसका युद्ध हुआ था। 
  • 1191 ई. में मुहम्मद गौरी तथा पृथ्वीराज चौहान के बीच प्रथम तराइन युद्ध हुआ, जिसमें मुहम्मद गौरी पराजित हुआ। 
  • 1192 ई. में मुहम्मद गौरी तथा पृथ्वीराज चौहान के बीच पुनः युद्ध हुआ, जिसे ‘तराइन का द्वितीय युद्ध‘ कहते हैं। उसमें पृथ्वीराज पराजित हुआ तथा उसे बंदी बनाकर कुछ समय के बाद उसकी हत्या कर दी गई। | 
  • नोटः पृथ्वीराज चौहान के राजकवि चंदबरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो‘ नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय‘ नामक संस्कृत काव्य की रचना की। 
  • कालांतर में गौरी के एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली तथा अजमेर पर आक्रमण करके चौहानों की सत्ता का अंत कर दिया।

 जेजाकभुक्ति का चंदेल वंश 

  • जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) में 9वीं शताब्दी में चंदेल वंश की स्थापना नन्नुक ने की थी। 
  • उसकी राजधानी खजुराहो थी। 
  • नन्नुक के पौत्र जयशक्ति अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति कहलाया। 

प्रमुख शासक 

यशोवर्मन (925-950 ई.)

  • यशोवर्मन एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मालवा, चेदि और – महाकोशल पर आक्रमण करके अपने राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। 
  • यशोवर्मन ने खजुराहो के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर (चतुर्भुज मंदिर) का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त उसने एक विशाल जलाशय का भी निर्माण करवाया। 

धंग देव (950-1007 ई.) 

  • धंग यशोवर्मन का पुत्र था।
  •  उसे प्रतिहारों से पूर्ण स्वतंत्रता का वास्तविक श्रेय दिया जाता है। 
  • कालिंजर को उसने अपनी राजधानी बनाया। 
  • ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता थी। 
  • उसने भटिंडा के शाही शासक जयपाल को सुबुक्तगीन के विरुद्ध सैनिक सहायता भेजी तथा उसके विरुद्ध बने हिंदू राजाओं के संघ में सम्मिलित हुआ।
  • धंग ने खजुराहो में जिननाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया। 
  • धंग के शासनकाल में निर्मित खजुराहों का विश्व-विख्यात मंदिर स्थापत्य कला का एक अनोखा उदाहरण है। 
  • धंग के बाद उसका पुत्र गंडदेव राजा हुआ।

 विद्याधर (1019-1029 ई.) 

  •  विद्याधर गंडदेव का पुत्र था जो चंदेल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। 
  • मुसलमान लेखक उसके नाम का उल्लेख ‘चंद्र’ तथा ‘विदा’ नाम से करते हैं। 
  • विद्याधर ने 1019 ई. में गुर्जर प्रतिहार शासक राज्यपाल का वध कर दिया क्योंकि वह महमूद गज़नवी से युद्ध करने के बजाय भाग खड़ा हुआ था। 
  • विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेय देव को पराजित कर उसे अपने अधीन कर लिया। 
  • चंदेल वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक परमर्दिदेव अथवा परमल था। 
  • 1182 ई. में पृथ्वीराज ने उसे पराजित कर महोबा पर तथा 1203 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया।
  • अंततः 1305 ई. में चंदेल राज्य दिल्ली में मिल गया।

 मालवा का परमार वंश 

  •  परमार वंश का आरंभ नवीं शताब्दी के प्रारंभ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ति) क्षेत्र में उपेंद्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था। 
  • इस वंश के शासक प्रारंभ में प्रतिहारों के अधीन सामंत थे। 
  • परमार वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक सीयक अथवा श्री हर्ष था। परमारों की प्रारंभिक राजधानी उज्जैन थी, जो बाद में धार हो गई। 

प्रमुख शासक वाक्पतिमुंज (973-995 ई.) 

  • मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाक्पतिमुंज के समय में प्रारंभ हुआ। 
  • वह मुंज कला एवं साहित्य का महान संरक्षक था। 
  • उसने धार में मुंज सागर झील का निर्माण कराया। 
  • मुंज ने श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उपाधियाँ धारण की थीं।
  •  ‘कौथेम’ दानपत्र से विदित होता है कि वाक्पति मुंज ने हूणों को भी पराजित किया था। 
  •  मुंज सफल विजेता होने के साथ ही कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। 
  • उसके दरबार में पद्मगुप्त, धनंजय, धनिक तथा हलायुध आदि विद्वान  थे। 

राजा भोज ( 1000-1055 ई.) 

  • भोज मालवा के परमार वंश का यशस्वी राजा था। 
  • उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार, उसने तुरूष्कों (तुर्को) को पराजित किया तथा धार को अपनी राजधानी बनाया। 
  • राजा भोज ने ‘नवसाहसांक’ अर्थात् ‘नवविक्रमादित्य’ की पदवी धारण की। 
  • उसने 1008 ई. में महमूद गज़नवी के विरुद्ध शाही शासक आनंदपाल को सैनिक सहायता दी थी। 
  •  भोज अपनी विद्वता के कारण ‘कविराज’ की उपाधि से विख्यात था। 
  • कहा जाता है कि उसने विविध विषयों-चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, धर्म, व्याकरण, स्थापत्यशास्त्र आदि पर बीस से अधिक ग्रंथों की रचना की। 
  • भोज द्वारा लिखित ग्रंथों में चिकित्सा शास्त्र पर आयुर्वेदसर्वस्व तथा स्थापत्य शास्त्र पर समरांगणसूत्रधार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सरस्वतीकंठाभरण, सिद्धांतसंग्रह, योगसूत्रवृत्ति, विद्याविनोद, नाममालिका अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। 
  •  भोज ने अपने नाम पर भोजपुर नगर बसाया तथा एक बड़े भोजसर नामक तालाब को निर्मित करवाया।

गुजरात (अन्हिलवाड़) का चालुक्य अथवा सोलंकी वंश 

  • चालुक्यों की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। 
  • वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता‘ में इन्हें शूलिक जाति का माना गया है, जबकि ‘पृथ्वीराज रासो‘ ने इनकी उत्पत्ति आबू पर्वत पर किये गए यज्ञ के अग्निकुंड से बताई है। 
  • चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। 
  • उसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया। 
  • इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक एवं संरक्षक थे। 

प्रमुख शासक 

भीम प्रथम (1022-1064 ई.) 

  • भीम प्रथम इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। 
  • उसके शासनकाल में गुजरात पर महमूद गज़नवी का आक्रमण (1025 ई.) हुआ। उसने सोमनाथ मंदिर को लूटा तथा उसे नष्ट कर दिया। 
  • भीम प्रथम ने सोमनाथ मंदिर को (जो पहले लकड़ी और फिर ईंटों द्वारा निर्मित था) पत्थर से निर्मित करवाया। 
  • भीम प्रथम के सेनानायक विमल शाह नेमाउंट आबू पर प्रसिद्ध जैन मंदिर (दिलवाड़ा मंदिर) ‘ का निर्माण करवाया।

नोट: सोमनाथ मंदिर से संबंधित एक अन्य मान्यता के अनुसार इस मंदिर का पुनर्निर्माण कुमारपाल ने करवाया।

जयसिंह ‘सिद्धराज’ (1094-1143 ई.) 

  • जयसिंह ने ‘सिद्धराज’ की उपाधि ग्रहण की। 
  • वह पराक्रमी तथा वीर होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचंद्र उसके दरबार में रहते थे। 
  • आबू पर्वत पर उसने एक मंडप का निर्माण करवाया, जहाँ उसने हाथियों पर आरूढ़ अपने सात पूर्वजों की मूर्तियों को प्रतिष्ठापित किया। 
  • उसने सिद्धपुर में रुद्रमहाकाल का मंदिर बनवाया। 
  • सिद्धराज स्वयं शैव था, लेकिन जैन विद्वान हेमचंद्र का सम्मान करता था। 

कुमारपाल (1143-1172 ई.) 

  • कुमारपाल एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचंद्र ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था। इसके पश्चात ‘परम अर्हत’ की उपाधि धारण की और संपूर्ण साम्राज्य में अहिंसा के सिद्धांतों को क्रियान्वित किया। 
  • जैन परंपरा के अनुसार, कुमारपाल ने अपने संपूर्ण साम्राज्य में पशु हत्या, मद्यपान एवं द्यूतक्रीड़ा पर प्रतिबंध लगा दिया।  
  • कुमारपाल ने सोमनाथ मंदिर का अंतिम रूप से पुनर्निर्माण करवाया तथा जैन आचार्य हेमचंद्र के साथ सोमनाथ मंदिर में शिव की अर्चना की। 
  • ‘कुमारपालचरित’ नामक काव्य में जयसिंह सूरी नामक कवि ने उसका यशोगान किया है। 

अजयपाल (1172-1176 ई.) 

  • अजयपाल, कुमारपाल का उत्तराधिकारी था। उसके शासनकाल में शैव एवं जैन धर्मावलंबियों के मध्य गृहयुद्ध आरंभ हो गया, जिसके कारण अनेक जैन भिक्षुओं की हत्या कर दी गई और अनेक जैन मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। 

अन्य शासक 

  • मूलराज द्वितीय (1176–1178 ई.) तथा भीम द्वितीय (1178–1195 ई.) इस वंश के अन्य प्रमुख शासक थे। 
  • मूलराज द्वितीय ने 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को हराया। 
  • चालुक्य वंश का अंतिम शासक भीम द्वितीय था। उसने  चालुक्य शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया। 
  • भीमराज द्वितीय ने मुहम्मद गौरी के गुजरात आक्रमण (1178 ई.) को विफल किया। 
  • 1195 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण कर अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया। 

गुप्तोत्तरकालीन  अन्य राजवंश

 गौड़ वंश 

  • गौड़ बंगाल का प्रमुख राजवंश था।
  • शशांक गौड़ वंश का सबसे प्रतापी राजा था। वह सम्राट हर्षवर्धन का समकालीन था 
  •  शशांक ने हर्षवर्धन के भाई राज्यवर्धन का वध किया था। इसके पश्चात् हर्षवर्धन ने शशांक को पराजित किया और उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को बंगाल तक सीमित कर दिया। शशांक के बाद गौड़ वंश का पतन हो गया। 
  • बाद में इसी वंश के किसी क्षत्रिय ने बंगाल में पाल वंश की नींव रखी। 
  • पाल वंश के अनेक शिलालेखों तथा अन्य दस्तावेजों से प्रमाणित होता है कि ये विशुद्ध सूर्यवंशी थे लेकिन बौद्ध धर्म को प्रश्रय देने के कारण ब्राह्मणवादियों ने चंद्रगुप्त तथा अशोक महान की तरह इन्हें भी ‘शूद्र’ घोषित करने का प्रयास किया है। 
  • नोटः एक अन्य मान्यता के अनुसार, बंगाल का शासक शशांक (सन् 602-620 ई.) ब्राह्मण धर्म के शैव संप्रदाय का अनुयायी था और बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु था। उसने बोधिवृक्ष को कटवाकर उसकी जड़ों में आग लगवा दी। | 

वल्लभी के मैत्रक वंश

  • मैत्रक वंश की स्थापना भट्टारक ने की थी। ये गुप्तों के अधीन सामंत थे। 
  • भट्टारक ने गुप्त वंश के पतन का लाभ उठाकर स्वर को गुजरात और सौराष्ट्र का शासक घोषित कर दिया और वल्लभी को अपनी राजधानी बनाया।
  •  इस वंश के शासक शिलादित्य प्रथम के शासनकाल में यह वंश बहत प्रभावशाली हो गया था। इस वंश का शासन मालवा (मध्य प्रदेश) और राजस्थान में भी फैल गया था, लेकिन बाद में मैत्रकों को दक्कन के चालुक्यों और कन्नौज के शासक हर्ष से पराजित होना पड़ा। 
  • इस वंश के शासक ध्रुवसेन द्वितीय से हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह किया था। 
  • भट्टारक और उसके उत्तराधिकारी धार्मिक संस्थानों के महान संरक्षक थे। 
  • वल्लभीबौद्ध धर्म एवं शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था। 

कलचुरि (चेदि) वंश 

  • कलचुरि वंश की स्थापनाकोकल्ल प्रथम ने की थी। 
  • उसने त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया था। 
  • कलचुरी संभवतः चंद्रवंशी क्षत्रिय थे। 
  • गांगेय देव (1019-1040 ई.) इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था, जिसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। 
  •  1181 ई. तक आते-आते अज्ञात कारणों से इस वंश का पतन हो गया। 
  • कलचुरि शासक त्रैकूटक संवत् का प्रयोग करते थे, जो 248-249 ई. में प्रचलित हुआ था।

पूवीं गंग वंश 

  • पूर्वी गंग वंश का सर्वाधिक प्रतापी राजा अनंतवर्मा चोडगंग था। उसने 976-1048 ई. तक शासन किया। 
  • पूर्वी गंग वंश के शासक धर्म एवं कला के महान संरक्षक थे। 
  • अनंतवर्मा चोडगंग ने पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया। इसके अलावा, पूर्वी गंग वंश के शासकों के द्वारा निर्मित कोणार्क का सूर्य मंदिर भी विश्वविख्यात है। 
  • उनकी राजधानी का नाम ‘कलिंगनगर‘ था, जो वर्तमान समय में आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम ज़िला का श्रीमुखलिंगम है।

 काकतीय वंश

  • काकतीय वंश के राजा कल्याणी के चालुक्यों के सामंतों के रूप में अपने राज्य का शासन करते थे। 
  • चालुक्य साम्राज्य के विघटन काल में काकतीय वंशी प्रोल द्वितीय ने अपने को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त कर लिया तथा उसने गोदावरी और कृष्ण नदियों के बीच के प्रदेश पर अपना एकछत्र शासन स्थापित कर लिया।
  •  रुद्र प्रथम में वारंगल को काकतीय राज्य की राजधानी बनाया था।
  •  रुद्र प्रथम काकतीय वंश के सबसे योग्य व साहसी राजाओं में से एक था। उसने अपने राज्य की सीमा का बहुत विस्तार किया। 
  • रुद्र प्रथम के बाद ‘महादेव’ व ‘गणपति’ शासक बने। गणपति ने विदेशी व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया था। उसने विभिन्न बाधक तटकरों को समाप्त कर दिया। 
  • मोटुपल्ली (आंध्र प्रदेश) इसके काल का प्रमुख बंदरगाह (समुद्र-पत्तन) था। । 

होयसल वंश 

  • होयसल वंश देवगिरि के यादव वंश के समान ही द्वारसमुद्र के यादव कुल का था। इसलिये इस वंश के राजाओं ने उत्कीर्ण लेखों में अपने को ‘यादवकुलतिलकय’ कहा है। 
  • चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय के समय में इस वंश के विष्णुवर्धन ने अपने को स्वतंत्र कर लिया और चालुक्य राज्यों को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। उसने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेबिड) को अपनी राजधानी बनाया।
  • होयसल कुल का अंतिम शासक वीर बल्लाल तृतीय था। 
  • होयसल राजाओं का काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये विख्यात है। उनके काल में मंदिर निर्माण की एक नई शैली का विकास हुआ। इन मंदिरों का निर्माण भवन के समान ऊँचे ठोस चबूतरे पर किया जाता था। चबूतरों तथा दीवारों पर हाथियों, अश्वारोहियों, हंसों, राक्षसों तथा पौराणिक कथाओं से संबंधित अनेक मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। 
  • विष्णुवर्धन के शासनकाल में बना होयसलेश्वर का प्राचीन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

गुप्तोत्तरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था

  • सामंतवाद का विकास तथा राजनीतिक विकेंद्रीकरण इस काल की एक प्रमुख विशेषता थी। 
  • इस काल में राजतंत्र सैद्धांतिक रूप से अनियंत्रित अथवा निरंकुश था। 
  • सामंतवाद के विकास से केंद्रीय सत्ता कमज़ोर हुई, जबकि प्रांतीय व स्थानीय सत्ता मज़बूत हुई। 
  • प्रशासन में राजा की सहायता के लिये अनेक मंत्री एवं पदाधिकारी होते थे। पाल, सेन, चंदेल, चौहान तथा कलचुरि अभिलेखों में मंत्रियों का उल्लेख मिलता है। 
  • इस काल में प्रशासनिक व्यवस्था विभिन्न स्तरों में विभाजित थी। हर स्तर पर विभिन्न प्रकार के अधिकारी मौजूद थे। थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद पूर्व की व्यवस्थाएँ चलती रहीं। 

आर्थिक व्यवस्था कृषि 

  • इस काल में कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार थी। 
  • ‘नीतिवाक्यामृत’ में अनेक प्रकार के संग्रहों में धान्य संग्रह सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गुप्तोत्तर काल में अधिकारियों, मंदिरों, ब्राह्मणों आदि को उनकी सेवाओं के बदले भू-क्षेत्र प्रदान करने से सामंतवाद का उदय हुआ। 
  • यद्यपि भूमिदान की प्रथा का प्रारंभ सातवाहन काल में हुआ था। 
  • ‘बृहत्संहिता’ एवं ‘अमरकोश’ जैसे छठी शताब्दी के ग्रंथों में कृषि, फलों एवं बागानों पर अलग से अध्याय देकर उसे समझाया गया है। 
  • ‘अभिधानरत्नमाला’ नामक ग्रंथ में तत्कालीन समय में बोये एवं उपजाये जाने वाले विभिन्न अनाजों का वर्णन है।
  • उत्पादकता के हिसाब से भूमि का वर्गीकरण किया गया है
    • वाहीत: भूमि, जिसमें बोया जाता हो। 
    • अकृष्टः जिसमें खेती न की गई हो। 
    • ऊसरः जहाँ बीज न उगता हो।
    •  खिल-परती: जिस भूमि को जोता नहीं जाता।
    • साक्तः व्यक्तिगत स्वामित्व वाली भूमि। 

कर व्यवस्था

  • भूमि कर सिद्धांत जमीन की उत्पादन क्षमता एवं वास्तविक उत्पादन के आधार पर 1/12  से लेकर 5/6 भाग तक निर्धारित होता था। 
  • करों का सग्रह गाँव का मुखिया करता था। 
  • इस काल के प्रमुख कर ये थे
    • भाग: उपज का हिस्सा (भूमिकर)
    • भोगः फल, फूल, लकड़ी आदि उपहारस्वरूप राजा को प्रदान करना। 
    • हिरण्यः नकद रूप में वसूल किया जाने वाला कर (अतिरिक्त)। 
    • प्रस्थः अधिकारियों का हिस्सा। 
    • उपरिकरः अस्थायी कृषकों पर लगने वाला कर। 
  • भूमि मापन के लिये कुछ लोक प्रचलित मापक थे-निर्वतन, पट्टिकहल, पातक, खरिवाप, कूल्यवाप, द्रोणवाप, आढ़वाप, खडूकवाप, नालिकवाप आदि। 
  • चंदेल एवं परमार शासकों ने बड़ी-बड़ी झीलों तथा तालाबों का निर्माण * करवाया था। संस्कृत ग्रंथों में अरघट्ट (रहट) का उल्लेख है। सिंचाई के लिये रहट के प्रयोग का प्रथम उल्लेख ‘गाथासप्तशती’ में मिलता है।

उद्योग एवं व्यापार

  • गुप्तोत्तर काल में व्यापार का ह्रास हुआ, जिसके अनेक कारण थे-चोर-डाकुओं के कारण मार्गों का असुरक्षित होना, सामंतवादी प्रवृत्ति बढ़ने के कारण केंद्रीय शक्ति का ह्रास तथा व्यापारियों के एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने पर अधिक चुंगी कर आदि। 
  • इस समय बंगाल मलमल, पान, सुपारी तथा सण (सन) के लिये; मगध एवं कलिंग धान (चावल) के लिये; मालवा गन्ना, अफीम एवं सीपी के लिये; गुजरात सूती कपड़े, नील एवं चमड़े की निर्मित वस्तुओं के लिये प्रसिद्ध था। 
  • दक्षिण क्षेत्र मोती, मूल्यवान पत्थर, चंदन, मसाले आदि के लिये प्रसिद्ध था। 
  •  भारत के पूर्वी तट पर ताम्रलिप्ति, सप्तग्राम तथा पश्चिमी तट पर देवल, थाना, खंभात एवं भडौच प्रमुख बंदरगाह थे। 
  • इस काल में वस्त्र उद्योग उत्कृष्ट अवस्था में था। 
  • भड़ौच के बने वस्त्र इतने प्रसिद्ध थे कि उन्हें ‘वरोज’ कहा जाता था। 
  • मध्य देश चुनरी के लिये प्रसिद्ध था। 
  • कश्मीर में वस्त्रोद्योग, विशेषकर सफेद लिनन का उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है।

मुद्रा 

  • पूर्व मध्यकाल में सिक्कों का उपयोग कम हो गया था। 
  • व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। 
  • साधारण लेन-देन और व्यापार कौड़ियों के माध्यम से होता था, जिन्हें प्रतिहार अभिलेखों में ‘कपर्दक‘ कहा गया है।
  • सोने के सिक्कों की मात्रा बहुत कम थी। अधिकांश सिक्के चांदी एवं तांबे के थे। 
  • पाल एवं सेन राजाओं में केवल देवपाल के 6 सोने के सिक्के मिले हैं। 
  • गुजरात के चालुक्यों में केवल जयसिंह सिद्धराज का एक सोने का सिक्का मिला है।

सामाजिक व्यवस्था 

वर्ण व्यवस्था 

  •  गुप्तोत्तर काल में भारत में दो सशक्त सामाजिक धाराएँ प्रवाहित हुईं पहली, विदेशी जातियों का आत्मसातीकरण तथा दूसरी, जाति प्रथा की कठोरता। 
  • परंपरागत रूप से समाज मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित था। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ था।
  •  इस युग की महत्त्वपूर्ण घटना राजपूतों का अभ्युदय है, जिन्होंने प्राचीन क्षत्रियों का स्थान ले लिया। 
  • वाणिज्य-व्यापार में गिरावट के कारण वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई। उनके लिये कृषि, व्यापार, पशुपालन जैसे व्यवसाय निर्दिष्ट किये गए। 
  • अलबरूनी ने वैश्यों एवं शूद्रों में कोई अंतर नहीं पाया। 
  • वैश्यों का शूद्रों के रूप में मूल्यांकन तथा शूद्रों का कृषकों के रूप में परिवर्तन हुआ। 

शूद्रों की स्थिति 

  • समाज में शूद्रों की संख्या सर्वाधिक थी। इस काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या तथा अस्पृश्यता की भावना में वृद्धि हुई। 
  • इस काल की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-कृषि कार्य का आमतौर पर शूद्रों के द्वारा किया जाना। शूद्रों में कुछ वर्णसंकर जातियाँ भी थीं। 
  •  याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित मीमांसा के अनुसार, अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के परिणामस्वरूप अनेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति हुई। 
  • अनुलोम जातियाँ (द्विज जातियाँ थीं, इसलिये उन्हें यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार था। 
  •  इस काल में जन्मी वर्णसंकर जातियों में कायस्थ सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। सबसे निम्न जाति अंत्यज थी, जिनमें सर्वाधिक निम्न चंडाल थे। 

स्त्रियों की स्थिति 

  • गुप्तोत्तर काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। उच्च कुल की स्त्रियाँ प्रशासन के कार्य में भागीदारी निभाती थीं। कल्याणी के चालुक्यों की राजकुमारियाँ प्रदेशों की शासिका थीं।
  •  काकतीय रानी रुद्रमा ने काकतीय राजवंश पर लंबे समय तक शासन किया। शासन में उत्कृष्ट सफलता के लिये वेनिस यात्री मार्कोपोलो ने उसकी प्रशंसा की थी। 
  • गुप्तोत्तर काल में सती प्रथा का अत्यधिक विकास हुआ। अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की है। जबकि मेधातिथि ने सती प्रथा की कड़ी आलोचना की है। 
  • समाज में बालविवाह, बहुविवाह, सती प्रथा और जौहर प्रथा जैसी कुप्रथाओं ने स्त्रियों की सामान्य स्थिति में गिरावट ला दी। समाज में गणिकाओं, वेश्याओं और देवदासियों का भी एक वर्ग था। 

दासों की स्थिति 

  • पूर्व मध्यकाल या गुप्तोत्तर काल में दास प्रथा में वृद्धि हुई। इन्हें किसी सामाजिक वर्ग के रूप में नहीं माना गया था। दासों की स्थिति अंत्यजों तथा तिरस्कृत जातियों से अच्छी थी। 
  • दास-दासियों को दान में देने की प्रथा इस काल में बहुत प्रचलित हो गई थी। बौद्ध मठों और मंदिरों को दास दान के रूप में दिये जाते थे। 
  • विज्ञानेश्वर के अनुसार ऋण न चुका सकने के कारण ऋणी स्वयं को ऋणदाता का दास बना लेता था। दास प्रायः घरेलू कामों में ही लगाए जाते थे। 

धार्मिक स्थिति 

  • गुप्तोत्तर काल में शैव, वैष्णव, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों का समाज में स्थान था। शक्ति पूजा इस काल में बहुत व्यापक हो गई। पूजा और भक्ति दोनों ही तांत्रिक धर्म के अभिन्न तत्त्व बन गए।
  • शैव धर्म पाशुपत, कापालिक, अघोरी, लिंगायत, शैवाद्वैत आदि अनेक  उप-संप्रदायों में विभाजित था। कापालिकों में नर बलि की प्रथा प्रचलित थी। 
  • बुद्ध एवं जैन को विष्णु का अवतार माना जाने लगा। 
  • ईश्वरीय संप्रदायों में शक्ति परमदेवता की अर्धांगिनी के रूप में संसार में प्रचलित हो गई। 
  • दुर्गा की उपासना का श्रेय मार्कण्डेय पुराण को है। 
  • बौद्ध धर्म ने तांत्रिक प्रभाव के कारण मंत्रयान, वज्रयान, सहजयान आदि रूप धारण कर लिये थे। हर्ष तथा पालों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया था। 
  •  बंगाल के सेन शासक विश्वरूप सेन तथा केशव सेनसूर्योपासक होने के कारण परमसोर पदवी से विभूषित किये गए। 

कला एवं संस्कृति

  • गुप्तोत्तर काल की वास्तुकला की मुख्य कृतियाँ मंदिर हैं। भौगोलिक आधार पर शास्त्रकारों ने इसकी तीन शैलियाँ निर्धारित की हैं- नागर, द्रविड़ और बेसर। 

नागर शैली 

  •  नागर शैली उत्तर भारत में हिमालय से विंध्य प्रदेश के भू-भाग में विकसित हुई। 
  • नागर शैली के मंदिर चतुष्कोणीय होते हैं। इस शैली के मंदिरों के शिखरों में खड़ी रेखा की प्रधानता होने के कारण इसे रेखीय शिखर कहते हैं। वर्गाकार तथा ऊपर की ओर वक्र होते हुए शिखर इन मंदिरों की विशेषताएँ हैं।
  • नागर शैली के प्रसिद्ध मंदिर-लिंगराज मंदिर (भुवनेश्वर), सूर्य मंदिर (कोणार्क), जगन्नाथ मंदिर (पुरी), कंदरिया महादेव मंदिर (खजुराहो), सूर्यमंदिर (मोढेरा), दिलवाड़ा जैन मंदिर (माउंट आबू) आदि। 

द्रविड़ शैली 

  • द्रविड़ शैली का विस्तार कृष्णा तथा कन्याकुमारी अंतरीप के बीच अर्थात् आधुनिक तमिलनाडु प्रदेश में है। 
  • इस शैली के मंदिरों के बनावट की विशेषता है-वर्गाकार गर्भगृह पर पिरामिडनुमा अर्थात् ऊपर की ओर आकार में छोटी हुई मंज़िलों का बना शिखर। इसका शीर्ष आठ या छह कोणों के गुंबद के आकार का होता है। 
  • पल्लव, चालुक्य, चोल एवं पांड्य शासकों के शासनकाल में मुख्यतः इस शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ। 
  • महाबलीपुरम् और कांची के मंदिर, वातापी तथा ऐहोल के मंदिर, तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर या बृहदेश्वर मंदिर इस शैली के मंदिर के प्रमुख उदाहरण हैं। 

बेसर शैली 

  • बेसर शैली का विस्तार विंध्य और कृष्णा के बीच में है, इसे  ‘दक्षिणावर्त’ भी कहा जाता है। 
  • बेसर शैली में नागर और द्रविड़ शैली के तत्त्व मिश्रित हैं। 
  • बेसर शैली के मंदिरों में देउल, गर्भगृह और जगमोहन (सभा मंडल) होता था। इस शैली के मंदिर अर्द्ध गोलाकार होते थे। 
  • होयसल, राष्ट्रकूट काल के ऐहोल मंदिर, कैलाश मंदिर (एलोरा) आदि बेसर शैली से निर्मित हैं। “