गुप्त राजवंश के इतिहास के स्रोत
- चौथी सदी ई. के प्रारंभ में भारत में कोई बड़ा संगठित राज्य अस्तित्व में नहीं था। ऐसी राजनीतिक स्थिति में गुप्त राजवंश का उदय हुआ।
- कुषाणों के पतन के पश्चात् उत्तर भारत में अनेक राजतंत्रों एवं गणतंत्रों का उदय हुआ। राजतंत्रों में गुप्त, नाग, आभीर, इक्ष्वाकु तथा गणतंत्रों में आर्जुनायन, मालव, यौधेय, लिच्छवी आदि शामिल थे।
- कुषाणों के बाद लगभग चार शताब्दियों तक भारत का सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास होता रहा, जो कि मुख्यतः गुप्त राजाओं के शासनकाल से संबंधित है।
- गुप्त वंश का आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
- गुप्त संभवतः वैश्य थे तथा कुषाणों के सामंत रहे थे।
- कुषाणों से प्राप्त सैन्य तकनीक एवं वैवाहिक संबंधों ने गुप्त साम्राज्य के प्रसार एवं सुदृढीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- गुप्त राजवंश के इतिहास के स्रोत
- गुप्त राजवंश का इतिहास जानने के निम्नलिखित तीन महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं-
- (i) साहित्यिक स्रोत
- (ii) पुरातात्त्विक स्रोत और
- (iii) विदेशी यात्रियों के विवरण
- गुप्त राजवंश का इतिहास जानने के निम्नलिखित तीन महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं-
साहित्यिक स्रोत
- विशाखदत्त के नाटक ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ से गुप्त शासक रामगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय के बारे में जानकारी मिलती है।
- इसके अलावा कालिदास की रचनाएँ (ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, मेघदूत, मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान शाकुंतलम्) तथा शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिकम्’ और वात्स्यायन कृत ‘कामसूत्र‘ से भी गुप्त काल की जानकारी मिलती है।
पुरातात्त्विक स्रोत
- पुरातात्त्विक स्रोत में अभिलेखों, सिक्कों तथा स्मारकों से गुप्त राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है।
- समुद्रगुप्त के ‘प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख‘ से उसके बारे में जानकारी मिलती है
- स्कंदगुप्त के ‘भीतरी स्तंभलेख‘ से हूण आक्रमण के बारे में जानकारी मिलती है, जबकि स्कंदगुप्त के ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि उसने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था।
- गुप्तकालीन राजाओं के सोने, चांदी तथा तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इस काल में सोने के सिक्कों को ‘दीनार’, चांदी के सिक्कों को ‘रूपक‘ अथवा ‘रूप्यक‘ तथा तांबे के सिक्कों को ‘माषक‘ कहा जाता था।
- गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर राजस्थान प्रांत के ‘बयाना’ से प्राप्त हुआ है।
- मंदिरों में तिगवा का विष्णु मंदिर (जबलपुर, मध्य प्रदेश), भूमरा का शिव मंदिर (सतना, मध्य प्रदेश),नचना कुठारा का पार्वती मंदिर (पन्ना, मध्य प्रदेश), भीतरगाँव का मंदिर (कानपुर, उत्तर प्रदेश), देवगढ़ का दशावतार मंदिर (झाँसी, उत्तर प्रदेश) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
- गुप्तकालीन स्मारकों, जैसे-मंदिर, मूर्तियाँ, चैत्यगृह आदि से तत्कालीन कला और स्थापत्य की जानकारी मिलती है।
- अजंता एवं बाघ की गुफाओं के कुछ चित्र भी गुप्त कालीन माने जाते हैं।
विदेशी यात्रियों के विवरण
- इस काल के प्रमुख विदेशी यात्री
- फाहियानः यह चीनी यात्री था और चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया था। इसने मध्य देश का वर्णन किया है।
- ह्वेनसांगः इसने कुमारगुप्त प्रथम, बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’ आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है। इसके विवरण से ही यह पता चलता है कि कुमारगुप्त ने ‘नालंदा महाविहार‘ की स्थापना करवाई थी।
गुप्त राजवंशः प्रारंभिक इतिहास
- गुप्त राजवंश की स्थापना के संबंध में अधिकांश इतिहासकारों में मतभेद है।
- दो मुहरें जिनमें से एक के ऊपर संस्कृत में ‘श्रीगुप्तस्य‘ अंकित है, से प्रतीत होता है कि ‘श्रीगुप्त’ नामक व्यक्ति ने इस वंश की स्थापना की थी।
गुप्त काल के प्रमुख शासक
श्रीगुप्त
- गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था, जिसने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की थी।
- महाराज सामंतों की उपाधि होती थी जिससे पता चलता है कि वह किसी शासक के अधीन शासन करते थे।
- इत्सिंग के विवरण के अनुसार उसने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के खर्च के लिये 24 ग्राम दान में दिये थे।
- श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र ‘घटोत्कच’ गुप्त वंश का शासक बना।
- स्कंदगुप्त के सुपिया के लेख (रीवा, मध्य प्रदेश) में भी गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से ही प्रारंभ मानी जाती है।
चंद्रगुप्त प्रथम (319-350 ई.)
- घटोत्कच के बाद चंद्रगुप्त प्रथम राजा बना, जो गुप्त वंश का शक्तिशाली शासक था।
- चंद्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
- उसके राज्याभिषेक की तिथि 319 ई. है, इसे ‘गुप्त संवत्’ का आरंभ माना जाता है।
- चंद्रगुप्त ने (जिसका शासन पहले मगध के कुछ भागों तक सीमित था) अपने राज्य का विस्तार इलाहाबाद तक किया।
- चंद्रगुप्त प्रथम ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की और लिच्छवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छवियों की सहायता से अपनी शक्ति बढ़ाई। इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है
- 1. स्वर्ण सिक्के, जिसमें ‘चंद्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार’, ‘लिच्छवी प्रकार’, ‘राजा-रानी प्रकार’, ‘विवाह प्रकार’ आदि हैं।
- 2. दूसरा प्रमाण समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख हैं, जिसमें उसे ‘लिच्छवी दौहित्र‘ कहा गया है।
- लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर चंद्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। उसने अपने स्वर्ण सिक्के पर अपना और कुमारदेवी का नाम खुदवाया। इन सिक्कों के पृष्ठ भाग पर लिच्छवयः (लिच्छवी) उत्कीर्ण है।
- चंद्रगुप्त प्रथम को इतिहास में एक नए संवत् के प्रवर्तन का श्रेय दिया जाता है। फ्लीट की गणना के अनुसार इस संवत् का प्रचलन ‘ 319-20 ई. में किया गया था।
- गुप्त वंश के शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम पहला शासक था. जिले चांदी के सिक्के चलाए।
- समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चंद्रगुप्त प्रथम संन्यास ग्रहण कर लिया।
समुद्रगुप्त (350-375 ई.)
- चंद्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त हुआ, जो 350 ई. राजगद्दी पर बैठा।
- उसने आर्यावर्त तथा दक्षिणावर्त के 12-12 शासको को पराजित किया। इन्हीं विजयों के कारण इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहा गया।
समुद्रगुप्त के दिग्विजय की जानकारी के स्रोत
हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद प्रशस्ति ) स्तंभलेख
- समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण प्रयाग प्रशस्ति लेख के सातवें श्लोक में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का उल्लेख करता है तथा चौथे श्लोक में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी चुने जाने का उल्लेख है।
- समुद्रगुप्त ने गुप्त शक्ति के प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण के लिये विजय की आक्रमण नीति को अपनाया।
- ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में समुद्रगुप्त को एक महान विजेता तथा संपूर्ण पृथ्वी को विजय (धरणि बंध) करने वाला बताया गया है।
- अशोक निर्मित यह स्तंभ मूलतः कौशांबी में स्थित था, जिसे अकबर ने इलाहाबाद में स्थापित करवाया था। इस स्तंभ पर जहाँगीर तथा बीरबल का भी उल्लेख मिलता है। (अशोक → समुद्रगुप्त → अकबर → बीरबल → जहाँगीर)
- प्रयाग प्रशस्ति में सर्वप्रथम भारतवर्ष का उल्लेख मिलता है।
एरण स्तम्भ लेख, गया ताम्रफलक, नालंदा ताम्रफलक
- मध्य प्रदेश के सागर जिला में स्थित एरण से प्राप्त एक लेख में समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से भी बढ़कर दानी राजा माना गया है।
- इस अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम दत्तदेवी अंकित है।
नोटः चंद्रगुप्त-II की पुत्री प्रभावती गुप्त के पूना अभिलेख में समुद्रगुप्त को अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला कहा गया है। हालाँकि, प्रयाग प्रशस्ति में अश्वमेध यज्ञ का वर्णन नहीं है।
समुद्रगुप्त की मुद्राएँ
- समुद्रगुप्त की हमें कुल छः मुद्राएँ प्राप्त होती हैं। मुद्राएँ उसके जीवन एवं कार्यों पर सुंदर प्रकाश डालती हैं।
- गरुड़ प्रकारः गरुड़ प्रकार की मुद्राएँ समुद्रगुप्त की नागवंशी राजाओं पर विजय का साक्ष्य प्रदान करती हैं। मुद्रा के पृष्ठभाग पर सिंहासनासीन देवी के साथ-साथ ‘पराक्रमः‘ शब्द अंकित है।
- धनुर्धारी प्रकारः इसके पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि अप्रतिरथः अंकित है।
- परशु प्रकारः इसमें उसकी उपाधि ‘कृतांत (यम) परशु’ अंकित है।
- अश्वमेध प्रकारः इस प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञों का प्रमाण है।
- व्याघ्रहनन प्रकारः इसमें समुद्रगुप्त को व्याघ्र का आखेट करते हुए दिखाया गया है। पृष्ठ भाग पर गंगा घाटी की विजय के रूप में ‘मकरवाहिनी गंगा’ तथा ‘राजा समुद्रगुप्त’ उत्कीर्ण है।
- वीणावादन प्रकारः इसमें समुद्रगुप्त के संगीत प्रेमी होने का साक्ष्य मिलता है। इसमें समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
सैन्य अभियान
- समुद्रगुप्त एक महान सेनापति एवं कुशल योद्धा था।
- आर्यावर्त का प्रथम एवं द्वितीय विजय अभियान, दक्षिणापथ की विजय, आटविक राज्यों की विजय उसके प्रमुख सैन्य अभियान थे।
- अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में तीन शक्तियों को पराजित किया। इस अभियान के दौरान उसने अच्युत, नागसेन तथा कोतकुलज शासकों को हराया। जिसे ‘आर्यावर्त का प्रथम युद्ध‘ कहा गया।
- दक्षिणापथ के राज्यों में कुल 12 राज्य थे-कौशल, महाक्रांतार, कोराल, पिष्ठपुर, कोटूर, एरण्डपल्ल, काँची, अवमुक्त, वेंगी, पालक्क, देवराष्ट्र, कुस्थलपुर।
- समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ विजय के लिये तीन नीति अपनाई- प्रथम, ग्रहण (शत्रु पर अधिकार); द्वितीय, मोक्ष (शत्रु को मुक्त करना) तथा तृतीय, अनुग्रह (शत्रु को उसका राज्य लौटाना)।
- दक्षिणापथ के अभियान में विजय होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः एक युद्ध लड़ा जिसे ‘आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध‘ कहा गया। आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में समुद्रगुप्त ने 9 राज्यों की विजय की।
- आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में राजा थे- रूद्रदेव, मत्तिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि, बलवर्मा।
- समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों को अपना सेवक बनाया।
- फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुए थे।
- सीमावर्ती राज्य भी समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के कर देते थे, जिनमें समतट, डवाक, कामरूप, कर्तृपुर तथा नेपाल आदि राज्य शामिल थे।
- समुद्रगुप्त ने कुछ विदेशी राज्यों से भी संबंध स्थापित किये जिनमें शामिल हैं- देवपुत्रषाहिषाहानुषाही, शक, मुरुण्ड, सिंहल आदि।
अश्वमेध यज्ञ
- अपनी विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया तथा ‘अश्वमेध पराक्रम‘ की उपाधि धारण की। |
- नोट: गुप्तों के पूर्व पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे।
- समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था।
- कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिंध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित था।
समुद्रगुप्त की अन्य विशेषताएँ
- समुद्रगुप्त विजेता के साथ-साथ कवि, संगीतज्ञ तथा विद्या का संरक्षक था। उसके सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हए दिखाया गया है तथा ‘कविराज’ की उपाधि प्रदान की गई है।
- समुद्रगुप्त ने व्याघ्रपराक्रमांक, अप्रतिरथ, पराक्रमांक आदि उपाधियाँ धारण की जो उसके सिक्कों पर मुद्रित मिलती हैं।
- उसने प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु वसुबंधु को संरक्षण दिया था।
- समुद्रगुप्त से श्रीलंका के शासक मेघवर्ण ने गया में एक बौद्ध मठ बनाने की अनुमति मांगी थी, जिसकी अनुमति दे दी गई थी। जो कालांतर में विशाल बौद्ध विहार के रूप में विकसित हुआ।
- ताम्रपत्र में समुद्रगुप्त को ‘परमभागवत’ की उपाधि मिली है।
चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.)
- गुप्तवंशावली में समुद्रगुप्त के पश्चात् चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम उल्लिखित है, परंतु दोनों शासकों के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है।
- विशाखदत्त द्वारा रचित ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ नाटक से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त गद्दी पर बैठा। वह शकों से पराजित हो गया था तथा उन्हें अपनी पत्नी ध्रुवदेवी देने के लिये तैयार हो गया था।
- रामगुप्त का छोटा भाई चंद्रगुप्त द्वितीय था। उसने शकों को पराजित कर रामगुप्त की विधवा से विवाह कर लिया।
- दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े एक लौह स्तंभ (मेहरौली का लौह स्तंभ) पर खुदे हुए अभिलेख में ‘चंद्र’ नामक राजा की कीर्ति का वर्णन किया गया है, जिसकी पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की जाती है।
- उदयगिरि गुहा अभिलेख में भी चंद्रगुप्त द्वितीय की विजयों का उल्लेख मिलता है।
- उसके शासनकाल में कालक्रम की दृष्टि से मथुरा का स्तंभलेख पहला प्रामाणिक गुप्त लेख है, जिसमें तिथि का उल्लेख हुआ है।
वैवाहिक संबंध तथा साम्राज्य विस्तार
- चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंध और विजय, दोनों तरह से साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया।
- उसने नाग राजकुमारी कुबेरनागा के साथ विवाह करके नाग वंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और बाद में अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक वंश के राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया।
- उसने अपने पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदंब शासक काकुत्सवर्मन की पुत्री से किया था।
- वाकाटक राज्य पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव जमाकर चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
- उज्जयिनी को उसने द्वितीय राजधानी बनाया था, जबकि पहली राजधानी पाटलिपुत्र थी।
चंद्रगुप्त द्वितीय एवं शक
- चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी के अंतिम शक शासक रुद्रसिंह तृतीय को पराजित किया।
- शकों पर विजय के उपरांत ही चंद्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य‘ की उपाधि धारण की थी।
- विक्रमादित्य का अर्थ होता है- पराक्रम का सूर्य।
- भारतीय अनुश्रुतियाँ उसे ‘शकारि’ (शकों का विजेता) के रूप में स्मरण करती हैं।
- चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के उपलक्ष्य में मालवा क्षेत्र में व्याघ्र शैली के चांदी के सिक्के चलाए।
अन्य नाम एवं उपाधियाँ
- अन्य नाम- देवगुप्त, देवराज एवं देवश्री।
- उपाधियाँ – विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत आदि।
कला एवं साहित्य
- चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन का स्मरण युद्धों के कारण नहीं बल्कि कला एवं साहित्य के प्रति उसके अगाध अनुराग के कारण किया जाता है।
- उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मंडली निवास करती थी, जिसे ‘नवरत्न’ कहा गया है। इनमें कालिदास, धनवंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर एवं वररुचि जैसे विद्वान थे।
- उसके शासनकाल में चीनी यात्री फाहियान (399-414 ई.) भारत आया।
- चंद्रगुप्त द्वितीय के समय पाटलिपुत्र एवं उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केंद्र थे।
- चंद्रगुप्त द्वितीय का सचिव ‘वीरसेन‘ शैव धर्मानुयायी था और सेनापति ‘आम्रकार्दव‘ बौद्ध अनुयायी था।
- चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल था।
फाहियान का यात्रा विवरण
- फाहियान चीन, मध्य एशिया, पेशावर के स्थल मार्ग से 399 ई. में भारत आया व ताम्रलिप्ति से श्रीलंका तथा पूर्वी द्वीपों से होते हुए समुद्री मार्ग से 414 ई. में स्वदेश लौटा।
- उसके वर्णन इस प्रकार हैं
- मध्य देश ब्राह्मणों का देश था।
- लोगों को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, केवल आर्थिक दंड का प्रचलन था।
- मध्य देश के लोग किसी जीवित प्राणी की हत्या नहीं करते थे तथा मांस, मदिरा, प्याज तथा लहसुन आदि का प्रयोग नहीं करते थे (चंडाल-अपवाद)।
- मध्य देश के लोग क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग करते थे।
- फाहियान ने पवित्र बौद्ध स्थानों की यात्राएँ की। संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे। पाटलिपुत्र में अशोक का राजमहल देखा तथा उससे इतना प्रभावित हुआ की उसे देवताओं द्वारा निर्मित बताया।
- उसने नालंदा, राजगृह, बोधगया, वैशाली, श्रावस्ती तथा कपिल की भी यात्राएँ की।
- चीनी ग्रंथों में भारत को ‘यिन-तू’ कहा गया है।
कुमारगुप्त प्रथम या महेंद्रादित्य (415-455 ई.)
- चंद्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त हुआ, परंतु कुमारगुप्त के पूर्व एक और शासक का नाम आता है, वह शासक ध्रुवदेवी (रामगुप्त की पत्नी)का पुत्र गोविंदगुप्त था। यह एक विवादास्पद विषय है।
- कुमारगुप्त के बिलसड़ अभिलेख, मंदसौर अभिलेख, करमदंडा अभिलेख आदि से उसके शासनकाल की जानकारी मिलती है। कुमारगुप्त प्रथम के समय के सर्वाधिक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
- ‘मंदसौर अभिलेख’ की रचना ‘वत्सभट्टि’ ने की थी।
सिक्के
- मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन इसी के काल में हुआ।
- कुमारगुप्त ने मुद्राओं पर गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण कराई।
- कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था।
उपाधियाँ
- कुमारगुप्त ने महेंद्रादित्य, श्री महेंद्र तथा महेंद्र अश्वमेध आदि उपाधियाँ धारण की।
अन्य विशेषतायें
- कुमारगुप्त प्रथम के अंतिम दिनों में पुष्यमित्र नामक जातियों ने आक्रमण किया। स्कंदगुप्त पुष्यमित्रों को पराजित करने में सफल रहा ।
- कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई थी।
- नालंदा विश्वविद्यालय को ‘ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान‘ कहा जाता है।
स्कंदगुप्त (455-467 ई.)
- कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त हुआ।
- भीतरी स्तंभलेख के अनुसार प्रथम हूण आक्रमण इसी के समय हुआ था।
- जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण को विफल कर दिया था। जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को ‘म्लेच्छ’ कहा गया है।
हूण राज्य
- हूण राज्य फारस से खोतान तक फैला हुआ था, जिसकी मुख्य राजधानी अफगानिस्तान में बामियान थी।
- प्रथम हुण आक्रमण खुशनवाज के नेतृत्व में स्कंदगुप्त के समय हुआ।
- तोरमाण और मिहिरकुल प्रसिद्ध हूण शासक हुए।
- मिहिरकुल को बौद्ध धर्म से घृणा करने वाला और मूर्तिभंजक ” कहा गया है।
- जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील के पुनरुद्धार का कार्य सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था। उसने झील के किनारे एक विष्णु मंदिर का निर्माण भी करवाया था।
- नोटः पुष्यमित्र वैश्य (चंद्रगुप्त मौर्य के समय), तुसास्प (अशोक के समय) एवं सुविशाख (रुद्रदामन के समय)- ये तीनों सुदर्शन झील से संबंधित हैं।
- ह्वेनसांग ने नालंदा संघाराम को बनवाने वाले शासकों में ‘शक्रादित्य’ के नाम का उल्लेख किया है, जिससे स्कंदगुप्त द्वारा नालंदा संधाराम को सहायता देने का प्रमाण मिलता है।
- स्कंदगुप्त ने वृषभशैली के नए सिक्के जारी किये।
- स्कंदगुप्त ने 466 ई. में चीनी सम्राट साँग के दरबार में एक राजदूत भेजा।
अन्य शासक
- स्कंदगुप्त के पश्चात् पुरुगुप्त, नरसिंह गुप्त ‘बालादित्य‘, कुमार गुप्त द्वितीय, बुधगुप्त, भानुगुप्त, वैन्यगुप्त, कुमार गुप्त तृतीय शासक हुए।
- बुद्धगुप्त ने नालंदा महाविहार को धन दान में दिया था।
- नरसिंह गुप्त ने हूण नरेश मिहिरकुल को पराजित किया था।
- भानुगुप्त के एरण अभिलेख (510 ई.) से सती प्रथा का पहला अभिलेखीय प्रमाण मिलता है।
- विष्णुगुप्त तृतीय गुप्त साम्राज्य का अंतिम शासक था।
- गुप्तों के पतन के साथ नए वंशों का उदय हुआ, उनमें बल्लभी के मैत्रक, कन्नौज के मौखरि तथा थानेश्वर के पुष्यभूति वंश आदि प्रमुख थे।
- गुप्तों का शासन 550 ई. तक जारी रहा, परंतु पतन होती शक्ति का कोई महत्त्व नहीं रह गया था।
गुप्तकालीन प्रशासन
- गुप्तकालीन शासकों ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था। ‘पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।
- गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था इस प्रकार है
राजा (सम्राट)
- गुप्त काल में प्रशासन के शीर्ष पर राजा था। गुप्तकालीन राजाओं द्वारा भारी-भरकम उपाधियाँ धारण की गईं, जैसे- ‘महाराजाधिराज’. ‘परमभट्रारक‘ आदि।
- किसी भी आक्रमण से जनता की सुरक्षा करना राजा का कर्तव्य था।
- गुप्त काल में राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
- इस काल में शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मकं एवं वंशानुगत थी, लेकिन ज्येष्ठाधिकार जैसे तत्त्व कम ही दिखाई पड़ते हैं।
मंत्रिपरिषद् और दूसरे अधिकारीगण
- कामंदक एवं कालिदास दोनों ने मत्रिमंडल या मंत्रिपरिषद् का उल्लेख , किया है।
- गुप्त काल में मंत्रियों का चयन राजा द्वारा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर राजकुमार, सामंतों तथा उच्च अधिकारियों में से किया जाता था।
- सबसे बड़े अधिकारी ‘कुमारामात्य‘ होते थे। राजा उन्हें अपने प्रांत में नियुक्त करता था तथा वे नकद वेतन पाते थे। कुमारामात्य प्रांतीय पदाधिकारी होते थे – जो स्थानीय प्रशासन तथा केंद्र के बीच कड़ी का काम करते थे।
- गुप्त शासक मंत्रियों से सलाह लिया करते थे और सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर अपने अधिकारियों को लिखित आदेश या संदेश जारी करते थे।
- हरिषेण (समुद्रगुप्त का संधिविग्रहिक), वीरसेन (चंद्रगुप्त द्वितीय का संधिविग्रहिक), शिखरस्वामी (चंद्रगुप्त द्वितीय का मंत्री), पृथ्वीषेण (कुमारगुप्त का मंत्री), पर्णदत्त एवं चक्रपालित (स्कंदगुप्त का मंत्री) गुप्त काल के प्रमुख अधिकारी थे।
- गुप्त काल में एक अधिकारी एक साथ अनेक पद ग्रहण करता था।
- इसी काल से पद वंशानुगत भी होने लगे थे, क्योंकि एक ही परिवार की कई पीढ़ियाँ ऊँचे पदों को धारण करती थीं। इसकी जानकारी ‘करमदंडा अभिलेख‘ से मिलती है।
प्रांत, जिला और स्थानीय (ग्राम) शासन
- संपूर्ण साम्राज्य को राष्ट्रों या भुक्तियों में विभाजित किया गया था।
- गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ भुक्तियों के नाम भी मिलते हैं, जैसे- बंगाल में पुंड्रवर्धन भुक्ति था, जिसके अंतर्गत उत्तरी बंगाल का क्षेत्र आता था।
- प्रांत या भुक्ति को पुनः जिलों में (प्रदेश या विषय) में बाँटा गया था, जिसका प्रधान ‘विषयपति’ (कुमारामात्य) कहलाता था।
- जिला स्तर पर एक जिला परिषद् होती थी, इसे ‘विषय परिषद्‘ कहा जाता था। इसी तरह प्रत्येक नगर में एक नगर परिषद् होती थी, जिसमें क्षेत्रीय व्यावसायिक समूह की प्रधानता थी। इस परिषद् में शामिल थे.
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- नगर श्रेष्ठि – पंजीगत वर्ग का नेता
- सार्थवाह – ‘विषय’ के व्यापारियों का नेता
- प्रथम कुलिक – कारीगर समुदाय का प्रमुख
- प्रथम कायस्थ – लिपिकों का प्रधान
- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी, जिसका प्रशासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था।
- ग्राम सभा का कार्य ग्राम की सुरक्षा व्यवस्था करना, निर्माण कार्य करना तथा राजस्व एकत्रित करना था।
- ग्राम सभा को मध्य भारत में ‘पंचमंडली’ तथा बिहार में ‘ग्राम जनपद‘ कहा जाता था।
- ग्राम प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी ग्रामिकी (ग्रामपति) या महत्तर होता था।
- उनकी सहायता के लिये एक ग्राम पंचायत होती थी, जो अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्णतः स्वतंत्र होती थी।
न्याय व्यवस्था
- गुप्त काल में न्यायालय चार वर्गों में विभाजित था-
- (i) राजा का न्यायालय
- (ii) पूग
- (iii) श्रेणी
- (iv) कुल
- राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
- न्यायाधीश को दण्डनायक,महादण्डनायक, सर्वदण्डनायक कहा जाता था।
- गुप्त काल में न्याय का सर्वोच्च अधिकार राजा के पास था।
- पहली बार स्पष्ट तौर पर दीवानी एवं फौजदारी मामलों को परिभाषित किया गया और इसका प्रमुख कारण था- भूमिदान की प्रक्रिया में तेज़ी का आना।
- प्रथम विधि निर्माता ‘बृहस्पति’ को माना जाता है।
- इस काल में गुप्तचर प्रणाली की भी सीमित जानकारी मिलती है।
- ‘मृच्छकटिकम्‘ में नगर के न्यायालय को ‘अधिकरण मंडप‘ और .न्यायाधीश को ‘अधिकरणिक‘ कहा गया।
सैन्य व्यवस्था
- सैन्य प्रशासन का प्रमुख सेनापति होता था जिसका सर्वोच्च अधिकारी ‘महाबलाधिकृत‘ था। .
- गुप्त काल में राजा के पास स्थायी सेना थी।
- सेना के चार प्रमुख अंग थे
- (i) पदाति
- (ii) रथारोही
- (iii) अश्वारोही
- (iv) गजसेना
- साधारण सैनिकों को ‘चाट’ कहा जाता था।
- पुलिस विभाग के पदाधिकारियों में उपरिक, दशापराधिक, चौरोद्धरणिक, दंडपाशिक, अंगरक्षक आदि प्रमुख पद थे।
- गुप्तचर कर्मचारी को ‘दूत’ तथा पुलिस कर्मचारी को ‘भट’ (भाट) कहा जाता था।
- रणभांडागारिक (पदाति वस्तुओं की व्यवस्था करने वाला अधिकारी) रसद की व्यवस्था करता था।
राजस्व के स्रोत
- गुप्त काल में भू-राजस्व से प्राप्त आय आमदनी का मुख्य स्रोत थी।
- सामान्यतः भूमि पर सम्राट का स्वामित्व माना जाता था।
- वह भूमि से उत्पन्न उत्पादन के 1/6 भाग का अधिकारी था। इसीलिये कालिदास ने सम्राट को ‘षष्टमांश वृत्ति‘ कहा है।
- कर की दर 1/4 से 1/6 के बीच होती थी।
- किसान हिरण्य (नकद) तथा मेय (अन्न) दोनों रूप में भूमिकर की अदायगी कर सकते थे।
- भूमि कर ‘भोग’ का उल्लेख मनुस्मृति में तथा भेंट नामक कर का उल्लेख ‘हर्षचरित‘ में किया गया है।
- मंदिरों एवं ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी, उसे ‘अग्रहार’ कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि कर मुक्त होती थी तथा इसके ऊपर धारकों का पूर्ण नियंत्रण होता था। ऐसे भूमिदानों का एकमात्र उद्देश्य शैक्षणिक एवं धार्मिक था।
गुप्तकालीन समाज
वर्णव्यवस्था
- गुप्तकालीन समाज परंपरागत चार वर्णों में विभक्त था।
- चार वर्णों का आधार गुणं और कर्म न होकर जन्म था।
- समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। क्षत्रिय वर्ण का मुख्य कार्य क्षेत्र रक्षा तथा सैनिक सेवा थी। वैश्य वर्ण का मुख्य कार्य कृषि एवं व्यवसाय था। वाणिज्य एवं व्यवसाय के पतन के कारण उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट आई। चौथा वर्ण शूद्र था।
- गुप्तकालीन सामाजिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई परिवार थी।
- फाहियान के वर्णन से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में अस्पृश्य वर्ग था। इन्हें ‘अंत्यज’ तथा ‘चंडाल’ कहा गया है।
- ह्वेनसांग ने शूद्रों को खेतिहर (कृषक) वर्ग के रूप में उल्लेखित किया है। इस काल में शूद्रों की आर्थिक दशा में सुधार हुआ। अब शूद्र सैनिक वृत्ति भी अपनाने लगे थे। इसके अतिरिक्त शूद्रों को इस काल में रामायण, महाभारत पढ़ने का अधिकार भी मिल गया।
- चंडाल को चारों वर्गों में सबसे निम्न स्थान प्राप्त था। मछली मारने,शिकार करने और मांस बेचने का कार्य चंडाल लोग ही करते थे।
- ‘नई जातियों’ में भूमि अनुदान की प्रथा के कारण कायस्थों का उदय हुआ।
- कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में मिलता है।
- इस काल में वर्ण व्यवस्था के आधार पर न्याय किया जाता था और दंड में वर्णभेद कायम था।
- मनुस्मृति के अनुसार चोरी करने पर ब्राह्मण को सबसे अधिक दंड और शूद्र को सबसे कम दंड दिया जाता था। जबकि हत्या के आरोपी शूद्र को सर्वाधिक दंड और ब्राह्मण को कम दंड मिलता था। वस्तुतः ब्राह्मण मृत्युदंड की सजा से मुक्त था।
स्त्रियों की स्थिति
- गुप्त काल में स्त्रियों की दशा में पहले की अपेक्षा गिरावट आई। इसका प्रमुख कारण उपनयन संस्कार बंद होना, अल्पायु में विवाह होना, पर्दा प्रथा या सती प्रथा का प्रचलन आदि था।
- इस काल में ‘देवदासी प्रथा’ का भी प्रचलन था।
- कालिदास के ग्रंथ ‘मेघदूत’ में उज्जैन के महाकाल मंदिर में देवदासी रखे जाने का उल्लेख मिलता है।
- स्त्री शिक्षा का प्रचलन था।
- ‘अमरकोश’ में शिक्षिकाओं के लिये उपाध्याया, उपाध्यायीय और आचार्या शब्द आए हैं।
- ‘कामसूत्र’ एवं ‘मुद्राराक्षस’ में गणिकाओं तथा वेश्याओं का वर्णन मिलता है।
- नारद एवं पराशर स्मृति में विधवा विवाह का समर्थन मिलता है।
दासों की स्थिति
- गुप्त काल में दास प्रथा प्रचलित थी।
- मनु 7 प्रकार के तथा नारद 15 प्रकार के दासों का उल्लेख करते हैं।
- दास मुक्ति के अनुष्ठान का विधान भी सर्वप्रथम नारद ने ही दिया, जोकि इस काल में दास प्रथा के कमजोर होने का संकेत करता है।
- भूमिदान के कारण भूमि का विखंडन हुआ, जिससे दासों की उपयोगिता कम होने लगी।
गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था
कृषि
- गुप्तकालीन आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार ‘कृषि‘ थीं। भूमि पर मुख्यतः राजा का अधिकार होता था।
- बृहत्संहिता के अनुसार तीन फसलों की जानकारी थी। कृषि अधिकांशतः वर्षा पर ही निर्भर थी।
- अमरकोश में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है। निवर्तन, कुल्यावाप, द्रोणवाप तथा आढ़वाप भूमि माप का पैमाना थी।
- सिंचाई का प्रबंध राज्य करता था। सिंचाई का सर्वोत्तम उदाहरण स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में मिलता है।
वाणिज्य एवं व्यापार
- वस्त्र उद्योग इस काल का सर्वप्रमुख उद्योग था। ‘अमरकोश‘ में कताई, बुनाई, हथकरघा, धागे इत्यादि का संदर्भ-आया है।
- इस काल में मिट्टी के बर्तन एवं मृण्मूर्तियाँ बनाने तथा पत्थर एवं धातु के सामान तैयार करने का उद्योग भी विकसित हुआ।
- ‘मेहरौली का लौह-स्तंभ‘ गुप्तकालीन धातु निर्माण कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।
- शिल्पियों एवं व्यावसायियों के निगम, श्रेणी तथा संघ होते थे।
- इस काल में नालंदा, वैशाली आदि स्थानों से श्रेणियों, सार्थवाहों, प्रथम कुलिकों आदि की मुहरें शिल्पियों की संगठनात्मक गतिविधियों को प्रदर्शित करती हैं।
- मंदसौर अभिलेख में पट्टवाय श्रेणी तथा इंदौर लेख में तैलिक श्रेणी का उल्लेख आया है।
- मंदसौर अभिलेख से यह पता चलता है कि रेशम बुनकरों की श्रेणी ने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
- वाणिज्यिक निकायों का उनके वास्तविक कार्य या स्वरूप के आधार पर विभाजन
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- श्रेष्ठि कुलिक निगम– श्रेष्ठियों, शिल्पियों एवं श्रेणियों का केंद्रीय निगम या संघ।
- पूग– विभिन्न जातियों के व्यापारियों का समूह।
- श्रेणी– एक ही जाति के व्यापारियों का समूह।
- निगम– व्यापारियों की समिति को ‘निगम’ कहा जाता था। इसका प्रधान श्रेष्ठि होता था। ‘अमरकोश’ के अनुसार निगम ऐसे व्यापारियों का संगठन था जो एक ही नगर में रहकर व्यापार करते थे।
- इस काल तक रोमन व्यापार का पतन हो चुका था, लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया एवं चीन के साथ व्यापार में वृद्धि हुई।
- ताम्रलिप्ति पूर्वी भारत का, जबकि भृगुकच्छ (भड़ौच)) पश्चिमी , भारत का प्रमुख बंदरगाह था।
- इस काल में चीन से रेशम (चीनांशुक), इथियोपिया से हाथीदाँत तथा अरब, ईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ों का आयात किया जाता था।
मुद्राएँ
- गुप्त शासकों ने सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएँ जारी की, जिन्हें उनके अभिलेखों में ‘दीनार’ कहा गया है।
- सोने का सिक्का 144 ग्रेन का होता था।
- चांदी के सिक्के का प्रयोग स्थानीय लेन-देन में किया जाता था।
- चांदी के सिक्के सर्वप्रथम चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के पश्चात् आरंभ किये थे।
- फाहियान के अनुसार, सामान्य लोग खरीद-बिक्री के लिये ‘कौड़ियों’ का प्रयोग करते थे।
- गुप्त शासकों ने सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्के चलाए।
- गुप्तकालीन सर्वाधिक सिक्के ‘बयाना’ (भरतपुर, राजस्थान) से मिले हैं।
धार्मिक स्थिति
- गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे तथा उन्होंने इसे राजधर्म बनाया था।
- उन्होंने ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण की तथा गरुड़ को अपना राजकीय चिह्न बनाया।
- गुप्त काल में वैष्णव धर्म संबंधी सबसे महत्त्वपूर्ण अवशेष ‘देवगढ़ का दशावतार मंदिर’ (पंचायतन रचना शैली का मंदिर) है। इस मंदिर में शेषनाग की शय्या पर विश्राम करते हुए नारायण विष्णु को दिखाया गया है।
- इस काल में विष्णु के अतिरिक्त शिव, गंगा-यमुना, दुर्गा, सूर्य, नाग, यक्ष आदि देवताओं की भी उपासना होती थी। इस समय हिंदू धर्म के तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष विकसित हुए
- मूर्ति उपासना का केंद्र बन गई।
- यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया।
- वैष्णव तथा शैव धर्मों का समन्वय हुआ।
- हिंदू देवी-देवताओं के अतिरिक्त जैन व बौद्ध अनुयायी भी देश में बड़ी संख्या में विद्यमान थे। अतः बौद्ध एवं जैन धर्मों का प्रचार-प्रसार भी हुआ।
- इस काल में महायान शाखा के अंतर्गत बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ बनाई जाने लगीं।
- प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के मत-मतांतर और दृष्टिकोण प्रचलित थे, परंतु गुप्त काल में चलकर ये षड्दर्शन के रूप में स्थापित हो गए
गुप्तकालीन कला एवं साहित्य
- गुप्त काल कला एवं साहित्य की दृष्टि से ‘स्वर्ण काल‘ था।
- इस काल में स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला के साथ-साथ अन्य विविध कलाओं का उत्थान हुआ। गुप्तकालीन कला की विशेषताएँ निम्न हैं
- प्रथम बार संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण।
- विदेशी प्रभाव से मुक्ति।
- कुषाण आदि पूर्ववर्तीकालीन नग्नता का लोप।
- धर्म, कला के अनुगामी के रूप में।
- पाषाण का अत्यधिक प्रयोग (साथ ही ईंटों का प्रारंभ)
स्थापत्य कला
- गुप्त काल में ही मंदिर-निर्माण कला का जन्म हुआ था।
- देवगढ़ का दशावतार मंदिर (वैष्णव मंदिर) भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर का संभवतः पहला उदाहरण है। इस मंदिर में शेषनाग की शय्या पर विश्राम करते हुए नारायण विष्णु को दिखाया गया है।
- गुप्तकालीन गुहा मंदिरों में ब्राह्मण गुहा मंदिर और बौद्ध गुहा मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं। ब्राह्मण गुहा मंदिर का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उदयगिरि का मंदिर है, इसमें विष्णु के वराह अवतार की विशाल मूर्ति स्थापित की गई है।
मूर्तिकला एवं चित्रकला
- मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे।
- इस काल में विष्णु की मानवाकार प्रतिमाएँ बनीं।
- बुद्ध की भी अनेक प्रतिमाएँ बनीं, जिनमें सारनाथ एवं मथुरा की बौद्ध प्रतिमा प्रसिद्ध है।
- गंगा एवं यमुना का मूर्ति रूप इसी काल की देन है।
- गुप्त काल के चित्रों के अवशेषों को बाघ, अजंता तथा बादामी की गुफाओं में देखा जा सकता है।
- अजंता की 29 गुफाओं में से गुफा संख्या 16, 17 एवं 19 गुप्तकालीन हैं।
- अजंता की गुफाएँ बौद्ध धर्म से संबंधित हैं, जिसमें बोधिसत्व पद्मपाणि का चित्र सर्वधिक प्रसिद्ध है।
शिक्षा एवं साहित्य
- गुप्त काल में पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, काशी और मथुरा शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे।
- नालंदा भी आगे चलकर विश्वविख्यात शैक्षणिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।
- गुप्त काल में सबसे अधिक प्रगति गणित एवं ज्योतिष के क्षेत्र में हुई।
- आर्यभट्ट इस काल के सबसे महान् वैज्ञानिक, गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे।
- आर्यभट्ट ने प्रमाणित किया है कि पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
- शून्य की खोज भी आर्यभट्ट ने की।
- आर्यभट्ट द्वारा वर्गमूल, घनमूल निकालने की विधि तथा ज्या (Sine) सिद्धांत दिया गया।
- वराहमिहिर ने आर्यभट्ट के ज्या सिद्धांत को और अधिक परिशुद्ध किया था।
- ब्रह्मगुप्त ने चक्रिय चतुर्भुज के क्षेत्रफल और विकर्णों की लंबाई ज्ञात करने, शून्य के प्रयोग के नियम और द्विघात समीकरणों को हल करने के सूत्र दिये।
- सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का पितामह कहा जाता है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सुश्रुत संहिता‘ में 121 प्रकार के शल्य उपकरणों का वर्णन किया।
- नागार्जुन रसायन विज्ञान के ज्ञाता थे।
- वाग्भट ने ‘अष्टांगसंग्रह’ नामक आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की।
- वराहमिहिर ने ज्योतिष के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किये। उन्होंने ‘पंचसिद्धांतिका’ नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की।
- पुराणों का जो वर्तमान रूप आज देखने को मिलता है, उसकी रचना गुप्तकाल में हुई थी। इस काल में अनेक स्मृतियों एवं सूत्रों पर भाष्य लिखे गए।
- गुप्त काल में नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतियों की रचना की गई।