- प्रारंभ में यूरोपीय कंपनियों- पुर्तगाली, डच, ब्रिटिश एवं फ्राँसीसी के बीच संघर्ष हुआ। अंततः इस संघर्ष में अंग्रेजों को सफलता मिली।
- इसके के बाद अंग्रेज़ों ने भारतीय राज्यों क्रमशः बंगाल, मैसूर, मराठा एवं सिख आदि को जीतना प्रारंभ किया।
- 1857 तक अपनी रणनीति और युद्धों से अंग्रेज़ों ने संपूर्ण भारत पर अधिकार कर लिया।
यूरोपीय कंपनियों के बीच संघर्ष
आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष
- डेनिस कंपनी 1845 तक अपनी सारी संपत्ति ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बेचकर भारत से चली गई।
- अब ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों के मध्य तीन युद्ध हुए, जिन्हें ‘कर्नाटक युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। इस आंग्ल-फ्राँसीसी संघर्ष में अंततः अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748)
- इस युद्ध को ‘सेंट टोमे’ का युद्ध भी कहा जाता है।
- इस युद्ध की पृष्ठभूमि यूरोप में फ्राँस एवं ब्रिटेन के बीच लड़े गए ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध से ही तैयार हो गई थी।
- लेकिन तात्कालिक कारण एक अंग्रेज़ अधिकारी कैप्टन बार्नेट द्वारा कुछ फ्राँसीसी जहाज़ों पर कब्ज़ा कर लेना था।
- बदले में फ्रांसीसी डूप्ले ने मॉरीशस के गवर्नर ला बुर्डोने की सहायता से अंग्रेजों से मद्रास को जीत लिया।
- अंग्रेजों ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से डूप्ले के विरुद्ध सहायता मांगी।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध फ्रांसीसी सेना और कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के मध्य लड़ा गया। इस युद्ध में फ्रांसीसी विजयी रहे।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध का अंत 1748 में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध की समाप्ति के पश्चात् हुई ‘एक्स-ला-शैपेल’ की संधि (1748) से हुआ।
- इस संधि के अनुसार मद्रास अंग्रेज़ों को तथा अमेरिका में लुईवर्ग फ्रांसीसियों को वापस मिल गया।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754)
- हैदराबाद के संस्थापक निजाम-उल-मुल्क की 1748 में मृत्यु के बाद उसके पुत्र नासिर जंग और पौत्र मुज़फ्फरजंग में गद्दी के लिये संघर्ष छिड़ गया।
- कर्नाटक में भी अनवरुद्दीन व चंदा साहब के बीच भी गद्दी के लिये संघर्ष छिड़ गया।
- फ्रांसीसियों ने चंदा साहब व मुज़फ्फरजंग का समर्थन किया तो अंग्रेज़ों ने अनवरुद्दीन व नासिरजंग का।
- 1749 में अंबर के युद्ध में अनवरुद्दीन मारा गया तथा उसके बेटे मुहम्मद अली ने त्रिचनापल्ली में शरण ले ली।
- 1750 में हैदराबाद में नासिरजंग भी मारा गया और मुज़फ्फरजंग नवाब बना। उसने प्रसन्न होकर फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले को मसुलीपट्टनम व पॉण्डिचेरी का क्षेत्र प्रदान कर दिया ।
- डूप्ले ने हैदराबाद में बुस्सी के नेतृत्व में एक फ्रेंच सैन्य टुकड़ी तैनात की। ।
- एक ब्रिटिश क्लर्क क्लाइव ने अर्काट के किले को घेर लिया।
- तंजौर के सेनापति ने चंदा साहब की हत्या कर दी और जब त्रिचनापल्ली पर फ्रांसीसियों ने आक्रमण किया, फ्रांसीसि अंग्रेजों से परास्त हुए।
- फ्रांसीसी सरकार द्वारा डूप्ले की जगह गोडेहियो को पॉण्डिचेरी का अगला गवर्नर बनाया गया।
- गोडेहियो के प्रयासों से अंग्रेज़ी कंपनी के साथ 1754 में ‘पॉण्डिचेरी की संधि’ हुई, । इस संधि के परिणामस्वरूप दोनों कंपनियों को अपने-अपने क्षेत्र वापस मिल गए।
- कर्नाटक का नवाब मुहम्मद अली को बनाया गया।
- इस संधि में दोनों कंपनियों ने भारतीय राजाओ के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया।
तृतीय कर्नाटक युद्ध (1758–1763)
- तृतीय कर्नाटक युद्ध, 1756 में ऑस्ट्रिया तथा इंग्लैंड के ‘सप्तवर्षीय युद्ध’ का ही विस्तार था।
- यूरोप में फ्राँस, ऑस्ट्रिया को तथा इंग्लैंड, प्रशा को समर्थन दे रहे थे, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत में पड़ा।
- तात्कालिक कारण फ्राँस की सरकार द्वारा ‘काउंट-डी-लाली’ को भारत के संपूर्ण फ्रांसीसी क्षेत्र के सैनिक एवं असैनिक अधिकारों को प्रदान करना था।
- 1758 में लाली ने ‘फोर्ट सेंट डेविड(Chennai)’ पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। हालाँकि तंजौर पर अधिकार करने में असफल रहा।
- लाली ने युद्ध में स्थिति मजबूत करने के लिये ‘बुस्सी’ को हैदराबाद से वापस बुला लिया
- अंग्रेज़ी नौसेना ने एडमिरल पोकॉक के नेतृत्व में फ्रांसीसी बेड़े को तीन बार मात दी और इसी समय क्लाइव और वाटसन ने चंद्रनगर को अपने अधिकार में ले लिया।
- 1760 में अंग्रेज़ी सेनानायक सर आयरकूट के नेतृत्व में ‘वांडिवाश का युद्ध’ (22 जनवरी, 1760) हुआ, जिसमें फ्रांसीसियों की हार हई।
- अंग्रेजों ने 1761 में पॉण्डिचेरी पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद माहे एवं जिंजी पर भी उन्होंने कब्जा कर लिया।
- ततीय कर्नाटक युद्ध का अंत सन् 1763 में ‘पेरिस की संधि’ से हुआ।
1763 में ‘पेरिस की संधि’
-
अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों की सारी फैक्ट्रियाँ लौटा दी, पर अब फ्राँसीसी अपनी फैक्ट्रियों की किलेबंदी नहीं कर सकते थे ,वहाँ सैनिक रख सकते थे। फैक्ट्रियाँ केवल व्यापार केंद्रों के रूप में कार्य कर सकती थीं।
बंगाल का अधिग्रहण
- 1756 ई. सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना।
- बंगाल के नवाबों एवं अंग्रेज़ों के मध्य संघर्ष का प्रमुख कारण 1717 में मुगल बादशाह फर्रुखसियर द्वारा जारी किया गया ‘शाही फरमान’ था।
- बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता (फोर्ट विलियम) पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों ने भाग कर ‘फूल्टा द्वीप’ पर शरण ली।
- हॉलवेल‘ ने ‘ब्लैक होल’ (Black Hole) नामक एक घटना (20 जून, 1756) का उल्लेख किया है । जिसके अनुसार, सिराजुद्दौला ने कोठरी में 146 अंग्रेजों को बंद कर दिया जिनमें महज़ 23 ही जिंदा बच सके।
- नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता का नाम बदलकर अलीनगर रख दिया एवं मानिक चंद को कलकत्ता का प्रभारी बनाया लेकिन बाद में मानिक चंद ने किला अंग्रेज़ों को सौंप दिया।
- क्लाइव द्वारा फ्रांसीसी बस्ती चंद्रनगर पर विजय के बाद सिराजुद्दौला ने अंग्रेजो से अलीनगर की संधि (फरवरी 1757) की ।
अलीनगर की संधि
- अंग्रेज़ों को कलकत्ता की किलेबंदी करने,
- सिक्के ढालने का अधिकार
- नवाब ने अंग्रेजो को युद्ध में हुई हानि का हर्जाना दिया गया
प्लासी का युद्ध (23 जून, 1757)
- प्लासी की लडाई 23 जून, 1757 को बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजो की सेना से हुयी ।
- नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफ़र तथा दीवान रायदुर्लभ अंग्रेजों से मिल चुके थे।
- अंग्रेज़ों के इस षड्यंत्र में दरबार के अन्य व्यक्ति भी शामिल थे. यथा-पूर्णिया के नवाब शौकत जंग, सिराजुद्दौला की मौसी घसीटी बेगम, मीर जाफ़र, रायदुर्लभ, जगतसेठ, मानिक चंद, खादिम खान एवं अमीचंद।
- अंग्रेजों और दरबारियों द्वारा रचे गए इन षड्यंत्रों में कासिम बाज़ार के प्रमुख वॉटसन (watson) की भूमिका अहम थी।
- इस युद्ध में नवाब के विश्वसनीय सहयोगी मीर मदान एवं मोहनलाल वीरगति को प्राप्त हुए।
- नवाब सिराजुद्दौला भागकर मुर्शिदाबाद चला गया, जहाँ मीर जाफ़र के पुत्र मीरन ने मुहम्मद बेग द्वारा उसकी हत्या करवा दी।
- प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों द्वारा मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया,
- मीर जाफर के बाद अंग्रेजों ने मीरकासिम को बंगाल का अगला नवाब घोषित किया।
- मीर कासिम को बंगाल का नवाब बनाए जाने की घटना को गवर्नर सिटार्ट ने ‘1760 की क्रांति’ की संज्ञा दी।
- मीर कासिम ने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया।
- सैन्य सुधारों और 1763 में नवाब द्वारा आंतरिक व्यापार पर लगे सभी करों को समाप्त कर देने से नवाब और कंपनी के संबंधों में तनाव आ गया।
- राजस्व वृद्धि हेतु मीर कासिम द्वारा एक अतिरिक्त कर ‘खिज़री जमा’ लगाया गया, जो सभी के लिये था।
- मीर जाफ़र को पुनः बंगाल का नवाब घोषित कर दिया।
- बंगाल से निष्कासित होने के बाद मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से शरण मांगी। अवध में मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय (अली गौहर) पहले ही शरणार्थी का जीवन व्यतीत कर रहा था। फलतः इन तीनों ने संयुक्त होकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक समझौता किया, जिसके परिणामस्वरूप अक्तूबर 1764 में ‘बक्सर का युद्ध‘ हुआ।
बक्सर का युद्ध (22 अक्तूबर, 1764)
- बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की सेना का सफल नेतृत्व हेक्टर मुनरो और मीर कासिम की सेना का नेतृत्व गुर्गीन खाँ द्वारा किया गया।
- बक्सर के युद्ध में शुजाउद्दौला, मीर कासिम तथा शाहआलम द्वितीय के नेतृत्व वाली सम्मिलित सेना की पराजय हुई।
- इस युद्ध के बाद शाहआलम द्वितीय अंग्रेजों की शरण में आ गया।
- अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने भी आत्मसमर्पण कर दिया।
- मीर कासिम दिल्ली की ओर भाग गया, जहाँ 1777 में उसकी मृत्यु हो गई।
1765 की इलाहाबाद की संधि
- इलाहाबाद की संधि हेतु क्लाइव दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बन कर आया । यह संधि दो चरणों में संपन्न हई
इलाहाबाद की प्रथम संधि (12 अगस्त, 1765)
- यह संधि, मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय तथा अंग्रेज़ गवर्नर क्लाइव के बीच हुई।
- इस संधि के तहत कंपनी को स्थायी रूप से बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) मिल गई।
- कंपनी ने दीवानी कार्य के लिये बंगाल में मोहम्मद रज़ा खाँ, बिहार में शिताब राय तथा उड़ीसा में रायदुर्लभ की नियुक्ति की।
- इसके बदले कंपनी , मुगल सम्राट को 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन देगी ।
- कंपनी ने अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद के जिले लेकर मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय दिये।
इलाहाबाद की द्वितीय संधि (16 अगस्त, 1765)
- यह संधि क्लाइव एवं अवध के नवाब शुजाउद्दौला के मध्य संपन्न हुई।
- इस संधि के तहत
- इलाहाबाद और कड़ा को छोड़कर अवध का सभी क्षेत्र नवाब को वापस कर दिया गया।
- अवध के नवाब कंपनी को 50 लाख रुपये देंगे ।
- अवध की सुरक्षा हेतु अंग्रेज़ी सेना अवध में होगी ,नवाब के खर्च पर ।
- कंपनी को अवध में कर मुक्त व्यापार करने की छूट मिली ।
- बनारस और गाजीपुर के क्षेत्र में अंग्रेजों की संरक्षिता में जागीरमा बलवंत सिंह को अधिकार दिया गया। हालाँकि यह अवध राजा के अधीन ही माना गया।
बंगाल में द्वैध शासन (1765-1772)
- 1765 में नज्मुद्दौला को कंपनी द्वारा इस शर्त पर नवाब बनने की अनुमति दी गई कि कंपनी निज़ामत(management) के कार्यों की देख-रेख के लिये नायब सूबेदार नियुक्त करेगी।
- कंपनी ने नायब दीवान(वित्तीय प्रबंधन) और नायब निज़ाम(प्रबंध या व्यवस्था का क्रम) के रूप में मोहम्मद रज़ा खाँ को नियुक्त किया। (नायब-किसी की ओर से काम करनेवाला)
- कंपनी का बंगाल की पुलिस और न्यायिक शक्तियों पर पूर्ण नियंत्रण हो गया।
- इतिहास में इस व्यवस्था को ‘द्वैध शासन’ के नाम से जाना जाता है।
- कंपनी के पास – राजस्व वसूली तथा दीवानी न्याय का अधिकार
- नवाब -आंतरिक शांति व्यवस्था, फौजदारी न्याय तथा समस्त प्रशासनिक दायित्व
- ‘अधिकार’ और ‘उत्तरदायित्व’ दोनों को अलग कर दिया गया था।
- इस तरह बंगाल में नवाब का स्वतंत्र शासन समाप्त हो गया।
- 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने द्वैध शासन को समाप्त कर दिया।
मैसूर (प्रारंभिक स्थिति)
- विजयनगर के पतन के बाद मैसूर में वाडयार वंश का शासन था ।
- मैसूर में वास्तविक शक्ति सेनापति देवराज और राजस्व मंत्री नंजराज के हाथों थी ।
- हैदर अली एक सामान्य सिपाही से प्रगति करता हुआ 1755 में डिंडीगुल का फौजदार बन जाता है और वहाँ फ्रांसीसियों की मदद से एक आधुनिक शस्त्रागार की स्थापना करता है।
- 1761 में हैदर मैसूर का वास्तविक शासक बन जाता है और 1776 में वह स्वयं को राजा घोषित करता है।
- हैदर अली पेशवा माधव राव से युद्ध में हार जाता है और मराठों को चौथ देना स्वीकार करता है ।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767- 1769)
- 1767-69 के बीच मराठों तथा निज़ाम से संधि कर अंग्रेजों ने हैदर अली के ख़िलाफ़ युद्ध प्रारंभ किया परंतु कुछ समय बाद ही निज़ाम हैदर अली की ओर आ गया।
- दक्कन में भारतीय शक्तियों में हैदर अली पहला व्यक्ति था, जिसने अंग्रेजों को पराजित किया।
- हैदर अली और अंग्रेजों के बीच एक मद्रास की संधि-1769 हुआ।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784)
- जब (1770-71) में मराठों ने हैदर अली पर आक्रमण किया था और 1769 की मद्रास की संधि के अनुसार अंग्रेज़ों ने हैदर अली को सहायता नहीं दी। यह शर्तों का उल्लंघन था।
- 1780 में हैदर अली ने कर्नाटक में अर्काट पर आक्रमण कर द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध की शुरुआत की। इस युद्ध में निज़ाम व मराठों ने उसका साथ दिया।
- उसने अंग्रेज़ कर्नल बेली को बुरी तरह परास्त कर अर्काट पर अधिकार कर लिया।
- गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हैदर अली से मुकाबले के लिये आयरकूट को दक्षिण भेजा, जिसने निज़ाम व मराठों को हैदर अली गुट से अलग करने में सफलता प्राप्त की।
- 1781 में हैदर अली और अंग्रेज़ों ( आयरकूट के नेतृत्व में) के बीच ‘पोर्टोनोवा का युद्ध‘ हुआ, जिसमें हैदर अली पराजित हुआ ।
- अंग्रेजों से युद्ध में 1782 में युद्ध करते हुए हैदर अली की मृत्यु हो गई।
- हैदर अली की मृत्यु के बाद उसका पुत्र टीपू सुल्तान मैसूर का अगला शासक बना।
- हैदर अली की मृत्यु के बाद टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा।
- लेकिन इसी समय यूरोप की संधि के कारण फ्रांसीसी युद्ध से अलग हो गए और टीपू ने अंग्रेजों से ‘मंगलौर की संधि’ (1784) कर ली।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792)
- टीपू मंगलौर की संधि से संतुष्ट नहीं था।
- उसने कुस्तुन्तुनिया और फ्रांस से भी सहायता मांगी ।
- टीपू ने 1789 में त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया। कॉर्नवालिस ने 1790 में वेल्लूर और बंगलौर पर अधिकार करने के बाद श्रीरंगपट्टनम पर आक्रमण किया।
- अंग्रेज़ों ने पुन: हैदराबाद के निज़ाम और मराठों के सहयोग से श्रीरंगपट्टनम पर आक्रमण किया।
- अंग्रेज़ों और टीपू के बीच मार्च 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि संपन्न हुई।
- टीपू को अपने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेज़ों तथा उनके सहयोगियों को देना था। इस संधि के अंतर्गत अंग्रेज़ों को बारामहल, डिंडीगुल तथा मालाबार मिला। मराठों को तुंगभद्रा नदी के उत्तर का भाग और निजाम को पेन्नार तथा कृष्णा नदी के बीच का भाग मिला।
- युद्ध के हर्जाने के रूप में तीन करोड़ रुपये भी अंग्रेजों को देने थे। ( हर्जाना न देने तक अंग्रेज़ों ने टीपू के दो पुत्रों को बंधक बनाकर रखा।
- कॉर्नवालिस ने कहा था कि “हमने अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाए बिना अपने शत्रु को पंगु कर दिया है।”
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799)
- टीपू ने अंग्रेजों से मुकाबले हेतु अंतर्राष्ट्रीय सहयोग लेने कि लिये नेपोलियन से भी पत्र व्यवहार किया।
- 4 मई, 1799 को टीपू अंग्रेज़ों की संयुक्त सेना से लड़ते हुए युद्ध में मारा गया।
- अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टनम पर अधिकार कर लिया।
- अंग्रेजों ने मैसूर पर नियंत्रण स्थापित करके वाड्यार वंश के कृष्णराज द्वितीय को सत्ता सौंपकर उससे सहायक संधि कर ली।
टीपू सुल्तान
- 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना।
- उसने ने नई मुद्रा, नई माप-तौल की इकाई और नवीन संवत् (कैलेंडर) का प्रचलन किया।
- टीपू सुल्तान ने अपने सेना को यूरोपीय पद्धति के अनुरूप संगठित किया ।
- 1796 में टीपू ने एक नौसेना खड़ी करने की कोशिश की।
- मोलीदाबाद, वाजिदाबाद, मंगलौर आदि में टीपू ने पोत निर्माण घाट (Dock | Yard) का निर्माण कराया।
- टीपू ने बादशाह की उपाधि धारण की तथा अपने नाम से सिक्के जारी किये।
- टीपू सुल्तान फ्राँसीसी क्रांति से प्रभावित था।
- उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम में ‘स्वतंत्रता का वृक्ष’ लगवाया तथा ‘जैकोबिन क्लब’ का सदस्य बन गया।
- जब 1791 में मराठा घुड़सवारों से शृंगेरी के शारदा मंदिर को लूटा तो शृंगेरी के मंदिर की मरम्मत के लिये धन दिया।
- टीपू भारत का प्रथम शासक था, जो आर्थिक शक्ति को सैन्य शक्ति की नींव मानता था।
- टीपू ने फ्राँस, तुर्की, ईरान तथा पेगू (बर्मा) में अरब, कुस्तुन्तुनिया, काबुल और मॉरीशस में अपने दूत भेजे।
- टीप ने ज़मींदारी व्यवस्था के स्थान पर रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को अपनाया।
- उसने कर-मुक्त भूमि “इनाम” पर अधिकार कर पॉलिगरों के पैतृक अधिकार को जब्त कर लिया।
- टीपू को ‘सीधा-सादा दैत्य’ (Monster Pure and Simple)’ कहा जाता था।
- टीपू को उसकी वीरता के कारण ‘शेर-ए-मैसूर’ कहा जाता था।
- उसका मानना था कि “शेर की तरह एक दिन जीना बेहतर है। लेकिन भेड़ की तरह लंबी जिंदगी जीना अच्छा नहीं।”
- टीपू वह प्रथम व्यक्ति था जिसने रॉकेट का युद्ध में प्रयोग किया।
आंग्ल-मराठा संघर्ष
- अंग्रेजों और मराठों के बीच तीन युद्ध हुई, जिसमें अंग्रेज़ अंतिम रूप से विजयी हुए।
- नारायणराव के पुत्र माधव नारायणराव को जब पेशवा घोषित किया
- रघुनाथ राव ने बंबई की अंग्रेजी सरकार से ‘सूरत की संधि’ (1775)की।जिसका कलकत्ता अंग्रेजी सरकार ने विरोध किया।
- सूरत की संधि (1775)
- पेशवा पद के बदले नज़राना अंग्रेजों को
- सालसेट, बसीन व थाणे का क्षेत्र अंग्रेजों को देना
- सूरत एवं भड़ौच का राजस्व भी अंग्रेज़ों को
- इसके बदले अंग्रेज़ रघुनाथ राव पेशवा बनाने पर सहमत हो गए।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782)
- सूरत की संधि के तहत कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में 18 मई, 1775 को ‘आरस के मैदान , सूरत ‘ में अंग्रेजों और मराठा सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें मराठों की पराजय हुई। इसके बाद पुरंदर की संधि हुई।
पुरंदर की संधि (1776)
- कंपनी रघुनाथ राव का समर्थन नहीं करेंगी
- सालसेट व थाणे पर अंग्रेज़ों का प्रभुत्व बना रहेगा।
- पुरंदर की संधि कलकत्ता की अंग्रेज़ी सरकार और पूना दरबार के बीच हुई थी। बंबई की अंग्रेजी सरकार ने पुरंदर संधि का विरोध किया। पुनः युद्ध छेड़ दिया।
तालगाँव की लड़ाई,1779
- पश्चिमी घाट में स्थित तालगाँव की लड़ाई में अंग्रेजों को पराजय झेलनी पड़ी।
- बंबई सरकार को पूना दरबार से बड़गाँव की संधि करनी पड़ी।
बड़गाँव की संधि (1779)
- 1773 के बाद बंबई सरकार द्वारा विजित सारे मराठा क्षेत्र वापस करने पड़े।
- वारेन हेस्टिंग्स ने इसे मानने से इनकार कर दिया।
- बाद में अंग्रेज सरकार और पूना दरबार के बीच सालबाई की संधि हुई।
सालबाई की संधि (1782)
- सालसेट व एलफेंटा अंग्रेजों के पास
- कंपनी ने पेशवा को पेंशन देना स्वीकार कर लिया।
- फडनवीस को ‘मराठों का मैकियावेली‘ कहा जाता था
- पेशवा ने 1801 में जसवंत राव होल्कर के भाई की हत्या कर दी तो होल्कर ने पेशवा तथा सिंधिया की सम्मिलित सेना को ‘हदपसर’ नामक स्थान पर पराजित किया, पेशवा ने भाग कर बसीन में शरण ली। जहाँ उसने अंग्रेजों से बसीन की संधि की।
बसीन की संधि (1802)
- पेशवा ने अपनी स्वायत्तता अंग्रेज़ों को सौंप दी।
- पेशवा ने पूना में अंग्रेज़ी सेना को रखना स्वीकार किया।
- गुजरात तथा तुंगभद्रा नदी के दोआब क्षेत्र अंग्रेजों को सौंप दिये
- मराठों के विदेशी संबंध अंग्रेज़ों के अधीन हो गए।
- पेशवा ने सूरत नगर कंपनी को सौंप दिया।
- बसीन की संधि (1802) द्वितीय-आंग्ल मराठा युद्ध का कारण बनी क्योंकि इस संधि के प्रावधान मराठा सरदारों को अपमानजनक लगे।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805)
- अंग्रेजों ने ऑर्थर वेलेजली के नेतृत्व में दक्कन में तथा जनरल लेक के नेतृत्व में उत्तर भारत में मराठों के विरुद्ध सफल अभियान किए।
- 23 सितंबर, 1803 को आर्थर वेलेजली ने सिंधिया और भोंसले की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया।
- उत्तर भारत में जनरल लेक ने दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया।
- भोंसले और सिंधिया को विवश होकर अंग्रेजों से संधियाँ करनी पड़ी।
- बाद में होल्करों ने भी राजपुर घाट (1805) की संधि की।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1816-1819)
- तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का तात्कालिक कारण गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स की दमनात्मक नीतियाँ भी थीं।
- हेस्टिग्स ने पिंडारियों के विरुद्ध अपने अभियान की शुरुआत की
पिंडारी(Pindari)
- पिंडारी मराठा सेना में अवैतनिक सैनिकों के रूप में अपनी सेवा देते थे। ये लूटमार करने वाले दलों के रूप में होते थे।
- इनकी नियुक्ति बाजीराव प्रथम के समय शुरू हुई थी। ये मराठों की ओर से युद्ध में भाग लेते थे, जिसके बदले उन्हें लूट से प्राप्त रकम का एक निश्चित हिस्सा दिया जाता था।
- पिंडारियों के विरुद्ध हेस्टिंग्स की प्रत्यक्ष कार्रवाई से तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध शुरू हो गया।
पूना की संधि और पेशवा का अंत
- पेशवा का समस्त राज्य अंग्रेजी बंबई प्रेसिडेंसी में विलय ।
- संधि के बाद पेशवा का पद 1818 में समाप्त कर दिया गया और बाजीराव द्वितीय को कंपनी का पेंशनर बनाकर बिठूर (कानपूर, उत्तर प्रदेश) भेज दिया गया।
- पेशवा के सहायक त्रियंबकराव को आजीवन कारावास देकर बनारस के पास चुनार के दुर्ग में केद कर दिया गया।
- नाममात्र के छोटे से राज्य सतारा में छत्रपति शिवाजी के वंशज को राजा बनाया गया।
- इस प्रकार हेस्टिंग्स ने पेशवा का अंत कर दिया।
आंग्ल-सिख संघर्ष
रणजीत सिंह (1780-1839)
- 1792 में रणजीत सिंह सुकरचकिया मिसल के प्रमुख बने।
- 1799 में रणजीत सिंह ने लाहौर पर कब्जा किया और 1802 में भंगी मिसल से अमृतसर छीन लिया।
- महाराजा रणजीत सिंह ने ‘लाहौर’ को अपनी राजधानी बनाया।
- रणजीत सिंह ने अपनी सेना का गठन यूरोपीय मॉडल से किया, जिसमें घुड़सवार के प्रशिक्षण के लिये फ्रांसीसी सेनापति आलार्ड तथा पैदल सेना के लिये इटली के सेनापति बंतूरा और तोपखाने के प्रशिक्षण के लिये फ्रांसीसी जनरल कोर्ट एवं अमेरिकी कर्नल गार्डनर को नियुक्त किया।
- रणजीत सिंह के सैन्य संगठन को ‘भारतीय पृष्ठभूमि में ब्रिटिश-फ्रांसीसी सैन्य व्यवस्था’ कहा जाता था।
- रणजीत सिंह की फौज एशिया की दूसरी सबसे अच्छी फौज थी। पहला स्थान अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज का था।
- रणजीत सिंह ने 1809 में चार्ल्स मेटकॉफ से ‘अमृतसर की संधि‘ की।
- अब्दाली के पौत्र ‘शाहशुजा’ की सहायता के कारण महाराजा रणजीत सिंह को कोहिनूर हीरा मिला , जिसे नादिरशाह लाल किले से लूटकर ले गया था।
- फ्रांसीसी यात्री विक्टर जाकमाँ ने रणजीत सिंह की तुलना ‘नेपोलियनसे की थी।
- 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई।
- तत्पश्चात् सिख क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर अंग्रेज़ों और सिखों के बीच ‘आंग्ल-सिख युद्ध’ हुआ ।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-1846)
- प्रथम आंग्ल-सिख संघर्ष के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग तथा अंग्रेज़ी सेना का प्रमुख सर ह्यूगफ था।
- प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध से संबंधित है।
- सितंबर 1845 – ‘मुदकी’ की लड़ाई
- दिसंबर 1845 – फिरोजशाह की लड़ाई
- जनवरी 1846 – बद्दोवाल और आलीवाल की लड़ाइयाँ
- फरवरी 1846) – सबराओं की लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई।
- मार्च 1846 में अंग्रेज़ों एवं सिखों के बीच ‘लाहौर की संधि‘ हुई।
- सतलज नदी से दक्षिण की तरफ के सारे क्षेत्र अंग्रेज़ों को ।
- अंग्रेजों ने दिलीप सिंह को महाराजा तथा लाल सिंह को वज़ीर के रूप में स्वीकार ।
- लाहौर के कश्मीर क्षेत्र को अंग्रेज़ों ने राजा गुलाब सिंह को बेच दिया, जिस कारण सिखों ने लाल सिंह के नेतृत्व में पुनः विद्रोह कर दिया।
- दिसंबर, 1846 में भैरोवाल की संधि हुई,
- राजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना लाहौर में तैनात
- सिख सरदारों की एक परिषद् अंग्रेज़ रेजिडेंट की अध्यक्षता में शासन के कार्य हेतु नियुक्त
- राज्य के किसी भी हिस्से में ब्रिटिश सेना की तैनाती ।
द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-1849)
- मुल्तान के गवर्नर मूलराज को अपदस्थ करने के कारण सिखों ने विद्रोह किया जिसका लाभ उठाकर डलहौजी ने युद्ध की घोषणा कर दी।
- द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध से संबंधित है।
- रामनगर का युद्ध (नवंबर 1848),
- चिलियाँवाला का युद्ध (जनवरी 1849)
- चार्ल्स नेपियर की सेना ने फरवरी 1849 में गुजरात के युद्ध में सिख सेना को परास्त किया।
- गुजरात युद्ध जीतने के पश्चात् लॉर्ड डलहौजी ने मार्च 1849 में पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय ।
- महाराजा दलीप सिंह को अंग्रेजों ने लगभग 5 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर शिक्षा के लिये इंग्लैंड भेज दिया।
- दलीप सिंह से कोहिनूर हीरा लेकर ब्रिटिश राजमुकुट में लगा दिया गया।
अन्य युद्ध तथा संधियाँ
आंग्ल-नेपाल युद्ध
- लॉर्ड हेस्टिंग्स ने गोरखाओं से यद्ध किया।
आंग्ल-बर्मा युद्ध
- बर्मा को तीन युद्ध व संधियों के पश्चात् ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।
- लॉर्ड एमहर्स्ट ने मणिपुर व आसाम में उनके प्रवेश को लेकर युद्ध (1824) किया। अंतत: 1826 में ‘यान्दबू की संधि‘ की गई।
- 1852 मेंडलहौजी ने युद्ध किया और लोअर बर्मा (पेग) पर अधिकार कर लिया।
- 1881 ई. में भारत सरकार के एक आयोग ने बर्मा और मणिपुर की सीमा को निश्चित किया था। किन्तु बर्मा ने इसे मानने से इंकार कर दिया
- 1885 में डफरिन के समय में आंग्ल-बर्मा का तीसरा युद्ध लड़ा गया
- 1 जनवरी, 1886 को संपूर्ण बर्मा को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया
- 1935 ई. तक बर्मा इसी स्थिति में रहा।
- इसके बाद 1937 से, ब्रिटिश लोग बर्मा को भारत से अलग करके एक अलग उपनिवेश के रूप में शासन करने लगे।
- बर्मा ने 1948 में एक गणतंत्र के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त की।
आंग्ल-अफगान युद्ध
- 1839-42 में गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड के समय में पहला युद्ध लड़ा गया।
- शाहशुजा को दोस्त मुहम्मद की जगह वहाँ का शासक बनाने के लिये त्रिपक्षीय संधि(शाहशुजा,रणजीत सिंह,अंग्रेज़ी सेना) हुआ ।
- जॉन कीन के नेतृत्व में बोलन दर्रे से अंग्रेज़ी सेना भेजी गई और काबुल पर अधिकार प्राप्त कर लिया गया।
- 1840 में शाहशुजा को शासक घोषित कर दिया गया।
- 1842-1878 अफगानिस्तान के प्रति अहस्तक्षेप की नीति को अपनाया गया।
- 1878-80 में लिटन नेदूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध छेड़ दिया।
- कुछ विजयों के उपरांत वहाँ ब्रिटिश रेजिडेंटों की नियुक्ति की गई, किंतु अनियंत्रित स्थिति को देखते हुए बाद में अफगानिस्तान को ‘बफर स्टेट’ के रूप में स्वीकारा गया।
- तीसरा अफगान युद्ध/War of Independence(6 मई – 8 अगस्त 1919)
- Treaty of Rawalpindi,1919
- डूरंड रेखा अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच की सीमा के रूप में
सिंध अभियान (1843)
- एलनबरो के शासनकाल में 1843 में सिंध का अंग्रेजी राज्य में विलय किया गया।