मधु कांकरिया
- मधु कांकरिया का जन्म सन् 1957 में कोलकाता में हुआ।
- उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए, किया, साथ ही कंप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा भी ।
- उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-
- पत्ताखोर (उपन्यास), सलाम आखिरी, खुले गगन के लाल सितारे, बीतते हुए, अंत में ईशु (कहानी-संग्रह) ।
- उन्होंने कई सुंदर यात्रा – वृत्तांत भी लिखे हैं।
- मधु कांकरिया की रचनाओं में विचार और संवेदना की नवीनता मिलती है।
- समाज में व्याप्त अनेक ज्वलंत समस्याएँ जैसे-अप संस्कृति, महानगर की घुटन और असुरक्षा के बीच युवाओं में बढ़ती नशे की आदत, लालबत्ती इलाकों की पीड़ा आदि उनकी रचनाओं के विषय रहे हैं।
साना-साना हाथ जोडि यात्रा- वृत्तांत… – मधु कांकरिया
महानगरों की भाव शून्यता भागमभाग और यंत्रवत जीवन की ऊब मधु जी को दूर-दूर की यात्राओं की ओर ले जाती है और उन्हीं यात्राओं के अनुभवों को उन्होंने अपने यात्रा- वृत्तांतों में शब्दबद्ध किया है। साना-साना हाथ जोड़ि… में पूर्वोत्तर भारत के सिक्किम राज्य की राजधानी गंतोक और उसके आगे हिमालय की यात्रा का वर्णन है। हिमालय के अनंत सौंदर्य का ऐसा अदभूत और काव्यात्मक वर्णन लेखिका ने किया है कि मानो हिमालय का पल-पल परिवर्तित सौंदर्य हम स्वयं अपनी आँखों से निहार रहे हों। महिला यायावरी की विशिष्टता भी इस यात्रा वृत्तांत में देखी जा सकती है।
लेखिका हिमालय के सौंदर्य पर मुग्ध ही नहीं होती, वहाँ के निवासियों की मेहनत, अभाव और गरीबी को भी रेखांकित करती है। साथ ही यह बताना भी नहीं भूलती कि हिमालय तक पहुँचने के लिए बनाए जाने वाले रास्तों के निर्माण में लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। इस पाठ में पीड़ा और सौंदर्य का अद्भुत मेल है तथा इसे पढ़कर अकेलेपन और करुणा के भाव जाग्रत होते हैं तथा सृष्टि की समग्रता का अहसास होता है।
यात्राओं से मनोरंजन ज्ञानवर्धन एवं अज्ञात स्थलों की जानकारी के साथ-साथ भाषा और संस्कृति का आदान-प्रदान भी होता है। इतना ही नहीं घुमक्कड़ी हमें अपने ‘स्व’ की संकीर्णता से भी मुक्त करती है।
साना-साना हाथ जोडि… – मधु कांकरिया
मैंने हैरान होकर देखा-आसमान जैसे उलटा पड़ा था और सारे तारे बिखरकर नीचे टिमटिमा रहे थे। दूर… ढलान लेती तराई पर सितारों के गुच्छे रोशनियों की एक झालर-सी बना रहे थे। क्या था वह ? वह रात में जगमगाता गैंगटॉक शहर था – इतिहास और वर्तमान के संधि-स्थल पर खड़ा मेहनतकश बादशाहों का वह एक ऐसा शहर था जिसका सब कुछ सुंदर था- सुबह, शाम, रात।
और वह रहस्यमयी सितारों भरी रात मुझमें सम्मोहन जगा रही थी, कुछ इस कदर कि उन जादू भरे क्षणों में मेरा सब कुछ स्थगित था, अर्थहीन था… मैं, मेरी चेतना, मेरा आस-पास मेरे भीतर-बाहर सिर्फ़ शून्य था और थी अतींद्रियता (इन्द्रियों से परे)‘ में डूबी रोशनी की वह जादुई झालर ।
धीरे-धीरे एक उजास (प्रकाश, उजाला) उस शून्य से फूटने लगा… एक प्रार्थना होंठों को छूने लगी… साना-साना हाथ जोड़ गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली (छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो) । आज सुबह की प्रार्थना के ये बोल मैंने एक नेपाली युवती से सीखे थे।
सुबह हमें यूमथांग के लिए निकल पड़ना था, पर आँख खुलते ही मैं बालकनी की तरफ़ भागी । यहाँ के लोगों ने बताया था कि यदि मौसम साफ़ हो तो बालकनी से भी कंचनजंघा दिखाई देती है। हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा ! पर मौसम अच्छा होने के बावजूद आसमान हलके-हलके बादलों से ढका था, पिछले वर्ष की ही तरह इस बार भी बादलों के कपाट ठाकुर जी के कपाट की तरह बंद ही रहे। कंचनजंघा न दिखनी थी, न दिखी। पर सामने ही रकम रकम (तरह-तरह के) के रंग-बिरंगे इतने सारे फूल दिखाई पड़े कि लगा फूलों के बाग में आ गई हूँ।
बहरहाल… गैंगटॉक से 149 किलोमीटर की दूरी पर यूमथांग था । “यूमथांग यानी घाटियाँ… सारे रास्ते हिमालय की गहनतम घाटियाँ और फूलों से लदी वादियाँ मिलेंगी आपको” ड्राइवर-कम-गाइड जितेन नार्गे मुझे बता रहा था । ” क्या वहाँ बर्फ़ मिलेगी?” मैं बचकाने उत्साह से पूछने लगती हूँ।
चलिए तो…।
जगह-जगह गदराए पाईन और धूपी के खूबसूरत नुकीले पेड़ों का जायजा लेते हुए हम पहाड़ी रास्तों पर आगे बढ़ने लगे कि एक जगह दिखाई दीं… एक कतार में लगी सफ़ेद – सफ़ेद बौद्ध पताकाएँ। किसी ध्वज की तरह लहराती… शांति और अहिंसा की प्रतीक ये पताकाएँ जिन पर मंत्र लिखे हुए थे। नार्गे ने बताया- यहाँ बुद्ध की बड़ी मान्यता है । जब भी किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है, उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी भी पवित्र स्थान पर एक सौ आठ श्वेत पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। नहीं, इन्हें उतारा नहीं जाता है, ये धीरे-धीरे अपने आप ही नष्ट हो जाती हैं। कई बार किसी नए कार्य की शुरुआत में भी ये पताकाएँ लगा दी जाती हैं पर वे रंगीन होती हैं। नार्गे बोलता जा रहा था और मेरी नज़र उसकी जीप में लगी दलाई लामा की तसवीर पर टिकी हुई थी। कई दुकानों पर भी मैंने दलाई लामा की ऐसी ही तसवीर देखी थी।
हिचकोले खाती हमारी जीप थोड़ी और आगे बढ़ी। अपनी लुभावनी हँसी बिखेरते हुए जितेन बताने लगा…इस जगह का नाम है कवी- लोंग स्टॉक । यहाँ ‘गाइड’ फिल्म की शूटिंग हुई थी । तिब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संधि-पत्र पर यहीं हस्ताक्षर किए थे। एक पत्थर यहाँ स्मारक के रूप में भी है। (लेपचा और भुटिया सिक्किम की इन दोनों स्थानीय जातियों के बीच चले सुदीर्घ झगड़ों के बाद शांति वार्ता का शुरुआती स्थल । )
उन्हीं रास्तों पर मैंने देखा – एक कुटिया के भीतर घूमता चक्र। यह क्या? नार्गे कहने लगा…” मैडम यह धर्म चक्र है। प्रेयर व्हील । इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं। ” ” क्या?” चाहे मैदान हो या पहाड़, तमाम वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद इस देश की आत्मा एक जैसी । लोगों की आस्थाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ एक जैसी ।
रफ़्ता – रफ़्ता (धीरे-धीरे) हम ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे। बाज़ार लोग और बस्तियाँ पीछे छूटने लगे। अब परिदृश्य से चलते-चलते स्वेटर बुनती नेपाली युवतियाँ और पीठ पर भारी-भरकम कार्टून ढोते बौने से दिखते बहादुर नेपाली ओझल हो रहे थे। अब नीचे देखने पर घाटियों में ताश के घरों की तरह पेड़-पौधों के बीच छोटे-छोटे घर दिखाई दे रहे थे। हिमालय भी अब छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में नहीं वरन् अपने विराट रूप एवं वैभव के साथ सामने आने वाला था। न जाने कितने दर्शकों, यात्रियों और तीर्थाटानियों का काम्य हिमालय । पल-पल परिवर्तित हिमालय!
और देखते-देखते रास्ते वीरान, सँकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे। हिमालय बड़ा होते-होते विशालकाय होने लगा। घटाएँ गहराती-गहराती पाताल नापने लगीं। वादियाँ चौड़ी होने लगीं। बीच-बीच में करिश्मे की तरह रंग-बिरंगे फूल शिद्दत (तीव्रता, प्रबलता, अधिकता) से मुसकराने लगे। उन भीमकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने संकरे कच्चे – पक्के रास्तों से गुज़रते यूँ लग रहा था जैसे हम किसी सघन हरियाली वाली गुफा के बीच हिचकोले खाते निकल रहे हों।
इस बिखरी असीम सुंदरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी सैलानी झूम-झूमकर गाने लगे–” सुहाना सफ़र और ये मौसम हँसी…।”
पर मैं मौन थी। किसी ऋषि की तरह शांत थी। मैं चाहती थी कि इस सारे परिदृश्य को अपने भीतर भर लूँ। पर मेरे भीतर कुछ बूँद-बूँद पिघलने लगा था। जीप की खिड़की से मुंडकी (सिर)‘ निकाल – निकाल मैं कभी आसमान को छूते पर्वतों के शिखर देखती तो कभी ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल-प्रपातों को। तो कभी नीचे चिकने- चिकने गुलाबी पत्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती, चाँदी की तरह कौंध मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को। सिलीगुड़ी से ही हमारे साथ थी यह तिस्ता नदी पर यहाँ उसका सौंदर्य पराकाष्ठा पर था । इतनी खूबसूरत नदी मैंने पहली बार देखी थी। मैं रोमांचित थी । पुलकित थी। चिड़िया के पंखों की तरह हलकी थी।
” मेरे नगपति मेरे विशाल ” – मैंने हिमालय को सलामी देनी चाही कि तभी जीप एक जगह रुकी… खूब ऊँचाई से पूरे वेग के साथ ऊपर शिखरों के भी शिखर से गिरता फेन उगलता झरना। इसका नाम था – ‘सेवन सिस्टर्स वॉटर फॉल।’ फ़्लैश चमकने लगे। सभी सैलानी इन खूबसूरत लम्हों की रंगत को कैमरे में कैद करने में मशगूल (व्यस्त )थे।
आदिम युग की किसी अभिशप्त (शापित, अभियुक्त) राजकुमारी-सी मैं भी नीचे बिखरे भारी-भरकम पत्थरों पर बैठ झरने के संगीत के साथ ही आत्मा का संगीत सुनने लगी। थोड़ी देर बाद ही बहती जलधारा में पाँव डुबोया तो भीतर तक भीग गई। मन काव्यमय हो उठा। सत्य और सौंदर्य को छूने लगा।
जीवन की अनंतता का प्रतीक वह झरना… उन अद्भुत अनूठे क्षणों में मुझमें जीवन की शक्ति का अहसास हो रहा था। इस कदर प्रतीत हुआ कि जैसे मैं स्वयं भी देश और काल की सरहदों (सीमा) से दूर बहती धारा बन बहने लगी हूँ। भीतर की सारी तामसिकताएँ ( तमोगुण से युक्त, कुटिल) और दुष्ट वासनाएँ (बुरी इच्छाएँ)” इस निर्मल धारा में बह गईं। मन हुआ कि अनंत समय तक ऐसे ही बहती रहूँ… सुनती रहूँ इस झरने की पुकार को। पर जितेन मुझे ठेलने लगा… आगे इससे भी सुंदर नज़ारे मिलेंगे।
अनमनी-सी मैं उठी। थोड़ी देर बाद ही फिर वही नज़ारे-आँखों और आत्मा को सुख देने वाले । कहीं चटक हरे रंग का मोटा कालीन ओढ़े तो कहीं हलका पीलापन लिए, तो कहीं पलस्तर उखड़ी दीवार की तरह पथरीला और देखते ही देखते परिदृश्य से सब छू-मंतर… जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। सब पर बादलों की एक मोटी चादर । सब कुछ बादलमय।
चित्रलिखित-सी मैं ‘माया’ और ‘छाया’ के इस अनूठे खेल को भर-भर आँखों देखती जा रही थी । प्रकृति जैसे मुझे सयानी (समझदार, चतुर)” बनाने के लिए जीवन रहस्यों का उद्घाटन करने पर तुली हुई थी।
धीरे-धीरे धुंध की चादर थोड़ी छँटी । अब वहाँ पहाड़ नहीं, दो विपरीत दिशाओं से आते छाया-पहाड़ थे और थोड़ी देर बाद ही वे छाया – पहाड़ अपने श्रेष्ठतम रूप में मेरे सामने थे। जीप थोड़ी देर के लिए रुकवा दी गई थी। मैंने गर्दन घुमाई… सब ओर जैसे जन्नत (स्वर्ग)‘ बिखरी पड़ी थी। नज़रों के छोर तक खूबसूरती ही खूबसूरती । अपने को निरंतर दे देने की अनुभूति कराते पर्वत, झरने, फूलों, घाटियों और वादियों के दुर्लभ नज़ारे ! वहीं कहीं लिखा था…’ थिंक ग्रीन।’
आश्चर्य! पलभर में ब्रह्मांड में कितना कुछ घटित हो रहा था। सतत प्रवाहमान झरने, नीचे वेग से बहती तिस्ता नदी । सामने उठती धुंध । ऊपर मँडराते आवारा बादल । मद्धिम-मद्धिम हवा में हिलोरे लेते प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल । सब अपनी-अपनी लय तान और प्रवाह में बहते हुए । चैरवेति – चैरवेति (चलते रहो, चलते रहो) ” । और समय के इसी सतत प्रवाह में तिनके- सा बहता हमारा वज़ूद (अस्तित्व) |
पहली बार अहसास हुआ… जीवन का आनंद है यही चलायमान सौंदर्य ।
संपूर्णता के उन क्षणों में मन इस बिखरे सौंदर्य से इस कदर एकात्म हो रहा था कि भीतर – बाहर की रेखा मिट गई थी, आत्मा की सारी खिड़कियाँ खुलने लगी थीं… मैं सचमुच ईश्वर के निकट थी। सुबह सीखी प्रार्थना फिर होठों को छूने लगी थी… साना-साना हाथ जोड़ि … कि तभी वह अतींद्रिय संसार खंड-खंड हो गया ! वह महाभाव सूखी टहनी – सा टूट गया।
दरअसल मंत्रमुग्ध – सी मैं तंद्रिल अवस्था में ही थोड़ी दूर तक निकल आई थी कि अचानक पाँवों पर ब्रेक सी लगी… जैसे समाधिस्थ भाव में नृत्य करती किसी आत्मलीन नृत्यांगना के नुपूर अचानक टूट गए हों। मैंने देखा इस अद्वितीय सौंदर्य से निरपेक्ष कुछ पहाड़ी औरतें पत्थरों पर बैठीं पत्थर तोड़ रही थीं। गुँथे आटे-सी कोमल काया पर हाथों में कुदाल और हथौड़े ! कईयों की पीठ पर बँधी डोको (बड़ी टोकरी) में उनके बच्चे भी बँधे हुए थे। कुछ कुदाल को भरपूर ताकत के साथ ज़मीन पर मार रही थीं।
इतने स्वर्गीय सौंदर्य, नदी, फूलों, वादियों और झरनों के बीच भूख, मौत, दैन्य और ज़िंदा रहने की यह जंग ! मातृत्व और श्रम साधना साथ – साथ। वहीं पर खड़े बी. आर. ओ. (बोर्ड रोड आर्गेनाइजेशन) के एक कर्मचारी से पूछा मैंने, “यह क्या हो रहा है? उसने चुहलबाज़ी के अंदाज़ में बताया जिन रास्तों से गुज़रते हुए आप हिम शिखरों से टक्कर लेने जा रही हैं उन्हीं रास्तों को ये पहाड़िनें चौड़ा बना रही हैं।’
बड़ा खतरनाक कार्य होगा यह ” मेरे मुँह से अकस्मात निकला। वह संजीदा हो गया। कहने लगा, पिछले महीने तो एक की जान भी चली गई थी। बड़ा दुसाध्य कार्य है पहाड़ों पर रास्ता बनाना। पहले डाइनामाइट से चट्टानों को उड़ा दिया जाता है। फिर बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़-मोड़कर एक आकार के छोटे-छोटे पत्थरों में बदला जाता है, फिर बड़े-से जाले में उन्हें लंबी पट्टी की तरह बिठाकर कटे रास्तों पर बाड़े की तरह लगाया जाता है। ज़रा सी चूक और सीधा पाताल प्रवेश!
और तभी मुझे ध्यान आया…इन्हीं रास्तों पर एक जगह सिक्किम सरकार का बोर्ड लगा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “एवर वंडर्ड हू डिफाइड डेथ टू बिल्ड दीज रोड्स।” ( आप ताज्जुब करेंगे पर इन रास्तों को बनाने में लोगों ने मौत को झुठलाया है।)
एकाएक मेरा मानसिक चैनल बदला। मन पीछे घूम गया। इसी प्रकार एक बार पलामू और गुमला के जंगलों में देखा था… पीठ पर बच्चे को कपड़े से बाँधकर पत्तों की तलाश में वन-वन डोलती आदिवासी युवतियाँ। उन आदिवासी युवतियों के फूले हुए पाँव और इन पत्थर तोड़ती पहाड़िनों के हाथों में पड़े ठाठे (हाथ में पड़ने वाली गाठें या निशान)“, एक ही कहानी कह रहे थे कि आम जिंदगियों की कहानी हर जगह एक-सी है कि सारी मलाई एक तरफ़; सारे आँसू, अभाव, यातना और वंचना एक तरफ़ !
और तभी मेरी सहयात्री मणि और जितेन मुझे खोजते खोजते वहाँ तक आ गए थे। मुझे गमगीन देख जितेन कहने लगा, “मैडम, ये मेरे देश की आम जनता है, इन्हें तो आप कहीं भी देख लेंगी… आप इन्हें नहीं, पहाड़ों की सुंदरता को देखिए… जिसके लिए आप इतने पैसे खर्च करके आई हैं। ”
‘ये देश की आम जनता ही नहीं, जीवन का प्रति संतुलन भी हैं। ये ‘वेस्ट एट रिपेईंग (कम लेना और ज्यादा देना) हैं। कितना कम लेकर ये समाज को कितना अधिक वापस लौटा देती हैं’, मन ही मन सोचा मैंने। हम वापस जीप की ओर मुड़ने लगे कि तभी मैंने देखा – वे श्रम-सुंदरियाँ किसी बात पर इस कदर खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं कि जीवन लहरा उठा था और वह सारा खंडहर ताजमहल बन गया था।
हम लगातार ऊँचाईयों पर चढ़ते जा रहे थे। जितेन बता रहा था, अब हम हर मोड़ पर हेयर पिन बेंट लेंगे और तेजी से ऊँचाई पर चढ़ते जाएँगे। हेयर पिन बेंट के ठीक पहले एक पड़ाव पर देखा सात-आठ वर्ष की उम्र के ढेर सारे पहाड़ी बच्चे स्कूल से लौट रहे थे और हमसे लिफ्ट माँग रहे थे। जितेन ने बताया हर दिन तीन-साढ़े तीन किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई चढ़कर ये बच्चे स्कूल जाते हैं।
‘क्या स्कूली बस नहीं ?”
मणि के पूछने पर जितेन हँस पड़ा, “मैडम यह मैदानी नहीं पहाड़ी इलाका है। मैदान की तरह यहाँ कोई भी आपको चिकना वर्बीला (बढ़े हुए पेट वाला) ” नहीं मिलेगा। यहाँ जीवन कठोर है। नीचे तराई में ले-देकर एक ही स्कूल है। दूर-दूर से बच्चे उसी स्कूल में जाते हैं। और सिर्फ़ पढ़ते ही नहीं हैं, इनमें से अधिकांश बच्चे शाम के समय अपनी माँओं के साथ मवेशियों को चराते हैं, पानी भरते हैं, जंगल से लकड़ियों के भारी-भारी गट्ठर ढोते हैं। खुद मैंने भी ढोए थे। ”
खतरा अब धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। रास्ते और भी सँकरे होते जा रहे थे। कई बार लगता जैसे रास्तों को इंच टेप से नापकर एक जीप जितना ही चौड़ा बनाया गया है कि ज़रा भी संतुलन बिगड़े, इंच भर भी जीप इधर-उधर खिसके तो हम सीधे घाटियों में! इन रास्तों पर जगह-जगह लिखी चेतावनियाँ भी हमें खतरों के प्रति सजग कर रही थीं। सामने ही लिखा था – ‘ धीरे चलाएँ, घर में बच्चे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
थोड़ा और आगे बढ़े कि फिर एक चेतावनी – ‘ वी केयर, मैन इटर अराउंड।’ पर हमें नरभक्षी जानवर नहीं, दूध देने वाले याक दिखे… काले-काले ढेर सारे याक। पहाड़ों पर गिरती बर्फ़ से प्राकृतिक ढंग से रक्षा करने वाले घने घने बालों वाले याक ।
सूरज ढलने लगा था। हमने देखा कुछ पहाड़ी औरतें गायों को चराकर वापस लौट रही थीं। कुछ के सिर पर लकड़ियों के भारी-भरकम गट्ठर थे। ऊपर आसमान फिर धुंध और बादलों से घिरा हुआ था । उतरती संध्या में जीप अब चाय के बागानों से गुज़र रही थी कि फिर एक दृश्य ने मुझे खींचा… नीचे चाय के हरे-भरे बागानों में कई युवतियाँ बोकु पहने ( सिक्किमी परिधान ) चाय की पत्तियाँ तोड़ रही थीं। नदी की तरह उफ़ान लेता उनका यौवन और श्रम से दमकता गुलाबी चेहरा। एक युवती ने चटक लाल रंग का बोकु पहन रखा था। सघन हरियाली के बीच चटक लाल रंग डूबते सूरज की स्वर्णिम और सात्विक आभा में कुछ इस कदर इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहा था कि मंत्रमुग्ध – सी मैं चीख पड़ी थी !… इतना अधिक सौंदर्य मेरे लिए असहय था ।
यूमथांग पहुँचने के लिए हमें रात भर लायुंग में पड़ाव लेना था। गगनचुंबी पहाड़ों के तल में साँस लेती एक नन्हीं सी शांत बस्ती लायुंग । सारी दौड़-धूप से दूर जिंदगी जहाँ निश्चित सो रही थी।
उसी लायुंग में हम ठहरे थे। तिस्ता नदी के तीर पर बसे लकड़ी के एक छोटे-से घर में । मुँह-हाथ धोकर मैं तुरंत ही तिस्ता नदी के किनारे बिखरे पत्थरों पर बैठ गई थी। सामने बहुत ऊपर से बहता झरना नीचे कल-कल बहती तिस्ता में मिल रहा था। मद्धिम – मद्धिम (धीमी, हलकी) ” हवा बह रही थी। पेड़-पौधे झूम रहे थे। गहरे बादलों की परत ने चाँद को ढक रखा था… बाहर परिंदे और लोग अपने घरों को लौट रहे थे। वातावरण में अद्भुत शांति थी। मंदिर की घंटियों-सी… घुंघरुओं की रुनझुनाहट सी आँखें अनायास भर आई। ज्ञान का नन्हा सा बोधिसत्व जैसे भीतर उगने लगा… वहीं सुख शांति और सुकून है जहाँ अखंडित संपूर्णता है – पेड़, पौधे, पशु, और आदमी सब अपनी-अपनी लय, ताल और गति में हैं। हमारी पीढ़ी ने प्रकृति की इस लय, ताल और गति से खिलवाड़ कर अक्षम्य अपराध किया है। हिमालय अब मेरे लिए कविता ही नहीं, दर्शन बन गया था।
अँधेरा होने के पहले ही किसी प्रकार डगमगाती शिलाओं और पत्थरों से होकर तिस्ता नदी की धार तक पहुँची। बहते पानी को अपनी अंजुलि में भरा तो अतीत भीतर धड़कने लगा… स्मृति में कौंधा… हमारे यहाँ जल को हाथ में लेकर संकल्प किया जाता है… क्या संकल्प करूँ? पर मैं संकल्प की स्थिति में नहीं थी… भीतर थी एक प्रार्थना…एक कमज़ोर व्यक्ति की प्रार्थना… भीतर का सारा हलाहल (विष, जहर), सारी तामसिकताएँ बह जाएँ… इसी बहती धारा में! रात धीरे-धीरे गहराने लगी । हिमालय ने काला कंबल ओढ़ लिया था। जितेन ने लकड़ी के बने खिलौने से उस छोटे से गेस्ट हाऊस में गाने की तेज़ धुन पर जब अपने संगी-साथियों के साथ नाचना शुरू किया तो देखते-देखते एक आदिम रात्रि की महक से परियों की कहानी-सी मोहक वह रात महक उठी। मस्ती और मादकता का ऐसा संक्रमण (मिलन, संयोग) ” हुआ कि एक-एक कर हम सभी सैलानी गोल-गोल घेरा बनाकर नाचने लगे। मेरी पचास वर्षीय सहेली मणि ने कुमारियों को भी मात करते हुए वो जानदार नृत्य प्रस्तुत किया कि हम सब अवाक् उसे ही देखते रह गए। कितना आनंद भरा था उसके भीतर ! कहाँ से आता था इतना आनंद?
लायुंग की सुबह ! बेहद शांत और सुरम्य । तिस्ता नदी की शांत धारा के समान ही कल-कल कर बहती हुई। अधिकतर लोगों की जीविका का साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और दारू का व्यापार । सुबह मैं अकेले ही टहलने निकल गई थी। मैंने उम्मीद की थी कि यहाँ मुझे बर्फ़ मिलेगी पर अप्रैल के शुरुआती महीने में यहाँ बर्फ़ का एक कतरा भी नहीं था । यद्यपि हम सी लेवल (तल स्तर) से 14000 फीट की ऊँचाई पर थे। मैं बर्फ़ देखने के लिए बैचेन थी… हम मैदानों से आए लोगों के लिए बर्फ से ढके पहाड़ किसी जन्नत से कम नहीं होते।
वहीं पर घूमते हुए एक सिक्किमी नवयुवक ने मुझे बताया कि प्रदूषण के चलते स्नो- फॉल लगातार कम होती जा रही है पर यदि मैं ‘कटाओ’ चली जाऊँ तो मुझे वहाँ शर्तिया बर्फ़ मिल जाएगी… कटाओ यानी भारत का स्विट्जरलैंड ! कटाओ जो कि अभी तक टूरिस्ट स्पॉट नहीं बनने के कारण सुर्खियों (चर्चा में आना )में नहीं आया था, और अपने प्राकृतिक स्वरूप में था। कटाओ जो लायुंग से 500 फीट ऊँचाई पर था और करीब दो घंटे का सफ़र था । वह नवयुवक मुझसे बतिया रहा था और उसकी घरवाली अपने छोटे से लकड़ी के घर के बाहर हमें उत्सुकतापूर्वक देख रही थी कि तभी गाय ने आकर बाहर थैले में रखा उसका महुआ गुडुप (निगल लिया) कर लिया था। मीठी झिड़कियाँ देकर उसने गाय को भगा दिया था।
उम्मीद, आवेश और उत्तेजना के साथ अब हमारा सफ़र कटाओ की ओर। कटाओ का रास्ता और खतरनाक था और उस पर धुंध और बारिश। जितेन लगभग अंदाज से गाड़ी चला रहा था। पहाड़, पेड़, आकाश, घाटियाँ सब पर बादलों की परत । सब कुछ बादलमय । बादलों को चीरकर निकलती हमारी जीप खतरनाक रास्तों के अहसास ने हमें मौन कर दिया था। और उस पर बारिश। एक चूक और सब खलास… साँस रोके हम धुंध और फिसलन भरे रास्ते पर सँभल-सँभलकर आगे बढ़ती जीप को देख रहे थे। हमारी साँस लेने की आवाज़ों के सिवाय आस-पास जीवन का कोई पता नहीं था। फिर नज़र पड़ी बड़े-बड़े शब्दों में लिखी एक चेतावनी पर… इफ यू आर मैरिड, डाइवोर्स स्पीड ।’ थोड़ी ही दूर आगे बढ़े कि फिर एक चेतावनी – ‘दुर्घटना से देर भली, सावधानी से मौत टली।’ करीब आधे रास्ते बाद धुंध छँटी और साथ ही सृष्टि और हमारे बीच फैला सन्नाटा भी हटा । नार्गे उत्साहित होकर कहने लगा, “कटाओ हिंदुस्तान का स्विट्ज़रलैंड है।” मेरी सहेली मणि स्विट्ज़रलैंड घूम आई थी, उसने तुरंत प्रतिवाद किया- “ नहीं स्विट्ज़रलैंड भी इतनी ऊँचाई पर नहीं है और न ही इतना सुंदर । ”
हम कटाओ के करीब आ रहे थे क्योंकि दूर से ही बर्फ से ढके पहाड़ दिखने लगे थे। पास में जो पर्वत थे वे आधे हरे-काले दिख रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ने इन पहाड़ों पर पाउडर छिड़क दिया हो। कहीं पाउडर बची रह गई हो और कहीं वह धूप में बह गई हो। नार्गे ने उत्तेजित होकर कहा – ” देखिए एकदम ताजा बर्फ़ है, लगता है रात में गिरी है यह बर्फ़ । ” थोड़ा और आगे बढ़ने पर अब हमें पूरी तरह बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे। साबुन के झाग की तरह ओर गिरी हुई बर्फ़ । मैं जीप की खिड़की से मुंडी निकाल – निकाल दूर-दूर तक देख रही थी… चाँदी से चमकते पहाड़ !
एकाएक जितेन ने पूछा, “कैसा लग रहा है?”
मैंने जवाब दिया- “राम रोछो (अच्छा है ) “
वह उछल पड़ा – ” अरे, यह नेपाली बोली कहाँ से साखा अपनी भाषा के गर्व से उसकी आँखें चमक उठी, चेहरा इतराने लगा। और तभी किसी चमत्कार की तरह हलकी हलकी बर्फ़ एकदम महीन-महीन मोती की तरह गिरने लगी!
“तिम्रो माया सैंधै मलाई सताऊँछ”, (तुम्हारा प्यार मुझे सदैव रुलाता है।) चहुँ ओर बिखरी यह बर्फ़ीली सुंदरता जितेन के मन पर भी थाप लगाने लगी थी। प्रेम की झील में तैरते हुए झूम-झूम गाने लगा था वह।
हम सभी सैलानी अब जीप से उतर कर बर्फ़ पर कूदने लगे थे। यहाँ बर्फ़ सर्वाधिक थी। घुटनों तक नरम-नरम बर्फ़ ऊपर आसमान और बर्फ से ढके पहाड़ एक हो रहे थे। कई सैलानी बर्फ़ पर लेटकर हर लम्हे की रंगत को कैमरे में कैद करने में लगे थे।
मेरे पाँव झन-झन करने लगे थे। पर मन वृंदावन हो रहा था। भीतर जैसे देवता जाग गए थे। ख्वाहिश हुई कि मैं भी बर्फ़ पर लेटकर इस बर्फ़ीली जन्नत को जी भर देखें। पर मेरे पास बर्फ़ पर पहनने वाले लंबे-लंबे जूते नहीं थे। मैंने चाहा कि किराए पर ले लूँ पर कटाओ, यूमथांग और झांगू लेक की तरह टूरिस्ट स्पॉट (भ्रमण-स्थल) नहीं था, इस कारण यहाँ झांगू की तरह दुनिया भर की तो क्या एक भी दुकान नहीं थी। खैर…
दनादन फ़ोटो खिंचवाने की बजाय मैं उस सारे परिदृश्य को अपने भीतर लगातार खींच रही थी जिससे महानगर के डार्क रूम में इसे फिर फिर देख सकूँ। संपूर्णता के उन क्षणों में यह हिमशिखर मुझे मेरे आध्यात्मिक अतीत से जोड़ रहे थे। शायद ऐसी ही विभोर कर देने वाली दिव्यता के बीच हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों की रचना की होगी। जीवन सत्यों को खोजा होगा। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का महामंत्र पाया होगा अंतिम संपूर्णता का प्रतीक वह सौंदर्य ऐसा कि बड़ा से बड़ा अपराधी भी इसे देख ले तो क्षणों के लिए ही सही ‘करुणा का अवतार’ बुद्ध बन जाए।
और तभी दिमाग में कौंधा कि मिल्टन ने ईव की सुंदरता का वर्णन करते हुए लिखा था कि शैतान भी उसे देखकर ठगा सा रह जाता था और दूसरों का अमंगल करने की वृत्ति भूल जाता था। मैंने मणि से पूछा – ” क्या उसने पढ़ी है मिल्टन की वह कविता?”
पर मणि उस समय किसी दूसरे ही सवाल से जूझ रही थी। वह एकाएक दार्शनिकों की तरह कहने लगी, “ये हिमशिखर जल स्तंभ हैं, पूरे एशिया के देखो, प्रकृति भी किस नायाब ढंग से सारा इंतज़ाम करती है। सर्दियों में बर्फ़ के रूप में जल संग्रह कर लेती है और गर्मियों में पानी के लिए जब त्राहि-त्राहि मचती है तो ये ही बर्फ़ शिलाएँ पिघल – पिघल जलधारा बन हमारे सूखे कंठों को तरावट पहुँचाती हैं। कितनी अद्भुत व्यवस्था है जल संचय की !
मणि ने अभिभूत हो माथा नवाया – ” जाने कितना ऋण है हम पर इन नदियों का, हिम शिखरों का । ” “संसार कितना सुंदर ।’ स्वप्न जगाते उन लम्हों में मैंने सोचा । पर तभी उदासी की एक झीनी-सी परत मुझ पर छा गई। उड़ते बादलों की तरह पत्थर तोड़ती उन पहाड़िनों का खयाल आ गया।
आत्मा की अनंत परतों को छीलता हुआ हमारा यह सफ़र थोड़ा और आगे बढ़ा कि तभी देखा – इक्की – दुक्की फ़ौजी छावनियाँ ध्यान आया यह बॉर्डर एरिया है। थोड़ी दूरी पर ही चीन की सीमा है। एक फ़ौजी से मैंने कहा – ” इतनी कड़कड़ाती ठंड में (उस समय तापमान माइनस 15 डिग्री सेल्यिसय था ) आप लोगों को बहुत तकलीफ़ होती होगी।” वह हँस दिया– एक उदास हँसी, “आप चैन की नींद सो सकें, इसीलिए तो हम यहाँ पहरा दे रहे हैं। ”
‘फेरी भेटुला’ (फिर मिलेंगे) कहते हुए जितेन ने जीप चालू कर दी। थोड़ी देर बाद ही फिर दिखी एक फ़ौजी छावनी जिस पर लिखा था- ‘वी गिव अवर टुडे फॉर योर टुमारो।’
मन उदास हो गया। भीतर कुछ पिघलने लगा। महानगर में रहते हुए कभी ध्यान ही नहीं आया कि जिन बर्फ़ीले इलाकों में वैसाख के महीने में भी पाँच मिनट में ही हम ठिठुरने लगे थे, हमारे ये जवान पौष और माघ में भी जबकि सिवाय पेट्रोल के सब कुछ जम जाता है, तैनात रहते हैं। और जिन सँकरे घुमावदार और खतरनाक रास्तों से गुज़रने भर में हमारे प्राण काँप उठते हैं उन रास्तों को बनाने में जाने कितनों के जीवन अपनी मीआद के पूर्व ही खत्म हो गए हैं। मेरे लिए यह यात्रा सचमुच ही एक खोज यात्रा थी। पूरा सफ़र चेतना और अंतरात्मा में हलचल मचाने वाला था । बहरहाल… अब हम लायुंग वापस लौटकर फिर यूमथांग की ओर । जितेन कुछ दिन पूर्व ही नेपाल से ताज़ा ताज़ा आया था।
यूमथांग की घाटियों में एक नया आकर्षण और जुड़ गया था… ढेरों – ढेर प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल । जितेन बताने लगा, “बस पंद्रह दिनों में ही देखिएगा पूरी घाटी फूलों से इस कदर भर जाएगी कि लगेगा फूलों की सेज रखी हो। ”
यहाँ रास्ते अपेक्षाकृत चौड़े थे, इस कारण खतरों का अहसास कम था। इन घाटियों में कई बंदर भी दिखे। कुछ अकेले तो कुछ अपने बाल-बच्चों के साथ।
बहरहाल… घाटियों, वादियों, पहाड़ों और बादलों की आँख मिचौली दिखाती, पहाड़ी कबूतरों को उड़ाती हमारी जीप जब यूमथांग पहुँची तो हम थोड़े निराश हुए। बर्फ से ढके कटाओ के हिम शिखरों को देखने के बाद यूमथांग थोड़ा फीका लगा और यह भी अहसास हुआ कि मंजिल से कहीं ज़्यादा रोमांचक होता है मंज़िल तक का सफ़र।
बहरहाल यूमथांग में चिप्स बेचती एक सिक्किमी युवती से मैंने पूछा – ” क्या तुम सिक्किमी हो?”
“नहीं मैं इंडियन हूँ,” उसने जवाब दिया।
सुनकर बहुत अच्छा लगा। सिक्किम के लोग भारत में मिलकर बहुत खुश हैं। जब सिक्किम स्वतंत्र रजवाड़ा था तब टूरिस्ट उद्योग इतना नहीं फला-फूला था। हर एक सिक्किमी भारतीय आबोहवा में इस कदर घुलमिल गया है कि लगता ही नहीं, कभी सिक्किम भारत में नहीं था।
जीप में बैठने को हुए कि एक पहाड़ी कुत्ते ने रास्ता काट दिया। मणि ने बताया, “ये पहाड़ी कुत्ते हैं। ये भौंकते नहीं हैं। ये सिर्फ़ चाँदनी रात में ही भौंकते हैं। ”
‘क्या?” विस्मय और अविश्वास से मैं उसे सुनती रही। क्या समुद्र की तरह कुत्तों पर भी पूर्णिमा की चाँदनी कामनाओं का ज्वार-भाटा जगाती है! खैर… ।
लौटती यात्रा में जीप में भी जितेन हमें रकम रकम की जानकारियाँ देता रहा “मैडम, यहाँ एक पत्थर है जिस पर गुरुनानक के फुट प्रिंट हैं। कहते हैं यहाँ गुरुनानक की थाली से थोड़े से चावल छिटक कर बाहर गिर गए थे। जिस जगह चावल छिटक कर गिरे थे, वहाँ चावल की खेती होती है।”
करीब तीन-चार किलोमीटर बाद ही उसने फिर उँगली दिखाई, “मैडम इसे खेदुम कहते हैं। यह पूरा लगभग एक किलोमीटर का एरिया है। यहाँ देवी-देवताओं का निवास है, यहाँ जो गंदगी फैलाएगा, वह मर जाएगा।”
“तुम लोग पहाड़ों पर गंदगी नहीं फैलाते…?”
उसने जीभ निकालते हुए कहा- “नहीं मैडम, पहाड़, नदी, झरने… हम इनकी पूजा करते हैं, इन्हें गंदा करेंगे तो हम मर जाएँगे। ”
” तभी गैंगटॉक इतना सुंदर है”, मैंने कहा।
गैंगटॉक नहीं मैडम गंतोक कहिए। इसका असली नाम गतोक है। गतोक का मतलब है पहाड़… । ”
मैं कुछ पूछती कि वह फिर चालू हो गया, “मैडम यूमथांग भी पहले टूरिस्ट स्पॉट नहीं था । यह तो सिक्किम जब भारत में मिला उसके भी कई वर्षों बाद भारतीय आर्मी के कप्तान शेखर दत्ता के दिमाग में आया कि यहाँ सिर्फ़ फ़ौजियों को रखकर क्या होगा. घाटियों के बीच रास्ते निकालकर इसे टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है। आप देखिए, अभी भी रास्ते बन रहे हैं।”
‘हाँ, रास्ते अभी भी बन ही रहे हैं। नए-नए स्थानों की खोज अभी भी जारी है। शायद मनुष्य की इसी असमाप्त खोज का नाम सौंदर्य है… मन-ही-मन मैं कहती हूँ।
जीप आगे बढ़ने लगती है।