एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा – शिवप्रसाद मिश्र रूद्र
महाराष्ट्रीय महिलाओं की तरह धोती लपेट, कच्छ बाँधे दुलारी दनादन दंड लगाती जा रही थी। उसके शरीर से टपक- टपककर गिरी बूँदों से भूमि पर पसीने का पुतला बन गया था। कसरत समाप्त करके उसने चारखाने के अँगोछे से अपना बदन पोंछा, बँधा हुआ जूड़ा खोलकर सिर का पसीना सुखाया और तत्पश्चात आदमकद आईने के सामने खड़ी होकर पहलवानों की तरह गर्व से अपने भुजदंडों पर मुग्ध दृष्टि फेरते हुए प्याज के टुकड़े और हरी मिर्च के साथ उसने कटोरी में भिगोए हुए चने चबाने आरंभ किए।
उसका चणक – चर्वण – पर्व अभी समाप्त न हो पाया था कि किसी ने बाहर बंद दरवाज़े की कुंडी खटखटाई । दुलारी ने जल्दी-जल्दी कच्छ खोलकर बाकायदे धोती पहनी, केश समेटकर करीने से बाँध लिए और तब दरवाज़े की खिड़की खोल दी।
बगल में बंडल – सी कोई चीज़ दबाए दरवाज़े के बाहर टुन्नू खड़ा था। उसकी दृष्टि शरमीली थी और उसके पतले होठों पर झेंप-भरी फीकी मुसकराहट थी। विलोल (चंचल, अस्थिर )‘ आँखें टुन्नू की आँखों से मिलाती हुई दुलारी बोली, “तुम फिर यहाँ, टुन्नू ? मैंने तुम्हें यहाँ आने के लिए मना किया था न?”
टुन्नू की मुसकराहट उसके होठों में ही विलीन हो गई। उसने गिरे मन से उत्तर दिया. साल-भर का त्योहार था, इसीलिए मैंने सोचा कि…”, कहते हुए उसने बगल से बंडल निकाला और उसे दुलारी के हाथों में दे दिया । दुलारी बंडल लेकर देखने लगी। उसमें खद्दर की एक साड़ी लपेटी हुई थी। टुन्नू ने कहा, “यह खास गांधी आश्रम की बिनी है।”
” लेकिन इसे तुम मेरे पास क्यों लाए हो?” दुलारी ने कड़े स्वर से पूछा। टुन्नू का शीर्ण वदन (कुम्हलाया हुआ मुख या उदास मुख)‘ और भी सूख गया। उसने सूखे गले से कहा, “मैंने बताया न कि होली का त्योहार था ।… ” टुन्नू की बात काटते हुए दुलारी चिल्लाई, “होली का त्योहार था तो तुम यहाँ क्यों आए ? जलने के लिए क्या तुम्हें कहीं और चिता नहीं मिली जो मेरे पास दौड़े चले आए ? तुम मेरे मालिक हो या बेटे हो या भाई हो, कौन हो? खैरियत चाहते हो तो के अपना यह कफ़न लेकर यहाँ से सीधे चले जाओ!” और उसने उपेक्षापूर्वक धोती टुन्नू पैरों के पास फेंक दी। टुन्नू की काजल – लगी बड़ी-बड़ी आँखों में अपमान के कारण आँसू भर आए। उसने सिर झुकाए हुए आर्द्र कंठ से कहा, “मैं तुमसे कुछ माँगता तो हूँ नहीं। देखो, पत्थर की देवी तक अपने भक्त द्वारा दी गई भेंट नहीं ठुकराती, तुम तो हाड़-माँस की बनी हो। ”
हाड़-माँस की बनी हूँ तभी तो…”, दुलारी ने कहा ।
टुन्नू ने जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों से कज्जल-मलिन आँसुओं की बूँदें नीचे सामने पड़ी धोती पर टप टप टपक रही थीं । दुलारी कहती गई…।
टुन्नू पाषाण-प्रतिमा बना हुआ दुलारी का भाषण सुनता जा रहा था। उसने इतना ही कहा, “मन पर किसी का बस नहीं, वह रूप या उमर का कायल नहीं होता।” और कोठरी से बाहर निकल वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगा । दुलारी भी खड़ी खड़ी उसे देखती रही। उसकी भौं अब भी वक्र थी, परंतु नेत्रों में कौतुक और कठोरता का स्थान करुणा की कोमलता ने ग्रहण कर लिया था। उसने भूमि पर पड़ी धोती उठाई, उस पर काजल से सने आँसुओं के धब्बे पड़ गए थे। उसने एक बार गली में जाते हुए टुन्नू की ओर देखा और फिर उस स्वच्छ धोती पर पड़े धब्बों को वह बार-बार चूमने लगी।
(2)
दुलारी के जीवन में टुन्नू का प्रवेश हुए अभी कुल छह मास हुए थे। पिछली भादों में तीज के अवसर पर दुलारी खोजवाँ बाज़ार में गाने गई थी। दुक्कड़ (शहनाई के साथ बजाया जाने वाला एक तबले जैसा बाजा) पर गानेवालियों में दुलारी की महती ख्याति थी । उसे पद्य में ही सवाल-जवाब करने की अद्भुत क्षमता प्राप्त थी । कजली (एक तरह का गीत या लोकगीत जो भादो की तीज में गाया जाता है)‘ गाने वाले बड़े-बड़े विख्यात शायरों की उससे कोर दबती ( लिहाज करना) थी। इसलिए उसके मुँह पर गाने में सभी घबराते थे। उसी दुलारी को कजली-दंगल में अपनी ओर खड़ा कर खोजवाँ वालों ने अपनी जीत सुनिश्चित समझ ली थी परंतु जब साधारण गाना हो चुकने पर सवाल-जवाब के लिए दुक्कड़ पर चोट पड़ी और विपक्ष से सोलह-सत्रह वर्ष का एक लड़का गौनहारियों (गाने का पेशा करने वाली)की गोल में सबसे आगे खड़ी दुलारी की ओर हाथ उठाकर ललकार उठा – ” रनियाँ लऽ परमेसरी लोट!” (प्रामिसरी नोट) तब उन्हें अपनी विजय पर पूरा विश्वास न रह गया।
बालक टुन्नू बड़े जोश से गा रहा था-
” रनियाँ लऽ परमेसरी लोट!
दरगोड़े से से घेवर घेवर बुँदिया
दे माथे मोती कऽ बिंदिया
अउर किनारी में सारी के
टाँक सोनहली गोट । रनियाँ….
- दरगोड़े – (पैरों से कुचलना या रौंदना । भाव यह है कि वह वस्तु बहुतायत से प्राप्त हो)
शहनाई वालों ने टुन्नू के गीत को बंद बाजे में दोहराया। लोग यह देखकर चकित थे कि बात-बात में तीरकमान हो जाने (हमले के लिए या लड़ने के लिए तैयार रहना) वाली दुलारी आज अपने स्वभाव के प्रतिकूल खड़ी खड़ी मुसकरा रही है। कंठ – स्वर की मधुरता में टुन्नू दुलारी से होड़ कर रहा था और दुलारी मुग्ध खड़ी सुन रही थी।
टुन्नू के इस सार्वजनिक आविर्भाव का यह तीसरा या चौथा अवसर था । उसके पिता घाट पर बैठकर और कच्चे महाल के दस – पाँच घर यजमानी में सत्यनारायण की कथा से लेकर श्राद्ध और विवाह तक कराकर कठिनाई से गृहस्थी की नौका खे रहे थे। परंतु पुत्र को आवारों की संगति में शायरी का चस्का लगा। उसने भैरोहेला को अपना उस्ताद बनाया और शीघ्र ही सुंदर कजली – रचना करने लगा। वह पद्यात्मक प्रश्नोत्तरी में भी कुशल था और अपनी इसी विशेषता के बल पर वह बजरडीहा वालों की ओर से बुलाया गया था। उसकी ‘शायरी’ पर बजरडीहा वालों ने ‘वाह – वाह’ का शोर मचाकर सिर पर आकाश उठा लिया। खोजवाँ वालों का रंग उतर ( शोभा या रौनक घटना) गया। टुन्नू का गीत भी समाप्त हो गया ।
पुनः दुक्कड़ पर चोट पड़ी। शहनाई का मधुर स्वर गूँजा । अब दुलारी की बारी आई। उसने अपनी दृष्टि मद – विह्वल बनाते हुए टुन्नू के दुबले-पतले परंतु गोरे-गोरे चेहरे को भर – आँख देखा और उसके कंठ से छल-छल करता स्वर का सोता फूट निकला-
‘कोढ़ियल मुँहवैं लेब वकोट (मुँह नोच लेना) ”
तोर बाप तऽ घाट अगोरलन (रखवाली करना)”
कौड़ी – कौड़ी जोर बटोरलन
तैं सरबउला बोल (बढ़-चढ़कर बोलना) जिन्नगी में
कब देखले लोट ? कोढ़ियल… । ‘
अब बजरडीहा वालों के चेहरे हरे हो चले, वे वाहवाही देते हुए सुनने लगे। दुलारी गा रही थी-
‘तुझे लोग आदमी व्यर्थ समझते हैं। तू तो वास्तव में बगुला है। बगुले के पर जैसा ही तेरे शरीर का अंग है । वैसे तू बगुला भगत भी है। उसी की तरह तुझे भी हंस की चाल चलने का हौसला हुआ है। परंतु कभी-न-कभी तेरे गले में मछली का काँटा जरूर अटकेगा और उसी दिन तेरी कलई खुल जाएगी।
इसके जबाब में टुन्नू ने गाया था-
” जेतना मन मानै गरिआवऽ
अइने (और इस प्रकार) दिलकऽ तपन बुझावऽ
अपने मनकऽ बिथा (व्यथा) सुनाइव
हम डंके के चोट । रनियाँ
इस पर सुंदर के ‘मालिक’ फेकू सरदार लाठी लेकर टुन्नू को मारने दौड़े। दुलारी ने टुन्नू की रक्षा की।
यही दोनों का प्रथम परिचय था। उस दिन लोगों के बहुत कहने पर भी दोनों में से किसी ने भी गाना स्वीकार नहीं किया। मजलिस बदमज़ा हो गई।
( 3 )
टुन्नू को विदा करने के बाद दुलारी प्रकृतिस्थ हुई तो सहसा उसे खयाल पड़ा कि आज टुन्नू की वेशभूषा में भारी अंतर था। आबरवाँ (बहुत बारीक मलमल) की जगह खद्दर का कुरता और लखनवी दोपलिया की जगह गांधी टोपी देखकर दुलारी ने टुन्नू से उसका कारण पूछना चाहा था । परंतु उसका अवसर ही नहीं आया। उसने धीरे-धीरे जाकर अपने कपड़ों का संदूक खोला और उसमें बड़े यत्न से टुन्नू द्वारा दी गई साड़ी सब कपड़ों के नीचे दबाकर रख दी।
उसका चित्त आज चंचल हो उठा था। अपने प्रति टुन्नू के हृदय की दुर्बलता का अनुभव उसने पहली ही मुलाकात में कर लिया था। परंतु उसने उसे भावना की एक लहर – मात्र माना था। बीच में भी टुन्नू उसके पास कई बार आया परंतु कोई विशेष
बातचीत नहीं हुई। कारण, टुन्नू आता, घंटे-आध घंटे दुलारी के सामने बैठा रहता पूछने पर भी हृदय की कामना प्रकट न करता केवल अत्यंत मनोयोग से दुलारी की बातें सुनता और फिर धीरे से छाया की तरह खिसक जाता । यौवन के अस्ताचल पर खड़ी दुलारी टुन्नू के इस उन्माद पर मन-ही-मन हँसती । परंतु आज उसे कृशकाय और कच्ची उमर के पाँडुमुख बालक टुन्नू पर करुणा हो आई । अब दुलारी को यह समझने में देर न लगी कि उसके शरीर के प्रति टुन्नू के मन में कोई लोभ नहीं है। वह जिस वस्तु पर आसक्त है उसका संबंध शरीर से नहीं, आत्मा से है। उसने आज यह भी अनुभव किया कि आज तक उसने टुन्नू के प्रति जितनी उपेक्षा दिखाई है वह सब कृत्रिम थी । सच तो यह है कि हृदय के एक निभृत कोने में टुन्नू का आसन दृढ़ता से स्थापित है। फिर भी वह तथ्य स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं थी । वह सत्यता का सामना नहीं करना चाहती थी। वह घबरा उठी; विचार की उलझन से बचने लगी। उसने चूल्हा जलाया और रसोई की व्यवस्था में जुट पड़ी। त्यों ही धोतियों का एक बंडल लिए फेंकू सरदार ने उसकी कोठरी में प्रवेश किया । दुलारी ने धोतियों का बंडल देख उधर से दृष्टि फेर ली। फेंकू ने बंडल उसके पैरों के पास रख दिया और कहा, “देखो तो, कैसी बढ़िया धोतियाँ हैं!
बंडल पर ठोकर जमाते हुए दुलारी ने कहा, तुमने तो होली पर साड़ी देने का वादा किया था । ”
” वह वादा तीज पर पूरा कर दूँगा । आजकल रोज़गार बड़ा मंदा पड़ गया है, ” फेंकू ने समझाते हुए कहा ।
दुलारी फेंकू को उत्तर देना ही चाहती थी कि जलाने के लिए विदेशी वस्त्रों का संग्रह करता हुआ देश के दीवानों का दल भैरवनाथ की सँकरी गली में घुसा और ‘भारतजननि तेरी जय, तेरी जय हो’ गीत की ध्वनि से उभय पार्श्व (दोनों तरफ़)” में खड़ी इमारतों की प्रत्येक कोठरी गूँज गई। एक बड़ी-सी चादर फैलाकर चार व्यक्तियों ने उसके चारों कोनों को मजबूती से पकड़ रखा था। उसी पर खिड़कियों से धोती, साड़ी, कमीज़ कुरता, टोपी आदि की वर्षा हो रही थी।
सहसा दुलारी ने भी अपनी खिड़की खोली और मैंचेस्टर तथा लंका – शायर के मिलों की बनी बारीक सूत की मखमली किनारे वाली नयी कोरी धोतियों का बंडल नीचे फैली चादर पर फेंक दिया। चादर सँभालने वाले चारों व्यक्तियों की आँखें एक साथ खिड़की की ओर उठ गईं; कारण अब तक जितने वस्त्रों का संग्रह हुआ था वे अधिकांश फटे-पुराने थे। परंतु यह जो नया बंडल गिरा उसकी धोतियों की तह तक न खुली थी।
चारों व्यक्तियों के साथ जुलूस में शामिल सभी लोगों की आँखें बंडल फेंकने वाली की तलाश खिड़की में करने लगीं, त्योंही खिड़की पुनः धड़ाके से बंद हो गई। जुलूस आगे बढ़ गया।
जुलूस में सबसे पीछे जाने वाली खुफिया पुलिस के रिपोर्टर अली सगीर ने भी यह दृश्य देखा। अपनी फर्राटी मूँछों पर हाथ फेरते हुए सजग नेत्रों से मकान का नंबर दिमाग में नोट कर लिया। इतने में ही ऊपर खिड़की का एक पल्ला फिर खुला और तुरंत ही पुनः धड़ाके से बंद भी हो गया। परंतु इसी बीच अली सगीर ने देख लिया कि किवाड़ दुलारी ने खोला था और एक पुरुष ने झटके से उसका हाथ किवाड़ के पल्ले पर से हटा दिया और दूसरे हाथ से पल्ला बंद कर दिया। उस पुरुष की आकृति में पुलिस के मुखबर (वह मुलाज़िम जो अपराध स्वीकार कर सरकारी गवाह बन जाए और जिसे माफ़ी दे दी जाए) फेंकू सरदार की उड़ती झलक देख पुलिस रिपोर्टर के रोबीले चेहरे पर मुसकान की क्षीण रेखा क्षण-भर के लिए खिंच गई। उसने तनिक हटकर चबूतरे पर बैठे बेनी तमोली के सामने एक दुअन्नी फेंक दी।
फेंकू सरदार की चौड़ी और पुष्ट पीठ पर शपाशप झाडू झाड़ती तथा उसके पीछे-पीछे धमाधम सीढ़ी उतरती दुलारी चिल्लाई, “निकल निकल, अब मेरी देहरी डाँका (लाँघना) तो दाँत से तेरी नाक काट लूँगी।”
उत्कट क्रोध से दुलारी के नथने फूल गए थे, अधर फड़क रहा था, आँखों से ज्वाला – सी निकल रही थी। फेंकू के गली में निकलते ही उसने दरवाजा बंद कर लिया। उधर पुलिस – रिपोर्टर से आँखें चार होते ही झेंपने के बावजूद लाचार – सा होकर फेंकू उसकी ओर बढ़ा और इधर धीरे-धीरे दुलारी आँगन में लौटी। आँगन में खड़ी उसकी संगनियों और पड़ोसिनों ने उसकी ओर कुतूहल- भरी दृष्टि से देखा, परंतु दुलारी ने उनकी ओर आँख तक न उठाई। सीढ़ी चढ़कर उपेक्षा से झाडू अपनी कोठरी के द्वार पर फेंकती हुई वह अपनी कोठरी में जा घुसी। चूल्हे पर बटलोही में दाल चुर रही थी। उसने पैर की एक ठोकर से बटलोही उलट दी। सांरी दाल चूल्हे में जा गिरी। आग बुझ गई।
परंतु दुलारी के दिल की आग अब भी भट्टी की तरह जल रही थी। पड़ोसिनों ने उसकी कोठरी में आकर वह आग बुझाने के लिए मीठे वचनों की जल-धारा गिराना आरंभ किया। फलस्वरूप वह ठंडी भी होने लगी।
दुलारी बोली, “तुम्हीं लोग बताओ, कभी टुन्नू को यहाँ आते देखा है?”
“यह तो आधी गंगा में खड़े होकर कह सकते हैं कि टुन्नू यहाँ कभी नहीं आता, झींगुर की माँ ने कहा । वह यह बात बिलकुल भूल गई थी कि उसने कुल दो घंटा पहले टुन्नू को दुलारी की कोठरी से निकलते देखा था। झींगुर की माँ की बात सुनकर अन्य स्त्रियाँ होंठों में मुसकराईं, परंतु किसी ने प्रतिवाद नहीं किया । दुलारी पुन: शांत हो चली। इतने में कंधे पर जाल डाले नौ वर्षीय बालक झींगुर ने आँगन में प्रवेश किया और आते ही उसने ताज़ा समाचार सुनाया कि टुन्नू महाराज को गोरे सिपाहियों ने मार डाला और लाश भी उठा ले गए।
और कोई दिन होता तो दुलारी इस समाचार पर हँस पड़ती, टुन्नू को दो-चार गालियाँ सुनाती, परंतु आज यह संवाद सुन वह स्तब्ध हो गई। उसने यह भी न पूछा कि घटना कहाँ और किस तरह हुई। कभी किसी बात पर न पसीजने वाला उसका हृदय कातर हो उठा और सदैव मरुभूमि की तरह धू-धू जलने वाली उसकी आँखों में मेघमाला (आँसुओं की झड़ी) ” घिर आई।
उसने पड़ोसिनों की निगाह से अपने आँसुओं को छिपाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। पड़ोसिनें भी कर्कशा दुलारी के हृदय की यह कोमलता देख दंग हो गईं। उन्होंने दुलारी के इस आचरण को बार- वनिता – सुलभ अभिनय मात्र समझा। बिट्टो ने दिल्लगी भी की।
“मुझे लुका-छिपी फूटी आँख नहीं सुहाती। मैंने तो आज तक जो कुछ भी किया, सब डंके की चोट,” दुलारी ने कहा । वह उठी और सबके सामने संदूक खोल उसमें से टुन्नू की दी हुई आँसुओं के काले धब्बों से भरी खद्दर की धोती निकाल उसने पहन ली। उसने झींगुर को बुलाकर पूछा, “टुन्नू कहाँ मारा गया?” झींगुर ने बताया, ” टाउन हॉल ! ” और जब वह टाउन हॉल जाने के लिए घर से बाहर निकली तो दरवाज़े पर ही थाने के मुंशी के साथ फेंकू सरदार ने आकर कहा कि दुलारी को थाने जाना होगा, आज अमन सभा द्वारा आयोजित समारोह में उसे गाना पड़ेगा।
(5)
रिपोर्ट की कापी मेज़ पर पटकते हुए प्रधान संवाददाता ने ने अपने सहकर्मी को डाँटा “शर्मा जी, आप तो अखबार की रिपोर्टरी छोड़कर चाय की दुकान खोल लेते तो अच्छा होता । संवाद – संग्रह तो आपके बूते की बात नहीं जान पड़ती। ” भयभीत शर्मा जी ने गड्डे में कौड़ी खेलती हुई अपनी आँखों से चश्मा उतारकर उसे कुरते से पोंछते हुए पूछा, “क्यों, क्या हुआ?”
प्रधान संवाददाता ने खीझकर कहा, “यह जो आप पन्ने पर पन्ना अलिफ़ लैला की कहानी से रंग लाए हैं, वह कहाँ छपेगा और कौन छापेगा, इस पर भी आपने कुछ विचार किया है? आपने जो लिखा है उसका आपके सिवा कोई और भी गवाह है ? आज आपकी रिपोर्ट छाप दूँ तो कल ही अखबार बंद हो जाए; संपादक जी बड़े घर पहुँचा दिए जाएँ। ” अपने संबंध में वार्ता होती सुनकर संपादक जी भी सजग हुए। उन्होंने पूछा, “क्या बात है?”
यही शर्मा जी की रिपोर्टिंग पर झख रहा हूँ, और क्या?” प्रधान संवाददाता ने कहा । पढ़िए”, संपादक ने आदेश दिया। प्रधान संवाददाता ने रिपोर्ट की कापी शर्मा जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, “लीजिए, आप ही पढ़कर सुनाइए । वह शीर्षक भी पढ़ दीजिएगा जो आपने संवाद पर लगाया है। क्या शीर्षक है?”
‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा”, झेंप – भरी मुद्रा में शर्मा जी ने कहा और फिर धीरे-धीरे वह रिपोर्ट पढ़ने लगे-
“कल छह अप्रैल को नेताओं की अपील पर नगर में पूर्ण हड़ताल रही, यहाँ तक कि खोमचे वालों ने भी नगर में फेरी नहीं लगाई। सवेरे से ही जुलूसों का निकलना जारी हो गया, जो जलाने के लिए विदेशी वस्त्रों का संग्रह करता जाता था। ऐसे ही एक जुलूस के साथ नगर का प्रसिद्ध कजली – गायक टुन्नू भी था। उक्त जुलूस जब टाउन हॉल पहुँचकर विघटित हो गया तो पुलिस के जमादार अली सगीर ने टुन्नू को जा पकड़ा और उसे गलियाँ दीं। गाली देने का प्रतिवाद करने पर जमादार ने उसे बूट की ठोकर मारी। चोट पसली में लगी। वह तिलमिलाकर ज़मीन पर गिर गया और उसके मुँह से एक चुल्लू खून निकल पड़ा। पास ही गोरे सैनिकों की गाड़ी खड़ी थी। उन्होंने टुन्नू को उठाकर गाड़ी में लाद लिया। लोगों से कहा गया कि अस्पताल को ले जा रहे हैं। परंतु हमारे संवाददाता ने गाड़ी का पीछा करके पता लगाया है कि वास्तव में टुन्नू मर गया। रात के आठ बजे टुन्नू का शव वरुणा में प्रवाहित किए जाते भी हमारे संवाददाता ने देखा है।
इस सिलसिले में यह भी उल्लेख है कि टुन्नू का दुलारी नाम्नी गौनहारिन से भी संबंध था। कल शाम अमन सभा द्वारा टाउन हॉल में आयोजित समारोह में भी, जिसमें जनता का एक भी प्रतिनिधि उपस्थित नहीं था, दुलारी को नचाया – गवाया गया। उसे भी शायद टुन्नू की मृत्यु का संवाद मिल चुका था। वह बहुत उदास थी और उसने खद्दर की एक साधारण धोती – मात्र पहन रखी थी । सुना जाता है कि उसे पुलिस जबरदस्ती ले आई थी। वह उस स्थान पर गाना नहीं चाहती थी जहाँ आठ घंटे पहले उसके प्रेमी की हत्या की गई थी। परंतु विवश होकर गाने के लिए खड़ा होना पड़ा। कुख्यात जमादार अली सगीर ने मौसमी चीज़ गाने की फ़रमाइश की। दुलारी ने फीकी हँसी हँसकर गाना प्रारंभ किया। उसने कुछ अजीब दर्द-भरे गले से गाया – ” एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा, कासों मैं पूहूँ?”
पास ही में कंपनी बाग के फूलों की खुशबू से वायुमंडल आमोदित हो उठा था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था जिसे भेदकर दुलारी की स्वरलहरी गूँज उठी-
‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा, कासों मैं पूछूं ? ”
बूट की ठोकर खाकर दोपहर को टुन्नू जिस स्थान पर गिरा था उसी स्थल पर दृष्टि जमाए हुए दुलारी ने दोहराया, ‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा’ और फिर चारों ओर उद्भ्रांत (भ्रमित चित्त हैरान) दृष्टि घुमाते हुए उसने गाया – ‘कासों मैं पूहूँ? उसके अधर – प्रांत पर स्मित की एक क्षीण रेखा-सी खिंची। उसने गीत का दूसरा चरण गाया-
‘सास से पूछूं, ननदिया से पूछें, देवरा से पूछत लजानी हो रामा ? ‘
‘देवरा से पूछत’ कहते-कहते वह बिजली की तरह एकदम घूमी और जमादार अली सगीर की ओर देख उसने लजाने का अभिनय किया। उसकी आँखों से आँसू की बूँदे छहर उठीं, या यों कहिए कि वे पानी की कुछ बूँदे भी जो वरुणा में टुन्नू की लाश फेंकने से छिटकीं और अब दुलारी की आँखों में प्रकट हुईं। वैसा रूप पहले कभी न दिखाई पड़ा था – आँधी में भी नहीं, समुद्र में भी नहीं, मृत्यु के गंभीर आविर्भाव में भी नहीं। ”
” सत्य है, परंतु छप नहीं सकता”, संपादक ने कहा ।