मौर्य वंश ( 321-184 ई० पू० )
- मगध के सिंहासन से नंद वंश के अंतिम सम्राट घनानंद का नाश करके चंद्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना 323-321 ई० पू० में की ।
- चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक इस वंश के महान शासक थे। इन्होंने राज्य – विस्तार के साथ-साथ जनकल्याण वाले साम्राज्य की स्थापना की ।
- मौर्य काल में राजनीतिक एकीकरण से निरापद व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला तथा चतुर्दिक आर्थिक विकास हुआ।
चन्द्रगुप्त मौर्य ( 321 – 298 ई० पू० )
- चंद्रगुप्त मौर्य के जन्म के विषय में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में परस्पर विरोधी विवरण हैं ।
- विविध प्रमाणों की आलोचनात्मक समीक्षा के बाद जो तर्क निर्धारित होता है, उसके अनुसार
- चन्द्रगुप्त मोरिय वंश का क्षत्रिय था । मोरिय शाक्यों की शाखा भी पिप्पलिवन में राज्य करती थी ।
- मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त को ‘वृषत’ कहा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार ‘वृषल’ शूद्र को कहा जाता है।
- चंद्रगुप्त एक साधारण कुल में ( 345 ई० पू० में) पैदा हुआ था। इसके बावजूद बचपन से ही उसमें उज्ज्वल भविष्य के सभी संकेत मौजूद थे।
- बौद्ध ग्रंथ ‘महावंश’ की टीका के अनुसार चंद्रगुप्त का पिता मोरिय नगर का प्रमुख था ।
- जब चन्द्रगुप्त अपनी माता के गर्भ में था तभी उसके पिता की किसी सीमांत युद्ध में मृत्यु हो गयी और उसकी माता अपने भाइयों द्वारा पाटलिपुत्र में सुरक्षा के उद्देश्य से पहुँचा दी गयी। > चंद्रगुप्त का जन्म पाटलिपुत्र में ही हुआ। जन्म के बाद उसे एक गाय पालने वाले के सुपुर्द कर दिया गया। गो-पालक ने गोशाला में अपने पुत्र की भांति उसका लालन-पालन किया।
- चंद्रगुप्त जब कुछ बड़ा हुआ तो गो-पालक ने उसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया। उसका बचपन मयूर पालकों, शिकारियों, चरवाहों आदि के मध्य व्यतीत हुआ ।
- चंद्रगुप्त बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली था । उसने अपने समकक्ष लड़कों के बीच प्रमुखता हासिल कर ली। वह प्रायः बालक मंडली के बीच उत्पन्न विवादों का हल एक राजा की तरह किया करता था ।
- एक दिन जब वह राजकीलम नामक खेल में व्यस्त था तभी उस रास्ते से जाते हुए चाणक्य ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से बालक चंद्रगुप्त के भविष्य का अनुमान लगा लिया ।
- चाणक्य ने एक हजार कर्षापण देकर चंद्रगुप्त को खरीद लिया और उसे लेकर तक्षशिला आ गया ।
- तक्षशिला तत्कालीन शिक्षा का विख्यात केंद्र था । वहाँ सभी आवश्यक कलाओं व विधाओं की विधिवत् शिक्षा प्राप्त करके चंद्रगुप्त सभी विद्या में निपुण हो गया । यहाँ उसने युद्ध कला की बेहतर शिक्षा पायी ।
- चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने घनानंद के विरुद्ध सिकन्दर का उपयोग करने की कोशिश की तथा इसी संदर्भ में संभवतः चंद्रगुप्त सिकंदर से मिला था । परंतु सिकन्दर ने उनकी कोई मदद नहीं की ।
- सिकंदर की अकाल मृत्यु 323-322 ई० पू० में बेबीलोन में हो गयी ।
- ऊपरी सिंधु घाटी के प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या 325 ई० पू० में ही हो गयी थी इसी समय चंद्रगुप्त ने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु व्यापक योजनाएँ बना ली।
- चाणक्य ने जिस कार्य हेतु चंद्रगुप्त को तैयार किया था उसके दो उद्देश्य थे- पहला यूनानियों के विदेशी शासन से देश को मुक्त कराना, दूसरा नंदों के घृणित एवं अत्याचारपूर्ण शासन का अंत करना ।
- चंद्रगुप्त ने सबसे पहले एक सेना तैयार किया, स्वयं को राजा बनाया और इसके उपरांत सिकंदर के क्षत्रप के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया ।
मगध की ओर प्रस्थान
- 317 ई० पू० तक उसने सम्पूर्ण सिंध और पंजाब के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ का एकछत्र शासक बन गया ।
- इसके बाद चंद्रगुप्त तथा चाणक्य घनानंद का नाश करने हेतु मगध की ओर प्रस्थान कर गये ।
- बौद्ध तथा जैन मतों के अनुसार चंद्रगुप्त ने सर्वप्रथम नंद साम्राज्य के मध्य भाग पर हमला किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली ।
- अपनी भूल का अहसास होने पर उसने दूसरी बार सीमांत प्रदेशों की विजय करते हुए नंदो की राजधानी पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ, घनानंद मारा गया। अब चंद्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया ।
- सिकंदर की मृत्यु के बाद उसका सेनापति सेल्युकस निकेटर उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी हुआ ।
- सिकंदर द्वारा जीते गये भारत के प्रदेशों को पुनः अपने अधिकार में लेने के लिए सेल्युकस ने 305 ई० पू० के लगभग भारत पर पुनः चढ़ाई की।
- सिंधु नदी पार करके सेल्युकस ने चंद्रगुप्त से युद्ध किया। जिसमें वह चंद्रगुप्त से हार गया। इसके बाद दोनों के बीच संधि हुई तथा एक वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुआ ।
- चंद्रगुप्त तथा सेल्युकस के बीच हुई संधि के तहत–
- सेल्युकस ने चंद्रगुप्त को आरकोसिया (कान्धार) और पेरोपनिसडाई (काबुल) के प्रान्त
- तथा एरिया (हेरात) एवं जड्रोसिया की क्षत्रपियों के कुछ भाग दिये ।
- चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 भारतीय हाथी उपहार में दिया ।
- कुछ विद्वानों के अनुसार दोनों नरेशों के बीच एक वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की संधि के तहत सेल्युकस ने अपनी एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया।
- सेल्युकस ने मेगास्थनीज नामक अपना एक राजदूत चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में पाटलिपुत्र भेजा (305 ई० पू० में), जो बहुत दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा ।
- मेगास्थनीज ने भारत पर ‘इण्डिका’ नामक एक पुस्तक की रचना की थी ।
- अब चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा तथा उसके अन्तर्गत अफगानिस्तान का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित हो गया ।
- चन्द्रगुप्त के कान्धार पर आधिपत्य की पुष्टि वहाँ से प्राप्त हुए अशोक के लेख से होती है ।
- इसी समय से भारत तथा यूनान के बीच राजनीतिक सम्बन्ध प्रारम्भ हुआ जो बिन्दुसार तथा अशोक के समय में भी बना रहा ।
पश्चिम भारत की विजय
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल कर लिया ।
- रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख ( 150 ई० पू० ) के अनुसार इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था, जिसने वहाँ सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था ।
- सौराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा विजित व शासित था ।
दक्षिण विजय
- दक्षिण में चंद्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की ।
- जैन स्रोतों के अनुसार चंद्रगुप्त ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में जैन धर्म स्वीकार कर लिया तथा उसी स्थान पर ( मैसूर के निकट) तपस्या के लिए गया जो उसके साम्राज्य में था । इससे यह प्रमाणित होता है कि श्रवणबेलगोला तक उसका अधिकार था ।
साम्राज्य का विस्तार
- मगध साम्राज्य के उदय की जो परम्परा बिम्बिसार के काल में प्रारंभ हुई थी, वह चन्द्रगुप्त के समय में पराकाष्ठा पर पहुंच गयी ।
- उसका विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक तथा पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तथा सोपारा तक का संपूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था ।
- हिंदूकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी। यूनानी लेखकों ने हिंदूकुश को इंडियन काकेशस’ कहा है। यहीं पर चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को पराजित किया था।
- इस पूरे विशाल मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन
- मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ( 321-298 ई० पू०) को ‘भारत का मुक्तिदाता’ भी कहा जाता है, क्योंकि उसने यूनानियों के प्रभुत्व से भारत को मुक्ति दिलायी ।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार चन्द्रगुप्त ने मौर्य प्रशासन तंत्र का भी निर्माण किया जो भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित पहली देशव्यापी शासन प्रणाली थी । प्रशासन केन्द्रीयकृत और कठोर था । करों का बाहुल्य था और आम जनता का पंजीकरण अनिवार्य था ।
- प्रशासन का केन्द्र-बिन्दु सम्राट था। सेना सुसंगठित और शक्तिशाली थी और अर्थव्यवस्था पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण था ।
- इस प्रशासनिक व्यवस्था को उदार और कल्याणकारी स्वरूप अशोक ने प्रदान किया ।
- मेगास्थनीज की इंडिका में राजधानी पाटलिपुत्र के नगर – प्रशासन की विस्तृत चर्चा के साथ
- नगर प्रशासन की देख-रेख के लिए छह समितियों की चर्चा भी मिलती है ।
- उसके शासनकाल के अन्त में मगध में बारह वर्षों का भीषण अकाल पड़ा।
- जैन-परम्पराओं के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह जैन हो गया तथा उसने
- भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली ।
- अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर वह भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में चन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करने चला गया, जहाँ 298 ई० पू० के लगभग उसने जैन विधि से उपवास पद्धति द्वारा प्राण त्याग किया ।
- जैन धर्म में इस विधि को ‘सल्लेखना’ कहा गया है ।
- श्रवणबेलगोला की एक छोटी पहाड़ी आज भी चन्द्रगिरि कहलाती है तथा वहाँ ‘चन्द्रगुप्त बस्ती’ नामक एक मन्दिर भी है ।
- बाद के कई लेखों में भी भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मुनि का उल्लेख मिलता है ।
चाणक्य
- चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु व प्रधानमंत्री चाणक्य एक महान विद्वान व पंडित था । वह विष्णुगुप्त या कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है ।
- चाणक्य तक्षशिला के कुठिल नामक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ था तथा तक्षशिला के शिक्षा केन्द्र का प्रमुख आचार्य था ।
- वह वेदों, शास्त्रों, राजनीति व कूटनीति का महान ज्ञाता था। पुराणों में उसे श्रेष्ठ ब्राह्मण कहा गया है ।
- एक बार मगध के राजा नंद ने यज्ञशाला में उसे अपमानित किया, जिससे क्रोध में आकर उसने नंद वंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर ली ।
- चन्द्रगुप्त मौर्य जब विशाल मगध साम्राज्य या भारत का एकछत्र सम्राट बना तब कौटिल्य प्रधानमंत्री एवं प्रधान पुरोहित के पद पर आसीन हुआ ।
- जैन ग्रंथों के अनुसार चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिंदुसार सिंहासन पर बैठा तो उसके काल में भी कुछ समय तक कौटिल्य प्रधानमंत्री बना रहा ।
- चाणक्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ हिंदू राजशासन से संबंधित प्राचीनतम उपलब्ध पुस्तक है ।
- ‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल की रचना है, जिसमें मूलतः चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य के विचार स्वयं उसी के द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं ।
- कालांतर में अर्थशास्त्र में अन्य लेखकों द्वारा कुछ अंश जोड़ दिये गये, जिससे मूल ग्रंथ का स्वरूप परिवर्तित हो गया ।
- मूल ग्रंथ (अर्थशास्त्र) को चौथी शताब्दी ई० पू० की रचना मानी जा सकती है।
- अर्थशास्त्र में 15 अधिकरण तथा 180 प्रकरण हैं। इस ग्रंथ में इसके श्लोकों की संख्या 4 हजार बतायी गयी है।
- चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिन्दुसार ( 298-273 ई० पू०) के समय में मौर्य साम्राज्य का गौरव बना रहा। विदेश संबंध भी विकसित रहे और यूनानी दूत डीमॉक्लस उसके दरबार में रहा ।
बिन्दुसार (298-273 ई० पू०)
- चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पुत्र बिंदुसार मगध के सिंहासन पर 298 ई० पू० में बैठा ।
- उसके काल में साम्राज्य के कुछ क्षेत्रों में विद्रोह हुए जिसे उसने अपने पुत्र अशोक की सहायता से नियंत्रित कर लिया ।
- जैन ग्रंथों के अनुसार बिंदुसार की माता का नाम दुर्धरा था ।
- यूनानी लेखकों ने बिंदुसार को ‘अमित्रोकेडीज’ कहा है, जिसे संस्कृत में ‘अमित्रवात’ यानी शत्रुओं का नाश करने वाला कहा गया है ।
- थेरवाद परंपरा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था ।
- बिंदुसार के समय में भारत का पश्चिम एशिया के साथ व्यापारिक संबंध अच्छा था । साथ ही पश्चिम यूनानी राज्यों के साथ मैत्री संबंध भी कायम रहा ।
- बिंदुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंटियोकस ने डायमेकस नामक राजदूत भेजा था । वह मेगास्थनीज के स्थान पर आया था ।
- मिस्र के राजा टॉलेमी फिलाडेल्फस (285-247 ई० पू०) के काल में संभवतः डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार ( बिंदुसार की राज्य सभा) में आया था ।
- प्रशासन के क्षेत्र में बिंदुसार ने अपने पिता की व्यवस्था का ही अनुसरण किया। उसने अपने साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित किया तथा प्रत्येक प्रांत में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्त किये ।
- उसके समय में प्रशासनिक कार्यों के लिए अनेक महामात्रों की भी नियुक्ति की गयी ।
- दिव्यावदान के अनुसार अवंति राष्ट्र का उपराजा (राज्यपाल ) अशोक था ।
- बिंदुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिषद् भी थी, जिसका प्रधान खल्लाटक था ।
- बिंदुसार ने 25 वर्षों तक राज्य किया, अंततः 273 ई० पू० में उसकी मृत्यु हो गयी । अशोक (273-232 ई० पू० )
- बिंदुसार की मृत्यु के बाद उसका सुयोग्य पुत्र अशोक प्रियदर्शी 273 ई० पू० के लगभग मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा ।
- राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्षों का समय लग गया । फलतः राज्यारोहण के चार साल बाद 269 ई० पू० में उसका राज्याभिषेक हुआ ।
- उसके अभिलेखों में अभिषेक के काल (269 ई० पू०) से ही राज्य गणना की गयी है ।
- मास्की तथा गुर्जरा के लेखों में उसका नाम ‘अशोक’ मिलता है ।
- पुराणों में उसे ‘अशोकवर्द्धन’ कहा गया है। दिव्यावदान और सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवंति (उज्जयिनी) का उपराजा था । बिंदुसार के बीमार पड़ने पर वह राजधानी पाटलिपुत्र आया था।
- सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया। लेकिन उत्तराधिकार के इस युद्ध का समर्थन स्वतंत्र प्रमाणों से नहीं होता है ।
- अशोक के पाँचवें अभिलेख में जीवित भाइयों के परिवार का उल्लेख मिलता है ।
- अभिलेखीय साक्ष्य से यह भी ज्ञात होता है कि अशोक के शासन के विभिन्न भागों में उसके
- भाई निवास करते थे, जबकि उसके कुछ भाई विभिन्न प्रदेशों के राज्यपाल भी थे।
- दिव्यावदान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी मिलता है जो चंपा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी । दक्षिण परंपराओं में उसे धर्मा कहा गया है जो प्रधान रानी ( अग्रमहिषि ) थी ।
- कुछ लेखक उसे सेल्युकस की पुत्री से उत्पन्न बताते हैं।
- सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते हुए अशोक विदिशा, जहाँ उसने एक श्रेष्ठी की पुत्री ‘देवी’ के साथ विवाह किया, में रुका था ।
- महाबोधिवंश में उसका नाम ‘वेदिशमहादेवी’ मिलता है और उसे शाक्य जाति का बताया गया है । उसी से अशोक के पुत्र ‘महेन्द्र’ तथा ‘संघमित्रा’ का जन्म हुआ था और वही उसकी पहली पत्नी थी ।
- दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम ‘तिष्यरक्षिता’ का उल्लेख मिलता है । परन्तु, अशोक के लेख में केवल उसकी पत्नी ‘करूवाकि’ का नाम ही है, जो ‘तीवर’ की माता थी ।
- दिव्यावदान में अशोक के दो भाइयों ‘सुसीम’ तथा ‘विगताशोक’ का उल्लेख मिलता है ।
- बौद्ध परंपराओं एवं कथाओं के अनुसार बिंदुसार अशोक को नहीं बल्कि उसके बड़े भाई सुसीम को गद्दी पर बैठाना चाहता था, किन्तु बिंदुसार के निधन के पश्चात् अमात्यों की सहायता से – अशोक ने राजगद्दी पर कब्जा कर लिया और उत्तराधिकार के युद्ध में अन्य सभी राजकुमारों की हत्या कर दी ।
- उत्तरी बौद्ध परम्पराओं में यह युद्ध सिर्फ अशोक एवं उसके बड़े भाई सुसीम के बीच बताया गया है ।
कलिंग युद्ध
- महापद्मनंद ने कलिंग को अपने राज्य में मिला लिया था । चन्द्रगुप्त मौर्य, जिसने लगभग समस्त भारत व सुदूर इलाके तक राज्य विस्तार किया था, के समय निश्चित ही कलिंग भी मगध साम्राज्य का अंग रहा होगा ।
- संभवतः बिंदुसार के काल में कलिंग ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी ।
- इस चुनौती को अशोक ने अपनी विजय के रूप में बदलने हेतु कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग भी उस समय व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य था ।
- अशोक ने अभिषेक के आठवें वर्ष में 261 ई० पू० में कलिंग युद्ध शुरू किया ।
- अशोक के तेरहवें शिलालेख के अनुसार इसमें एक लाख 50 हजार व्यक्ति बंदी बनाकर निर्वासित कर दिये गये, एक लाख लोगों की हत्या की गयी तथा इससे भी कई गुना अधिक मारे गये ।
- इस युद्ध के बाद मौर्य साम्राज्य की सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गयी । यह कलिंग युद्ध का तात्कालिक लाभ था ।
- मगध एवं समस्त भारत के इतिहास में कलिंग की विजय एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके बाद मौर्यों की विजयों तथा राज्य विस्तार का एक दौर समाप्त हुआ ।
- कलिंग युद्ध के बाद एक नये युग का सूत्रपात हुआ और यह युग था – शांति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार का । यहीं से सैन्य विजय तथा दिग्विजय का युग समाप्त हुआ तथा आध्यात्मिक विजय और धम्म विजय का युग प्रारंभ हुआ ।
- इस प्रकार कलिंग युद्ध ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया एवं करुणा से उद्वेलित हो गया और उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बंद कर देने की प्रतिज्ञा की ।
- कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया ।
- अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु जो साधन अपनाये गये, वे थे- धर्म यात्राओं का प्रारंभ, 2. राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति, 3. धर्म महामात्रों की नियुक्ति, 4. दिव्य रूपों का प्रदर्शन, 5. धर्म श्रवन एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, 6. लोकोपकारिता के कार्य, 7. धर्मलिपियों को खुदवाना, 8. विदेशों में धर्म प्रचारकों को भेजना आदि ।
- अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए धर्मयात्राओं की शुरुआत की।
- अपने अभिषेक के 10 वें वर्ष में वह बोधगया की यात्रा पर गया, जो उसकी पहली यात्रा थी ।
- अपने अभिषेक के 20 वें वर्ष में वह लुम्बिनी ग्राम गया और वहाँ का कर घटाकर 1/8 कर दिया ।
- उसने नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में कनकमुनि के स्तूप का मरम्मत करवाया ।
- अशोक के इन कार्यों का जनता पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए ।
- अपने विशाल साम्राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अशोक ने अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया ।
- स्तंभ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म-प्रचार करने तथा उपदेश देने का आदेश दिया ।
- धर्म-प्रचार हेतु अशोक ने साम्राज्य में धर्मश्रवण तथा धर्मोपदेश की व्यवस्था करवायी ।
- अभिषेक के 13वें वर्ष में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अशोक ने पदाधिकारियों का एक नया वर्ग तैयार किया, जिसे धर्ममहामात्र ( धम्ममहामात्र ) कहा गया । इनका कार्य विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच द्वेष-भाव को मिटाकर धर्म की एकता पर बल देना था ।
- धम्म को लोकप्रिय बनाने हेतु अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु अनेक कार्य किये । > उसने सबसे पहले पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया तथा मानव एवं पशुओं की चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवायी । मार्गों में वृक्ष लगवाये (सातवें स्तंभलेख के अनुसार), आम्रवाटिकाएं लगवाये, आधे-आधे कोस की दूरी पर कुएं खुदवाये तथा विश्राम-गृह बनवाये ।
- इन कार्यों को महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का साधन मानते हुए ऐसे कार्य करने के उपदेश बौद्ध ग्रंथ ‘संयुक्त निकाय’ में दिया गया है। संभवतः इसी से प्रभावित होकर अशोक ने विभिन्न स्थानों व शिलाओं तथा स्तंभों पर निर्देशों, उपदेशों व सिद्धांतों को उत्कीर्ण करवाया । ये लेख अशोक के विशाल साम्राज्य के कोने-कोने में फैले थे ।
- अशोक के छठे स्तंभ लेख से ज्ञात होता है कि अशोक ने अपने धर्मलेख अपने राज्याभिषेक (269 ई० पू० ) के बारह वर्ष बाद ( लगभग 257 ई० पू० से ) लिखवाना शुरू किया था ।
- इन धर्म लेखों का उद्देश्य यह था कि पाषाणों पर खुदे होने से वे लेख चिरस्थायी होंगे तथा उसके परवर्ती पुत्र-पौत्र अपने भौतिक एवं नैतिक लाभ हेतु उनका अनुसरण करेंगे ।
- इन लेखों की भाषा संस्कृत न होकर पालि थी जो इस काल में आम लोगों की भाषा थी । इससे धर्म काफी लोकप्रिय हुआ ।
- अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों व प्रचारकों को विदेशों में भेजा ।
- अपने दूसरे तथा 13वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया है जहां उसने दूत भेजे थे। इनमें दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पांड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्त एवं ताम्रपर्णि (लंका) के नाम वर्णित हैं ।
- तेरहवें शिलालेख में पाँच यवन राजाओं ( 1 ) अन्तियोक (सीरियाई नरेश ) ( 2 ) तुरमय (मित्री नरेश ) (3) अन्तिकिनि (मेसीडोनियन राजा ) ( 4 ) मग (सिरिन ) तथा (5) अलिकसुन्दर (एपिरस) के नाम मिलते हैं, जिनके राज्यों में उसके धर्म प्रचारक गये थे ।
- अन्तियोक पश्चिम एशिया (सीरिया) का राजा एन्टियोकस थियस ( ई० पू० 261-246 ) तथा तुरमय मिस्र का शासक टॉलेमी फिलाडेल्फस ( ई० पू० 285-247 ) था । ।
- अन्तिकिन को मेसीडोनिया का एन्टिगोनस गोनाटस ( ई० पू० 277-239) माना जाता है ।
- मग से तात्पर्य उत्तरी अफ्रीका में साइरीनी का नरेश मगस ( ई० पू० 282-258) से है ।
- अलिकसुन्दर को कुछ विद्वान एपिरस या इपाइरस का राजा एलेक्जेंडर ( ई० पू० 278-255) तथा कुछ विद्वान इसे कारिन्थ का राजा अलैग्जेण्डर ( ई० पू० 252-244 ) मानते हैं ।
- इसी शिलालेख में वह बताता है कि “जहाँ देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुँचे वहाँ के लोग भी धर्मानुशासन, धर्म विधान तथा धर्म प्रचार की प्रसिद्धि सुनकर उनका अनुसरण करते हैं ।” ऐसे स्थानों से तात्पर्य चीन एवं बर्मा से है ।
- लंका में बौद्ध धर्म प्रचारकों को विशेष सफलता मिली। अशोक के पुत्र महेन्द्र ने वहाँ के शासक तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर लिया तथा तिस्स ने संभवतः इसे राजधर्म बना लिया और स्वयं अशोक का अनुकरण करते हुए उसने भी ‘देवानाम् प्रिय’ की उपाधि ग्रहण कर ली ।
अशोक का धम्म
- ‘धम्म’ प्राकृत भाषा का शब्द है तथा संस्कृत शब्द ‘धर्म’ का पर्यायवाची है ।
- अशोक द्वारा प्रतिपादित ‘धम्म’ का वर्णन अशोक के दूसरे तथा सातवें स्तम्भ लेख में मिलता है । > ‘धम्म’ का वर्णन बौद्ध ग्रंथ ‘सिगालोवादसुत्त’ में भी मिलता है ।
- अशोक ने मनुष्य की नैतिक उन्नति के लिए जिन आदर्शों का प्रतिपादन किया, उन्हें ‘धम्म’ कहा गया । अशोक ने ‘विहार यात्राओं’ की जगह पर धर्म यात्राओं की शुरुआत की ।
अशोक की विदेश नीति
- अशोक की धम्म नीति ने उसकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया तथा उसने अपने पड़ोसियों के साथ शांति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धांतों के आधार पर अपने संबंध स्थापित किये ।
- उसने साम्राज्यों के पश्चिम एवं दक्षिणी सीमा पर स्थित राज्यों के साथ राजनयिक एवं मैत्री संबंध स्थापित किये।
- मिस्री नरेश टालेमी फिलाडेल्फस, जो अशोक का समकालीन था, ने उसके दरबार में अपना राजदूत भेजा था ।
- उसने पाँच यवन राज्यों में अपने धर्म प्रचारक भेजे थे। इनका मुख्य उद्देश्य सम्राट की धम्म नीति के बारे में वहाँ के लोगों को बताना था ।
- अपने दूसरे शिलालेख में अशोक बताता है कि उसने यवन राज्यों में मनुष्य तथा पशुओं के लिए अलग-अलग चिकित्सा की व्यवस्था करायी थी ।
- उसने दक्षिण सीमा पर स्थित चार तमिल राज्यों चोल, पांड्य, सतियपुत्त तथा केरलपुत्त एवं ताम्रपर्ण में भी अपने धर्म प्रचारक भेजे थे ।
- अशोक अपने पड़ोसी राज्यों के साथ शांति, सहिष्णुता एवं बंधुत्व के आधार पर मधुर संबंध बनाये रखने को उत्सुक था ।
- अपने आखिरी दिनों में सम्राट अशोक बौद्ध ग्रंथों (दिव्यावदान) के अनुसार अशोक का शासनकाल जितना ही गौरवशाली था उसका अंत उतना ही दुखद रहा।
- अपने आखिरी दिनों में अशोक राजकीय कोप से बड़े पैमाने पर धन बौद्ध संघों को देने लगा, जिसका आमात्यों ने विरोध किया।
- एक बार जब वह कुक्कुटाराम बिहार की कोई बड़ा उपहार देने वाला था तो उसके आमान्यों ने राजकुमार सम्प्रति को उसके खिलाफ भड़काया। सम्प्रति ने पांडागारिक को सम्राट की आज्ञानुसार कोई भी धनराशि संघ की नहीं देने का आदेश दिया।
- सम्राट के निर्वाह हेतु दी जाने वाली धनराशि में भी भारी कटौती कर दी गयी तथा अंततः उसके निर्वाह के लिए केवल आधा आंवला दिया जाने लगा।
- अशोक का प्रशासन के ऊपर वास्तविक नियंत्रण नहीं रहा तथा अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में इस महान सम्राट का अंत हुआ। तिब्बती लेखक तारानाथ और चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी कुछ कुछ संशोधन के साथ इस मत का समर्थन किया है।
- कुछ दन्तकथाओं के अनुसार अशोक ने संभवतः 269 ई० पू० के लगभग अपने राज्याभिषेक की तिथि से लेकर कुल 37 वर्षों तक शासन किया।
- अशोक (273-232 ई० पू०) मौर्यवंश का महानतम शासक था।
- उसके शासन काल में 250 ई० पू० में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ।
- उसने बौद्ध धर्म से संबंधित तीर्थों की यात्रा की।
- बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु उसने श्रीलंका, नेपाल, बर्मा (म्यान्मार) एवं अन्य देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु प्रतिनिधिमंडल भेजे। इस क्रम में भारतीय संस्कृति का प्रसार भी विदेशों में हुआ । अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को उसने श्रीलंका भेजा ।
- अशोक ने जनकल्याण की नीति अपनायी । उसने विभिन्न वर्गों को आर्थिक अनुदान देने और सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ‘धम्म- महामात्रों की नियुक्ति की ।
- न्याय प्रशासन सुव्यवस्थित रखने के लिए ‘राजुक’ नामक अधिकारी बहाल किये।
- उसने पशु वध पर रोक लगायी, धम्म की नीति का प्रतिपादन कर समाज में शांति, सद्भाव तथा सहिष्णुता पर बल दिया और व्यक्ति के जीवन में उच्च नैतिक आदर्शों के विकास को प्रोत्साहन दिया ।
- इस प्रकार अशोक ने सर्वप्रथम एक कल्याणकारी राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया और समस्त
- प्रजा के बीच सद्भाव और सदाचार को बढ़ावा दिया।
- शांति, अहिंसा, मैत्रीपूर्ण विदेश संबंध आदि जैसे सिद्धान्तों को अपनी प्रशासनिक नीतियों में अग्रिम स्थान देकर अशोक ने एक महान शासक के रूप में इतिहास में अपनी छवि बनाई।
- कुछ इतिहासकारों ने अशोक की आलोचना इस आधार पर की है कि उसकी नीति से मौर्य साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हुआ ।
- इन विद्वानों के अनुसार अशोक की शांतिप्रिय नीति ने साम्राज्य के सैन्यबल को नष्ट कर दिया, जबकि बौद्ध धर्म के प्रति उसके झुकाव ने ब्राह्मणों को रुष्ट कर दिया। ये दोनों कारण मौर्य साम्राज्य के पतन में सहायक हुए।
- परन्तु मौर्य साम्राज्य के पतन के कुछ अन्य कारण भी थे। वस्तुतः अशोक के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता, केन्द्रीय प्रशासन की कमजोरी, प्रांतपतियों के अत्याचार और इनके विरुद्ध विद्रोह, हिन्द-यूनानी शासकों के आक्रमण, साम्राज्य की विशालता आदि के कारण साम्राज्य का पतन अशोक की मृत्यु के बाद होने लगा ।
- 184 ई० पू० में अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने राजसत्ता पर अधिकार कर लिया ।
अशोक के अभिलेख
- सम्राट अशोक के अब तक 40 से भी अधिक अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।
- ये अभिलेख उसकी साम्राज्य सीमा के निर्धारण के साथ-साथ उसके धर्म एवं प्रशासन संबंधी महत्वपूर्ण बातों की जानकारी देने में काफी मदद करते हैं।
- गुर्जरा का लघु शिलालेख और मास्की का लघु शिलालेख केवल ये दो ऐसे धर्मलेख हैं जिनमें
- अशोक का नाम पाया जाता है।
- अशोक के अभिलेखों का विभाजन तीन वर्गों में किया जा सकता है-
- शिलालेख,
- 2. स्तंभ लेख एवं
- 3. गुहा लेख ।
शिलालेख और अभिलेख
- अशोक के ‘चतुर्दश शिलालेख’ के नाम से प्रसिद्ध ये शिलालेख 14 विभिन्न लेखों का एक समूह है जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं
- शाहबाजगढ़ी (पेशावर, पाकिस्तान में स्थित ), ( खरोष्ठी लिपि में),
- मानसेहरा ( हजारा, पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित ), ( खरोष्ठी लिपि में),
- कालसी (देहरादून, पश्चिमी उत्तराखण्ड में स्थित ), ( ब्राह्मी लिपि में),
- गिरनार ( काठियावाड़, गुजरात में जूनागढ़ के समीप स्थित ), (ब्राह्मी लिपि में), 5. धौली ( उड़ीसा के पुरी जिले में स्थित ), ( ब्राह्मी लिपि में),
- जौगढ़ (उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित ), (
- ब्राह्मी लिपि में),
- येर्रागुडी (आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित ), ( ब्राह्मी लिपि में) तथा
- सोपारा (महाराष्ट्र के थाना या ठाणे जिले में स्थित ), ( ब्राह्मी लिपि में) ।
लघु शिलालेख
- ये शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं हैं और इसलिए इन्हें ‘लघु शिलालेख’ कहा गया है । ये निम्नलिखित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-
- रूपनाथ (मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित ),
- गुर्जरा (मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित ), 3. सासाराम (बिहार),
- भानू (वैराट, राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित ), 5. मास्की (कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित ),
- ब्रह्मगिरि ( कर्नाटक के चितलदुर्ग जिले में स्थित ),
- सिद्धपुर ( ब्रह्मगिरि से एक मील पश्चिम में स्थित ),
- जटिगरामेश्वर ( ब्रह्मगिरी से तीन मील उत्तर-पश्चिम में स्थित),
- येर्रागुडी (आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित),
- गवीमठ ( मैसूर के कापबल नामक स्थान के समीप कर्नाटक में स्थित ),
- पालकी गुण्डू (गवीमठ से चार मील की दूरी पर कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित ),
- राजुल मंडगिरि ( आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित ),
- अहरोड़ा ( उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित ) ।
- सारो मारो (शहडोल, मध्य प्रदेश), पनगुडरिया ( सिहोर, मध्य प्रदेश) तथा नेत्तुर नामक स्थानों से लघु शिलालेख की दो अन्य प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं।
- एक अन्य लेख उडेगोलम् (बेल्लारी, कर्नाटक) से मिला है। पनगुडरिया ( सिहोर, मध्य प्रदेश) से अशोक का लघु शिलालेख के० डी० वाजपेयी को मिला है।
- कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में स्थित सन्नाती नामक स्थान से अशोक कालीन शिलालेख प्राप्त किया गया है, जिसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कर्मचारियों ने जनवरी 1989 में खोजा था ।
स्तम्भ लेख
- अशोक ‘सप्त स्तम्भलेख’ के अंतर्गत लेखों की संख्या हालांकि सात है, परंतु ये छह भिन्न-भिन्न स्थानों में पाषाण – स्तंभों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। ये हैं-
- दिल्ली-टोपरा : यह प्रारम्भ में अम्बाला और सिसवा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (खिजाबाद) जिले में स्थापित था, जिसे फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं, जबकि शेष स्तम्भों पर केवल छह लेख ही उत्कीर्ण मिलते हैं ।
- 2. दिल्ली मेरठ : यह पहले मेरठ (उत्तर प्रदेश) में था तथा बाद में फिरोज शाह तुगलक द्वारा इसे दिल्ली में लाया गया ।
- लौरिया अरेराज : यह स्तंभ लेख बिहार के प० चम्पारण जिले में राधिया के पास लौरिया अरेराज में स्थित 1
- लौरिया नंदनगढ़ : यह बिहार के प० चम्पारण जिले में मठिया के पास लौरिया-नंदनगढ़ में है ।
- रामपुरवा : यह स्तम्भलेख भी चम्पारण, बिहार में पाया गया है।
- प्रयाग : यह पहले कौशाम्बी (वर्तमान कोसम) में था जिसे बाद में अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया ।
लघु स्तम्भ लेख
- अशोक के राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें साधारण तौर से ‘लघु स्तम्भलेख’ कहा जाता है । ये निम्नलिखित स्थानों से मिलते हैं-
- सांची ( रायसेन जिला, मध्य प्रदेश),
- सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश),
- कौशाम्बी (इलाहाबाद के समीप कोसम, उत्तर प्रदेश),
- रुम्मिनदेई (नेपाल की तराई में परारिया ग्राम के समीप),
- निग्लीव ( निगली सागर नामक बड़े सरोवर के तट पर, नेपाल की तराई में रूम्मिनदेई से लगभग 13 मील पश्चिमोत्तर में स्थित ) |
- कौशाम्बी के लघु स्तम्भ लेख में अशोक अपने महामात्रों को संघ-भेद रोकने का आदेश देता है ।
- कौशाम्बी तथा प्रयाग के स्तम्भों में अशोक की रानी करुवाकी ( या कौरवाकी) द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख है । इसे ‘रानी का अभिलेख’ भी कहा गया है।
- रूम्मिनदेई स्तम्भ लेख में अशोक द्वारा इस स्थान की धर्म यात्रा पर जाने का विवरण है ।
- निग्लीव के लेख में कनकमुनि के स्तूप के संवर्द्धन की चर्चा हुई है ।
शिलालेखों – अभिलेखों में उत्कीर्ण महत्वपूर्ण बातें
- धौली तथा जौगढ़ के शिलालेखों पर 11वें, 12वें तथा 13वें शिलालेख उत्कीर्ण नहीं किये गये हैं, बल्कि दो अन्य लेख खुदे हुए हैं, जिन्हें ‘पृथक् कलिंग – प्रज्ञापन’ कहा गया है ।
- धौली तथा जीगढ़ के अभिलेखों में लिखा है- “सभी मनुष्य मेरी संतान हैं।
- गिरनार लेख से पता चलता है कि अशोक ने मनुष्यों तथा पशुओं के लिए अलग-अलग चिकित्सालयों की स्थापना करवायी थी ।
- कंधार अभिलेख उसके प्रभाव से बहेलियों और मछुआरों ने जीव-हिंसा त्याग दी ।
- रुम्मिनदेई अभिलेख एकमात्र अभिलेख, जिसमें कराधान की चर्चा है। अभिषेक के बीसवें वर्ष में अशोक द्वारा लुम्बिनी की यात्रा और वहाँ का भूमिकर घटाकर 1/8 कर दिया गया ।
- डी. आर. भंडारकर ने केवल अभिलेखों के आधार पर अशोक का इतिहास लिखा ।
- अशोक के प्रायः सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं । परंतु शाहबाजगढ़ी तथा मानसेहरा अभिलेख की लिपि खरोष्ठी है, जबकि तक्षशिला तथा लघमान से प्राप्त अभिलेख अरामेइक लिपि में लिखे गये हैं ।
- कंधार के पास ‘शरे-कुना’ नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख यूनानी तथा अरामाइक लिपि में है ।
- मास्की, गुर्जरा, नेत्तुर तथा उडेगोलम् के लेखों में अशोक का नाम मिलता है ।
- इलाहाबाद स्तम्भ लेख पर अशोक के अतिरिक्त समुद्रगुप्त तथा अकबर के दरबारी बीरबल के भी लेख मिलते हैं।
- भाब्रू शिलालेख में अशोक ने बौद्ध त्रिरत्नों में विश्वास प्रकट किया है एवं इसी में अशोक के धम्म का उल्लेख भी मिलता है।
- कलिंग युद्ध का वर्णन अशोक के 13वें शिलालेख में किया गया है।
- अशोक के स्तंभों में उकेरित (उत्कीर्ण) प्रमुख आकृतियां :
- बसाद स्तम्भ : सिंह
- संकिसा हाथी
- रामपुरवा सांड (नटुवा बैल)
- लौरिया नंदनगढ़ : सिंह
- सांची : चार सिंह
- सारनाथ : चार सिंह
- सारनाथ स्तंभ पर गज, अश्य, बैल तथा सिंह की आकृतियां उत्कीर्ण हैं ।
- ब्राह्मी लिपि बायें से दायें और खरोष्ठी लिपि दायें से बायें लिखी जाती थी। परन्तु अशोक के एर्रगुडी (येर्रागुडी ) शिलालेख में ब्राह्मी लिपि दायें से बायें लिखी हुई है।
- पाँचवें स्तंभ लेख में अशोक विभिन्न जानवरों के वध करने, जंगल जलाने, एक जीव दूसरे जीव को खिलाने, कुछ निश्चित दिनों में मछली मारने, जानवरों का बधिया करने, पशुओं और घोड़ों को दागने पर प्रतिबंध लगाता है। इसी लेख में उल्लेख है कि राज्याभिषेक के समय से 26 वर्षों तक 25 बार कैदियों को रिहा किया गया है।
- अशोक का सबसे लंबा स्तम्भ लेख उसका सातवां लेख है । उसका सबसे छोटा स्तम्भ लेख रुम्मिनदेई में स्थित है ।
- अशोक सांची, सारनाथ और कौशाम्बी के अपने लघु स्तम्भ लेखों में अपने महामात्रों को संघभेद रोकने का आदेश देता है ।
- भाब्रू अभिलेख वस्त्रोफेदन तरीके से लिखा गया है तथा इसमें अशोक ने स्वयं को मगध का राजा (प्रियदर्शी राजा मागधे) कहा है ।
- भाब्रू शिलालेख एकमात्र अभिलेख है जो पत्थर की पट्टियों पर खुदा हुआ है।
- अशोक के अभिलेखों में उसकी रानी कारुवाकी तथा पुत्र तीवर का उल्लेख है ।
- अशोक के द्वारा अकाल के समय किये गये उपायों का महास्थान तथा सोहगौरा अभिलेख में वर्णन है ।
- अशोक के अभिलेखों की भाषा संस्कृत न होकर पाली थी और यह उस समय आम जनता की भाषा थी ।
- अशोक के प्रांतों की राजधानी का उल्लेख धौली तथा गौड़ के शिलालेखों में मिलता है।
शिलालेख विषय
- पहला – जानवरों के मारने और निरर्थक उत्सवों पर प्रतिबंध । प्रतिदिन केवल दो मोर और एक हिरण शाही रसोई के लिए मारे जाने का आदेश ।
- दूसरा -चिकित्सकीय मिशन सभी दिशाओं में भेजे गये, वृक्ष लगाये गये, सड़कों का निर्माण करवाया गया और कुएं खोदे गये ।
- तीसरा – युक्त, राज्जुक और प्रादेशिकों को प्रत्येक पांचवें साल राज्य में निरीक्षाटन के लिए जाने का आदेश तथा धम्म के प्रसार के कार्य में हाथ बटाने का आदेश । ब्राह्मणों के प्रति दया और मित्र तथा माता-पिता का आदर करना ।
- चौथा – भेरी घोष का स्थान धम्म घोष द्वारा लिया गया ।
- पाँचवां – शासन के 13वें वर्ष में धम्ममहामात्रों की नियुक्ति ।
- छठा – वह हर समय, कहीं भी और किसी भी मामले के जल्दी निपटारे के लिए उपलब्ध ।
- सातवां – सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता का आह्वान |
- आठवां – धम्म यात्राओं का वर्णन, अशोक द्वारा बोधगया की यात्रा ।
- नौवां -धम्म के अलावा सभी रीतियां व्यर्थ हैं। धम्म में दासों और नौकरों के प्रति आदर है ।
- दसवां – वह प्रसिद्धि का आकांक्षी नहीं है, लोग सिर्फ धम्म का पालन करें ।
- ग्यारहवां – दान पर बल ।
- बारहवां – अशोक द्वारा धर्म की सार- बुद्धि पर जोर ।
- तेरहवां – कलिंग पर विजय, एक लाख मरे और इससे कई गुना लोगों का जीवन तबाह हुआ । टॉलमी, एंटिगोनस, मागा, एंटियोकस, चोल, चेर, पाण्ड्य, कम्बोज, गांधार का उल्लेख । अरब जाति का भी उल्लेख ।
- चौदहवां – प्रजा के प्रति पितृवत् प्रेम करना ।
गुहा – लेख
- दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित ‘बराबर पहाड़ी’ की तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण मिले हैं, जिनमें अशोक द्वारा आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के निवास के लिए गुहा – दान दिये जाने का विवरण है ।
- ये सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं ।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
- सम्राट अशोक की मृत्यु (232 ई० पू०) के पश्चात् लगभग तीन सदियों से चले आ रहे शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा और अंततः 184 ई० पू० के लगभग इस साम्राज्य का अंत हो गया ।
- मौर्य वंश के अंतिम सम्राट वृहद्रथ की हत्या ( 184 ई०पू० ) उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी और इस प्रकार मौर्य साम्राज्य का अवसान हो गया ।
- मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण थे-
- अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी, 2. प्रशासन का अत्यधिक केंद्रीकरण, 3. राष्ट्रीय चेतना का अभाव, 4. आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ, 5. प्रांतीय शासकों के अत्याचार, 6. करों की अधिकता आदि ।
- रोमिला थापर सदृश प्रख्यात इतिहासकार ने प्रशासन के संगठन तथा राज्य अथवा राष्ट्र की अवधारणा को ही मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है ।
मौर्यकालीन कला और संस्कृति
- मौर्यकाल में कला और साहित्य के क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई ।
- मौर्यकाल में कौटिल्य एक बहुआयामी प्रतिभा वाला विद्वान था, जिसकी रचना अर्थशास्त्र एक कालजयी कृति है ।
- सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य पाणिनि की रचना अष्टाध्यायी इस काल की अन्य महत्वपूर्ण कृति है ।
- मीमांसा और वेदांत पर टिप्पणियाँ लिखनेवाला उपावर्श और चिकित्साशास्त्री चरक इस काल के अन्य महान विभूति थे ।
- इस काल में स्थापत्य कला उन्नत अवस्था में थी । मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर की सुंदरता का वर्णन किया है ।
- पटना के कुम्हरार में मौर्यकालीन राजप्रासाद के जो अवशेष मिले हैं उनमें एकाश्म गोलाकार स्तंभ अपनी कलात्मक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है ।
- मौर्यकालीन वास्तुकला शैली ईरानी कला से प्रभावित थी । इसी शैली के ऊँचे और भव्य स्तंभ अशोक द्वारा अपने अभिलेखों के प्रचार हेतु भी बनवाये गये ।
- पत्थर को चमकाने की कला इस काल में अत्यंत उन्नत अवस्था में थी । इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण पटना सिटी के दीदारगंज मुहल्ले से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति है ।
- राजगीर की सोनभंडार गुफाएँ और गया के समीप बराबर पहाड़ियों की गुफाएँ भी मौर्यकालीन स्थापत्य के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इन गुफाओं में बौद्ध भिक्षु विश्राम करते थे।
- मौर्यकालीन प्रमुख मूर्तियां — मणिभद्रयक्ष ग्वालियर से, दो स्त्रियां बेसनगर से, यक्ष मथुरा (परखम गांव) से तथा यक्षिणी दीदारगंज से प्राप्त हुई हैं ।
- अशोक मौर्य वंश का प्रथम ऐसा शासक था, जिसने अभिलेखों के माध्यम से अपनी प्रजा को संबोधित किया, जिसकी प्रेरणा उसे ईरानी राजा दारा प्रथम (डेरियस) से मिली थी ।
- अभिलेखों में अशोक को ‘देवानामपिय’ और ‘देवनामपियदस्सी’ उपाधियों से विभूषित किया गया है ।
- अशोक स्तम्भों की खोज सबसे पहले 1750 ई० में श्री पाद्रेटी फेन्थैला ने की थी, जबकि
- इनके अभिलेखों को पढ़ने में पहली बार सफलता जेम्स प्रिंसेप को 1837 ई. में प्राप्त हुई । मौर्यकालीन प्रशासन
- कौटिल्य ने राज्य के सात अंग निर्दिष्ट किये थे— राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, सेना, और मित्र ।
- कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’ में केन्द्रीय प्रशासन के लिए 18 विभागों का उल्लेख मिलता है, जिसे तीर्थ’ कहा गया है।
- तीर्थों के अध्यक्ष को ‘महामात्र’ कहा गया । सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ थे – मंत्री, पुरोहित, सेनापति और युवराज ।
मौर्यकाल के प्रमुख विभागाध्यक्ष
- मौर्य प्रशासन में विभिन्न विभागों की देख-रेख के लिए 29 अध्यक्ष नियुक्त किये गये थे, जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है ।
- सीताध्यक्ष – राजा के अधिकार वाले कृषि भू-भाग का अध्यक्ष
- पण्याध्यक्ष – वाणिज्य अधीक्षक
- पौतवाध्यक्ष – माप-तौल अधीक्षक
- शुल्काध्यक्ष – मार्गकर अधीक्षक
- नावाध्यक्ष – नौका अधीक्षक
- संस्थाध्यक्ष – बाजार अधीक्षक
- सुराध्यक्ष – मदिरा / मद्य अधीक्षक
- सीताध्यक्ष – राजा के अधिकार वाले कृषि भू-भाग का अध्यक्ष
- आकराध्यक्ष – खान अधीक्षक
- लोहाध्यक्ष – लोहा (खनिज) अधीक्षक
- नमकाध्यक्ष – नमक अधीक्षक
- सूत्राध्यक्ष – राज्य के व्यवसायों का अध्यक्ष
- गणिकाध्यक्ष – वेश्याओं का अध्यक्ष
- लक्षणाध्यक्ष – मुद्रा नीति पर नियंत्रण रखने वाला
- एग्रोनोमोई – जिले का अधिकारी
- एरिस्टनोमोई – नगर का अधिकारी
- प्रतिवेदित – सम्राट को सूचना देने वाला अधिकारी
- रूपदर्शक – मुद्राओं का परीक्षण करने वाला तथा आय-व्यय का लेखा रखने वाला
- बिवीताध्यक्ष – चरागाह क्षेत्र का अधिकारी
- इतिझक महामात्र – नारियों का अध्यक्ष
- मौर्यकालीन प्रांत मंडलों में, मंडल जिलों में तथा जिले स्थानीय निकायों में बंटे हुए थे ।
- जिले का प्रशासनिक अधिकारी ‘स्थानिक’ होता था, जो समाहर्ता के अधीन था । प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘गोप’ थी, जो 10 गांवों का शासन संभालती थी ।
मौर्य साम्राज्य के प्रांत | ||
प्रांत | वर्तमान स्थिति | राजधानी |
उत्तरापथ | पाकिस्तान | तक्षशिला |
प्राच्य या मध्य देश | बिहार | पाटलिपुत्र |
अवंति | मध्य प्रदेश | उज्जयिनी |
कलिंग | दक्षिण उड़ीसा | तोशाली |
दक्षिणापथ | आंध्र प्रदेश | सुवर्णगिरि |
- नगर का शासन प्रबंध 30 सदस्यों का एक मंडल करता था, जो 6 समितियों में बंटा था । प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे । इन समितियों के कार्य निम्नवत् थे-
- प्रथम समिति : उद्योग शिल्पों का निरीक्षण
- द्वितीय समिति : विदेशियों की देख-रेख
- तृतीय समिति : जन्म एवं मरण का लेखा-जोखा
- चतुर्थ समिति : व्यापार व वाणिज्य
- पंचम समिति : निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण
- षष्ठम् समिति : विक्रय मूल्य का 10वां भाग बिक्री कर के रूप में वसूलना ।
- सैन्य विभाग 6 समितियों (प्रत्येक में 5 सदस्य ) में विभक्त था । ये समितियाँ थीं— पैदल, अश्व, हाथी, रथ, नौसेना तथा सैनिक यातायात ।
- सैनिक प्रबंध की देख-रेख करने वाला अधिकारी ‘अंतपाल’ कहलाता था ।
- सम्राट स्वयं न्याय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था ।
- निचले स्तर पर ग्राम न्यायालय थे । इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय और जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। सबसे ऊपर पाटलिपुत्र का केन्द्रीय न्यायालय था ।
- सभी न्यायालय दो प्रकार के होते थे— धर्मस्थीय एवं कंटकशोधन ।
- धर्मस्थीय न्यायालय दीवानी अदालतें थीं, जबकि कंटकशोधन अदालतें फौजदारी अदालतें होती थीं ।
- ‘अर्थशास्त्र’ का संपूर्ण चौथा अध्याय कंटकशोधन अदालत विषय पर लिखा गया है।
- मेगास्थनीज ने कहा है—’ भारतीयों के पास कोई लिखित कानून नहीं है’ ।
- मौर्यकाल में पहली बार राजस्व प्रणाली की रूपरेखा तैयार की गयी। राज्य अपने पूर्ण आधिपत्य वाले उद्योग का संचालन भी स्वयं करता था जैसे- खान, नमक, अस्त्र-शस्त्र का व्यवसाय आदि ।
- राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और व्यापार पर आधारित थी । इन्हें सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा जाता था।
- स्वाम्य’ से भूमि पर व्यक्ति का अधिकार सिद्ध होता था और उसे भूमि क्रय-विक्रय का अधिकार मिल जाता था ।
- लोग जब स्वयं सिक्के बनवाते थे, तो उन्हें राज्य को 1311⁄2 प्रतिशत ब्याज ‘रूपिका’ और ‘परीक्षण’ के रूप में देना होता था ।
- मौर्यकाल में चांदी की आहत मुद्राएं प्रचलित थीं। इन पर मयूर, पर्वत और अर्द्धचन्द्र की मुहर अंकित होती थी ।
- निजी खेती करने पर राजा को उपज का 1/6 भाग दिया जाता था । ‘बलि’ भी एक प्रकार का भू-राजस्व था, जबकि ‘हिरण्य’ नामक कर अनाज के रूप में न होकर नगद लिया जाता था।
- वणिक कर, नाव व पत्तन कर, चारागाहों व सड़कों पर कर तथा अन्य साधनों से प्राप्त
- राजस्व को ‘राष्ट्र’ के नाम से जाना जाता था ।
- राजकीय भूमि की व्यवस्था ‘सीताध्यक्ष’ नामक अधिकारी करता था, जिससे होने वाली आय ‘सीता’ कहलाती थी ।
- भू-स्वामी को ‘क्षेत्रक’ और काश्तकार को ‘उपवास’ कहा जाता था ।
- राज्य की ओर से सिंचाई का प्रबन्ध करना ‘सेतुबंध’ कहलाता था । सिंचाई हेतु अलग से उपज का 1/5 से 1/3 भाग कर के रूप में लिया जाता था ।
- ‘पिण्डकर’ पूरे गांव से एक बार वसूल किया जाता था। जबकि ‘बिवीत’ पशुओं की रक्षा के लिए लिया जाता था । मौर्यकाल में निःशुल्क श्रम अर्थात् बेगार को ‘विष्टि’ कहा जाता था ।
- माप-तौल का निरीक्षण प्रत्येक चौथे महीने किया जाता था और कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था । देशी वस्तुओं पर 4 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था तथा आयातित वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था ।
- लगभग 40 वर्षों के शासन के बाद 232 ई० पू० में अशोक की मृत्यु हो गयी । उसके बाद के 50 वर्षों तक उसके उत्तराधिकारियों का कमजोर शासन चलता रहा ।
- अशोक के बाद उसका पुत्र कुणाल मगध का शासक बना, जिसे ‘दिव्यावदान’ में ‘धर्मविवर्धन’ कहा गया है। उस समय ‘जलीक’ कश्मीर का शासक था । अशोक का ही पुत्र ‘वीरसेन’ गांधार का स्वतंत्र शासक बन गया था।
- कुणाल के अंधे होने के कारण मगध का शासन उसके पुत्र ‘सम्प्रति’ के हाथ में आ गया या । कुणाल के पुत्र ‘दशरथ’ ने भी मगध पर शासन किया। अशोक ने नागार्जुनी गुफाएँ आजीवकों को दान दे दिया था ।