Geeta Chapter 1
Chapter 18:
श्लोक 1
अर्जुन उवाच |
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन || 18.1 ||
अर्जुन बोले:
हे महाबाहो (बलशाली कृष्ण), मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व (सच्चा अर्थ) जानना चाहता हूँ, और यह भी कि हे हृषीकेश (इंद्रियों के स्वामी), हे केशव (केशी राक्षस का संहार करने वाले), इनमें क्या अंतर है।
भावार्थ:
इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि संन्यास (संपूर्ण रूप से कर्मों का त्याग) और त्याग (कर्मों के फलों का त्याग) में क्या अंतर है। वह इन दोनों अवधारणाओं के गहरे अर्थ को समझना चाहते हैं।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच |
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः || 18.2 ||
श्री भगवान ने कहा:
ज्ञानी लोग (विद्वान) कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग करना संन्यास मानते हैं, और बुद्धिमान लोग (विचक्षण) सभी कर्मों के फल का त्याग करना त्याग कहते हैं।
श्लोक का भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि विद्वानों के अनुसार संन्यास का अर्थ है उन कर्मों को त्यागना जो विशेष इच्छाओं (कामनाओं) की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। वहीं, ज्ञानी जन त्याग का अर्थ यह मानते हैं कि व्यक्ति को अपने सभी कर्मों के फल (परिणाम) का त्याग करना चाहिए, यानी कर्म तो करना है, लेकिन उसके फल से आसक्त नहीं होना चाहिए।
इस श्लोक में भगवान कर्म और उसके फल के बीच के संबंध और उन्हें छोड़ने के तरीके को स्पष्ट कर रहे हैं।